चमत्कार, पुरस्कार और अभिलेख के धनी: ईसरदास रोहड़िया

आलेख ~~ डॉ. अंबादान रोहड़िया  

चारण महात्मा ईसरदास रोहड़िया (वि. सं. 1515 से वि. सं. 1622) को राजस्थान और गुजरात में भक्त कवि के रूप में आदरणीय स्थान प्राप्त है। उनकी साहित्यिक संपदा गुजरात और राजस्थान की संयुक्त धरोहर है। आचार्य बदरीप्रसाद साकरिया यथार्थ रूप में कहते हैं कि-‘हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में जो स्थान गोस्वामी तुलसीदास और कृष्णभक्त कवि सूरदास का है वही स्थान गुजरात, राजस्थान, सौराष्ट्र, सिन्ध, धाट और थरपारकर में भक्तवर ईसरदास का है।’1 भक्त कवि ईसरदास ने उम्रभर भक्ति के विरल स्वानुभवों और धर्मग्रंथों से प्राप्त ज्ञान का सुंदर समन्वय अपने साहित्य में प्रस्तुत किया है। मगर यहाँ ईसरदास रोहड़िया के जीवन में हुए चमत्कारों, पुरस्कारों और शिलालेखों के संदर्भ में ही बातें करनी अभीष्ट है।

भक्त कवि ईसरदास रोहड़िया के दीर्घ जीवन में अनेक घटनाएँ एवं चमत्कार हुए और उन्हीं चमत्कारिक घटनाओं के साथ उनका जीवन जुड़ गया है। हम कह सकते हैं कि ये चमत्कार उनके जीवन में सहज ही प्रगट हुए हैं। लोकप्रसिद्धि या बदइरादे से या बाहरी दिखावे के लिये ये चमत्कार बताये गये हों ऐसा नहीं है। वस्तुत: भक्त कवि ईसरदास के हृदय में स्थाई रूप से निहित अनुकंपा, त्याग की भावना से प्रेरित हो दीन-दु:खियों की सहायता करने की वृत्ति के कारण ही उनके जीवन में घटित कुछ सहज घटनाएं तत्कालीन परिवेशानुसार लोकमानस में चमत्कार के रूप में पैठ गई। भक्तों में मिलनेवाली अलौकिक शक्ति के बारे में कालिदास महाराज ने एक संदर्भ में कहा है कि-‘भक्ति की चरमसीमा पर पहुँचे व्यक्ति भक्त के हृदय को द्रवीभूत कर अपने आराध्य में लीन हो जाते हैं। इससे आराध्य इष्ट की सारी शक्तियाँ उसमें आ बसती है।’2 परमात्मा पर अटूट श्रद्धा और अमिट विेशास ही भक्त की आत्मशक्ति को बढ़ाता हैं। ईसरदास के जीवन में बनी चमत्कारिक घटनाएँ उनकी परमात्मा के प्रति अटूट श्रद्धा के ही कारण हैं। इस श्रद्धा के बल पर ही ईसरदास अनेक बाधाओं को पार कर’ईसरा सो परमैशरा’ वाली उक्ति प्राप्त कर सके हैं। यहाँ भक्त कवि ईसरदास के जीवन में घटी चमत्कारिक घटनाओं का संक्षेप में सार प्रस्तुत किया गया है–

· पूर्व जन्म में योगी का अवतार:3

सूरा रोहड़िया के यहाँ खेतों में कृषि कार्य करने वाले मजदूरों को उनके पितराई भाई गुमानदान अपने घर ले गये। सूरा ने मजदूरों के लिये तैयार की गई रसोई ज्वालागिरि के संघ (जमात) को खिला दी। संत लोगों ने जब सारी बातें जानी तो गुमानदान को समझाने का प्रयत्न किया, मगर गुमानदान ने तो उल्टा साधुओं को उकसाया और जवालागिरि ने कहा-‘मैं यहाँ से हिमालय जा रहा हूँ और शरीर समाप्ति के पश्चात् सूरा के यहाँ पुत्र के रूप में जन्म लूँगा।’ इस घटना के संबंध में हमें एक दोहा मिलता है:

‘कापड़ियो हिंगळाज रो, हेमाळे गळियो;
सो सुरा तव घरे, आ ईसर अवतरियो।’4

· बाल्यावस्था में प्रभुकृपा से बरसात बरसाई:5

ईसरदास की बाल्यावस्था में मारवाड में भयानक सूखा (दुष्काल) पड़ा, लोग, पशु सहित स्थानांतरित होने लगे, परन्तु ईसरदास ने लोगों से एक दो दिन रुकने की बिनती की और अपने बालसखाओं के साथ ईेशरीय प्रार्थना में बैठ गये। प्रभुकृपा से बारीश हुई। सर्वत्र आनंद की लहर उठी और ईसरदास ने प्रभुवंदना के लिये उस वख्त जो गीत रचे उसकी साक्षी आज भी है:

‘प्रभुजी, आ वेळा झट आवो, विकट काल दूर भगाओ;
प्रभुजी, भगतां नै मती तरसावो, प्रभुजी, आ वेळा झट आवो।’

· आई श्री राजबाई को पुष्पपुंज में बदलना:6

ईसरदास की प्रथम पत्नी देवलबाई को जहरीले बिच्छु ने डंक मारा और वह मृत्यु के अंतिम समय कहने लगी कि-‘मैं सौराष्ट्र-हालार में चारण के घर जन्म लूँगी, वहाँ आकर आप मेरी सुध लेना, और मुझे पहचान लेना। कुछ साल बाद ईसरदास कच्छ आये और वहां के अवसुरा शाखा के पेथाभाई गढ़वी के यहाँ जन्मी आइ श्री राजबाई से मिले। उन्होंने ईसरदास को अपने पूर्वजन्म की घटना कही और ज्यादा बातें करने के लिये ईसरदास के पड़ाव में गई, उस समय युवराज जाम रावल रात में नगरचर्या देखने निकले, वहाँ स्त्री-पुरुष की आवाज सुन संशय में पड़ गये, उन्होंने ईसरदास को आवाज लगाई, ईसरदास उन्हें ऊपर ले गये, वहाँ जामने चारों ओर देखा मगर वहाँ कोई स्त्री थी नहीं, और कोई कहीं छुपी है ऐसा भी नहीं लगा, सिर्फ पलंग के ऊपर एक दुशाला था और दुशाले के नीचे कुछ है, ऐसा सोचकर सावधानीपूर्वक दुशाले को दूर किया, तो वहाँ ूलों का ढेर था। जाम ने अपनी शंका ईसरदास को बताई, ईसरदास ने कहा आप जरा पीठ घूाकर खड़े रहें, जो सत्य है उसे जान जाएँगे, थोड़ी ही देर में देवी जैसी कांतिवाली चारण कन्या को देखा। ईसरदास ने सभी हकीकत कही फिर जाम और पेथाभाई ने मिलकर सर्व सम्मति से ईसरदास का पुनर्विवाह किया।

· मांडण वरसड़ा के साथ घटित दो प्रसंग:7

देगाम के कृष्णभक्त मांडण वरसड़ा द्वारका दर्शन के लिये जा रहे थे, रास्ते में ईसरदास के यहाँ सचाणा में रुके, लेकिन गाँव में जो वाघेर रहते थे वह मच्छीमारी का धंधा करते थे; इसीलिये ईसरदास भी वैसे ही होंगे ऐसा समझकर, ईसरदास बगुलाभगत होंगे मानकर द्वारका चले गये। भगवान के भक्त के साथ द्रोह करने के कारण द्वारका मंदिर में प्रभु मूर्ति के दर्शन उन्हें नहीं हो पाते हैं। आवेशवश मांडण वरसड़ा ने समुद्र में कूद आत्महत्या करने के लिये छलांग लगाई, वहाँ उन्को रणछोडराय का अलौकिक मंदिर, मूर्ति और प्रभु प्रार्थना करते ईसरदास के दर्शन हुए, मांडण भक्त ने प्रभु से माी मांगी और भगवान ने उन्हें एक पगड़ी भेंट स्वरूप दी। ईसरदास के साथ वापस आते समय मांडण वरसड़ा के मन में अहम् प्रगट हुआ, रास्ते में घुड़सवार ने जबरदस्ती मांस और मदिरा दी; मांडण की अनिच्छा थी, फिर भी ईसरदास ने उन वस्तुओं को ले लिया, आगे जाते ही मांडण ने कहा कि ये वस्तुएँ अब फेंक दीजिये, तब ईसरदास ने गमछे में जो दो वस्तुएँ बांधी थी वह खोलकर दिखाई तो उनमें जो मांस था वह पुष्पगुच्छ और शराब की बोतल दूधरूप में परिवर्तित हो गई थी। मांडण की शंका दूर करते हुए ईसरदास कहते है:’वह खुद रणछोडराय थे’ उस प्रसंग के बाद मांडण ने ईसरदास की स्तुति के कितने ही दोहे लिखे, गीत लिखे, इनमें से एक दोहा इस प्रकार है:

ईसर बड़ा ओलिया, ईसर बात अगाध;
सुरा तणे कीधो सुधा, पल रो महाप्रसाद. . . 1

· द्वारकाधीश को’हरिरस’ ग्रंथ हाथों हाथ अर्पित:8

रणछोडराय के परम भक्त ईसरदास रोहड़िया कई बार प्रभु के दर्शन को आते थें। एक बार प्रभु को इन्हों ने अपना स्वरचित ग्रंथ’हरिरस’ हाथोंहाथ अर्पित किया और प्रभु के समक्ष उसका पाठ किया। प्रभु प्रसन्न हो गये और कहा-‘वरदान मांगो।’ ईसरदास ने कहा-‘आपके पदारविंद में आने की आज्ञा करें और मेरे द्वारा लिखे’हरिरस’ को सार्थक करें।’ प्रभु प्रसन्न हो गये और तथास्तु कहा और प्रसन्नमन से रुक्मिणि ने कहा कि-‘कविराज ! आप तो प्रभु के गुणगान में मग्न होकर हमें भूल ही गये, आप तो चारण-देवीपुत्र हैं, आप पर तो हमारा भी हक बनता है। ईसरदास को अपनी भूल समझ में आ गई और उन्होंने’देवियांण’ ग्रंथ की रचना की।

· करण सरवैया को सर्पदंश के विष से मुक्त कर सजीवन किया:9

जाम रावल के साढूभाई वजाजी सरवैया अमरेली छोड़ जामनगर रहते थे। वहाँ ईसरदास के साथ उनके आत्मीय संबंध थे। उन्होंने ईसरदास को अमरेली आने का बड़ा आग्रह किया और ईसरदास ने करण की शादी में आने का वचन दिया था। कुछ साल बाद जब ईसरदास करण की शादी के लिये गाँव आये तो सामने ही गाँव के किनारे एक शवयात्रा सामने मिली। उन्होंने पूछताछ की तो पता चला कि करण की सर्पदंश से मृत्यु हुई है। मुझे मिले बगैर करण जा नहीं सकता, ऐसा कह ईसरदास ने शव यात्रा रुकवाई और ईसरदास ने अपनी भक्ति के प्रताप से प्रभु को प्रसन्नकर करण को सजीवन किया। इस संबंध में जो प्रार्थना ईसरदास ने करण को जीवित करने के लिऐ ईेशर से की उसका एक काव्य मिलता है जो इस बात की गवाही भी है:

धनंतर मयंक हणुं शुक्र धाओ, नरसुर पालक आप नवड़;
एक बार की करण उठाड़ो, वरण खट तणो प्रागवड. . . 1
जो तूं आवी नहीं जीवाडे, सरवैयो दीनाचा शाम;
तुज तणौ औषध धनंतर, के दिन फेर आवसी काम. . . 2
करण जीवसी गुण माने कवि, कोई जगत चा सरसी काज;
अमी कवण दिन अरथ आवसी, आपीस नहीं जो शशियर आज. . . 3
आण्ये मूळी करण उठाड़ो, जग सह माने साचस जे;
हनमत लखण तणी परसध हव, कोण मानसी हुयती केम. . . 4
शुक्र आसरे थारे सरणे, नीपण टेकज मूळ निपाड़;
अपकज घणा असुर उठाविया, अमकज हेकण करण उठाड. . . 5
सूरथे सही जीवाड़ण समरथ, भुवने त्रणे सह साख भरे;
कोय धाव रे धाव धरम कज, करण मरे कव्य साद करे. . . 6
वाहन खड़े आया चहुवे, ईशर ची सांभळी अरज्ज;
धनंतर मयंक हणुं शुक्र धाया, गुण चारण सारवा गरज्ज. . . 7
सायर सुत न पवनसुत भ्रगुसुत, आपों पे धरिया अधिकार;
आया चहुवे करण उठायो, सुत वजमल खट वरण सधार. . . 8
विषमी वार लाज लखमीवर, रखवण पण तूंथी ज रहे;
ईसर ची अरज सुणी झट ईसर, करण जीवायो जगत कहे. . . 9

करण जीवित हुआ और वजाजी ने धूमधाम से उसकी शादी की। ईसरदास का गुणगान किया और उपहाररूप ‘ईशरिया’ और ‘वरसडा’ दो गाँव दिये। (अमरेली में जिस जगह करण को सजीवन किया गया था, वहां गुजरात सराकार की अनुति से ईसरदास की मूर्तिप्रतिष्ठा गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों से की गई है और यह काव्य भी आरस पर अङ्कित किया गया है। )

· सांगा गोड़ को पुनर्जीवित किया:10

करण की शादी में अमरेली आते समय ईसरदास वेणु (विणोई) नदी के किनारे बसे एक गाँव में सांगा गोड़ के यहां रात रूके। सांगा ईसरदास को बिदाई दे रहे थे तब कहा- ‘मैं यह कांबळी (कंबल) भेंटरूप देना चाहता हूँ, आप उसका स्वीकार करें, लेकिन इसकी कोर बांधने को बची है, इसलिये लौटते समय ले जाएँगें, ऐसा बचन दें।’ सांगा की भावना देख ईसरदास ने वचन दिया। ईसरदास अमरेली में दो-तीन माह रुके, उसके वापस आने से पूर्व सांगा गोड़ वेणु नदी में बाढ़ आने से गाय-बछडों के साथ बह गये। लेकिन डूबते समय अंतिम घड़ी में अपने साथीदारों को आवाज दी कि- ‘मेरी माँ से कहना ईसरदास को मेरी कांबळी भेंट दे दें।’ थोडे समय के बाद ईसरदास वापस लौटे। ईसरदास परिस्थिति से अनजान थे परन्तु सांगा की माँ से सब बातें सुन नदी के किनारे आये। प्रभुस्मरण कर यह दोहे बोले:

वेते जळ वेणुं तणे, सांगा देने साद;
मम राखण मरजाद, वाछां सोतो वेराऊत. . . 1
वाछड़ धेनु वाळतां, जमराणा लय जाय;
(तो) धरम पंथे कुण धाय, वार करवा वेराऊत. . . 2
कांबळ हेकण कारणे, सांगो जो संताय;
(तो) दुडियंद नह देखाय, वहाणा समय वेराऊत. . . 3
सांगा जळ थळ सांभळ्ये, ईसर तणो अवाज;
वेगो वळ सिध कर वचन, कांबळ बगसण काज. . . 4
सांगा ने वछड़ा सहित, दिवो रजा जदुराज;
सेवक ईसरदास री, राखो पत महाराज. . . 5

उपर्युक्त दोहों के बोलते ही ईसरदास के समक्ष बछड़ों सहित सांगा गोड़ हाजर हुए। उन्होंने ईसरदास के चरणों में मस्तक झुकाया, वापस गाँव आये और ईसरदास ने सांगा के हाथों से कांबळी ग्रहण की।

इस घटना के संबंधित और भी अनेक दोहे मिलते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि यह प्रसंग जामनगर से अमरेली जाते समय नहीं बना वरन् कच्छ-कोराकोट से ईसरदास द्वारका जा रहे थे तब रास्ते में नागडचाळा गाँव में सांगा गोड़ के यहाँ ईसरदास रुके तब यह घटना घटी है।11 नागडचाळा गाँव के प्रांगण में वेणु नदी बहती थी, ऐसा कहने में आता है।12

सांगा गोड़ के प्रसंग के संदर्भार्थ डॉ. शिवदान चारण लिखते हैं-‘सांगा गोड़ नदी में बछड़ों सहित ही बह गया था ऐसी लोकमान्यता है। उसके लक्ष्यार्थ को देखते हुए भवसागररूपी-संसारसागर में जलरूपी जालों में फंस गये शिष्य सांगा गोड़ को गुरुवर ईसरदास ने सच्ची राह बताकर उबार लिया और जन्मजन्मान्तर के पापों से उबार लिया। इस तरह से शिष्य सांगा गोड़ को संसाररूपी मायाजाल से निकालने का श्रेय भी ईसरदास को ही मिलता है।’13

निश्चित ही उनका यह अर्थापन ज्यादा स्वीकार्य बने ऐसा है।

· अश्वारूढ हो सदेह समुद्रगमन:

राजस्थान से आकर सौराष्ट्र में स्थायी रूप में बस गए ईसरदास ने अपने जीवन का अंतिम समय वीरवदरका में बिताया। संवत 1622 में द्वारकाधीश के अंतिम दर्शन कर ईसरदास अपनी कर्मभूमि सचाणा आये। वहाँ सब स्नेहियों और भक्तजनों की सम्मति ले जीतेजी जलसमाधि लेने का निर्णय किया। दीर्घकाल तक साफ- सुथरा जीवन जीने के बाद शरीर अन्य की सेवा करने में अमसर्थ जानकर ईसरदास ने सचाणा गाँव में सागर में समाधि ले ली।14

उपर्युक्त प्रसंग के संदर्भ में कविराज श्री मावदान रतनु लिखते हैं कि आखिर उन्हों ने योगी के समान सदेह जल समाधि ली। अनेक लोगों के सामने सदेह समुद्र जल पर घोड़े सहित चलकर अदृश्य हो गये। मृत्युलोक से सदेह कभी अंतरिक्ष (स्वर्गलोक, आकाश) में जाया नहीं जा सकता। परन्तु वे तो साक्षात् परब्रह्म श्री कृष्णनारायण के उपासक, एकनिष्ठ भक्त होने से ऊपर प्रमाणित अद्भुत एैेशर्य दिखा कर इस असार संसार को त्याग वि. सं. 1622 के चैत्र सुद नवमी बुधवार को, 107 वर्ष का आयुष्य भोग कर परम तत्त्व को प्राप्त हुए। इस घटना के संबंध में दो दोहे मिलते है:

‘संवत सोळ बावीस बुध, सुद नवमी मधु मास;
इसाणंद कवि उद्धरे, विश्व करो विेशास. . . 1
ईसर घोड़ा झोकिया, महासागर के मांय;
तारणहारा तारजे, सांया पकड़ी बांय15. . . 2′

ईसरदास ने अश्वारूढ होकर सदेह समुद्रगमन किया इस प्रसंग के संबंध में शंकरदान देथा16, पिंगळशी नरेला17, रतुदान रोहडिया18, किशोरसिंह बार्हस्पत्य19, हरसुर गढ़वी20 और शिवदान चारण21 ने भी लिखा है। जीवित समाधि लेने की परंपरा तो भारतवर्ष में दीर्घकाल से चली आ रही है। जयमल्ल परमार कहते है कि-‘जैसे शूरवीर कमलपूजा करते हैं, वैसे ही संत सदेह समाधि लेते आ रहे हैं।’22

ऐसे महात्मा ईसरदास के जीवन का अध्ययन करने पर इस बात की प्रतीति होती है कि उनके दीर्घजीवन काल में अनेक छोटे-बड़े प्रसंग बने जिन्हें हम या समाज चमत्कार या दैवीय परचे के रूप में जानते हैं।

इन प्रसंगों से उनकी विशिष्ट भक्तिभावना, बहुजनहिताय और बहुजनसुखाय की भावना दृष्टिगोचर होती है, साथ ही जीवन की आडंबरहीन शैली का परिचय होता है। वस्तुत:’ईसरा सो परमेसरा’ प्रसिद्ध उक्ति को चरितार्थ करते कुछ विशिष्ट मानव लोकहृदय में बसे हैं।

(2)

· ईसरदास को प्राप्त पुरस्कार:

मध्यकालीन प्रणाली के अनुसार चारणों को राज्याश्रय प्राप्त था। चारणों की साहित्यप्रीति और स्पष्ट वक्तृत्व से प्रभावित क्षत्रिय चारणों की कद्र करते और उन्हें लाख मोहरों (लाखपसाव) और करोड़ मोहरों (करोड़पसाव) से नवाजते थे। ईसरदास को उस समय के समकालीन राजाओं ने राजकवि के रूप में ही नहीं, वरन् राजगुरु के रूप में भी स्वीकारा था। और ईसरदास की काव्यकृति की कद्र कर करोड़पसाव दिये थे। भक्तकवि ईसरदास की भक्तिभावना, स्पष्ट वक्तृत्व और साहित्यप्रीति से प्रभावित होकर तत्कालीन राजाओं में राजर्षि रावल जाम, हलवद नरेश रायसिंह झाला, अमरेली के वजा सरवैया, कच्छ नरेश राव भारमल और ध्रोल ठाकुर जसा जैसे प्रमुख राजाओं ने ईसरदास को आश्रय दिया। करोड़ मोहरों के अलावा गामग्रास के रूप में भेंट देकर आदर-सत्कार किया था। ईसरदास को मिले राज्याश्रय और लोकाश्रय की संदर्भानुसार विस्तृत चर्चा करना समुचित होगा।

· राजर्षि रावल जाम द्वारा प्रदत्त लाखपसाव:

राजर्षि जाम रावल वि. सं. 1562 में कच्छ की गद्दी (सिंहासन) पर आसीन् हुए और उनके राज्याभिषेक के दिन भव्य समारोह किया गया। इसके पूर्व भी ईसरदास और आसा बारहठ कच्छ में जाम लाखा की राज्यसभा में आये थे और अपनी कवित्व शक्ति से सभी को प्रभावित किया था। उस समय से ही जाम रावल को ईसरदास के प्रति आत्मीयता हो गई। इससे जाम रावल के गद्दीनशीन होते ही ईसरदास रोहड़िया को गांवग्रास के रूप में’चडोपरी’ और लाखपसाव उपहार स्वरूप दिया। ईसरदास की प्रथम पत्नी की मृत्यु के पश्चात् अवशूरा शाखा के पेथाभाई गढ़वी की कन्या आइ श्री राजबाई के साथ उनका द्वितीय विवाह हुआ ।23 ईसरदास से मिले’चडोपरी’ गांव के बारे में पिंगळशी पायक24, और मावदान रतनू25 ने भी लिखा हैं। ईसरदास को लाखपसाव में’चडोपरी’ गांव मिला और उनके वंशज पहले वहाँ रहते थे इसकी जानकारी चारणों के बहीवाचक भीम भारमल रावल के पास स्थित वंशावली के ग्रंथ में लिखित हैं।26

· कच्छ के राव भारमल्ल की ओर से प्राप्त ‘वीरवदरका’ और ‘हजनाळी’:

कच्छ के महाराज खेंगार ने वि. सं. 1597 में ईसरदास रोहड़िया को अपने द्वितीय पुत्र राव भारमल्ल के हाथों ‘वीरवदरका’ और ‘हजनाळी’ गांव दिलाया था। भारमल्ल ने भी गद्दी आरूढ होते ही अपने पिता के वचन का पालन किया था। इसकी लिखित जानकारी श्री भीम भारमल रावळदेव की पुस्तक में हैं। ” ‘हजनाळी’ गाँव राजा भुज के राव श्री भारमल्ल द्वारा दिया गया हैं। बारोट ईसर को तेनी विगत छे संवंत 15 से 97 के वैशाख वद नो से जुड़ी है: राव श्री भारमल्ल के वंशज के पास सही बारोट ईसरनां वंशज के पास सही।”

संवत 1597 में श्रावण शुक्ल पञ्चमी और शुक्रवार के दिन कच्छ के महाराव श्री भारमल्ल ने ईसरदास को वीरवदरका गाँव भेंट किया उसकी गवाही रूप एक छप्पय भी मिलता है:

ईशर कहे आसीस, अळधर कीध अविचळ;
नूप खेंगार नकलंक, महिपत जनम्यो भारमल;
रीझे राया राव, सासण मोज समप्पे;
वीरवदरको वास, अडग ईशर को अप्पे;
संवत पंदर सताणवो, दान कुंवर भारे दियो;
श्रावण सुद पांचम शुकर, कवि दरिदर कपियो. . . 27

राओ’ भारमल्ल की ओर से ईशरदास को ‘वीरवदरका’ और ‘हजनाळी’ गाँव मिलने की बात को समर्थित कर उनके वंशज वीरवरदका के केसरदान एक दोहा उदाद्धृत करते है:

‘वीराणु सासण वडुं, हजनाळी हद रूप;
सासण दोनू समप्पियां, कच्छ पत भारी भूप।’28

चारण साहित्य के समर्थ संशोधक-मूर्धन्य विद्वान मोड बारहट्ट ईसरदास के वंशज हैं और हजनाळी गाँव के निवासी हैं। मेरे साथ वार्तालाप में उन्हों ने कहा कि- ‘ईसरदास को ‘हजनाळी’ गाँव मिलने के दस्तावेज मैंने भुज स्टेट के दफ्तर भण्डार में जाकर प्रत्यक्ष देखे हैं।29

· जाम रावल से प्राप्त करोड़पसाव और ‘सचाणा’:

कच्छ के राजा जाम रावल और राव खेंगार के बीच कुछ अलगाव था। ईसरदास ने इन दोनों राजपरिवारों के आपसी कलेश को मिटाने के लिये पुरानी बातों को भूलने को कहा। जाम रावल ईसरदास के सत्यवचनों को स्वीकार कर कुळदेवी आशापुरा माँ का आशीर्वाद लेकर कच्छ छोड़ हालार में आये और वि. सं. 1596 में नवानगर की स्थापना की। ईसरदास की कवित्व शक्ति की कद्र कर जाम रावल ने उन्हें ‘सचाणा’ गाँव करोड़पसाव के साथ भेंट दिया। आज भी सचाणा में ईसरदास के वंशज रहते है और उनका बनाया मंदिर भी मौजूद हैं। वर्तान समय में नया ‘सचाणा’ गांव उनके वंशजों ने बसाया है और वहां मंदिर बनवाया है। ईसरदास को करोड़पसाव के साथ ही सचाणा मिला था इसकी जानकारी’यदुवंश-प्रकाश’30, ‘बांकीदास री ख्यात’31 और ‘विभाविलास’32 में है। ‘मूहणोत नेणसी री ख्यात’ में ईसर बारोट ने क्रोडीदीनी’ शीर्षक के अंतर्गत ये दोहा दिया गया है-

क्रोड पसाव ईसर कियो, दियो सचाणा गाम;
दाता सिरोणी देखियो, जगसर रावल जाम।33

रावल जाम की उदारता तो देखिये उन्होंने ईसरदास को करोड़पसाव और सच्चे मोती उगाती उर्वर भूमि सचाणा दान में दे दी, मगर रावळ जाम को अभिमान आया तो ईसरदास ने उसे उपालंभ देते हुए एक दोहा कहा, जो’बांकीदास ग्रंथावली’ में लिखित है-

तें सो लाख समपिया, रावल लालच छड;
सांसण सचाणा जिसा दिया, जेथ हुए जलहड।34

· वजा सरवैया के द्वारा प्रदत्त ‘छोगाळी’ घोड़ी, ‘ईश्वरिया’ और ‘वरसड़ा’:

अमरेली के ठाकुर वजा सरवैया के पास एक ‘छोगाळी’ नामक अच्छी नस्ल की घोड़ी थी। जूनागढ के राजा राव नवघण (वि. सं. 1581-1606) ने वह घोड़ी मांगी। वजा ने घोड़ी देने से इन्कार किया और समग्र अमरेली में यह बात फैल गई। वजा ने हँसते हँसते अमरेली छोड़ जामनगर जाने का फैसला किया। जामनगर में वजा जाम रावळ के यहाँ रुके। ईसरदास को लाखपसाव देने से पहले जाम रावल की रानी ने वजा की रानी जो उनकी छोटी बहन थी उसे उलाहना दिया-‘लाखपसाव किसी को दिया हो तो लाखपसाव में समझोगे ?’

वजा की रानी ने वजा को यह बात कही। दूसरे ही दिन सबेरे वजा ने अपने राज्य से ज्यादा मँहगी, और जिसके लिये उन्हों ने प्राणों को भी होड पर लगा दिया था, ऐसी मूल्यवान ‘छोगाळी घोड़ी’ ईसरदास को भेंट कर जाम के लाखपसाव की भेंट को रुकवा दिया। इस समय वजा की प्रशंसा में ईसरदास रचित दोहे और गीत आज भी मिलते है-

‘पे पालटियो पाट, पंड पालटियो नहीं;
घर ओळखियो घाट, जगते जे जेसंग तणा।’35

वजा सरवैया की उदारता से प्रसन्न हो ऊठे। ईसरदास कहते है-

रंग रातो चित कवाट हर, राजा अवरां हुं तुं उतरियों;
तु मख दीठे लाख तिआगी, वजा जग सहे विसरियो. . . 36

इस तरह उपर्युक्त दोहे से पता चलता है कि वजा सरवैया ने किस प्रकार अपनी ‘छोगाळी घोड़ी’ भेंट कर जाम रावल का लाखपसाव रुकवा दिया। ईसरदास ने भी उसकी हृदयभावना को समझ सहज ही घोड़ी को स्वीकार किया था। जाम रावल को समाचार मिलते ही उन्हों ने इस दिन के समारोह को मुलत्वी रख कर दूसरा मुहूर्त निकलवा कर करोड़पसाव व सचाणा गाँव देकर अपनी सौजन्यशीलता और उदारता की प्रतीति करवायी।

वजा सरवैया के पुत्र करण के विवाह के समय ईसरदास अमरेली गये। तब वजा ने कविराज का बहुमान किया और ‘वरसड़ा’ और ‘ईश्वरिया’ नामक गाँव भेंट में दिये। साथ ही लाखपसाव दिया था।37 उस समय वजा की प्रशस्ति में ईसरदास रोहड़िया ने जो गीत रचा वो यह है:

जेसंग पुरी रघुधाम पुरी जे, त्रीठ न आवे सतणतीये;
वजा पखे कुण दीई वडसरो, देव पखे कुण लंक दीनी. . . 1
वजाव्रसन गढ़ लंक वडसरो, सेव गीयां सासण सडा;
दुदाओत दशरथोत दीना, वारणे ए बे गाम वडा. . . 2
सुर गीर मुगटन जेसो सोरठ, गोविंद वजो सव वड गात्र;
त्रेता जुगे उधरिया तोखण, कळजुग उधरिया कव पात्र. . . 3
दुथिया दाने विभीक्षण दीना, हे जदुरंग थान हर हंस;
सोई वजे वडे सरवहीया, त्रसन सोह चाहे रघुवंश38. . . 4

· राजर्षि रायसिंहजी झाला की ओर से दो बार प्राप्त लाखपसाव:

हळवद नरेश राजर्षि रायसिंह झाला के साथ ईसरदास के घनिष्ठ संबंध थे। एक बार अहमदाबाद के सुलतान ने चारणों को धनी समझ कर उनके उपर एक लाख मोहरों का कर डाला। चारण समाज नियत समय-मर्यादा में कर चुका देगा, ऐसा कहकर ईसरदास उनके जामीन बने और आगामी बीज के दिन कर भरना तय किया गया। मगर मुहूर्त आने पर चारण समाज कर की रकम एकत्र नहीं कर पाया। इसलिये ईसरदास ने बीज के चन्द्र को उदय न होने की विनंती की और बीज का चंद्रोदय न हुआ। ईसरदास की भक्ति से प्रभावित हुए सुलतान ने मुद्दत बढ़ा दी। इस बात की जानकारी मिलते ही रायसिंह ने ईसरदास को लाखपसाव से नवाज कर वह रकम सुलतान को चुका दी। दूसरी बार सुलतान ने सौराष्ट्र के आहीरों पर कर लगाया, कर समयानुसार न भरने से आहीर समाज के प्रमुख को कैद कर मुसलमान बनाने की धमकी दी। उस समय भी ईसरदास रोहड़िया जामीन बने थे, मगर आहीर समयानुसार रकम नहीं भर पाये, इसलिए सिपाही ईसरदास को कैद कर अहमदाबाद सुलतान के पास ले जा रहे थे, रास्ते में हळवद आया और वहाँ के राजा झाला रायसिंह को यह समाचार मिले। तब उन्होंने अपनी रानियों के जेवर देकर रकम चुकाई। दो बार लाखपसाव अदा करने वाले रायसिंह झाला की प्रशंसा में ईसरदास ने निम्न दोहा लिखा है:

काराग्रह सूं काढिया, वेधु दुजी बार;
रे हो रायसिंह रा, घर हंदा उपकार. 39

· ईसरदासजी से संबंधित दो शिलालेख:

ईसरदासजी रोहडिया के समय को लेकर गुजरात (वि. सं. 1515-1622) और राजस्थान में (वि. सं. 1595-1675) विद्वानों में मतभेद हैं ? विभिन्न मत वाले अपने- अपने समय को सच्चा ठहराने के पक्षपाती हैं। ये विभिन्न मत देते है परन्तु शिवदान चारण ने अपने शोध प्रबंध के लिये सामग्री एकत्र करते समय दो बहुमूल्य आधारों को ढूँढ कर गुजरात के मत की पुष्टि की है। उन दो आधारों को देखते हैं।

‘ईसरदास ने वि. सं. 1540 के श्रावण मास में अपने चाचा के लड़के शिवराज उर्फ गुमानदान की आत्मा की शान्ति के लिये एक वाव बनवायी थी, वाव के कामकाज में प्रयुक्त हुआ एक पाळिया मिलता है जिसकी शुद्ध व्याख्या श्री रतुदान रोहड़िया ने इस प्रकार की है:

  1. संवत 1540
  2. ना. . . श्रावण
  3. ईसरदासजी तब
  4. रगार
  5. वाव
  6. सवजी

उक्त लिपि का समयानुसार शब्दों के घिसने से वाक्यरचना अवाच्य लगती है वहाँ “. . . . ” चिह्न के निर्देश हैं। श्री रतुदान ने शब्दार्थ लाईन अनुसार कर इस प्रकार किया है।

  1. संवत 1540 स्पष्ट है कि जो स्मृतिस्तंभ (खांभी) वाव के पास बँधवाने की बात सूचित करती है।
  2. श्रावण मास को तत्कालीन बोलचाल की भाषा में श्रावन लिखने व बोलने में कहा जाता है। श्रावण एक लाईन की पूर्ति के पश्चात् दूसरी लाइन के प्रारंभ में’ना’ शब्द से होती है।
  3. ‘ईसरदास तब’ ये दोनों शब्द के अर्थ तुरन्त प्रगट होते है “तब ईसरदास” यानी कि बावडी खुदवाने के समय स्वयं ईसरदास अपने पितराई भाई (शिवराज) की मृत्यु के पश्चात् उसकी आत्मशान्ति के लिये उन्होंने भाई का स्मृतिस्तंभ बनवाया।
  4. ‘रगार’ शब्द स्पष्ट पढ़ सकते हैं पर आगे अस्पष्ट है।
  5. ‘बावड़ी’ शब्द भी वाच्य है दूसरा आगे अवाच्य है।
  6. ‘सवजी’ शब्द शिवजी-शिवराज का मिला छोटा रूप है। पहले नाम के पीछे जी शब्द लगाया जाता था और इसी का मानवाचक अक्षर अकार लगाने के कारण मानवाचक रूप में’जी’ प्रयोग आने लगा। राजस्थान की डिंगल भाषा में’श’ के बदले’स’ पुरानी लिपि में लिखवाया जाता था। इसलिये’सवजी’ यह शिवजी-शिवराज के लिये प्रयोग में आया है।

उपर्युक्त वाव के स्मृतिस्तंभ को प्रथम दृष्टि से देखते ही लगता है कि यह ईसरदास के स्वजन ही हों। उसमें लिखित जानकारी से पता लगता है कि यह ईसरदास ने बनवाया है। स्मृतिस्तंभ की समग्र लिखित सामग्री के अनुवाद से हम ऐसा मूल्यांकन कर सकते हैं। संवंत 1540 के श्रावण मास में ईसरदास के पितराई भाई ने आत्मघात करके प्राण त्याग दिये। ईसरदास ने उनके आत्मकल्याण के लिए बावडी बनवा के पुण्य का कार्य किया हैं। यह बावडी पुराने भाद्रेस गाँव में है। जो वर्तमान में भाद्रेस गाँव से डेढ़ मील दूर हैं।’40

ईसरदास के समय निर्धारण में यह स्मृतिस्तंभ बड़ा महत्त्वपूर्ण है।

· कवि ईसरदास की पत्नी सखीराबाई के सतीत्व का स्मृतिस्तंभ:

सौराष्ट्र युनिवर्सिटी विश्वविद्यालय के उपकुलपति और समर्थ संशोधक, डोलरराय मांकड ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि-‘कविवर ईसरदास की सातवी धर्मपत्नी सखीबाई उर्फ सखिरांबाई सती हुई। संवत 1622 चैत्र सुद 13 के दिन सखिरांबाई सती हुई उनका एक स्मृतिस्तंभ मिलता है। मोरबी से तीस किलोमीटर दूर ‘वीरवदरका’ गाँव में यह स्मृतिस्तंभ प्राप्त होता है। ‘वीरवदरका’ गाँव के पश्चिम में ‘डाडानो ओरडो’ नाम से एक स्थल जाना जाता है। यहाँ यह सती का स्मृतिस्तंभ मिलता है। इसके आसपास शूरापूराओं के स्मृतिस्तंभ हैं, स्मृतिस्तंभ में सती का हाथ भी खुदा हुआ है, इस प्रकार लिखावट है।

  1. संवत सोल बावीस सद ते
  2. रस चइत्र इसाणंद क
  3. व पाछर वसव (म ?) कर जु तसू (अ ?)
  4. सखबाई मअलाणी (?) स
  5. ती थीआ 15 (?) वा डाना

इसका अर्थ रतुदान रोहड़िया ने इस प्रकार किया है।

वाचन: सवंत सोलाह बावीस सद, तेरस चेइत्र माह इसाणंद कव पाछर, वसव कर जस त्रय सखबाई मअलाणी सती हुई।

शब्दार्थ: सद-सुद, वसव-विश्व, इसाणंद-ईसरदास, कर-करी, कव-कवि, जश-यश, पाछर-पीछे, त्रय-त्रिलोक में, मअलाणी-मालाणी का दीर्घ स्वरूप डिंगल

अर्थापन: संवत सोल बावीस चैत्र सुद तेरस के दिन, ईसरदास कवि के पीछे तीनों लोक में यश पाकर सखबाई मालाणी (माला गढ़वी की लड़की) सती हुई।

वीरवदरका स्थान से मिले सती के पाळिये से जान सकते हैं कि ईसरदास ने संवत 1622 से चैत्र सुद नवमी को सचाणा (जामनगर) में समुद्रगमन किया। वहाँ से वीरवदरका समाचार मिले तब चैत्र सुद तेरस के दिन उनकी पत्नी सखबाई सती हुई।’41

* * * * *

चारण जाति के परम आदरणीय कवि इसरदास है तो केवल भक्त, परन्तु साधना और भक्ति के फलस्वरूप उन्हों ने परम तत्त्व का साक्षात्कार किया व एक महामानव सिद्ध हुए। गुजरात-राजस्थान के राजनीतिक़ और सांस्कृतिक इतिहास में ईसरदास का व्यक्तित्व एक महत्त्वपूर्ण व उज्ज्वल प्रकरण हैं। इससे इसका प्रभाव भी आजपर्यंत चलता आ रहा है। इसका अर्थ है कि उनके साहित्य में कुछ चिरकालीन-शाश्वत तत्त्व है।

कंठस्थपरंपरा में आज तक चली आ रही दंतकथाएँ, उनको प्राप्त हुए उपहार, भेंट, सौगात, दस्तावेज व प्रमाण गुजरात के सांस्कृतिक इतिहास की कड़िओं को मिलाने में सहायक बनते हैं। इतिहास विषयक कई अनुत्तर समस्याओं को सुलझाकर तत्कालीन सामाजिक संप्रज्ञता की ओर अंगुलिनिर्देश करता है। इसलिये यह अध्ययन सामग्री अर्थपूर्ण है और अपना ऐतिहासिक मूल्य रखती है। इस प्रकार कंठस्थपरंपरा और लिखित परंपरा का संगमतीर्थ यानी कवि ईसरदास का व्यक्तित्व और वाङ्य।*
(अनुवादक: ठाकुर नाहरसिंह जसोल)

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संदर्भसूचि:
1. आचार्य बदरीप्रसाद साकरिया: ‘हरिरस’ भूमिका, पृ. 2
2. कालिदास महाराज: ‘सोरठना संतो’, भूमिका, पृ. 3
3. (अ) ईसरदास: ‘हरिरस’, संपा. शंकरदान देथा, पृ. 3
(ब) ईसरदास: ‘हरिरस’, संपा. पिंगळशी नरेला, पृ. 2
4. ईसरदास के वंशज और वयोवृद्ध विद्वान जबरदान रोहड़िया के मुख से-दिनांक 2-2-86
5. (अ) बदरीप्रसाद साकरिया: महाकवि ईसरदास और उनका साहित्य, पृ. 7
(ब) डॉ. शिवदान चारण: भक्त कवि चारण ईसरदास की भक्तिभावना, पृ. 61
6. (अ) संदर्भ नोंध 3अ के अनुसार, पृ. 48
(ब) संदर्भ नोंध 3ब के अनुसार, पृ. 5
(क) मावदान रतनू: ‘श्री यदुवंश प्रकाश’, तृतीय खण्ड, पृ. 124
7. (अ) संदर्भ नोंध 3अ के अनुसार, पृ. 62-63
(ब) संदर्भ नोंध 3ब के अनुसार, पृ. 11-12
(क) संदर्भ नोंध 6अ के अनुसार
(ख) रतुदान रोहड़िया: ‘ईसरदास ग्रंथावली’, अप्रगट मेटर, पृ. 83
8. (अ) गोकुलदास रायचुरा: ‘ईसरदास’, पृ. 180
(ब) संदर्भ नोंध 3अ के अनुसार, पृ. 77-78
9. (अ) संदर्भ नोंध 3अ के अनुसार, पृ. 71-73
(ब) संदर्भ नोंध 3ब के अनुसार, पृ. 14
(क) संदर्भ नोंध 5अ के अनुसार, पृ. 14
(ड) संदर्भ नोंध 6क के अनुसार, पृ. 125
(इ) सूर्यल्ल मीसण:’वंशभास्कर’, पृ. 2082, 2087
(ई) कविराज भैरवदान: चारणोत्पत्ति मीमांसा-मार्तन्ड, पृ. 3
10. (अ) मावदान रतनू:’यदुवंश प्रकाश’, तृतीय खण्ड, पृ. 127
(ब) हीरालाल माहैशरी:’बारहठ ईसरदास’, पृ. 24
(क) संदर्भ नोंध 3अ के अनुसार, पृ. 71
(ड) संदर्भ नोंध 3ब के अनुसार, पृ. 18
(इ) ईसरदास हरिरस: संपादक किशोरसिंह बार्हस्पत्य, पृ. 42
11. संदर्भ नोंध 10ब के अनुसार, पृ. 23
12. कच्छ में स्थित नागडचाळा गाँव के निवासी और हाल में राजकोट में स्थायी बने (अ) एडवोकेट नटवरसिंह जाडेजा के साथ रतुदान रोहड़िया की चर्चा।
13. डॉ. शिवदान चारण: ‘भक्तकवि चारण ईसरदासनी भक्तिभावना’, पृ. 56
14. एजन, पृ. 101
15. मावदान रतनू: ‘यदुवंश प्रकाश’, तृतीय खण्ड, पृ. 128
16. संदर्भ नोंध 3अ के अनुसार, पृ. 79
17. संदर्भ नोंध 3ब के अनुसार, पृ. 19-20
18. संदर्भ नोंध 10ई के अनुसार, पृ. 47
19. हरसुर गढ़वी:’ईसरा परमैशरा’, पृ. 40
20. रतुदान रोहड़िया:’ईसरदास ग्रंथावलि’, अप्रगट, पृ. 77
21. संदर्भ नोंध 13 के अनुसार, पृ. 101
22. जयमल्ल परमार: ‘आपणी लोकसंस्कृति’, पृ. 326-327
23. संदर्भ नोंध 20 के अनुसार, पृ. 78
24. पिंगळशी पायक: ‘चारण’, द्वै मासिक, वर्ष-2, अंक-2, एप्रिल 1956, पृ. 4
25. मावदान रतनू: ‘यदुवंश प्रकाश’, प्रथम खण्ड, पृ. 110
26. (अ) वहीवंचा भीम भारमल रावळ (मोरझर-कच्छ) का चारणों की वंशावली हस्तलिखित पुस्तक पृ. 64, दिनांक 27-6-87 के रोज भीम की रूबरू मुलाकात से मिली जानकारी।
27. (अ) संदर्भ नोंध 13 के अनुसार, पृ. 122
(ब) संदर्भ नोंध 20 के अनुसार, पृ. 40
28. संदर्भ नोंध 20 के अनुसार
29. मोड बारहठ (हजनाळी गाँव, वर्तान में राजकोट स्थित) से दिनांक 5-3-95 की मुलाकात अनुसार।
30. संदर्भ नोंध 25 के अनुसार, पृ. 122
31. संपादक: नरोत्तम स्वामी:’बांकीदास री ख्यात’, पृ. 21
32. व्रजमाल मेहड़ू:’विभा विलास’, पृ. 14
33. संपादक बद्रीप्रसाद साकरिया:’मुहणोत नेणसी री ख्यात’, भाग-2, पृ.121-123
34. रामकरण आसोपा:’बांकीदास ग्रंथावली’, प्रथम भाग, पृ. 80, दोहा क्रमांक 28
35. रतुदान रोहड़िया:’हीराकणी’, पृ. 15
36. संदर्भ नोंध 3अ के अनुसार, तृतीय खण्ड, पृ. 126
37. एजन, पृ. 74
38. मावदान रतनू:’यदुवंश प्रकाश’, तृतीय खण्ड, पृ. 126
39. (अ) संदर्भ नोंध 3अ के अनुसार, पृ. 67
(ब) संदर्भ नोंध 20 के अनुसार, पृ. 74
(क) सूर्यल्ल मीसण:’वंशभास्कर’, पृ. 2101, 2103, 2110
40. संदर्भ नोंध 13 के अनुसार, पृ. 24, 25
41. (अ) डोलरराय मांकड:’ऊर्मिनवरचना’, वर्ष: 40, अङ्क: 11, फरवरी-1970, पृ. 687
(ब) संदर्भ नोंध 13 के अनुसार, पृ. 30, 31
*दिनांक 20/21-5-95 के दिन साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा जेतपुर बोसमिया कॉलेज में आयोजित बारहठ ईसरदास परिसंवाद में प्रस्तुत किया गया निबंध।

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