जोधपुर स्थापना और पूर्व पीठीका !! – राजेन्द्रसिंह कविया संतोषपुरा

राठौड़ों के इतिहास की विशेषता है कि लगभग सभी शासकों ने युध्दभूमि मे शत्रुदल से लौहा लेते हुये प्राणोत्सर्ग किया। प्रथम नरेश राव सीहाजी ऐक मुस्लिम सेना से युध्द करते हुये वीरगति को प्राप्त हुये, सीहाजी के उत्तराधिकारी आस्थान ने जलालूद्दीन खिलजी के आक्रमण से पाली की रक्षा करते हुये प्राणोत्सर्ग किया। राव धूहड़जी थोब व तरसिंगड़ी के बीच मे पड़िहारों से युध्द करते हुये स्वर्गवासी हुये। राव कान्हपालजी भाटियों और मुसलमानों की सम्मिलित सेना से युध्द करते हुये मारे गये तथा उनके ही उतराधिकारी जालणसीजी भी उनकी भांति ही भाटी व मुसलमानों की सेना से युध्द करते हुये वीरगति वरण कर गये। राव छाडाजी सोनगरा व देवड़ा चौहानों के सम्मिलित आक्रमण मे मुकाबला करते हुये मारे। राव तीड़ा जी अपने भानजों सातल व सोम पर मुस्लिम आक्रमण मे उनकी सहायता के लिये सीवाणे के युध्द मे शामिल हो कर युध्दमे वीरगति वरण कर गये।
राव सलखा भी ऐक मुस्लिम सेना से सीधी लड़ाई मे काम आये, वीरम जी जोईयों से युध्द करते लखबेरा गांव के पास युध्दरत रहते हुये खेत रहे। राव चूंडा जी मुल्तान के सेनानायक सलीम व पूंगल के भाटियों और जांगलू के सांखलों के विरूध्द नागौर के समीप युध्दकर वीरगति वरण कर गये। राव रणमल भी चित्तौड़ मे ऐक षड़यंत्र के शिकार होकर मद्यपान मे विशाक्त पेय पदार्थ पीकर पलंग से बांध कर हत्या करने वाले हत्यारों रे रणरत्त होकर ही वीरत्व वरण कर खेत रहे। इस प्रकार राव जोधा के सभी पूर्वज युध्दक्षैत्र में ही वीरत्व वरण कर खेत रहे।
विश्व के इतिहास में ऐसा कोई राजवंश नही है जिसके क्रमशः ग्यारह शासक युध्द मे वीरत्व वरण कर खेत रहे हो। इनके इस प्राणौत्सर्ग व वीरौचित कार्यों से न केवल राठौड़ वंश का विस्तार हुआ और समकालीन राजवंशों मे उनकी साख जमी बल्कि रणबंका, कमधज व रऴतऴी के स्वामी जैसै विरूदों से विभूषित किया जाने लगा।
राव रणमल के चूक होने के समय मे राव जोधा व मारवाड़ दोनो ही अस्त व्यस्त थे, रावत चूण्डा ने मंडोर पर अधिकार करलिया, राव जोधा कवनी जांगलू आदि क्षैत्रों मे फिर फिर कर सैन्यशक्ति संचय कर चौदह वर्ष बाद मे मंडोर वापस अपने अधिकार मे कर लेनेके पश्चात मेवाड़ पर प्रबलतम आक्रमण किया और मेवाड़ मे तबाही मचाते हुये चितौड़ दुर्ग के द्वार जला दिये तथा जिस महल मे राव रणमल रहता था वहां जाकर अपना मस्तक झुकाया। राव जोधा के समकालीन कवि गाडण पसाइत ने लिखा है कि-
बलो प्रबत लंघीयो, चडे पाषरिये घोड़े।
जाए दीना घाव, कोट चित्रोड़ किमाड़े।
बोल ढोल बोलियो, च्यार श्रमणै उत सुंणिया।
कुम्भलनेर नारीयां, ग्रभ पेटां हूं छणिया।
चीतोड़ तणै चूण्डाहरा, किमाड़ै परजाऴिये।
जोहार जाय जोधे कियो, राव रिणमल माऴिये।।
हे जोधा, तूने अश्वारूढ होकर अरावली पर्वत लांघकर चितौड़ दुर्ग के द्वारपर प्रहार किया। युध्दघोष सुनकर कुम्भलनेर के नारियों का गर्भपात हो गया। हे चूंडा के वंशज, तूंने चितौड़ दुर्ग के द्वार जला दिये तथा राव रणमल के भवन तक पहुंचकर नमन किया।
इस आक्रमण से लौटते हुये राव जोधा मेवाड़ के सेठ पदमचंद को पकड़ लाये, इस सेठ ने खैरवा पहुंचने पर बहुत द्रव्य भेंटकर कैद से मुक्ति पाई।
जोधा के इस आक्रमण से महाराणा कुम्भा अत्यंन्त क्रुध्द हुआ, परन्तु उस समय सांखला नापा ने उसे समझाया कि राव जोधा से विरोध बढाना उचित न होकर मेल करना अधिक उतम है, इस समय मेवाड़ की स्थिति भी ठीक नहीं है इस प्रकार सही तर्क व हित की बात महाराणा को जची और तब राजकुमार उदा को नापा सांखला के साथ भेज राव जोधा से संधि कर ली और आंवऴ बांवऴ कर बिषटाऴा किया, जिसमें बांवऴ (कीकर) की भूमि जोधाजी की व आंवऴ (आंवला) की धरती कुम्भाजी की हो गयी।।
मेवाड़ से संधि हो गयी, पर निरंन्तर टिड्डीदल की भांति उमड़ने वाले मुस्लिम आक्रान्ताओं से अपने राज्य परिवार व यौध्दाओं की सुरक्षा के हेतु कवच का काम करने वाले कोट किले व नगर नियोजन की जरूरत को देख राव जोधा ने मंडोर से जुदा जगह पंच टेकरिया पहाड़ी पर किला बनाने की जुगत जचाई, पदमचंद सेठ से लाया हुआ धन पर्याप्त मात्रा मे था ही सभी सैनिक सराजाम के संयोग स्वत ही सधे हुये थे, किले की नींव का प्रथम शिलास्थापन भवभय भंजनी भगवती करनल किनियाँणी के कर कमलों द्वारा कराकर आगत अदृष्य अनिष्ट से अपने पीढीयों को आरक्षित करने के उद्देश्य से अमराजी चारण को माता जी को आंमत्रित कर के लाने हेतु भेजा व जब जगदम्बा पधारी तो उनके हाथो से वि. सं. १५१५ जेष्ठ माह की उजऴी ग्यारस को दुर्ग की स्थापना करवायी।
पन्दरा सौ पन्दरोतरै, जेठ मास जोधाण।
सुद ग्यारस वार शनि, मंडियो गढ महराण।।
मारवाड़ के प्रसिन्द इतिहासकार पं. विश्वेश्वरनाथ रेउ ने लिखा है कि ख्यातों मे लिखा है कि करनीजी नाम की चारण जाति की प्रसिध्द महिला द्वारा किले का स्थान बताया जाना व उसीके द्वारा उसका शिलारोपण होना भी लिखा है।
नैणसी की “मारवाड़ रा परगना री विगत” के परिशिष्ठ के अनुसार “श्री जोधपुर रौ किलौ सं. 1515 रा जेठ सुद 11 शनिवार राव जोधाजी नीम दीवी श्रीकरनीजी पधार नै सो विगत पैला तौ चौबुरजो जीवरखौ कोट करायौ, चिड़ियाटूंक ऊपर”।
राजस्थान रा चावा ठावा विद्वान कवि डॉ. शक्तिदानजी कविया रो दाखलो कि मानमहिप रे समकालीन खेतसी जी बारहठ रो श्रीकरनीजी विषयक गीत जिणमें इण घटना रो स्पष्ट उलेख है कि. . . . . . .
तापियौ नाथ चिड़िया पबै ठौड़ तिण,
समूरत मापियो नकूं सोधै।
अचऴ मेहासदू हुकुम तदि आपियौ,
जदे गढ थापियौ राव जोधै।।
अवध पनरोतरै समत पनरै इऴा,
वाघ चढणोत रै वेद वरनी।
गेह वड भाग किनियां गोत रै,
कऴा साजोत रै रूप करनी।।
किलै की नींव देकर भगवती ने राव जोधा को वरदान दिया था कि, तेरी अठाईस पीढीयां यहां पर राज करेगी जो कि अक्षरशः सत्य हुआ बताया जाता है और देशनोक वापस प्रस्थान करते अमराजी चारण के मथाणियां गांव मे भी रूककर खड़ाऊ व ताम्र पत्र को अपने हाथों अपने श्रीमंढ की नींव मे रखकर आने वाली पीढीयों कै विवाद से सुरक्षित कर अमराजी को कहा कि अब तेरी सन्तान आपस मे इस ताम्रपत्र के लिये नही लड़ेगी व तेरी वंशवृध्दि का बहुत विस्तार होगा, तेरे गांव में गड़े नही पड़ेगें, महामारी नही आयेगी और अग्निकांड मे ऐक से दूसरे घर मे आग नही फैलैगी।।
गड़ा पड़ न बिगड़ै हरगिज गंहू,
चड़ापड़ न आवै रोग चाऴौ।
न फैले लाय धड़ाधड़ महमदनगर,
भड़ाभड़ भवानी बोल भालौ।।
राव जोधा ने भी किले मे पदमसागर नामक तालाब बनाकर मेवाड़ के सेठ पदमचंद के प्रति कृतज्ञता दिखाई।
~~राजेन्द्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर