झरोंखे दृग लायके – “प्रबीणसागर” से मनहरण कवित्त (घनाक्षरी)
कटी फेंट छोरन में, भृकुटी मरोरन नें,
शीश पेंच तोरन में, अति उरजायके,
मंद मंद हासन में, बरूनी बिलासन में,
आनन उजासन में, चकाचोंध छायके,
मोती मनी मालन में, सोषनी दुशालन में,
चिकुटी के तालन में, चेटक लगायके,
प्रेम बान दे गयो, न जानिये किते गयो,
सुपंथी मन ले गयो, झरोंखे दृग लायके. (१)
सुगंध समीर जैसे, हंस बार छीर जैसे,
भुजल मिहीर जैसे, मयुषी चढायके,
पारद कुमार जैसे, हरी स्वांत धार जैसे,
अंम्र एनसार जैसे, धुम उरझायके,
उकती एक दंत जैसे, शुद्ध बोंध संत जैसे,
मित बात मित जैसे, सेनन जनायके,
प्रेम बान दे गयो, न जानीये किते गयो,
सुपंथी मन ले गयो झरोंखे दृग लायके. (२)
अही खगराज जैसे, चिरीया सु बाज जैसे,
केहरी सु गाज जैसे, प्रान निकसायके,
जलचर झषाह जैसे, मीन मीनहाह जैसे,
कीर पंख ग्राह जैसे, फंद उरझायके,
भागीरथ गंग जैसे, घंटीक कुरंग जैसे,
कुहिया कुलंग जैसे, भूतल भ्रमायके,
प्रेम बान दे गयो, न जानीये किते गयो,
सुपंथी मन ले गयो, झरोंखे दृग लायके. (३)