जेखल सुजस जड़ाव – मोडूदानजी आशिया

कविराजा बांकीदासजी नें कच्छ-भुज के प्रसिध्द दानवीर जेहा भाराणी की स्मृति में एक रचना “जेहल जस जड़ाव” 102 दोहों की बनाई थी। उसी में मिलते शीर्षक की रचना कवि मोडजी आशिया ने की थी “जेखल सुजस जड़ाव”। इसमें वीरता के प्रतीक सिंह, सुअर, वृषभ, नाग आदि बताए गए हैं। कवि आशियाजी के अनुसार वाराह, सिंह से भी अधिक पराक्रमी और वीर होता है। इसलिए आशियाजी नें सुअर को नायक बनाकर रचना की है। वाराह, डाढाऴो, जेखल कवल, दात्रड़िलाऴ, ऐकल, गिड़, सूर, सावज इत्यादि सुअर के पर्यायवाची डिंगऴ शब्द हैं। कुल पचास दोहों की इस वीररसात्मक रचना में काव्य-कृति का प्रारम्भ वाराह अवतार द्वारा पृथ्वी को अपनी दाढ (दांतऴी) पर उठाये जाने के पौराणिक प्रसंग से किया गया है। साथ साथ ही उस आत्मबली एंव दुर्दम्य दाढाऴा की दाढ और गाढ की महिमा से मंडित दोहै अत्यन्त ही ओजपूर्ण, अलंकृत एवं अनूठे बनाये हुए हैं।
।।दोहा।।
सजे दांत हरणंख समर, वणे थूऴ कंध वेस।
प्रथी उठाई दांत पर, उण सूर नूं आदेस।।1।।
जव गाजरिया चर जवर, गऴती रात पगाऴ।
ऊगे थाहर आपरी, आयौ दात्रड़ियाऴ।।2।।
राढ जबर तन रीसियो, हकां गाढ दढ होय।
वाढ दिखावै वाहरा, दाढ करै खंड दोय।।3।।
आवै पीवा आंधलौ, लोयण धुखती लाय।
नवहत्था जिण निरखनै, जऴमत्था टऴ जाय।।4।।
निर्भीक सुअर जब खेतों में जौ चर कर रात्रि में जलाशय पर पहुंचता है तो अंगांरो सी लाल रंग की आँखो को देखकर उस मदांन्ध कौल से शेर भी संकुचित हो जाता है। वो दो सिंहों के मध्य जाकर पानी पी लेता है। बाघण का बच्चा शिकार लेकर भागकर पहाड़ में चला जाता है, पर सुअर उसी स्थान पर चर कर निर्भय होकर सो जाता है। सूअर की आँखो में हीरे और दांतो में मोती होते हैं, अतः सिंह भला उसकी बराबरी कैसे कर सकता है। सूअर अकेला होने पर भी भागता नहीं है। उसे मृत्यु का भय नहीं है, घौड़ा पांच वर्ष का, पुरुष पच्चीस वर्ष का और सूअर सौ वर्ष का जवान होता है, अतः इन तीनों कै बीच जूझते हुए टक्कर देखने सूर्य भी कुछैक क्षणों के लिए रूक जाता है।
।।दोहा।।
भ्रख ले आवै भागनै, परबत बाघण पूत।
चरै जकण जागां सुऐ, डाढाऴो जमदूत।।5।।
हीरा नैत्रां बीच हुवै, मोती दांत मझार।
किम तौ सम वै केसरी, जेखल रिण जूंझार।।6।।
जवगोहूं चरणा जके, मरण तणो भौ मेट।
हुवै सदा वाराह रै, फजर दऴां सूं फैट।।7।।
जद खटखट करतौ जोऐ, कवलौ नजर करूर।
सूर धकै उण समैमें, ससत्र झलैकुण सूर।।8।।
टूंडजोर देवै टकर, अस असवार उलाऴ।
वाढकरै दोयभाग विप, डाढजोर डाढाऴ।।9।।
पच्चीसां में पुरसड़ो, पंचारै हुय कैकांण।
सौवरसौं गिड़ सैंफऴै, भाऴै कोतक भांण।।10।।
इस तरह यह वीररस की अप्रतिम अजब अनूठी रचना बहुत ही बढिया बण पड़ी है। महाकवि कविया हिंगऴाजदानजी ने भी मृगया-मृगेन्द्र में सिंह व सूअर की लड़ाई का बहुत ही रोचक व सरस वीरतापुर्ण वर्णन किया है।
।।छप्पय।।
नाहर सूर निराट, बांका भड़ बागा।
अंगघावां उघड़ै, लड़ै बिहूंअम्बर लागा।
खगओखल खागैल, घाकेहर घटघल्यो।
गरज्यो सहित गरूर, ऐंडभरपूर उझल्यो।
सजि सारदुऴ हाथऴ सबऴ, जोम कवऴ माथै जड़ी।
कड़काय गैंण हूंता किना, पब्बय पर तड़िता पड़ी।।
सिंह और शूअर बांके योध्दा युध्द में भिड़े। घावो से उनके शरीर खुल गये, परन्तु वे आकाश में उछल उछल कर लड़ते रहे। शूअर ने अपनी डाढ (दाँतली) से सिंह के शरीर पर गहरा घाव किया। सिंह गर्व सहित गरजा, बांकेपन के साथ उछला। सिंह ने अपनी सबऴ हत्थऴ जोश में आकर शूअर के सिर पर मारी, जैसे आकाश से बिजली कड़क कर किसी पहाड़ पर गिरी हो।
उक्त दोनो ही महाकवि द्वय को धन्य धन्य है।।
~~प्रेषित: राजेन्द्रसिंह कविया (संतोषपुरा सीकर)