इसी जमर अग्नि से तूं जलेगा

(लाछांबाई खिड़ियांणी जानामेड़ी की जमर कथा)
मयूर कितना सुंदर पक्षी होता है। शायद उसे अपनी इसी सुंदरता पर गर्व भी है लेकिन जब वो अपने फटे व धूसर पैरों को देखता है तो उसे अपनी सुंदरता विद्रूप लगने लगती है, और उसे रोना आ जाता है। तभी तो यह कहावत चली है कि ‘मोरियो घणो ई रूपाल़ो हुवै पण पगां कांनी देखै जणै रोवै।’ यही बात कमोबेश चारण इतिहास संबंधी शोध करते या लिखतें समय होती है। जिन लोगों ने दूसरों पर बहुत विस्तार से लिखा लेकिन स्वयं की बातें केवल श्रुति परंपरा में संजोकर रखी। श्रुति परंपरा में एक आदमी कमोबेश सौ साल तक उस रचना या विवरण को याद रखता है और आगे उसे हस्तांतरित करता है। जब हस्तांतरण नहीं हो पाता है तो वो समग्र साहित्य उसी आदमी के साथ कालकवलित हो जाता है। यही बात चारण साहित्य या इतिहास के साथ हुई है।
चारण समाज में ऐसी कई मनस्विनी महिलाएं हुई जिन्होंने तत्कालीन सत्ता या अत्याचार के निवारणार्थ समाज का नेतृत्व किया और स्वयं त्याग के कीर्तिमान स्थापित कर स्वयं ने आत्मोसर्ग कर लिया। उस आत्मोत्सर्ग का आलोक आज भी समाज को जीवटता, स्वाभिमान, त्याग, साहस व सत्यता से आलोकित कर रहा है।
लोक द्वारा स्थापित उनके थान, निर्मित मंदिर उनकी संवेदनाओं व साहस के साक्षी हैं। लेकिन जब हम उनके इतिहास की गहनता में जाते हैं तब वो ही स्थिति होती जो सात भाईयों के बहिन की होती है।
ऐसी ही एक आधी-अधूरी घटना से आपको परिचित करवा रहा हूं।
बांसवाड़ा रियासत का गांव जानामेड़ी जो बांसवाड़ा की तरफ से महियारिया चारणों को मिला था। यहां की लाछाबाई खिड़ियांणी ने वि. सं. 1670 में जमर किया था।
काफी पूछने पर कोई विषेश परिचय नहीं मिल सका। संयोग से कहिए या मां लाछां का कोई देवीय आदेश कि राजस्थान अभिलेखागार के जोधपुर अपुरालेखीय रिकार्ड मे9/36 में उन पर हरियंदजी झूला का प्रणीत गीत मिल गया। जिसमें उनके पिता, पति और जिनपर जमर किया का नामोल्लेख है।
कसूंबरा (प्रतापगढ़) के वीरजी/वीरमजी खिड़िया की पुत्री लाछांबाई की शादी जानामेड़ी के महियारिया महेशजी के साथ हुई थी।
कथा यों है कि जानामेड़ी बांसवाड़ा के एकदम पास में हैं। इस धरती के आम इतने मीठे होतें थे कि मिश्री भी उनके आगे फीकी थी।
इन आमों की सुरम्य धरती पर तेजसिंह की कुदृष्टि पड़ गई। तेजसिंह शायद तत्कालीन बांसवाड़ा का कोई राजकुमार अथवा रावल़ का कोई छुटभाई था। इसका पुष्ट विवरण मिला नहीं है।
तेजसिंह ने उक्त गांव को छोड़ने हेतु कई बार चारणों से कहा लेकिन ‘सिंह जिकां वन संचरे, सो सिंहां रा वन्न। चारणों ने कहा कि-
“हमें एकबार कोई गांव मिल गया है। वो हमारा स्थाई गांव होता है। न तो हम वो जगह छोड़ते हैं और न ही उसके एवज में कोई जगह लेतें हैं।”
तेजसिंह भी माना नहीं। वो गांव छोड़ाने के प्रयत्न में लगा रहा। यानी यह विवाद दो वर्षों तक निरंतर रहा। उन्हीं दिनों इस गांव के नवयुवक महेशजी की शादी कसूंबरा में लाछांबाई के साथ हुई। बारात गांव आई। तत्कालीन रीतिरिवाजों के अनुसार दूसरे दिन महेशजी रावल़जी को अभिवादन करने व सुखद दांपत्यजीवन की शुभकामनाएं लेने बांसवाड़ा गए। जैसा कि हमारे यहां कहा गया है कि देवालय, गुरुद्वारे, राजद्वारे आदि जगह खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। इसलिए महेशजी ने कुछ आम लिए और राजाजी के अभिवादन हेतु चले गए। जैसै ही उन्होंने आम राजाजी को भेंट किए तो पास ही बैठें तेजसिंह ने कहा कि-
“हुकम !एक आम चखके देखिए। मिश्री इनके आगे फीकी है।”
जैसे ही आम चखा गया तो बात वो ही हुई जो तेजसिंह ने कही थी। तेजसिंह ने भरे दरबार में अपने आदमियों को बुलाया और कहा कि-
“जानामेड़ी जाओ और वहां जितने आमों के वृक्ष हैं उन पर जाली डलवा दो। ताकि चारण तो क्या! कोई पंछी भी चोंच न मार सके।”
आदमी आदेश के पालनार्थ रवाना होने लगे। तब महेशजी ने रावलजी से कहा कि-
“हुकम! अगर आम आपको इतने ही पसंद हैं तो मैं स्वयं पकने पर आपके यहां हाजिर कर दूंगा। आप यह जाली-वाली न डलवाएं। हमारी भी कोई मर्यादा है।”
लेकिन राजा मौन रहा और तेजसिंह अपने हठ पर अड़ा रहा।
उसी समय उन्होंने भरे दरबार में अपनी कटार निकाली और अपने शरीर का मांश काट-काटकर फेंकना शुरु कर दिया और कहते रहे कि-
“अरे! नीच मैं तो आम इसलिए लाया था कि राजा खुश होगा। तूंने राजा को भी लोभ में डाला। ये आम तेरे लिए गरल हो जाएंगे।”
उनकी क्रोधाग्नि जागृत हो उठी। उन्होंने कहा कि-
“ले आम के साथ ही इस चारण का रक्त भी पी।”
दरबार हक्काबक्का रह गया। वहां खड़ा कोई आदमी जानामेड़ी की तरफ भागा और वहां जाकर पूरी घटना बताई। जैसे ही नव-नवेली दुल्हन को यह विदित हुआ कि घटना यह घट गई है तो वो अपने स्थान से बाहर आई और घोषणा की कि
मैं इस कुलालची और अत्याचारी तेजसिंह पर जमर उसी जगह जाकर करूंगी, जहां मेरे पति ने कटार खाकर प्राणांत किया है।
पारिवारिक सदस्यों ने लाछांबाई से निवेदन किया कि-
“दुर्योग से जो घटा वो घट गया लेकिन आप जमर न करें।”
कहतें हैं कि इतना सुनते ही उनकी भ्रगुटियां तन गई। आंखों से क्रोधाग्नि भभक उठी। लोगों ने उनका ऐसा रौद्र रूप देखा तो सहम गए। लाछां माऊ जमर करने हेतु बांसवाड़ा की तरफ रवाना हुई। लेकिन तेजसिंह ने अपने सैन्यबल से उन्हें रोक दिया। लाछांबाई ने जानामेड़ी में ही जमर किया। जमर करते हुए उन्होंने कहा कि-
“मेरे इस जमर की अग्नि शांत नहीं होगी तब तक इस तेजसिंह के अंग में जलन रहेगी और इसी जलन से वो मरेगा।”
यह खबर तेजसिंह के पास पहुंची तो वो सहम गया। उसने उस जमर-स्थल पर खूब पानी प्रवाहित किया। अग्नि बुझ गई लेकिन पास का एक खजूर का वृक्ष सुलगता रहा। वो नहीं बुझा। यह आश्चर्यजनक बात जब तेजसिंह के पास पहुंची तो वो स्वयं उस सुलगते खजूर को देखने आया। कहतें हैं कि जैसे ही वो खजूर के पास आया तो एक अंगारा उछला और तेजसिंह पर गिरा जिससे वो जलकर मर गया। उसकी संतति भी इसके अकर्मों का फल कई पीढ़ियों तक भुगतती रही। इस बात की ताईद उसी इलाके के परवर्ती कवि हरियंदजी झूला ने करते हुए पांच दोहालों का एक गीत लिखा। वे लिखतें हैं-
दोय वरस पीड़विया दूथी, सारै गल्लां सुरांणी।
आयल तेजसिंघ उथाप्यो, जोय रही किम जांणी।।
केरी मांह वांसपुर कीधौ, ऐह प्रवाड़ौ आगै।
हरियंद झूलो अरज करै है, जांमण सायल जागै।।
अंत महेश कंथ उजवाल़ण, उजवाल़ण परब आछां।
आइयो वीरसधू उंतावल़, लोभियां वाहर लाछां।।
जमर के बाद महियारियों ने इस गांव को त्याग दिया और काली का पारड़ा बस गए लेकिन नवरात्रि या अन्य मांगलिक अवसरों पर पूजा-आराधना करने आते रहते हैं।

जहां लाछां माऊ ने जमर किया। वहां उसी समय का एक शिलालेख लगा हुआ। वहां पहले एक थड़ा था। लेकिन विगत वर्षों में एक मंदिर बन गया है और उसकी पूजा वहां के स्थानीय भील बंधु करतें हैं। आसपास आदिवासी समुदाय की लाछां माऊ के प्रति अगाध आस्था है।
।।गीत लाछां माऊ खिड़ियांणी रो।।
वंश खिड़ियां कसूंबरा तात घर वीर रै,
लाटियो जगत में सुजस लाछां।
कापिया व्रन रा केवी सह कूड़छा,
सहायता सजी नित मात साचां।।1
म्यारिया मेस रै जानमेड़ी मही,
तांणियो गूंघटो आप तारां।
भाल़ियो नूर ऊमा जिमां भल़हलो,
सासरै आंणियो मोद सारां।।2
मधुर रस आंब ऐ नेस रा मोहणा,
ताकिया कुदीठां लोभ तेजे।
धीठ धणियाप जद जोरबल़ धारली,
सीसोदै लोप मरजाद सेजे।।3
रूप रौद्राल़ धर महेसो रूठियो,
कटारी आपरी गल़ै कीधी।
रुखाल़्या मरण वर आंब रा रूंखड़ा,
डकर नह जीवतै मोर दीधी।।4
अचाणक लाछ आ खबर श्रुत आपरै,
जदै पण सांभल़ी जानमेड़ी।
वधू रै वेश में बणी विकराल़का,
छेह दे नागणी जिमां छेड़ी।।5
जमर कर खाटियो अमर जस जगत में,
अवन पर जांणियो नांम आछां।
तेज रै गात नै जाल़ियो ताप दे,
लोवड़ी पात रखवाल़ लाछां।।6
मेस जिम महेसो दिपै महियारियो,
उमा तूं सांपरत दिपै आई।
नेह भव पैलड़ो चंडका निभावण,
रसा नह राखियो फरक राई।।7
गुमर रा गीत पढ आवियो गुमर पण,
अनुपम वारता अंजस आयो।
वागड़ धर विराजो आप पण वडाल़ी,
थल़ी कव गीधियै गीत ठायो।।8
~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”
चारण वीरांगनाओं के शौर्य पर पूरे समाज को गर्व है, गिरधारी दान सा आपकी यह कर्तव्य आहूति चारण समाज के इतिहास को एक नई दिशा और दशा प्रदान करेगी