ज्यूं-ज्यूं लाय लपरका मारे!!

happy-teacher500-1000 के पुराने नोटों के नहीं चलन की घोषणा के बाद मजदूरों, व अध्यापकों के सिवाय सभी जगह मायूसी छाई नजर आ रही है। आजसे पहले जब धन या धनवानों पर अध्यापकों की दृष्टि जाती तो वे भी झिझक महसूस करते थे कि काश हम भी इनके रिस्तेदार या रिस्तेदारी में होते तो कितना अच्छा रहता ! लेकिन जैसे ही मोदीजी ने कहा कि कोयलों की दलाली करने वालों के हाथ ही नहीं, मुंह भी काला होगा !! तो इस वर्ग ने बड़ी राहत महसूस की और मन ही मन में कहा कि भई हम तो ‘घणो खावां न को कुवेल़ा जावां। ‘ घाटा भी सुखदायक और आनंदित करने वाला होता है इसका अहसास माननीय मोदीजी ने करवाकर मजदूरों व अध्यापकों में जोश का संचार कर दिया। जहां काला व हराम का धन बटोरने वालें नींद बेचकर ओझका खरीद रहें हैं वहीं यह वर्ग घोड़े बेचकर चैन की नींद सो रहा है। सोयेगा भी क्यों नहीं आखिर इनके पास खोने को है भी क्या?

किसी गांव में लाय(अग्नि) लग गई। वहां एक गंगजी नामक व्यक्ति रहते थे। उनके पास एक झोपड़ी भी नहीं थी। खेजड़ी के नीचे अपनी गृहस्थी रखते थे। जैसे ही लाय लगी, पूरे गांव में अफरा-तफरी मच गई परंतु गंगजी की स्त्री तो बेखौफ श्रृंगार कर रही थी। तब किसी ने कहा –‘ज्यूं -ज्यूं लाय लपरका मारै, गंगै री लाडी काजल़ सारै!!’ कुछ यूं भी कहतें हैं कि गंगजी के पास एक झोपड़ी थी। बरसात का समय था। मूसलधार वर्षा हुई जिससे सभी के कच्चे ओरे(कच्ची साल, कमरा) गिरने लगे। गंगजी के झोंपड़े में पड़ोसी अपना आटा रखने आने लगे क्योंकि वर्षा में झोंपड़े को कोई खतरा नहीं होता। जब किसी पड़ोसी के ओरे को गिरता देखकर गंगजी की पत्नी कहती ‘अले बापड़ै रो ओरो पड़ग्यो!!‘ तो गंगजी बड़े गर्व से कहते कि तूं क्यों चिंता कर रही है! तूं तो भाग्यशाली है जो हाथ गंगे का पकड़ा है!!

आज जब रुपये छिपाने या खपाने की बात को लेकर चारों तरफ हाहाकार मची हुई है और चोरों की माए़़ं घड़ों में मुंह छिपाकर रो रही है, ऐसे में मजदूरों व अध्यापकों के घर सूती गंगा बह रही है। इनकी स्त्रियों के पास सिवाय पड़ोसी के यहां जाकर दुख प्रकट करने व उन्हें सांत्वना देने के अलावा कोई कार्य भी नहीं बचा। इसलिए यह काम तो ये बड़ी संवेदनशीलता के साथ कर रही हैं ! करें भी क्यों नहीं। क्योंकि ‘बाई रै नीं हार अर नीं डोर, फगत काजल़ माथै जोर !!

इस वर्ग को देखता हूं तो यह पंक्ति याद आ जाती है-सदा दीवाल़ी संत रै आठूं पो’र अनंद।

वास्तव में इस दूरदर्शी आदमी को देखकर मुझे एक बात याद हो आई-किसी गांव में एक बुढ़िया के पास जैसे तैसे ही सौ रूपये इकट्ठा हो गए। वो गांव में सूद पर कार्य करने लगी। काफी दिनों बाद उस गांव में एक पहुंचे हुए महात्मा आए। प्रवचनों का सिलसिला चला। बुढ़िया ने भी सुने तो उसका हृदय परिवर्तन हो गया और उसने महात्माजी से पूछा कि मैं इन पैसों का सदुपयोग कैसे करूं? संतों ने कहा, क्यों काया को कष्ट दे रही हो! हलवा -पुड़ी करो और खावो। डोकरी ने वैसा ही किया। कुछ दिनों बाद उसने महात्माजी को बताया कि मैं आधे थन का सदुपयोग कर चूकी हूं तो यही सिलसिला रखूं या कुछ परिवर्तन करूं? महात्माजी ने कहा, नहीं अब लापसी बनाकर खावो! बुढ़िया ने वैसा ही किया। दस रुपये बचे तब वो पुनः महात्माजी के पास गई और पूछा, महाराज अब क्या करूं? तब उन्होंने कहा अब झोपड़ी छजालो। उसने ऐसा ही किया। कुछ दिन बाद डोकरी के पास एक आदमी कुछ उधारी लेने आया तो उसने अपने पुराने दिनों को याद करके उस महात्मा को कोसते हुए कहा-

पैला खड़ाया सीरा पुड़ी, पछै खड़ाई लापसी!
रह्यै सह्यै का छाज नखाया, मोडै करदी आपसी!!

मुझे लगता है कि अपना पूरा वेतन देश को समर्पित करने और अपने पास कुछ नहीं रखने वाला आदमी शायद उन तमाम लोगों से वो काली कमाई निकलाकर ही दम लेगा जो इन्होंने अपने काले कारनामों से इकट्ठा की है और छुपाके बैठे हैं!!

~~गिरधर दान रतनू “दासोड़ी”

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