काश हम भी प्रताप बने होते – “रुचिर”

बिन पूछे ही चला गया।
वह माँ के उर का उजियाला, प्यार लिए बिन चला गया।
बिन पूछे ही चला गया।।
बदहवास व भूखा प्यासा,
दो दिन से बैचेन पडा था।
में पगली क्या ख़ाक समझती,
उसका यह किससे झगड़ा था।
वह आंसू दो टूक बहाकर, प्यारे घर से चला गया।
बिन पूछे ही चला गया।।
दाता कारावास गए थे,
तब मैंने कब आह निकाली।
कोटा केस देख कर मैंने,
रख ली थी मुख पर भी ताली।
मुझको कुछ संदेह नहीं था फिर वह कैसे चला गया।
बिन पूछे ही चला गया।।
कल उसने मुझसे मांगे थे,
धोती हित दो चार रुपय्ये।
मैंने अंटी देख कहा था,
नहीं रुपय्ये मेरे भैय्ये।
कुछ दिन ठहरो फिर ले आना धोती जोड़ा एक नया।
बिन पूछे ही चला गया।।
मेरे देवर जी के घर पर,
जाकर उसने रोटी खायी।
हँसते हँसते उनसे बोला,
मेरी तो कल हुई सगाई।
अब शादी करने जाता हूँ, ऐसा कहकर चला गया।
बिन पूछे ही चला गया।।
देवर जी ने पूछा “निर्मम”,
आड़े हाथों कैसी शादी।
हँसते हँसते वह बोला,
आज़ादी से है मेरी शादी।
देवर जी कहते थे वन्दे वीरम कह कर चला गया।
बिन पूछे ही चला गया।।
मुझसे उसने पूछा होता,
मैं मस्तक पर तिलक लगाती।
घोड़ी पर बिठलाकर उसका,
चुम्बन लेती विदा कराती।
पर वह स्वतन्त्रता का राही माँ से चुप चुप चला गया।
बिन पूछे ही चला गया।।