🌹जय करनी जय शंकरनी🌹- कवि स्व. अजयदान जी रोहडिया
🌸दोहा🌸
जग करनी, हरनी जगत, जग भरनी जगदंब।
किनियांणी करनी नमो, काटनि क्लेश कदम्ब।। १
देत बुआ सिर डूचको, अंगुलिन भइ अनुरूप।
नाम करनी या तें दियौ, लख निज करनि अनूप।। २
🌸छंद रेणंकी🌸
बरनी नहि जाय विशद तव करनी, आदि शक्ति नति अघ हरनी।
हरनी मद मोह, कोह तम तरनी, युग युग अवतरनी धरनी।
धरनी कर त्रिशुल मुण्ड निर्जरनी, धूर्त धृष्ट जग वध करनी।
करनी जन कष्ट नष्ट कलि करनी, जय करनी!जय शंकरनी।। १
गावत गुन वेद भेद नहि पावत, नेति नेति कहि निपट भनें।
पावत नहि पार शेष फन सहसन, यश रसना अविराम गिनें।
महिमा तव अगम अनिरवचनिय अति, अविगत अनुप अगोचरनी।
करनी जन कष्ट नष्ट कलि करनी, जय करनी!जय शंकरनी।। २
आरति तव करत अमर कर बधकर, डरत अमर पति चँवर डुले।
नर -वर पद पदम परागन पूजत, धरत ध्यान रिषि मुनिन मिले।
भैरव अरु भूत रमत निज सनमुख, करत गान कल किन्नरनी।
करनी जन कष्ट नष्ट कलि करनी, जय करनी!जय शंकरनी।। ३
नित नित नव नृत्य करत मिल योगिनी, घूघर घम घम घम घमके।
झम झम पद परत करत ध्वनि झांझर, ठम ठम पायल मृदु ठमके।
डम डम रव डमरू ढोल क्रत ढम ढम, ध्रम ध्रम ध्रूजत तल धरनी।
करनी जन कष्ट नष्ट कलि करनी, जय करनी!जय शंकरनी।। ४
झण झण झण झणण झणण वर झालर, बाजत झांझरू झण झणणम।
ठणणण ठण ठणण घंट घन ठणकत, भेरिय भणकत भण भणणम।
शणणण बज शंख तणण रव तूरिय, वेणु न जाय बजत बरनी।
करनी जन कष्ट नष्ट कलि करनी, जय करनी!जय शंकरनी।। ५
आकृति अदभुत न कहि तव आवत, भय पावत लखि भीम भूरिम्।
मृगपति पर चढत सुनत भृत आरत, त्वरित करत तिन विपद दुरिम्।
टालति त्रयशूल घाव रिपु घालत, प्रिय परिपालत परिकरनी।
करनी जन कष्ट नष्ट कलि करनी, जय करनी!जय शंकरनी।। ६
मर्दनि मत मुण्डन चुँण्ड उदंडनि, शुंभ निशुंभ रू चंड अतिम्।
दण्डनि दुर्मुख बाष्कल बरि बण्डनि, महिष विखंडिनी मूढ मतिम्।
मण्डनि भुव खण्ड भूरि भुज दंडनि, रक्त बीज हनि उर भरनी।
करनी जन कष्ट नष्ट कलि करनी, जय करनी!जय शंकरनी।। ७
मरूधर कर भूप करन तुहि रिडमल, क्रूर कान्ह तिहि प्रान लियं।
बंधन नृप शेख बिनासिनी मां तुहि, तैं हि वणिक तरि त्राण कियं।
संघन किय लाव सरप कर तुंहिय, करना पर करूना करनी।
करनी जन कष्ट नष्ट कलि करनी, जय करनी!जय शंकरनी।। ८
परिहरि पृथिराज भीर तिहि भारी, मेहाई कर तुरत मया।
जिन जिन अरू ध्याई धाई तिन तिन हित, सकलाई हरि कर सुदया।
गाई नहिं जाय माई ! तव गरिमा, निज लोई ढांकनि तरनी।
करनी जन कष्ट नष्ट कलि करनी, जय करनी!जय शंकरनी।। ९
जननि तुंहि जनक जगत निज भगतन, तुहि भगनी पुनि भ्रात तुंही।
धरनी धन धाम तुहि बल विद्या, तुंहि जीवन प्रिय प्रान तुहीं।
देनी तुंहि सुक्ख दुक्ख हर लेनी, तुंहीं खेनी भव दधि तरनी।
करनी जन कष्ट नष्ट कलि करनी, जय करनी!जय शंकरनी।। १०
गिरजा तुंहि रमा गिरा नव दुरगा, कालि-कपर्दिनी कुशमांडा।
तुंहि हिंगलाज कामेहि राजल, चालकनेची चामुंडा।
आवड तुंहि अम्ब !बिरवडी बुटल, गर्व असुर सुर नर गरनी।
करनी जन कष्ट नष्ट कलि करनी, जय करनी!जय शंकरनी।। ११
यह दे वरदान वरद वरदायिनी, “अजय”विनय कर जोर कहै।
देवि नित देशनोक वासिनि तव, चरन चारू मम ह्रदय रहै।
हरिये जग पीर बेग अरू ढरिये, विलंब न करिये वर वरनी।
करनी जन कष्ट नष्ट कलि करनी, जय करनी!जय शंकरनी।। १२
🌸कलश छप्पय🌸
हरने अधम अधर्म, धर्म धरनी पर धरने।
भरने जन भंडार, पाप, पापी परिहरने।
करने जग उध्धार, गरब कुगर्वी गरने।
चरने निशिचर चंड, रक्त रिपु खप्पर भरने।
बाघ चढौ झट बीसहथ, गाढे खल रण गंजनी।
कर जोड “अजय”करनल कहै, पुनि पुनि यहि भय भंजनी।। १
~~कवि स्व अजयदान जी लखाजी रोहडिया
(मलावा, तहसील रेवदर जिला सिरोही)