जगमाल के सवैया

Jagmal Surtaniya
मित्र जगमाल सिंह बालुदान जी सुरताणिया को संबोधित संबोधन काव्य

पल़ बीत रही पल ही पल में अब आल़स चारण तू तजरे|
मत सोच करे मन में सुण बांधव है मथ हेक रदं गज रे।
प्रिय मोदक ,पुत्र शिवा ,वरदायक तू गण नायक नें भजरे|
जगमाल !सहायक मूषक वाहक,चारभुजायक तौ कज रे||१

गल़ फाटिक माल रू नैन विशाल रहै धवल़ांबर जो तन धारी।
कमलं धवलं शुभ आसन बैठ ज बीन बजावत मात सदा री।
स्वर मंजुल ,पुस्तक पाणि ,मरालिनि हे कविता शुचि री सरितारी|
जगमाल सहायक भाव प्रदायक उक्ति सुझायक माँ वरदा री।।२

किरपा गुरुदेव करे जबही तब ही सब कारज सिद्ध ज सारे।
चरणं रज चाढ सदा सिर तू जगमाल यही सब पातक जारे|
वर आणंद दायक लाभ प्रदायक नौ निधि दायक है जग आ रे|
गुरु संत मुनि भगवंत बिना भवसागर सूं कुण पार उतारे।।३

भज भैरव भीम भयंकर भीषण चंड प्रचंड रहै नित काशी।
जगमाल! लियां हथ में डमरू कर खप्पर ,स्वान सवार , अट्हासी।
नित नाग फणाळ गळे धर , घूंघर पाँव सदा समसान विलासी|
जयदायक जंग रहै नित संग , उमंग भरे चित मेट उदासी।।४

जगमाल !है दुर्लभ मानुस देह तथा अति दुर्लभ चारणताई|
पटु वाक प्रबीन गुणी जन चातुर ह्वै, खलु दुर्लभ पंडितताई|
कवि कल्पक अर्थ अलंकृत संभव,लौकिकता मिलती बिरलाई|
नर चारण देह ,कवि पटुता ,शुचितामय मानव दुर्लभ भाई||५

रतनाकर पेट रखे न रतन्न सदा जग रेवत बाँटत है|
करि लाख बसे भलही विंधयाचल द्वैष न कोउ सो राखत है|
मलयाचल चंदन रूंख अपार पणां इक डार न काटत है|
जगमाल! सदा करणो अवरां उपकार ज सज्जण आदत है||६

सरिता नहँ संचय नीर करे जगमाल! सदा बहती पर काजा।
फल राखत रूंख न पास कदी,पशु ,मानव ,खात विहंग समाजा|
बरसे इळ मेघ सुसश्य धरा कज धान हुवै जिणसूं जग झाझा|
करता उपकार , उदारमना सुण सज्जण लोक परां कविराजा||७

रूंख रसाल़ नमै फल़ भार ,सखा जगमाल कहूं कवराजा|
मेघ अषाढ अथाह लियां जल़भार बहै नम नें परकाजा|
पाटल डाल़ लदै जद फूल ,झुकै; भल सूल़ लगै उण जाजा|
सज्जण संपतिवान बण्याँ नित नम्र रहै सुभ काज समाजा||८

सागर एक जगत्त कह्यो ,कुछ खोजत मुक्तक रत्न सखा!रे।
ढूंढत है मछली मछुवार तथा कुछ केवल पाँव पखारे।
रे “जगमाल” सुनो यह जीवन एक तउ भरियो विविधा रे!
भावत जो जिन पावत सो वह आपण चित्त वृति अनुसारे!9

~~नरपत आवडदान आसिया “वैतालिक ”

क्रमश:

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