जेठवा री बात में कतिपय भ्रामक धारणाएं – श्री कैल़ाश दान उज्ज्वल आईएएस (रिटायर्ड)

टंकण व प्रस्तुति – गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”
‘चारण साहित्य का इतिहास’ नामक शोध ग्रन्थ लिख कर चारण साहित्य पर कालजयी व प्रणम्य कार्य करने वाले डॉ. मोहनलाल जिज्ञासु व ‘सौराष्ट्र नी रसधार’ के लेखक श्री झवेरचंद मेघाणी जैसे मनीषियों को सादर वंदन।
अस्तु इसी साहित्य इतिहास में एक बहुत बड़ी भूल हुई है – “ऊजळी-जेठवा री बात” इसमें ऊजळी को कवयित्री मानकर उसका परिचय तथा काव्य बांनगी भी दी गई है (सन्दर्भ के लिए यहाँ क्लिक करें)। यह भूल जिज्ञासुजी ने मेघाणीजी को आधार मानकर की थी। मेघाणीजी ने भी यह भूल जानबूझकर नहीं की अपितु विभिन्न कहानियों का संकलन करते समय अपवादस्वरूप हो गई।
इसी भूल पर राजस्थानी साहित्य के दिग्गज विद्वान श्रद्धेय कैलासदानजी उज्ज्वल ने शोध पत्रिका ‘विश्वंभरा’ अप्रैल-जून 1994 में एक शोध लेख लिखा था। जिसमें शोध के प्रतिमानों के आधार पर तथ्यात्मक दृष्टि से व्यापक प्रकाश डाला गया है।
‘ऊजळी’ की वास्तविक कथा से अनजान हमारे कुछ साहित्यकारों ने भी मेघाणीजी को आधार मानकर अपनी रचनाएं लिख डाली, उन्हें पता नहीं कि उनका उतावलापन उस समय के रीति नीति व थापित परंपराओं के एकदम विपरीत है तो साथ ही मेघाणीजी व जिज्ञासुजी के कार्य व मेधा से अपरिचित पाठकों को भी एक बार आदरणीय उज्ज्वल साहब का यह पूरा आलेख पढ़ना चाहिए ताकि हमें तथ्यपरक जानकारी का ज्ञान हो सके।
मैं परमश्रद्धेय डॉ.मनोहरजी शर्मा को भी प्रणाम करता हूं कि वे मुझे विद्यार्थी काल में भी विश्वंभरा का प्रत्येक अंक देते थे। जो आज भी मेरे संग्रह में है। उस आलेख को आप सभी से साझा कर रहा हूं।
~~ गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”
जेठवा री बात में कतिपय भ्रामक धारणाएं
~~श्री कैल़ाश दान उज्ज्वल आईएएस (रिटायर्ड)
गुजरात के यशस्वी साहित्यकार स्वर्गीय झवेरचंद मेघाणी के पारंपरिक साहित्य को प्रकाश में लाने के अनवरत प्रयास उल्लेखनीय है। राजस्थानी एवं गुजराती सहोदरा भाषाएं हैं। मेघाणी जी की सेवाओं का राजस्थानी को लाभ मिला। राजस्थान के निवासी उनके आभारी हैं।
पूर्व मध्ययुगीन राजस्थानी और गुजराती के विपुल गद्य साहित्य में ‘बात’ का अपना विशिष्ट स्थान है। यथास्थान वर्णन, विवेचन और प्रश्न को रोचक एवं कर्णप्रिय बनाने वाले दोहे तथा बातों को मानक रूप की परिधि में रखने की भूमिका निभाने के साथ साथ लोकप्रिय बनाते थे। आधुनिक कहानी पढ़ने के लिए है, सुनने के लिए नहीं, जबकि राजस्थानी बातों को अमृत्व प्रदान किया है माधुर्य, ओज, रस और कर्णप्रियता ने। पठनार्थ लिखी कहानी की आयु आज तक उतनी नहीं हुई जितनी कि बातों की। यद्यपि, कई कहानी लेखकों ने, मौखिक परंपरा में सुरक्षित रोचक बातों या उनकी घटनाओं को अपनी रचना का विषय बनाया।
याद से कही जाने वाली बात को वार्ताकार अपने कौशल और प्रतिभा की विशिष्टता से अछूती नहीं रख सकता। प्रथम बार लिपि-बद्ध होने तक एक मान्य रूप सुरक्षित रखना असंभव है, क्योंकि सुनी हुई बात की रोचकता अनुभव करते हुए रस प्राप्त करने वाला प्रतिभा संपन्न श्रोता भी संपूर्ण विवरण को उन्हीं शब्दों में कदापि नहीं दोहरा सकता। बात कहे-सुने जाने की प्रत्येक प्रक्रिया के बाद घटनाक्रम में बदलाव आना स्वाभाविक है। स्मृति, दृष्टि, आभास अभिव्यक्ति, इत्यादि की सीमा होना यथार्थ है, जिसको मध्यनजर रखने पर सहज इसी परिणाम पर पहुंचते हैं कि मौखिक परंपरा की अमूल्य निधि राजस्थानी साहित्य की यह बातें हमारे सामने अपने मूल रूप में कदापि नहीं हो सकती। यह कहना भी मुश्किल है कि इनका कोई मूल रूप था भी या नहीं। ज्यादा संभावना यही लगती है कि प्रभावी वार्ताकारों ने प्रत्येक बात को अपने-अपने नजरिए से अधिक रोचक बनाने का लोभ शायद ही संवरण किया हो।
कथानक में विकृतियों के आगमन का एक अन्य कारण रहा है, प्रथम बार किसी बात को लिपिबद्ध करने वाले उत्साही की सीमाएं। जरूरी नहीं है कि प्रत्येक वार्ताकार कलम का धनी भी हो। अधिकांश बात कहने वाले अर्द्ध-शिक्षित होते थे और कुछ निरक्षर भी। किंतु बात कहने की कला विरासत में प्राप्त करने वाले निरक्षर लोग कवियों की भांति अपने फन के उस्ताद हुए हैं। इनके श्रोताओं में अपनी संस्कृति से लगाव रखने वाले कुछ ने जरूर विचार किया होगा कि बातों को कलमबद्ध कर उनसे रस प्राप्त करने का सुगम अवसर अधिक लोगों को उपलब्ध कराया जावे। मनसूबे बहुत लोग बांधते हैं किंतु संकल्प कम लेते हैं और ऐसे लोगों में एक थे श्री झवेरजी जिनका सौराष्ट्र के कई गढ़वी सरदारों से अंतरंग संबंध होने से उन्हें कई बातों का प्रचलित पाठ सुनने का अवसर प्राप्त हुआ और उन्होंने कई बार, लोक की जानकारी हेतु रोचक बातों को लिपिबद्ध करने का संकल्प ले, अंततः उसे क्रियान्वित करते हुए बहुश्रुत कतिपय सोरठों को आधार मान जेठवा की बात कलमबद्ध की।
कल्पना की लंबी उड़ान भरने की गुंजाइश पारंपरिक बातों में नहीं रखी गई है। मूल ढांचा वही रखने की परंपरा का निर्वाह नियमित रूप से करते हुए वार्ताकार को वर्णन इत्यादि में रोचकता लाने के लिए अपने कौशल सदुपयोग की छूट है। लगता है मेघाणी जी कई एकसी बातें सुनी हुई होने के कारण, जेठवे की बात लिखते समय, एक बात से दूसरी बात के कथानक का अंतर भली-भांति बात याद रखने की स्थिति में नहीं रहे और दो-तीन बातों की घटनाओं को मिलाकर, जो जेठवे की बात उन्होंने लिखी, वह प्रचलित एवं मान्य मौखिक कथानक से कल्पना के आकर्षक पुट के कारण बहुत भिन्न हो गई। चारण और राजपूतों के सनातन से परिचित होते हुए भी मेघाणी जी को उसकी गहराई का ठीक अनुमान नहीं होने से उन्होंने इन जातियों के संबंधों की दैविक पवित्रता के जानकार पाठकों की दृष्टि में अनर्थ कर दिया।
चारण-राजपूतों के बीच मन्मथ-प्रेरित संबंध की कल्पना जेठवे के युग में क्या, चारित्रिक-परंपरा के पतन के बाद की शताब्दियों में भी अकल्पनीय थी। मेघाणी जी के प्रयास में भूल से ऐसा दिए जाने पर कौन सहसा कहने को आगे आ सकता था कि उन्होंने भूल से दो तीन बातों की घटनाओं को मिलाकर एक नई बात कह दी, जो सामाजिक मान्यता और पारंपरिक स्वरूप से भिन्न है? ठीक से पाठ-ज्ञान करने के लिए जैसे अध्ययन, जांच इत्यादि की आवश्यकता थी, उसके लिए किसी ने भी समय नहीं निकाला। वार्ता का लगभग वही पाठ उन इने-गिने व्यक्तियों ने अपना लिया, जिन्होंने इस कहानी पर बाद में लिखा। हां, पुनः इस विषय को अपनाने वालों की संख्या नगण्य रही और इस पाठ की जानकारी सर्वसाधारण तक नहीं जाने से किसी का विरोध प्रकाश में नहीं आया।
पहले-पहले जो बात का स्वरूप हमारे सामने आता है, उसको सही-सही मानने की सामान्य प्रकृति हमारी यहां सदैव रही है। सुनी बात के अपने-अपने पाठ को सही कहकर बहस करते समय हम भूल जाते हैं कि हमारी जानकारी गलत होने की उतनी ही संभावना है, जितनी प्रतिद्वंद्वी की। एक बार लिखी जाने के बाद किसी बात से अपनी जानकारी के बूते पर असहमत होना कठिन होता है और जब उसकी पुनरावृत्ति हो चुकी हो, तब, यह जानते हुए भी कि गलत बात बार-बार कहने से सत्य नहीं हो जाती, सामान्य विद्यार्थी अपनी खोज के परिणाम प्रस्तुत करते हुए संकुचाता है।
मैंने जेठवा की बात मेघाणी जी द्वारा कलमबद्ध किए जाने से कुछ वर्ष पूर्व सिरोही-राज्यान्तर्गत गांव झांखर के आढा शंकरदानजी से सुनी थी। उनकी आयु उस समय अनुमान से 60 वर्ष से अधिक थी। उनकी ससुराल पारलू मारवाड़ में थी। और वे चिकित्सा के लिए हमारे यहां मेहमान बनकर दो माह ठहरे थे। हमें प्रायः वे बातें और कविता सुनाते थे। उनका ढंग ओजपूर्ण और प्रभावी था। उन्होंने बताया था कि एक धनाढ्य व्यापारी की इकलौती कवयित्री पुत्री ने संकल्प लिया था कि उसी से विवाह करेगी जो उसके द्वारा प्रस्तुत समस्या की पूर्ति करेगा। समस्या थी–
“घड़ियां अणघड़ियाह, ऐरण सूं अड़िया नहीं।“
समस्यापूर्ति करने वाले की खोज में निकले व्यापारी के आदमी सौराष्ट्र जा पहुंचे। दर्शनार्थ गिरनार पर चढ़ते हुए थके मांदे विश्राम के लिए एक विशाल छायादार बड़ के नीचे ठहरे जहां बंसी बजाता एक युवा चरवाहा और उसके मवेशी सुस्ता रहे थे। बातों ही बातों में उस युवक ने सोरठा पूरा लिख कागज यात्रियों को दे दिया। युवक का नाम जेठवा गढ़वी था। उसकी रची पंक्तियां हैं-
“मोती समदरियांह, सींपां मांहे नीपजै।।”
हर्षित यात्रियों ने लौटकर पर्चा कवयित्री को दिया। तत्काल वह अपने चहेते से मिलने निकल पड़ी किंतु कुदरत को कुछ और ही मंजूर था।
मंजिल की ओर बढ़ती थकी-मांदी प्रेमिका ने जेठवा को दूर से देखते ही उसे अपने पूर्व जन्म का साथी पहिचानकर कहा-
तावड़ तड़वड़तांह, थल़ सामी चढतां थकां।
लाधो लड़थड़तांह, जाडी छाया जेठवा।।
किंतु व्यग्रता से भागती हुई जब वह पास पहुंची तो उसने देखा कि जेठवा के प्राण पखेरू उड़ चले थे। दूसरे कथानक में जेठवा द्वारा समस्या पूर्ति के प्रतिफल स्वरूप अन्य जाति की एक बहिन-समान लड़की से प्रणय का प्रस्ताव अमान्य होने को कहा जाता है। अपने कथानक को प्रमाणित करने वाले कुछ सोरठे सुना उन्होंने वार्ता को हम बाल-श्रोता के लिए रोचक बनाया था। मैं यह सोरठे एक बार सुनकर याद नहीं रख सकता था और ना कंठस्थ करने का प्रयास ही किया। संभवतः मेरी आयु को देखते हुए प्रेमाख्यान के दोहों को कंठस्थ करने की योजना को प्रोत्साहित भी नहीं किया जाता। किंतु उल्लेख यहां जरूरी समझ किया है, क्योंकि जैसा ऊपर लिख चुका हूं, बातों के मूल कथानक के मानक रूप को अपनी सीमाओं में रखने के लिए कंठस्थ किए जाने पर उसी रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी याद रहने के उपर्युक्त ये छंद, कथानक में समाविष्ट करने की उपयोगी परंपरा का वार्ता-साहित्य में निर्वाह हुआ है। प्रत्येक लोकप्रिय रोचक पुरानी राजस्थानी-गुजराती ‘बात’ से जुड़े दोहे कई बार उनको भी याद होते हैं, जिन्हें वह बात सुनने का सुअवसर ना मिला हो, या किन्हीं कारणों से बात भलीभांति याद ना हो।
अब से कुछ वर्ष पूर्व उपर्युक्त कथानक को प्रमाणित सिद्ध करने वाले ये सोरठे स्वर्गीय ठाकुर नारायणसिंह जी कविराज आलावास (मारवाड़) से सुन मैंने लिख लिए। खेमपुर (मेवाड़) के ठाकुर ईश्वरदान जी दधवाड़िया ने ‘गढवी जेठवा री बात’ के प्रसंग में जो सोरठे सुनाए, वे लगभग वे ही हैं, जो स्व. नारायणसिंह जी ने लिखाए थे। वे यहां प्रस्तुत हैं-
सुध बुध सेठाणीह, बीसरगी वीदग बिनां।
पड़ियो हग पाणीह, जल़गी काया जेठवा।।
कारण को कहतोह, तूं टाल़ो लेवा तणो।
चारण नह चहतोह, जद ठुकराती जेठवा।।
जेठव चारण जात, अणभणिया भणिया जिसा।
है शारद रा हाथ, जाणूं तो सिर जेठवा।।
जिण सूं लागो जोय, मन माही वालो मना।
कारण अवर न कोय, जांत पांत बिन जेठवा।।
वीणा जंतर तार, वजाया उण वार रा।
गुण नै झुरूं गंवार, जात न झींकूं जेठवा।।
बिलखै बिणियाणीह, हाणी मो काया हुई।
त़ूं कीकर ताणीह, जिद न मिलण री जेठवा।।
जिला बाड़मेर के गांव राणीगांव के स्व. राव भीखजी, जो रोचक वार्ताकार के रूप में क्षेत्र में लोकप्रिय थे और संभवतः पारंपरिक उत्तम वार्ताकारों में अंतिम थे, इसी कथानक के साथ न्यूनाधिक यही सोरठे सुनाते थे।
अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर के काव्य संकलन में जो टैसिटोरी की खोज की परिणति थी, उपर्युक्त समस्या-पूर्ति वाला सोरठा है। उस समय मान्य जेठवा के सोरठों में होना शंकरदानजी झांखर इत्यादि द्वारा कही बात की पुष्टि करता है, जिसमें प्रेम का कारण समस्या पूर्ति है। साथ ही यह मेघाणी जी के पाठ को गलत प्रमाणित करता है क्योंकि उसमें समस्या पूर्ति का उल्लेख तक नहीं है। आकर्षण का आरंभ होता है, बरसात की झड़ी और ठंड से अचेत जेठवा को चारणों के नेस(ढाणी) पर घोड़े द्वारा पहुंचना और वहां कुंवारी कन्या द्वारा देह-ताप से चेता दिलाना। स्मरण रहे टैसिटोरी एक प्रशिक्षित ख्याति प्राप्त खोजकर्ता था, जिसका कार्य प्रामाणिक पाया गया है। इसके विपरीत मेघाणी जी रचनाकार थे, जो उपलब्ध जानकारी को कल्पना का पुट दे इधर-उधर से रोचक सामग्री ले आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करते रहते थे।
हां, पारंपारिक बातों के कथानक के साथ जानबूझकर मात्र आकर्षक प्रस्तुतिकरण हेतु हस्तक्षेप की मेघाणी जी से भी अपेक्षा कदापि नहीं की जा सकती क्योंकि अंततोगत्वा वे भी अपनी परंपरा के सेवक थे। इसलिए ज्यादा संभावना यही है कि उन्होंने भूल से कुछ कथानकों को मिला एक नया रूप दे दिया।
जिन प्रसिद्ध कहानियों का उपयोग इस भूल में होने की संभावना है, उनका संक्षिप्त मान्य कथानक और प्रामाणिक छंद आगे प्रस्तुत है। अवलोकन से सुस्पष्ट हो जाना चाहिए कि मेघाणी जी के प्रयास में किस-किस कहानी की किस-किस घटना का समावेश जेठवे की बात को दूसरे रूप में प्रस्तुत किए जाने की भूल का कारण हो सकता है। उनमें जेठवा चारण की कहानी ऊपर दी जा चुकी है।
‘ऐमेल’ अथवा (अहिबल) ‘बाला नै नेहड़ी सांई री बात’ उल्लेखनीय है। मेघाणी जी ने जिस मुख्य घटना अचेत राजपुरुष को देह-ताप से होश में लाने को आधार बनाया है, वह नेहड़ी जी की बात की तीन रोचक घटनाओं में से एक मात्र है। यह बात 13वीं शताब्दी की कही जाती है।
तलाजा (गुजरात) का स्वामी ऐमल बाला वंश का तीसरा शासक था, अद्वितीय धर्मनिष्ठ शासक था। उसने करोड़(बहुत आधिक) कन्यादान का पुण्य अर्जित कर अपनी धरती को दुकाल मुक्त कर दिया।
इण कुल़ तीजै अहिबल़ै, सावल़ संकट छोड़।
दिया तलाजै डूंगरै, कन्यादान करोड़।।
प्रजाजनों के लिए समृद्धिदाता सुकाल ऋणदाता (बोहरों) निर्धन करने वाला होने से राज्य के बोहरों में हाहाकार मच गया। गुप्त मंत्रणा कर उन्होंने जैन जतियों का सहारा ले बरसात को यंत्र से बांध यंत्र की परची एक हरिण के सींग में फंसा दी। फिर अकालों का क्रम चालू हो गया। तीसरे अकाल ने प्रजाजनों की जड़ें हिला दी। पशुपालक अपने मवेशी लेकर निष्क्रमण कर गए।
मुरधर पग माल़वो, नाल़ी बीकानेर।
कवियां नै काठी भला, आंधौं नै अजमेर।।
दुखी राजा ने राणी के सामने प्रस्ताव रखा कि सोमनाथ को शीश भेंट कर प्रजा के लिए लिए वरदान मांगा जावे। राणी ने कहा ‘आप देखते नहीं, बोहरों के मुख पर चमक है। उन्होंने उत्तम(सांचै) धान से कोठार भर लिए हैं अवश्य ही अकाल उनके किए किसी षड्यंत्र का परिणाम है। हमें पंडितों को बुलाकर उसका निराकरण करवाना होगा।‘ पंडितों ने गणना कर हरिण का भेद ज्ञात कर लिया व परामर्श दिया कि यंत्र मुक्त होते ही वर्षों की बरसात एक साथ बढ़ने से बाढ़ आ जाएगी, इसलिए सावधानी बरती जावें। राजा हरिण की खोज में निकला। हरिण को उसने तीर से मार गिराया। सावधानी का परामर्श भूलकर उसने यंत्र वहीं निकाल नष्ट कर दिया। भीषण वर्षा प्रारंभ हुई। झड़ और ठंड की तीन दिन की मार ने राजा को अचेत कर दिया। घोड़ा तीसरी रात एक नेस (चारणों की ढाणी) में दीपक का प्रकाश देख राजा को वहां ले गया। ढाणी काला साऊ (चारणों की खांप) की थी। चारण मालवे गया हुआ था। अंदर से उसकी धर्मपत्नी देवी (सांई)नेहड़ी जी निकली। वह स्थिति समझ गई। उसने राजा को घोड़े से उतारा, अंदर ले गई और उसे अपना पुत्र मानकर माता की भांति उसके गीले कपड़े हटा लोवड़ी, बीच में रख छाती से लगाया। राजा को चेत हुआ। वह अपनी स्थिति ज्ञात कर नेहड़ी जी के पैर पड़ा और बोला मुझे आपने दूसरा जन्म दिया। उसने निमंत्रण दिया। जवाब मिला कि भगवती मांगल की आज्ञा होने पर कभी आऊंगी। 7 दिन बाद बरसात बंद हुई और धरती धापी। चारण मालवे से लौटे। आवड़जी की लापसी बनी। वहां किसी ने बताया कि राजा काला साहू के घर में 5 दिन रहा। काला स्तब्ध रह गया। वह अपना शक घर पहुंचने पर छिपा नहीं सका। नेहड़ी जी ने श्राप दिया “कयो जिणरी जीभ तूटे, मान्यो जिणरै कोढ़ फूटै।” पछतावा करते कोढ़ी पति की नेहड़ीजी ने सेवा की। वे तीर्थयात्रा पर निकले। तलाजा के तालाब पर राजा मिलने आया। पंडित ने काला की बीमारी का उपचार बताया। राजा ने अपने तेजस्वी पुत्र ‘अणा वाला’ के रक्त से काला को नहाया। कोढ़ जाता रहा। सांई नेहड़ी ने राजपुत्र को जीवनदान दिया।
परजियो दूहो-साख रौ
सिर नौ सूंपणहार, (कण)बाढणहार बखौणियो।
सोरठ करो विचार, बे बालां में कुण वडो।।
साख रो दूहो
तपसण नृप तन तापियो, सुत सम सेज सुवाय।
लागो पग ऐभल लुल़ै, पाछौ चेतो पाय।।
गीत
प्रथम मेघ वाल़ियो कोढ टाल़ियो पछै,
वाल़ो छत्र वांदियो जीत वादी।
तखत भूपौं सिरोमण तलाजो,
गादियों सिरोमण भल़ै गादी।।
क्रोड़ परणावतां दान कन्या दियो,
भांजतल राड़ रो जोर भैंभौ।
श्राप ऊतारियो नेहड़ी सांई रो,
अणां रो आपतों सीस अभौ।।
पोत रौ सूर रौ सूर जैड़ौ पिता,
मेघ रो मार हिंदवाण माझा।
वैरियां पालटै उहू रो बसावण,
रांक रो मालवौ धरम राजा।।
मेघाणी जी की रोचक वार्ता के कुछ सोरठे जेठवा नाम के चारण और जेठवा खांप के राजपूत की पृथक-पृथक बातों से संबंधित नहीं होकर, अन्य बातों से संबंधित है। यथा ‘बालौ मांगड़ौ और पदमा बिणयाणी’ की वार्ता में सोरठा है-
आवै के असवार, घुड़लां री घुमर लियां।
आतम रो आधार, मींढ न आवै मांगड़ौ।।
इस सोरठे की चौथी पंक्ति को “जीको न दीसे जेठवो” बना यह जेठवे के दोहों में शामिल कर लिया गया है। जेठवे के किसी बात के मान्य कथानक में ऐसा कोई प्रसंग नहीं, जिस पर यह सोरठा फबता हो। स्थिति को ठीक से समझने के लिए मांगड़े की बात संक्षिप्त में, स्व. बदरीदानजी आढा से 1972 में सुनी दी जा रही है-
लाखा फुलाणी के सेवक भांभली की पदमा बनियाणी व अन्य लोगों की गायें घेर कर चल दिए। वाहर चढ़ी, जिसमें आगे था छतरवाड़ी का वाला राजपूत मांगड़ा। गायें छुड़ा ली गई, किंतु फूलाणी के दीवाण अहरा-बायल की काठी की बर्छी से वीर मांगड़ा काम आ गया। शौर्य पर अनुरक्त पदमा बैचेनी से प्रतीक्षा में बैठी थी। विजय ‘वाहर’ के लौटने पर बाहिर आई। मांगड़े को नहीं देख उसने विलाप करते हुए संकल्प लिया कि वह मांगड़े को उसका स्वर्गवास होने पर भी नहीं छोड़ सकती —
पाघड़ियां पचास, आंटियाल़ी एकज नहीं।
ओ घोड़ो असवार, मीढ न आवै मांगड़ौ।।
आवै के असवार, घुड़लां री घुमर लियां।
आतम रो आधार, मीढ न आवै मांगडौ।।
भूंडै भूंडै भूंभली, वहरी लागै वार।
ओ घोड़ो न असवार, मीढ न आवै मांगड़ौ।।
अपै वेपारी वाणिया, राजाई तो रीत।
पेला भव री प्रीत, मिल़ियां थांती मागड़ा।।
वालौ के नाही वरूं, रजपूते राणीह।
वाली वणियाणीह, मुवां न मूकै मांगड़ौ।।
इसी भांति एक अन्य वार्ता “मेहा जेठवा री बात” से निम्नलिखित दोहे मेघाणी जी रचित जेठवा की बातों का दोहों में गलती से मिला दिया गए हैं और वह चल रहें हैं–
टोल़ी सूं टल़तांह, हिरणां मन माठा हुवै।
वाला वीछड़तांह, जीवै किण विध जेठवा।।
म्हूं कंवारी काछ दृढ, ऐड़ी बात अठेह।
पुरुष रो भेटूं पलौ, हिंद धरम हटेह।।
घड़िया अणघड़िया वाली समस्या पूर्ति को लेकर हलामण जेठवा और केराकोट(कच्छ) के स्वामी की अत्यंत रूपवती पुत्री सोनल कठियाणी की बात प्रसिद्ध है, जिसमें कठियों के ब्राह्मण ने भूंबली के राजा सीहा जेठवा के प्रलोभन में आकर हलामण द्वारा की गई समस्या पूर्ति को राजा द्वारा संपन्न की गई बताकर विवाह करवाने का प्रयास किया था। इसी प्रकार अन्य राजस्थानी बातों के संबंध में विस्तृत विवेचन की आवश्यकता है।
करणीय
अद्भुत रतनू जी सा…आपको विषय के गहराई पूर्ण और तथ्यात्मक विवेचन के लिए कोटी धन्यवाद ..एसी गलतियां कई विद्वानों ने की है। इसकी वजह चाहे कुछ भी रही हो.. लेकिन ये गलतियां गंभीर है… कयोंकि आगे जाकर इसे ही सत्य मान लिया जाता है और इस तरह इतिहास विकृत हो जाता है । … लखदाद
गिरधरसा, संदर्भ सहित प्रामाणिक जानकारी | इतिहासविज्ञों /साहित्यकारों द्वारा पूर्व में हुई भूलें आज साहित्य-इतिहास का हिस्सा बन चुकी हैं,ऐसे समय में गिरधर सा आप जैसे निरंतर शोध-खोज में संलग्न मनीषि ही सत्य व प्रामाणिक जानकारी लोक के समक्ष रखकर पूर्वाधारणाएं बदल सकते हैं |
अकाट्य तर्कों के साथ भ्रामक धारणाओं का निराकरण | स्व. कैलाशदान जी की प्रखर मेधा शक्ति व अध्ययनशीलता को नमन!!
इस महत्त्वपूर्ण आलेख को संप्रेषित करने हेतु शुक्रिया | इससे पूर्व आपने मेहा मांगलिया संबंधी भ्रांतियों का निराकरण भी किया था,आशा हैं आपका यह स्तुत्य प्रयास जारी रहेगा | सादर..
प्रामाणिक जानकारी के लिये धन्यवाद ।कारण जो भी रहे हों,किंतु लोक इतिहास में रही भ्रांतियों का शोधपरक निवारण जरूरी है ।आपके प्रयास महत्वपूर्ण हैं ।साधुवाद
आ बात सांची है के, इतिहास में घणकरी बातों एड़ी है,जिका विण वगत री रीत नीत अर मरजाद रे साथै न्याव कोनी करे है।जिण रो कारण ओ लखावै है के,जिका लोग ए बातों लिखी व्है लोग विण वगत री रीत नीत ने घणे ऊंडे उतर अर जाणन री कोशिश कोनी करी।जै विण वगत ही इण माथै ऊंडी दीठ अर न्हेचा सूं काम व्है जावतो तो आज़ तरै तरै री भ्रान्तियों नी रैवती। अजेतांइ ही समै है के इण बातों ने ठीक करियो जाय सकै।हालतांइ तो विण आचार विचार ने जांणन वाळा जीवता है।जै अबै ठीक नी व्हैला तो ऐ सगळी बातों ज्यूं री त्यूं चालती रैहसी। गिरधर सा ने घणा घणा रंग है सा
‘समीक्षा व आलोचना कर्म’
सदैव एक गुरूतर दायित्वबोध के साथ आना चाहिये | किन्तु यथार्थ यह है कि बहुधा अतिवाद पर तो यह विवेचना प्रारम्भ की जाती है ,और तुच्छता पर उपसंहार |
आदर व श्रद्धा में वृद्धि अनायास हो उठती है जब इस साहित्यिक कर्म में विशुद्ध गवेषणात्मक दृष्टि रखते हुये भी आपने भाषा व भावगत औदात्य अक्षुण्ण बनाये रखा |
रचनाधर्मिता से भी बढ़कर
ये आलेख कड़ियाँ आपके मनमानस के उज्ज्वल मुक्ता सम्मुख रख जाती है | सादर
खमा घणी गिरधरदान सा,
आपके द्वारा प्रस्तुत स्व श्री कैलाश दान सा के आलेख से श्रोताओं एवं पाठकों के मन भ्रम से मुक्त होंगे एवं चारण राजपूत सनातन के पावित्र्य को बल प्राप्त होगा । वस्तुतः जेठवा व ऊजली के कथित सोरठे मूल रूप में कई पुरातन कथानकों का संमिश्र एवं अपभ्रंश हो जाने तथा अपने प्रतिभाशाली पुरोधाओं द्वारा इन भ्रमात्मक कथानकों के शोधन करने के प्रयास एवं खण्डन न करने से प्रचलित रहे हैं । स्व उज्ज्वल साहब को सादर श्रद्धाँजलि व शत नमन, उनके आलेख को साहित्यिक पटल पर उद्धृत कर समाज को सन्देश प्रदान करने हेतु आपको साधुवाद एवं सादर वन्दे ।
गणपत सिंह आढ़ा
राजस्व निरीक्षक
निवासी झाँकर
जिला सिरोही
बहुत बहुत आभार, आदरणीय मनोज जी, आदरणीय गिरधरसा। यह आलेख चारण-राजपूत सनातन के पोषण में अति सहायक होगा। लोक संस्कारों के पुनरुद्धार में भी यह उपयोगी है।
एक बात में विशेष रूप से कहना चाहता हूं कि जेठा मूला और मघा नक्षत्र में जन्म लेने वाले बच्चों के नामकरण पहले इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर हुआ करते थे। यही कारण है कि जेठा, मघा और मूला यह नाम बहुतायत में पाए जाते थे और यह भी एक वजह हो सकती है कि जेठवा के नाम पर मेघाणी जी को किसी प्रकार का असमंजस हुआ है।
क्षमा, मुझे अवगत कराया गया कि जेठवा तो एक राजपूत गोत्र है, आलौच्य ‘जेठवा’ किसी व्यक्ति का नाम नहीं है।