ईश्वर से प्रश्न पूछने के साहसी भक्ति कवि ईसरदास. . .। – तेजस मुंगेरिया

साहित्य के किसी कालखंड की संपूर्ण व्याख्या तब तक अधूरी है जब तक कि उस कालखंड में कतिपय साहित्य का भंडार व्याख्याकारों की नज़रों में उतर भी ना पाए और उपेक्षित हो किसी कोने में चूहों का ग्रास बनता रहे। हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य रहा कि हरेक आलोचक ने अपना प्रिय कवि खोजकर अपने-अपने खेमों में जैसे उनके काव्य को सिपहसालार बनाकर खड़ा कर दिया। ऐसे दुराग्रहों के तले लोक काव्य के हज़ारों कवि अपनी महान् काव्य चेतना के होते हुए भी साहित्य के व्यापक पटल पर उपस्थित नहीं हो पाए।
राजस्थान के चारण कवियों पर सदैव एक आरोप रहा कि वे स्वांत सुखाय से कोसों दूर रहें। लेकिन डिंगल़ या कहें कि चारणी साहित्य को ही यह श्रेय है कि उसने साहित्य ‘समन्वय की विराट परिकल्पना’ को अपने साहित्य में साकार रूप दिया। डिंगल़ काव्य की समृद्ध परम्परा में भक्ति-नीति और श्रृंगार की त्रिवेणी तो इक्कीसवीं सदी तक में कायम है। अवधी तथा ब्रजी का पारम्परिक खंडन वहीं के व्याख्याकारों ने किया, धारा के विलोम में बहने का स्वांग भी किया भले ही रामचरित मानस तथा श्रीमद प्रसंग उनके मानस से कभी उतरे नहीं। डिंगल़ साहित्य ने कभी तथाकथित स्वांग नहीं किये और इसी के चलते आज भी भक्ति विषयक रचनाएं डिंगल़ की प्राण धारा बनी हुई है। आज भी डिंगल़ के कविजन भक्तिविषयक रचनाएं रसलीन हो रचते हैं।
इसी भक्ति काव्य की डिंगल़ काव्य परम्परा में ईसरदास भादरेश का नाम अग्रगण्य है। ईसरदास के भक्ति काव्य में समन्वय का महान् सूत्र समाहित है जो तुलसीदास के समन्वय से भी व्यापक व विशाल है। यहाँ इन दो कवियों के काव्य में तुलना करना इसलिए समीचीन है क्योंकि अक्सर तुलसी के संबंध में हजारीप्रसाद द्विवेदी के समन्वय विषयक तथ्य को चटकारे लेकर सुनाया जाता है जबकि ईसरदास के काव्य में शामिल नाथपंथी प्रभाव तथा एक ही ग्रंथ (हरिरस) में निर्गुण तथा सगुण का समान रूप से पोषण तथा सबसे अलहदा बात कि मातृ काव्य (देवियाँण) तथा वीर काव्य (हाला झाला रा कुण्डलिया) का तुलसी के काव्य में सर्वथा अभाव है। ईसरदास का जन्म ईसवी के सन् १५३८ बताया जाता है जो कि तुलसीदास के समकालीन ही ठहरता है।
ईसरदास जैसा साहसी भक्त कवि संपूर्ण भक्ति काव्य में अन्य कोई नहीं है। साहस के ही बल पर वे जितने नाथपंथी नज़र आते हैं उतने के उतने वे श्यामपंथी नज़र आते हैं यह गोचर-अगोचर का समन्वय हरिरस के एक-एक छंद में दृष्टिगत होता है। हरिरस के आरंभ के पदों में ईश्वर की परम सत्ता के अगोचरी रूप के वर्णन की एक बानगी:-
अलाह अथाह अग्राह अजीत,
अमात अतात अजात अतीत।
अरत्त अपीत असेत अनेश,
आदेश आदेश आदेश आदेश।।
निराकार ब्रह्म का ऐसा स्पष्ट वर्णन ना तो सिद्धों में नज़र आता है ना तो नाथों में और ना ही निर्गुणी संतों में। यहाँ तक कि ईसरदास तो ब्रह्मा विष्णु महेश की त्रिगुणात्मक पद्धति से भी ऊपर तथा कुराणों व पुराणों से भी महान् उस निराकार को ठहराते हैं और इस ग्रंथ का प्रथम छंद यह बात इस भांत कहता है कि:-
भ्रमाय विचारत रुद्र ब्रहम्म,
न पावत तोराय पार निगम्म।
प्रमेशर ! तोराय पार पलोय,
कुराण पुराण न जाणत कोय।।
इसी प्रकार जब वे सगुण वर्णन में उतरते हैं तो उनका श्रद्धाभाव इतना मधुरम बन जाता है कि हरिरस अपने नाम को पूर्ण चरितार्थ कर श्रोता के मन में गहरा पेठता जाता है:-
नमो नर नाराण जोग निवास,
नमो दु:खहूंत उबारण दास।
नमो गज-तारण मारण ग्राह,
नमो व्रज काज सुधारण वाह।।
(हरिरस ग्रंथ से)
नमो धरणीधर धीरज ध्यान,
नमो भवतारण श्री भगवान।
नमो हरिदेव नमो हरि राम,
नमो हरि रूप, नमो हरि नाम।।
(हरिरस ग्रंथ से)
कहने का अर्थ कि पूरा हरिरस सगुण-निर्गुण समन्वय का विराट प्रतिबिंब है। तुलसी जैसे कवियों को आत्ममुग्ध आलोचकों ने केवल एक पद के आधार पर किसी ने शिव प्रेमी ठहरा दिया था, जिस हरिरस के सौ-सौ पदों में सगुण-निर्गुण, राम-कृष्ण और यहाँ तक कि बुद्ध के विषयक भी पद शामिल हों उन्हें हम समन्वय की विराट चेतना में तुलसी से इक्कीस क्यों नहीं मानें। तुलसी नाथों व गोरखनाथ से घृणा रखते थे (गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोक) जबकि ईसरदास ने गोरखनाथ के कार्यों का भी बखान किया है:-
नमो अबधूत उदास, अलख्ख,
नमो गुरुदत्त गनान गोरख्ख।
नमो विगनान-गनान-विखंभ,
थँभावण आभ धरा विण थंभ।।
(हरिरस ग्रंथ से)
ईसरदास का इस समन्वय से भिन्न एक दार्शनिक मत भी है जो उनकी आध्यात्मिक उन्नति का प्रतिफलन जान पड़ता है। मैं ‘गुण-निंदा-स्तुति रूपक’ ग्रंथ के संदर्भ में यह बात कह रहा हूँ। यह ग्रंथ इतना शोधजन्य है कि इस पर साहित्य व्याख्याकारों की दृष्टि जाए तो भक्ति काव्य विषयक अनेकों आरोप मिट्टी के ढेले समान गल जाए। इस ग्रंथ में ईश्वर को जिस कटु भाषा में उपालंभ कवि ने पढ़े हैं ऐसा साहस उस दौर के किसी कवि ने नहीं किया था। एक विलापी भक्त का कारुणिक हृदय ईश्वर की सत्ता से पाँच सौ बरस पहले यह सवाल पूछता नज़र नहीं आता कि:-
के दाखवां कुहेड़ौ कीधौ,
देखे किण भळकारौ दीधौ।
रांमति तूं के आगळ रमियौ,
जोयण हारौ नथी जनमियौ।।
अर्थात्:- आपने क्या किया है ? मायाजाल रचा है। यह बात मैं आपको किस प्रकार बताऊं? आपके इन कार्यों को देखते हुए आपकी कौनसी प्रोत्साहनकारी प्रशंसा की गयी या धन्यवाद दिया गया? यह लीला आपने किसके सहयोग से सम्पन्न की ? यह कहें कि इसको देखने वाला तो अभी कोई उत्पन्न ही नहीं हुआ है, क्योंकि लीला रचने वाले भी आप और लीला देखने वाले भी आप हैं, अन्य कोई नहीं है।
संदर्भ:- डिंगल़ साहित्य शोध-संस्थान दिल्ली से प्रकाशित ‘गुण-निंदा-स्तुति रूपक’ के पृष्ठ १० से।
इस निंदा-स्तुति ग्रंथ में निंदा का अर्थ उनके सृष्टिविषयक प्रश्न है, भारतीय पौराणिक कथाओं में जहाँ कहीं अवतार चरित्रों की भूलें हैं उन भूलों पर बिना सहानुभूति के कटाक्ष है, तो स्तुति करते समय वे पृथ्वी को सुंदर बनाने तथा छोटे-मोटे के भेद को मिटाने तक की अर्ज़ी छंदों के माध्यम से दायर करते हैं। ईसरदास का यह चिंतन तमाम भक्ति साहित्य के विधवा विलापी पदों से भिन्न धारा लेकर चला है तथा क्रूरता पूर्वक परम सत्ता को प्रश्न के ऊपर प्रश्न पूछा है, यही तो भारतीय मेधा की असल पहचान है कि वह इतना खांटी है कि सत्य के लिए अपने ईश्वर को भी बीच चौराहे पर खड़ा कर सकता है। यह चारणी साहित्य या डिंगल़ साहित्य का भी खांटीपन समझा जाए क्योंकि चारणी साहित्य इसी साहस से अनेकों सत्ताओं को काव्यात्मक चुनौतियां देकर अनाचार का प्रतिकार करता रहा है। निंदा-स्तुति की एक बानगी आप देखिए वे प्रश्न पूछते हैं कि आपने मात्र असत्य वस्तु को सत्य का स्वरूप प्रदान करने का कार्य क्यों किया:-
ताहरै चाह पड़ी की तिवड़ी,
अछती महा छति दाखी इवड़ी।
पांण पांण सूं घणुं प्रहांणौ।
जांणौ भावै मूल म जांणौ।।
अर्थात्:- आपको ऐसी कामना किसलिए करनी पड़ी? आपके वहाँ कौनसी खराबी या कमी थी? वह मुझे बताइये। इस प्रकार मानो आप वस्तु को तो समझते थे, परन्तु मूल भाव या सत्य क्या है? यह नहीं जानते थे। इस प्रकार आप अज्ञानता से ही संघर्ष करते रहे। आपने सत्य को नहीं समझा है। (जिस प्रकार सत्य को जाने बिना चिड़िया अथवा कुत्ता काँच अथवा जल में अपनी परछाई देखकर उससे संघर्ष करते रहते हैं और व्यर्थ में ही अपनी चोंच/सिर टकराकर स्वयं का ही नुकसान करते हैं। )
संदर्भ:- डिंगल़ साहित्य शोध-संस्थान दिल्ली से प्रकाशित ‘गुण-निंदा-स्तुति रूपक’ के पृष्ठ ९ से।
निंदा-स्तुति ग्रंथ में ईसरदास ने हिन्दू पौराणिकता ही नहीं वरन मुस्लिम पौराणिकता को भी साथ गहकर परम सत्ता को उपालंभ पढ़े हैं:-
हसन पाड़ियौ विख दे हाथे,
साहिब मिळियो दईतां साथे।
मुहंमद रा फरजन मारावे,
अजीद हथां पाणी ओहड़ावे।।
यह भी किस प्रकार ? हसन को आपने विष-प्रयोग से मारा। इस प्रकार से स्वामी! आप स्वयं दुष्टों (यजीद) के साथ मिल गए और मोहम्मद पैगम्बर की सन्तानों का संहार कराया। मजीद के हाथों आपने इन प्रयासी आत्माओं के मुख से पानी भी छीन लिया
संदर्भ:- डिंगल़ साहित्य शोध-संस्थान दिल्ली से प्रकाशित ‘गुण-निंदा-स्तुति रूपक’ के पृष्ठ सं. १४० से।
ईसरदास में अक्खड़पन कबीर से अधिक था, कबीर ने परम सत्ता से प्रश्न कभी नहीं पूछे, सृष्टि के निर्माण से लेकर दुराचार के जितने भी आरोप ईश्वर पर तय करने थे वह सब निंदा-स्तुति ग्रंथ में हुए हैं। ईसरदास तो धर्मों के अलग-अलग झंडों के पाखंडों व वर्ग-भेद को इस ग्रंथ में कुछ इस तरह फटकारते हैं:-
झूंबै लूंबै झगड़े जूंझे,
बिने खसम री खबर न बूझे।
खेध चड़ै सौके बे खसै,
पीर घरि बैठो निजर न पैसे।।
अज्ञानी लोग नहीं जानते, इसीलिए वर्ग-भेद पनपाते हैं एवं झगड़ते हैं। वस्तुत: इस शरीर रूपी पिंजरे में वास करने वाली आत्मा एक है और वह परमात्मा (खुदा) का अंश है। एक की हानि में दूसरे को कभी लाभ नहीं हो सकता। आपसी बैर से कुल मिलाकर मानव-समाज का अहित होता है।
संदर्भ:- डिंगल़ साहित्य शोध-संस्थान दिल्ली से प्रकाशित ‘गुण-निंदा-स्तुति रूपक’ के पृष्ठ सं. १५० से।
असल बात यह है कि ईसरदास भक्ति काव्य में एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने इतनी विशाल काव्य परम्पराओं को साधकर समन्वय कर दिया। ईश्वर की स्तुति तो हज़ारों ने की लेकिन निंदा करने का साहस कोई बिरला ही कर सकता है। बात यह भी कि ईसरदास का जीवन चरित्र जितना कवि का है उतना ही भक्त का है तथा इससे भी आगे की बात कि वे समाज को विलगाकर नहीं चल रहे हैं। उन्होंने घर फूंकने के बिना ही आत्मरूपी घोड़ों को परम तत्व में लीन करने का साहस किया। क्या सगुण, क्या निर्गुण, क्या नीति क्या भक्ति, क्या शक्ति काव्य और क्या वीर काव्य, क्या संवेदना और क्या समानता, क्या जोगी और क्या गृहस्थ-ईसरदास का काव्य एक ऐसा कल्पवृक्ष है जिसमें जो चाहे वह मिल सकता है।
~~तेजस मुंगेरिया
ईसरदास भक्त कवि थे. कहते है “ईसरा सो परमेसरा” . ईसरदास पर ज्ञानवर्धक आलेख लिखकर सराहनीय व शानदार कलम चलाई है -कवि तेजस मुंगेरिया ने.. मैं हमेशा ही इनके आलेख, कविताएं, लयबद्ध काव्य पाठ देखता व सुनता रहा हूँ.. इनकी आवाज में एक खनक व जादू सुनाई देता है जब वे डिंगल शैली में काव्य पाठ करते है…