हेत हु की न करो तुम हांसी – प्रबीन सागर से सवैया

सागर रावरे कागद को इत ज्योंज्यो लगे अरहंट फरेबो।
त्यौं त्यों हमे अखियान अहोनिश बार की धार धरी ज्यौं ढरैबो।
ज्यों ज्यों प्रवाह बहै अँसुवानको त्यों त्यों व्रिहा हिय हौज भरैबो।
ज्यों ज्यों सुरंज सनेह चढै मधि त्यों त्यों जिया निंबुवा उछरेगो।।१
सागर सिंधु सनेह को नाउ पर्यो रस भौर कर्यो तँह घेरो।
देखत है जित ही तित ही जल झार पहार पुलीन न हेरो।
काम कमान चढाय इते पर चोट चलावत आवत नेरो।
ऊडत बूडत बैठत बेधत काग कुवाको भयो मन मेरो।।२
सायत सोधत है मिलबो पढबो गुन पंडित मैन अखारें।
धोंस निशा जुज पत्र घरी बिरहान के अंक हमेश बिचारें।
नैनन के जल कुंभ भरे धुनि ध्यान बिधानकि टेक सुधारें।
प्रेम को जंत्र नली सुरता मधि, सागर मिंत नछत्र निहारें।।३
ऐयत बैयत बार द्रगें अरहंट ज्यों बोरत ढारते गागर।
रोवत जोवत राह दसो दिश, देखत लेखत रावरे कागर।
झूरत सूरत को न बिलोकत कंपत झंप सहेलिय लागर।
हेर निसांन निदांन निबेरहु, व्याधि सधें क्यों असाधि ए सागर।।४
मिंत बिचार करो चित में यह कैसे भयो है हमें इत ऐैबो।
एक हु नेक दिनां चत्र पंच में, अंत परेगों उतें फिरिजैबो।
जाननहार अजांन भये कहे, ज्यों त्यों करो इकबेर मिलैबो।
आज त्रपा न उलंघो प्रबीन पें पाछै दुहून घनों पछितैबो।।५
कीजै बिचार कहा मिलबे महि, कामरि भार बनें अति भींजें।
भींज रहैमन एक हु रंग तिहि प्रति छेह कही पर दीजें।
दीजै नहीं दरसंन इति भये तो बिरही सु कहां लग जीजें।
जीजें सोई गिनती में नहीं दिन, मिंत प्रबीन महेर न कीजे।।६
बात न घात भई है इते पर घात अनंग रची क्यों निवारो।
अंबरलों धर ज्वाल उठी जर तापर पाय कहाँ निरधारो।
कोश पचासक पांच भये डग, पांच भये डग कोस हजारो।
याद न याद करो परबीन जू कौनहु पे फरियाद पुकारो।।७
आस्य बिलोकन आस हमें बिसवास बडो सु निराश धरो नां।
अमृत की जु भरी अँखियां उनही अँखियां विख बूंद भरो ना।
प्रान समान कियो है हमें वह बोत दिनां को सने बिसरो नां।
पौर खरे कर जोर अहोनिश, तासे प्रबीन मरोर करो नां।।८
नैनन नीरन को झरबो भरबो अति सास उदास उसासी।
बात कहा उरझी सुरझै न रहै मुरझाय बिदेस के बासी।
छूटहगी न छुटेबो करो कह कंठ परी है सनेह की फांसी।
मिंत प्रबीन भई सु भई अब हेत हुकी न करो तुम हांसी।।९
बात बिछोहन की तुम जानत ऐसो सवाद यहे सियरा।
ओसर नीठ न्यबो न बिसासहु बोत दिनां को लगो नियरा।
आप बडे न बिचारत हो मिलिबे को हमें तलफे जियरा।
मिंत प्रबीन महेर न आवत कैसे कठोर कियो हियरा।।१०
राम गये बनवास इते पर भाग गती सें सती संग तागे।
संकट भाग भयो नल राय इते पर भ्रांति दमंतिय लागे।
पांडव भाग बेहाल किये जु इते पर कैयन की गति जागे।
मिंत प्रबीन जु देस बिदेस हु, भाग चले है दुहू डग आगे।।११
मोतिन की सिकता जल शीतल, पंकज नील सिते पित आरन।
कंचन की तहलीर करी नवरंग जरी मनिबंध किनारन।
झार अठारहु भार प्रफुल्लित, बात त्रभेद झकोरत डारन।
हंस छुधातुर आतुर डोलत, मिंत प्रबीन कहो किहि कारन।।१२
है न निसान नसांन में जाहर, बेद कहांपरखे वपुरे।
लोग अजांन निदान निहारत, दांन विधांन विथा न हरे।
मंत्र न जंत्र न तंत्र न भेद, कितेइ करंत कछु न टरे।
सागर मिंत मिले न तबें लगि, कौनहु आय सहाय करे।।१३
नसों में(नाडी में)तो एक भी बिमारी के निशान जाहिर नहीं है। हे वैध तू क्यों व्यर्थ नाडी देख रहा है।लोग अभी तक इसका निदान नहीं ढूंढ पाए है। दान विधान भी इस व्यथा का हरण नहीं कर सकती। मंत्र,जंत्र तंत्र करने से भी यह बिमारी जा ही नही रही। जबतक रससागर मित्र नहीं आ मिलता तब कौन आकर सहायता कर सकता है।
काहे कों चंदन अंग लगावत, काहे कों नीर गुलाब को डारो।
काहे कों फूलन हार धरावत, काहे कों ले घनसार बिगारो।
काहे कों सीत बयार बिजोनत, ए न बिथा उपचार हमारो।
जंगम जोगी जती दुज बूझहु, हे कोउ मिंत मिलावन हारो।।१४
“कलाप्रबीन” नायिका बीमार है तो वह उसकी सखी से कहती है कि मुझे काहे को चंदन अंग पे लगा रही हो? शरीर पर गुलाब जल क्यों छिडक रही हो? क्यूं फूलों का हार पहिना रही हो? घनसार मल रही है? ठंठी पवन पंखा करके क्यों डाल रही है? यह एक भी उपाय हमारी बिमारी के उपचार नहीं है। ऐसा करो तुम कोई जंगम, जोगी, जती या द्विज को जाकर पूछो की है कोई जो मुझै मेरे मित्र रससागर से मिला दे।
खारो कियौ है पयोनिधि को पय, कारो कियो पिक सो अनुमानो।
कंटक डार गुलाब कियो अरू, चातक बारहि मास तृसानो।
पंक को अंक कियौ है मयंक में, आग कियो है चकोर को खानो।
सागर मिंत सबे परखा करि हंस पती हरवाहन जानो।।
चंचलता चख कोंन चमंकित,खोर झुकै बरूनी तिरछानी।
भोर कपोल लसे उससे रसकें ,चसकें ससकें मुसकानी।
रेख रदच्छद की झलकै,चलके रद रत्त रसा दरसानी।
कोकिल की कलकी हलकी हलकी,सुनी मिंत प्रबीन की बानी।।
~~प्रबीन सागर से सवैया