हूं कांई? होको तो खुद डोकरो खांचै!

मेवाड़ धरा रा राणा जितरा सूरमापणै में अजरेल उतरा ई उदारता में टणकेल। महाराणा प्रताप जिता वीरता रा पूजारी,उतरा ई कविता रा पारखी। आजादी री अलख रै उण आगीवाण महासूरमै माथै समकालीन मोकल़ै कवियां काव्य रचियो।

एक दिन राणा रो दरबार लागोड़ो हो। कूंट-कूंट रा कवेसर आप आपरी गिरा गरिमा री ओल़खाण दे रह्या हा। उणी बखत कानैजी सांदू ई आपरो एक गीत पढियो। गीत सुण’र महाराणा घणा राजी हुया अर इणांनै गोढवाड़ रो गांम मिरगेसर इनायत कियो-

गोढाण धरा वाल्ही गढे,
आछा अरहर गांम अत।
परताप राण तांबा-पतर,
दियो मिरगेसर गांम दत।।

कानैजी री वंश परंपरा में आगै जायर मिरगेसर में घणा कवेसर हुया जिणा़ं में सांदू हीरजी,राघोदास अर रायसिंहजी घणा चावा।

सांदू रायसिंहजी वीर, कवि अर भगत यानी तीनूं गुणां सूं अभिमंडित। इण कवि रो जनम वि.सं.1870 अर देवलोक 1935 में हुयो।

एक’र मिरगेसर रै गौरवैं सूं चोरां गायां रो धाड़ो कियो। ज्यूं ई रायसिंहजी नै इण बात रो ठाह लागो तो उणी बखत वै अर इणां रो चौधरी दीपोजी गायां री वाहर चढिया।

चोर घणा हा अर ऐ दो मिनख। तोई जोर राटक बाजी। चौधरी दीपोजी रै एक बाण आय अचाण छाती में लागो अर उण बाण रै घाव सूं उण वीर वीरगत पाई। रायसिंहजी आपरै कब्बाण सूं लगैटगै पचास चोरां नै मारिया अर आखिर चोरां रै तीरां सूं घायल हुय वै ई अचेत हुयग्या। चोर वांनै मरिया समझ’र उणां रै माथै भाठा चिण बुवा गया। जितै लारै मिरगेसर सूं घणा मिनख आया। उणां देखियो कै मैदान में दीपोजी री धड़ पड़ी है पण गायां अर रायसिंहजी रो कोई खुड़खोज ई नीं। जितै किणी नै भाठां री ढिगली नीचै एक पगथल़ी हिलती दीसी। उणां भाठा आगा लिया तो देखियो कै नीचै रायसिंहजी साव अचेत। घरै लाया। पाटा करण लागा। घाव पूरा भरीज्या ई नीं हा कै पाखती रै गांम सेवाड़ी में मराठां-सिंधियां री सेना ठैर्योड़ी ही। उणां मिरगेसर नै लूट लियो अर केई घरां रै अल़ीतो लगा दीनो। रायसिंहजी घावां री पीड़ सूं फिर-टुर नीं सकता। ज्यूं ई वां देखियो कै गांम में लूटपाट हुय रैयी है अर घरां रै लाय ई लगा रह्या है। उणी बखत दुसमी रायसिंहजी रै घर रै लाय लगावण लागा जितै उणां रै सिरदार नै रायसिंहजी रै पड़वै आगै एक बूढी डोकरी लोवड़ी ओढ्योड़ी दीसी। उण सिरदार आपरै आदम्यां नै कह्यो – “सुणो रे! ई पड़वै में कोई धनमाल नीं है अठै तो आ फखत एक डोकरी दीसै ! अठै लाय मत लगाजो।”

रायसिंहजी अर उणां रो घर आवड़जी री मेहर सूं बचियो। रायसिंहजी आवड़जी रै प्रति कृतज्ञता दरसावतां लिखियो-

लागी चहुंदिश लाय, खाग उठै वागी खरी।
उण विरियां थैं आय, आवड़ म्हनै उबारियो।।

एकदिन वै आपरै भाई रै सागै बड़वा गांम गया। उण दिनां उठै अजोध्या रो एक खाकी बाबो आयोड़ो हो। उणमें एक मोटी खोड़ ही कै वो अमल लेतो अर उणरो मावो चार तोल़ा नित रो हो। जद उणनै अमल री बायड़ उठती, जणै वो आपरी पूजा री ठाकुरजी री मूर्ति रै पग रो अंगूंठो अंगाठिये सूं बांध’र लटकावतो अर कैतो “ओ सांवरिया ! अमल ला!” अर अमल री पूरती हुवती। उण दिन ई उण आ ईज करी कै उणनै आवाज आई – “थोड़ी ताल़ इयै मारग म्हारो भगत रायसिंह आय रह्यो है। उणरी कटार री म्यान रै खीसै में आठ तोल़ा अमल है। चार तूं ले लीजै अर चार उण सारू छोडजै।”

खाकी देखियो कै दो आदमी आय रह्या है। कन्नै आया तो उण रायसिंहजी कानी खराय’र जोयो अर कह्यो – “क्या तुम रायसिंह हो?”

रायसिंहजी कह्यो – “हां”

तो खाकी कह्यो – “तो अमल ला!”

रायसिंहजी कह्यो – “बाबा म्हैं तो सूफी हूं!”

आ सुण’र बाबै कह्यो – “भइया तेरे जैसे आदमी को झूठ नहीं बोलना चाहिए। मुझे खुद अजोध्या के ठाकुर ने कहा कि तेरी कटार के खीसै में अमल है। ला यह कटार दे।”

रायसिंहजी बेहिचक कटार झला दी। उणरी म्यान रै खीसै मांय सूं आठ तोल़ा अमल निकल़ियो। आधो बाबै ले लियो अर आधो रायसिंहजी सारू छोड दियो।

ओ खिलको देख’र रायसिंहजी आपरै भाई नै कह्यो कै – “तूं हमै गांम जा परो अर हूं ई बाबै रो चेलो होवूंलो।”

रायसिंहजी बाबा रा चेला हुयग्या। अर बाबै री संगत सूं होको ई पीवण लागा अर अमल ई लेवण लागा। उणां नै पूरो पतियारो हुयग्यो कै-

भर होका कर डमरा, मत कर धोखा मन्न।
पूरण वाल़ो पूरसी, अमल तमाखू़ं अन्न।।

थोड़ै दिनां पछै बाबो तो रमतो राम बणियो पण रायसिंहजी उणी मंदिर में जमिया रह्या। एकदिन वै आपरी धुन में होको पीवै हा कै अचाणचक उठै खाकियां री जमात आयगी। जमात रै महंत देखियो कै एक आदमी मंदिर रै मांयां होको पीवै! उणनै रीस आयगी अर उण रायसिंहजी नै ओल़भो देतां कह्यो – “तनै शरम नीं आवै ! मंदिर रै मांयां होको पी रह्यो है?”

आ सुणर रायसिंहजी निशंक कह्यो – “अरे बाबा! हूं कांई? होको तो खुद ओ डोकरो(भगवान) खांचै ! हूं तो खाली चेतन करर देवूं।”

आ सुणर बाबै नै घणी रीस आयगी अर उण कह्यो – “तो पिला इस डोकरे को! अगर नहीं पिया तो तेरी खैर नहीं है।”

आ सुण’र रायसिंहजी होकै री नल़ी, मूर्ति कानी करी अर कह्यो – “ले डोकरा! तूं ई खांच होको।”

रायसिंहजी रै इतरो कैतां ई निज-मंदिर में गड़गड़ाट री आवाज आवण लागी।

खाकी थोड़ा चमकिया पण तुरंत ई कह्यो – “ऐसे नहीं, जैसे तुम्हारे नथूनों में से धूंवा निकल रहा था वैसे पिलाकर दिखा!”

आ सुणर रायसिंहजी कह्यो – “ले सांवरिया! सावल़ खांच। चेतन हुयज्या सागैड़ो।”

पूरै लोगां देखियो कै मूर्ति रै नथूणां मांयांकर धूंवै रा लठीड़ निकल़ण लागा।

खाकी रायसिंहजी नै साचा भगत जाण’र आ सोचर पगां में पड़ण लागा कै-

ज्यांरा बाल़ रमाविया, त्यारां रीझै बाप।
ज्यूं ई भगत रीझावियां, प्रभु रीझत है आप।।

पण रायसिंहजी उणांनै मना करतां कह्यो – “अरे नीं, म्हारै जैड़ै साधारण मिनख रै पगां हाथ लगाय’र म्हनै पाप भेल़ो मत करो।”

आपांरै अठै जका जका ई भगत हुया है उणां रै साथै कोई न कोई चमत्कारिक घटना जुड़्योड़ी मिलसी। आपां भलांई उण घटना या बात माथै संशय करता हुवांला पण लोकमानस में वै बातां इती रची बसी है कै आपांनै उण बातां रो उल्लेख करणो ई पड़ै। रायसिंहजी सूं केई चमत्कारिक बातां जुड़्योड़ी है।

बात चालै कै एकर वै आपरी बैन सूं मिलण उणांरै सासरै गया। पण जोग ऐड़ो बणियो कै जद रायसिंहजी पूगा तो देख्यो कै बैन री लाश आंगणै रै बीचोबीच पड़ी है अर घर में रोवा-कूको हुय रह्यो है। भगत रो काल़जो कोमल हुवै। रायसिंहजी रो ई बैन रा न्हाना-न्हाना टाबरिया देखर हियो पसीजग्यो। उण भगवान नै अरज करी अर कह्यो कै – “हे मालक! म्हारी बैन नै मांगी ई ऊमर दे। म्हारी आयु रा बारै बरस ओछा कर अर बैन नै ऊभी कर। उणां कह्यो कै जिणगत महात्मा ईसरदासजी री अरज सूं करन नै जीवाड़्यो उणी विरद नै एकर पाछो राख–

आयो ईसररेह, करण जीवाड़ण कारणै।
तूं मत वीसारेह, विरद तुहारो बापजी।।

रायसिंहजी री बैन ऊभी हुयगी। लोग इचरज सूं देखता रैयग्या अर मानग्या कै रायसिंहजी साचा भगत है।

एकर वै रूपनगर ठाकर नवलसिंहजी रै बुलावै माथै रूपनगर गया पण उठै जोग ऐड़ो बणियो कै उणांरै पग में बाल़ा(नारू रोग) निकल़ग्या। बाल़ां री पीड़ असह्य हुवै। ठाकरां रै चाकर मोती अर उणरी जोड़ायत, रायसिंहजी रा घणा हीड़ा करिया। कवि हृदय रायसिंहजी इण दंपति रो सेवा भाव देखर इतरा राजी हुया कै उणां मोती नै संबोधित करर सोरठा रचिया। जिकै आज साहित्यिक जगत में चावा है।

इणी सारू तो सायत उदयराजजी ऊजल़ लिखियो हुसी कै चारण री चाकरी कदै ऐहल़ी नीं जावै। उणांरी दीठ में कवि सूं मोटो कोई दातार नीं है –

जाय न ऐल़ी जोय, रे चारण री चाकरी।
कवि सम दाता न कोय, भव में बीजो भानिया।।

इणी सारू भगत कवि सांई दीन दरवेस लिखै कै सदैव चारण सूं राजी रैणो अर राम नाम रटणो ऐ दोई बातां इण जगत में सार्थक है-

दीन कहै दुनियाण में, दीठी बातां दोय।
राजी चारण सूं रहो, मुगत नाम सूं होय।।

रायसिंहजी मोती नै अमर कर दीनो। आज राजिया, मोतिया, चकरिया आद तो जन जीभ माथै अमर है पण कृपारामजी, रायसिंहजी अर शाह मोहनलालजी रो नाम कमती लोग ई जाणै।

कवि रायसिंहजी मोती नै नाम महिमा, जीवण री नश्वरता, मोह माया रो खंडण, बाह्याडंबरों सूं सचेत रैवण रो जको गूढ ग्यान दियो हो वो आज ई आमजन सारू प्रासंगिक अर सारगर्भित है-

राखै धेख न राग, भाखै नह जीभां बुरो।
दरसण करतां दाग, मिटै जनम रा मोतिया।।

सूमां रै घर सोय, हेम तणो भाखर हुवै।
काज न आवै कोय, मिनखां बीजां मोतिया।।

लख बेटा लख भ्रात, हेम तणी लंका हुती।
सुणियो गयो न साथ, मरतां रांमण मोतिया।।

माया रहे न मन्न, कर भेल़ा वांटी करां।
कहियो भोज करन्न, मह पड़ सारै मोतिया।।

रात दिवस हिक राम, पढियै जो आठूं पहर।
तारै कुटँब तमाम, मरै चौरासी मोतिया।।

भटकै कर कर भेख, घर घर अलख जगावता,
दुनिया रा ठग देख, मल़सी पनियां मोतिया।।

करै न चेलो कोय, कर पकड़ै चेली करै।
हेत बता गुर होय, मोडा फिर फिर मोतिया।।

खाटी अपणी खाय, आठ पहर सिमरै अनंत।
जिणरी कदै न जाय, महल़ उधारै मोतिया।।

ऐड़ै महामनां नै सादर प्रणाम।

~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”

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