कहां वे लोग, कहां वे बातें ?

।।18।।
गुण नै झुरूं गंवार!
महात्मा ईशरदासजी बारठ ने कितना सटीक दोहा कहा था कि-
नेह सगा सोई सगा, तन सगा ना होय।
नेह विहूणी ईसरा, करै न सगाई कोय।।
अर्थात स्नेह ही सगे होने का आधार है। इसके उदाहरण प्रहलाद-हिरणाकश्यप-होलिका, व कंस-उग्रसेन आदि को हम देख सकते हैं, जिन्होंने सगे होते हुए भी अपनों के साथ क्या व्यवहार किया था?
श्रुति परंपरा में ऐसी कई बातें हमें सुनने को मिलती हैं, जिन्हें सुनकर मन उन लोगों की मानवता व निर्मलता के प्रति श्रद्धास्पद हो जाता है। जब हम सुनते हैं कि जिन्होंने सप्तपदी में पालन व रक्षा करने का पत्नी को वचन दिया था, उसे निद्रावस्था में पराई भोम और अनजान लोगों के बीच छोड़कर चले जाना तो दूसरी तरफ न रक्त संबंध न जाति का लगाव फिर भी उस स्त्री को अपनी पुत्री समकक्ष मानकर उसके स्वाभिमान की रक्षा मर्यादा में रहकर करने वाले प्रसंग का वातावरण कितना हृदयस्पर्शी रहा होगा। हम केवल इसकी कल्पना ही कर सकतें हैं।
ऐसी ही एक कहानी है केलावा के किसी भाटी की पत्नी व मंडई के मेघवाल माणवा की।
केलावा पोकरण के पास आया हुआ गांव है। केलावा गांव आधा भाटियों के पास था तो आधा रतनुओं के पास। जब पोकरणा खींवा बरजांगोत ने पोकरण से राव नरा की गायों का हरण किया, तब राव गायों की वाहर चढ़ा। दोनों के बीच देवल़िया नाडी पर युद्ध हुआ उसमें राव नरा ने वीरगति प्राप्त की और उनके साथी घायल हुए। जिनकी इस नाडी पर रहने वाले नाल्हा वाछायत रतनू ने सेवा व चिकित्सा की। बाद में जब राव गोयंद नरावत पोकरण की गादी पर बैठे तो उन्होंने आधा केलावा वाछायत नाल्हा को व आधा भाटी वीरम जोधावत को दे दिया।
एक बार इस इलाके में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। अन्न के जांदे पड़ने लगे। यानी-
आधो रैयो ऊंखल़ी, आधो रैयो छाझ।
सांगर साटै धणी गई, (अब) मधरो मधरो गाज।।
ऐसे में यहां का एक भाटी अपनी पत्नी सहित अन्नजल़ की शरण होने को निकला। चलते-चलते वो मंडई (जैसल़मेर) पहुंचा तब तक रात पड़ चुकी थी। पति-पत्नी ने रात्रि विश्राम मंडई के आकड़ों के बीच अचल़ेटे में किया। थोड़ी रात गहराई तो पति उठा। उसने पत्नी की तरफ देखा जो भूख-तिरस की परवाह किए बिना अपने सोहाग के संरक्षण में निश्चित घोरा रही थी। पति ने सप्तपदी में दिए वचनों को तिलांजलि देते हुए निद्रावस्था में ही पत्नी को रामभरोसे छोड़ हाथों में पगरखियां ले ली।
सुबह पंछियों ने चुग्गे की तलाश में अपने आल़खै त्यागे, गायें झूंसरे को रवाना हुई। ऐवड़ की टोकरियों की टंकार व छोकरियों की किलकारियां गूंजी तो वो बेचारी रजपूतण उठी। उसने देखा कि उसका खामंध उसके पास नहीं है। थोड़ी देर तो उसने सोचा कि कहीं दिशा निवृत्त होने या गांव में कोई रोटी-बाटी की जुगाड़ करने गए होंगे। लेकिन जैसे-जैसे सूरज अपने घर से गली में और गली से गवाड़ की तरफ रवाना हुआ तो उसके धैर्य ने साथ छोड़ दिया तब उसका करुण-क्रंदन फूट पड़ा। जैसे ही आकों के बीच एक स्त्री को रोते सुना तो अपनी छांग उछेरते हुए वृद्ध माणवा मेघवाल आश्चर्य के साथ वहां आया। उसने देखा कि एक जवान स्त्री अकेली इस आकों के बीच!रो रही है। वो उसके पास आया और बोला कि-
“व्हाला! तूं कुण है? अर ऐथ की कर रैयी है? थारै साथै कोई दीसै नीं! भलै घरां री दीसै! तूं केथ हूं आई, केथ जावैला?”
तब उस रजपूतण ने कहा कि-
“म्हैं एक अभागण रजपूतण हूं। आभै पटकी अर धरती झाली नीं। अठै न मा अर न मा रो जायो। धणी साथै आई पण धणी नै लागै, कै तो धरती गिटगी कै आभो।”
कहकर वो फिर सुबकने लगी। तब माणवा ने कहा कि-
“अब आप रोवो मत। आप मेरी धर्म की बेटी है। मुझे पत्ता है कि मेरे घर का अन्नजल़ आपको आचरता नहीं है। कोई बात नहीं। मैं आपकी मर्यादा की पूरी रक्षा करूंगा। चलो उठो और मेरे घर चलो।”
रजपूतण उनके साथ उनके घर गई। माणवा ने अपने पड़ोसी कुम्हारों से उसके लिए पानी व रोटी की व्यवस्था करवाई। फिर उसके लिए एक झोंपड़ा बनवाकर पूरे सामान की माकूल व्यवस्था की। काफी महीनों बाद वर्षा हुई। वो भाटी भी कुछ मजदूरी करके पुनः अपने गांव की तरफ आया और आते समय मंडई में उसी जगह पहुंचा। वो पागलों की तरह उस आकों में भटकने लगा। ऐसे अपने ऐवड़ में खड़े माणवा ने उसे देखा तो पूछा कि-
“अरे भइया! असैंधो (अपरिचित) लागै !
की जोवै? की गमायो?”
फिर भी वो कुछ बोला नहीं तब माणवा ने पुनः पूछा कि-
“अरे भइया इयां कालो (पागल) फिरै ज्यां मत फिर, कीं बता? हूं तनां वल़ती (प्रत्युत्तर) देस्यां।”
तब उस भाटी ने झिझकते हुए कहा कि-
“पोर (पिछले साल) हूं ऐथ (यहां) म्हारी लुगाई नै सूती नै छोडग्यो। की पत्तो बेचारी रो की हुवो?”
यह सुनकर माणवा बोला-
“अरे निधणीका तूं राजपूत है! राजपूत दूजां री लुगाइयां माथै ई संकट आयां मर पूरा देवै अर एक तूं है जिको अगन री साख में हाथ झालर आई उणनै इण आकां अर खींपां में सूती नै फिटी की। लख लाणत है तनै। लुगाई नै तैं ऐथ पोर छोडी अर आंणोके (इस साल) खबर लेवै! उवै बेचारी रा हाड ई गिरजड़ां खाया होसै! हमें ई आकां में किसी लुगाई लुक्योड़ी (छिपी) है।”
इतना सुनते ही उस भाटी की रुलाई फूट पड़ी। तब माणवां ने कहा-
“भइया ढफल मत कर माठ झल्ल।
जांको राखै सांइया, मार सकै न कोय।
बाल़ न बांको कर सकै, जे जग वैरी होय।।
थारी लुगाई हाल हूं बतावां।”
इतना कहकर माणवा उसे अपने घर के सामने बने झोंपड़े में ले गया। वहां उस भाटी ने देखा कि उसकी लुगाई झोंपड़े के आगे एक चारपाई पर आराम से बैठी है और उसके आसपास चार-पांच लुगाइयाँ हथाई कर रही है। उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ी कि वो अपनी पत्नी से आंख मिलाकर उसे बतलाए। लेकिन स्त्री की पति को देखकर हृदय में संजोई पूरी संवेदनाएं प्रवाहित हो उठी। पति को देखकर उसकी आंखों से अंश्रुधारा बह उठी। राजपूत भी रो उठा। दोनों को रोते देख माणवा बोला-
“दिनूंगै रो गम्योड़ो आथरणा (शाम) घर आ जावै तो उवै नै गम्योड़ै नीं कैवै। भगवान भली करी कै आखड़िया जैड़ा पड़्या नीं। बाई तूं माठ झल्ल। तूं थारै बाप रै घरै बैठी है। जंवाईसा सारू सीधो कर। लुगायां तेड़ा। कोड करांवा।”
माणवा ने अपने सगे जंवाई सदृश उस राजपूत की सेवा-चाकरी की। अपने घर माफिक अपनी मुंह बोली बेटी के मढां (कपड़े आदि) की। गृहस्थी का सामान उपहार स्वरूप दिया और सिर पर हाथ फेरकर भरे गल़े और झरती आंखों से उसे विदा किया। विदाई के समय उस रजपूतण ने माणवा के लड़कों से कहा-
“भाइयां सुणो! हमें बा बूढा है। सास रो कोई विश्वास नीं है। सो बा सौ वरस (स्वर्गवास) करले तो म्हनै ई पुरजियो (शोक संदेश का पत्र) दिया। पांतरिया (भूलना) मत।”
कुयोग ऐसा बना कि थोड़े दिनों बाद ही माणवा का स्वर्गवास हो गया। माणवा के लड़कों ने अपनी बहिन को याद किया। उन दिनों डाक या फोन तो थे नहीं। अतः समाचार आदि लेकर संदेशवाहक जाया करते थे। जैसे ही संदेशवाहक केलावा पहुंचा और उस रजपूतण को संदेश दिया कि माणवाजी रहे नहीं। इतना सुनते ही रजपूतण को उतना ही दुख हुआ जितना अपने पिता की मृत्यु पर हुआ या होने वाला था। उसने शोक में मुंह ढका और घर में जोर से दूभरी (किसी आत्मीयजन की मृत्यु पर रोना) की। जैसे पड़ोसियों और घर वालों ने दूभरी सुनी तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि ऐसा अचानक कौनसा समाचार आ गया जिससे घर में शोक व्याप्त हो गया। तब उस रजपूतण के जेठ ने आकर पूछा कि-
“क्या हुआ? की कुटाणो हुओ?”
तब उसने कहलाया कि-
“मेरे धर्मपिता माणवाजी मेघवाल मंडई इस दुनिया में नहीं रहे। उवां सारू रोऊ़ं। ”
इतना सुनते ही जेठ को क्रोध आ गया। उसने कहा कि-
“अरे ! ऐड़ा घणा ई मेघवाल मरे। भांभी रे कारणै म्हारै घर में शोग घालण री जरूरत नीं है।”
इतना सुनते ही उस रजपूतण ने जो संवेदनात्मक बात कही, उसे किसी कवि ने अपने शब्दों में यों अभिव्यंजित किया-
गुणनै झुरू गंवार, जात न झींकू जेठजी।
वेल़ा ढाबणहार, मुआं विसरसां माणवा।।
अर्थात मैं किसी जाति या मनुष्य को नहीं रो रही हूं मैं तो उसके गुणों को रो रही हूं। जिसने विपत्ति काल में मुझे सहारा दिया, उस माणवा को तो मरने के बाद ही भूल सकती हूं। जीते जी नहीं।
उस रजपूतण ने अपने पिता की मानिंद माणवा की स्मृति में शोक रखा, पाका ओढ़ा और मोकाण करवाने मंडई गई।
(शिक्षाविद उगमदानजी बारठ सांगड़ की हथाई के आधार पर)
।।17।।
अभांजो (आपका) ऐसाण उतरणोए को नीं!
समय चला जाता है लेकिन बातें रह जाती हैं। इसीलिए तो मोहनराजजी शाह ने कहा था कि-
बातां जासी बीत, जस नह जासी जगत सूं।
गासी दुनिया गीत, चोखा भूंडा चकरिया।।
अतः यह सर्वविदित बात है कि अच्छे की अच्छाई और बुरे के बुराई की बातें चलती रहती हैं। हांलाकि हमारे यहां कहा गया है कि अगर आप बोते बबूल हैं और प्रतीक्षा आम की करें तो ऐसा हो नहीं सकता। आप जो बोओगे वही लाटोगे। लेकिन हमेशा ऐसा ही हो, ऐसी बात नहीं है। कभी-कभी परिणाम अप्रत्याशित आ जाते हैं कि लोग बुराई को अच्छाई से जीत लेते हैं।
कहते हैं कि एक बार जानपाल़िया गांव का एक मुसलमान शफी मोहम्मद अपनी मवेशी यथा गायें, ऐवड़ आदि के साथ फतेहगढ़ के पास आए हुए चारणों के किसी एक गांव आया और उसके तालाब पर उसे पानी पिलाने लगा। जैसे ही वो मवेशी को पानी पिला रहा था कि एक बाजीसा आए। शरीर में भीम सदृश थे। आते ही मवेशी को तालाब से तगड़ा। इतने से ही उनका मन भरा नहीं तो उन्होंने अपनी सदाशयता बताते हुए उसके पास से भुड़की-कुपड़ी आदि छीनकर पानी नीचे उड़ेल दिया। फिर भी उनकी इच्छा तृप्त नहीं हुई। उन्होंने उसकी धक्कों-धूंबड़ों से सराबरा की, फिर विदाई में तालाब की चिकनी मिट्टी उसके नितंबों पर थेथड़दी।
वो बेचारा उनकी सेवाभावना से द्रवित और प्रभावित होकर उस गांव की सीमा छोड़कर चला गया।
कालांतर में उसी गाँव के कुछ सज्जन अपने बल़दों को लेकर गुजरात बेचने जा रहे थे। संयोग से उसी मुसलमान के गांव जानपालिया में कुए पर ढूके। संयोग से वो कुए पर ही था। उसने बैतीयाणों से पूछा-
“हेड़ किथली?”
“हेड़ फलाणै गांव री।”
“मांझै (मेरे) अभो (आदरणीय पूजनीय) भलां आया, जी आया! अभै (आसमान) जोवता अर थे धरती लध्या!
भणा तांझै गांव जो ऐसाण उतरणोए को नी। तांझो असां मथै हिक भाल है”
उसी समय उसने अपनी मवेशी को रोका और उनकी मवेशी को पानी पिलाया।
फिर उसने कहा कि आप बटाऊं हैं अतः रोटी वगैरह जीमके आगे जाएं।
उसने कहा-
“झांखल़ बीजो करे पछै अगे जाया। असां झूंपड़ मांडै बैठां हां। तांझै इया कदै आवण रो काम पड़सै?”
अंधा क्या चाहे ? दो आंखें।
राहगीरों ने हां भरली। शफी मोहम्मद उनके लिए हलवा, अच्छी सब्जी आदि बनाकर इनकी दिल खोलकर सरबरा की। चारणों ने मन ही मन सोचा कि हो न हो इस मुसलमान पर गोयंदजी बाजीसा का कोई बहुत बड़ा एहसान है।
ध्यातव्य रहे कि उस गांव के हाजीजी रां धड़े में गोयंददानजी समेल़दानजी रा अपने समय के खाऊ-खर्चू और आए मेहमान की सेवा करने वाले आदमी थे। उनकी उदारता मशहूर थी। आज भी वहां कहावत चलती है कि दीठो तनै गोयंददान समेल़ाणी नै! गोयंददानजी के पूर्वज हाजीजी की धर्मपत्नी का प्रौढावस्था में स्वर्गवास हो गया था। उनके बड़े लड़के का नाम अचलजी था। एक दिन हाजीजी खाना खा रहे थे। अपनी पुत्रवधू से दही मांगा लेकिन उस दिन दही घरमें कम था। अतः स्त्री स्वभावगत उन्होंने अपने ससुर से कहलाया कि
“आज दही है नहीं। ”
थोड़ी देर बाद अचलजी खाना खाने आए। जब हाजीजी ने उनकी थाली में दही देखा तो उन्होंने निःश्वास छोड़ा। पुत्र समझ गया कि आज पिता के साथ कुछ न कुछ अनहोनी हुई है। उन्होंने अपने पिता से पूछा लेकिन पिता ने घर में कलह की आशंका से कुछ भी नहीं बताया। जब अचलजी ने अपनी पत्नी से पूछा तो उन्होंने सब कुछ सही बताते हुए अपनी भूल स्वीकारी और पश्चाताप भी किया लेकिन बात तो बीत चुकी थी। अचलजी भोजन बीचमें ही छोड़कर सीधे अपने ननिहाल गए और अपने नानाजी से अपनी मौसीजी का हाथ अपने पिता के लिए मांगा। पहले तो नानाजी ने नानुकुर की लेकिन आखिर वे मान गए और अपनी लड़की की शादी हाजीजी के साथ करदी। उन्हीं हाजीजी की वंश परंपरा में गोयंददानजी हुए। जो सपूत चारण थे। जब मुसलमान के मुख से अपने गांव की बार बार प्रशंसा और खुद की आवभगत देखकर उन्होंने ने पूछा कि-
“डाडा ऐड़ो म्हांरो की ऐसाण?
जको थे घड़ी घड़ी याद करो !
थांनै म्हांरै ऐसाण रो पांतरो ई नीं पड़ै। म्हांनै संभल़ावो तो परो।”
तब उस मुसलमान ने कहा-
“अभां माठ झल्लो। ऐसाण री जाद (याद) ई मतै दिरावो। तांझो ऐसाण असांझी सत्त पीढ़ी सों उतरणोए को नी!”
वे फिर पोमीजै और उनकी एहसान की बात सुनने की उत्कंठा बलवती हो गई। उन्होंने फिर कहा का-
“डाडा कैवो तो खबर पड़ै!”
तब उसने कहा कि-
“भणा अभांजे फलाणदान ऐं है कोई? निधणीकै असांजे धणियारां नै कुट्या, तालाब हां तगड़ै पाछा कढ्या। भुड़की पी फोड़ाई। मांझी, तांझै गांम में सेवा ठावकी थई, असां नै पांतरो ई नीं पड़ै।”
इतना सुनते ही उनके मुंह लटक गए। स्थिति साप-छछूंदर वाली हो गई। उनके मौन पकड़ने पर उसने कहा-
“थांने इझल़कण री जरूरत नीं है। अभां, मांझा मैमाण। उवै भलै माड़ू (मिनख) आपरो फर्ज निभायो, असां मांझो फर्ज निभायो।”
।।16।।
हिम्मत और भ्रातृत्व!
राजस्थानी में एक कहावत है कि ‘नर नानाणै अर धी दादाणै।’ वास्तव में हम प्राचीन काल से लेकर अद्यावधि तक ऐसे लोगों पर दृष्टिपात करें तो यह कहावत सत्य प्रतीत होती है। हमारे गांव में मुरल़जी अगरजी के हुए थे। उनका ससुराल सींथल पीथों के बास में सत्तीदानजी के घर था। विदित रहे कि सत्तीदानजी आदि पांच भाई थे और पांडव कहलाते थे। सत्तीदानजी शक्तिशाली पुरूष थे जिनके अनेक किस्से प्रसिद्ध हैं। इन्हीं सत्तीदानजी की पुत्री मोहनबाई हमारे गांव के मुरल़जी(मुरलीदानजी) को ब्याही थी।
एकबार हमारे गांव में जमाना नहीं हुआ। अकाल के समय में ये अपनी मवेशी लेकर पड़ियाल़(फलोदी, जो हमारे गांव से तकरीबन नौ-दस कोस होगा) गोल़ लेकर चले गए। पड़ियाल़ हमारे इलाके में पानी की प्रचुरता के कारण प्रसिद्ध था-
घंटियाल़ी घोड़ा घणा, आऊ घण असवार।
चाखू लांबा झूंसरा, पाणी घण पड़ियाल़।।
पड़ियाल़ चाखू आदि गांव कभी महापराक्रमी वीर जोगीदास पातावत के थे। जिस जोगीदास ने महाराजा बखतसिंह से छ महीने टक्कर ली थी। पड़ियाल़ ठाकुर सोहनसिंहजी जो काफी समय तक सरपंच भी रहे थे। वो साहित्यप्रेमी थे। उनके भाईयों तथा पुत्र की शादी में, काफी समय पहले दो बार मैं भी पड़ियाल़ गया था। शायद 1993-94 के आसपास विद्यार्थी काल में। यों वे मेरे पिताजी के मित्र भी थे। जब उन्होंने मुझे बताया था कि – “एक समय यहां चारणों के अस्सी घर थे। आज जहां ठाकुर फतेहसिंह जी की कोटड़ी के आगे करनीजी का थान है, वो मूर्ति कभी चारणों ने स्थापित की थी। बाद में कुछ चारण गल़त(मर-खप जाना) चले गए तो कुछ न जाने यहां से कहां चले गए।”
सोहनसिंहजी निर्भीक, व साहसी राजपूत थे। लेकिन भाइयों की आपसी रंजिश के शिकार हो गए। उसके बाद ज्यादातर अवसाद में ही रहते थे। और एक दिन स्वयं की बंदूक से आत्मघाती कदम उठा लिया। उनकी आत्मीयता और सनातन प्रेम कम ही लोगों में मैंने देखा हैं। नमन उन महामना को।
इसी गांव में मुरल़जी अपना गोल़ लेकर बैठ गए। दुर्योग से थोड़ा ही समय हुआ था कि अचानक मुरल़जी काल कवलित हो गए। छोटे-छोटे बच्चे। पास मवेशी। अपरिचित गांव के लोग और एकाएक व्यस्क सदस्य बूजी यानी उनकी पत्नी मोहनबाई।
एक जवान स्त्री का पति इस तरीके से चल बसे, उस समय एक अकेली स्त्री की क्या मनोदशा रही होगी ! हम सहज समझ सकते हैं। दिल दहलाने वाले करुण क्रंदन से आसपास का वातावरण भी दुखी हो गया।
थोड़ी देर बाद आसपास के दो-तीन लोग आए और बूजी से कहा कि – “बाई हमे हुवणहार तो हुई, रोयां पार नीं पड़े। छाती काठी राखणी पड़सी। थे कैवो तो दाग अठै ई दे दिरावां?”
बूजी मर्दानी महिला थी। बोली – “म्हारा जेड़ा करम हा वेड़ो काम हुयो पण म्हारै धणी नै अठै दाग नीं दूं। लाश म्हारै गांम ले जावूंला। थे तो एक काम करो कै लाश नै ऊंठ रै पिलाण माथै बंधा दिरावो।”
यह सुनकर उन्होंने कहा कि – “आप अकेली औरत और ये छोटे बच्चे तथा यह जवान मृत्यु ! कैसे आपसे पार पड़ेगी?”
बूजी ने कहा कि “अब यह जिम्मेदारी तो मेरे कंधों पर आ ही गई है तो इसे निभानी ही पड़ेगी। क्या मैं यहां मर जाती तो मेरे पति मुझे गांव नहीं ले जाते? रोने से क्या होना वाला है? और यहां चुप कराने वाला भी कौन है?”
संयोग से उन्हीं दिनों हमारे गांव के विवरदानजी मेहरदानजी रा हमारे गांव के ही किसी ऊन व्यौपारी के साथ अपना ऊंट किराये पर लेकर गए हुए थे। जब किसी ने उन्हें यह बात बताई तो विवरदानजी ने साथ वाले से कहा कि “ऐसी घटना घट गई है और मुरल़जी के बाल बच्चे अकेले हैं। हम भाई हैं, हमारा दायित्व बनता है कि हम अपना ऊंट लेकर उनके साथ गांव जाएं।”
साथ वाले व्यौपारी प्रकृति के थे उन्होंने कहा कि – “आपको मैं किराये पर लाया हूं। अगर इस तरह बीच में जाओगे तो मैं किराये के नाम पर कोडी नहीं दूंगा।”
विवरदानजी जो बाबोजी के नाम से मसहूर थे। जैसा नाम वैसी ही प्रकृति। हृदय में ना जाल न कपट। जैसी कहनी वैसी ही रहनी। यानी करनी कथनी अभेद। विवरदानजी ने उसी सहजता से कहा कि – “लुगाई टाबर एकला लाश ले जावैला! लोग आपांरै माजनै धूड़ नीं न्हांखैला। माथै सेर सूत बांधां! गांम में कांई मूंडो बतावांला? किरायो थारो भूंगल़ी में घाल लेई!! म्है कोई किराये रो बेटो थोड़ो ई हूं?”
बाबोजी ने उसी समय अपने ऊंट पर संझ किए और मुरल़जी के डेरे पर आए तथा बूजी को सांत्वना दी। लेकिन बूजी ने भी दृढता कायम रखी और बड़ी हिम्मत के साथ अपने पति की देह गांव ले आई।
आज भी गांव में बूजी की हिम्मत व विवरदानजी के मिनखापण की बात मौके-टोकै चलती रहती है।
।।15।।
मरट और मिनखपणो!
अभी पिछले दिनों शहर में किसी परिचित के दादाजी की मृत्यु हो गई थी। रात का समय और दुख की घड़ी! सोचकर एक मित्र ने कहा कि “चलो, अमुक मित्र के यहां चलकर उनके साथ संवेदनाएं साझा करते हैं।” कुछ मित्र के प्रभाव व कुछ ग्रामीण स्वभाव के कारण वहां चला गया। लेकिन जाकर देखा तो पाया कि वहां कोई ऐसी दुखद बात नहीं थी जो हम सोचकर गए थे।
एक तरफ उनके दादाजी का पार्थिव शरीर निष्चेष्ट पड़ा था तो दूसरी ओर घर के सभी सदस्य सचेष्ट थे। हम पूरे बैठें भी नहीं थे कि एक किशोर चाय और कचौरी ले आया और बोला -“अंकलजी ! लीजिए।”
मैंने कहा “नहीं भई।”
तभी पास ही बैठें एक भद्र पुरुष ने कहा – “लीजिए भाईसाहब! देखो सब करना पड़ता है। पूरी रात पड़ी है। हमने भी तो ली है!”
मैंने बड़ी विनम्रता से कहा “नहीं रात को मैं कुछ भी लेता नहीं हूं।”
मैंने देखा कि पूरी रात कभी चाय कभी कुछ चलता ही रहा। यह नजारा देखकर मुझे मेरे गांव के किसनीरामजी (किसनगोपालजी) चांडक याद हो आए। बचपन में उन्हें देखा था जब उनकी आयु लगभग अस्सी के आसपास थी। सांवला रंग, कृशकाय शरीर। वे जितने ही सज्जन थे उनकी धर्मपत्नी इसके एकदम विपरीत। उनका और हमारा घर आमने-सामने था। वे 1985-86 के आसपास चल बसे थे।
उनका नित्य का नियम था। चार बजे उठकर कबूतरों को चुग्गा चुगाना। वे कबूतरों के झुंड के बीच जाकर चुग्गा थोड़ा-थोड़ा डालकर चुगाया करते थे। उन्हें क्षय रोग हो गया था और किसी ने बताया था कि कबूतरों के पंखों की हवा लिया करें। ऐसा उन्होंने वर्षों किया तो साथ ही वे सेठ होकर भी रात को हमारे ऐवड़ों के बीच जाकर सोते थे। भेड़ों की गरमास भी क्षय रोग निदान में सहायक है।
लेकिन मैं जो किस्सा बता रहा हूं वो हमारे जैसे असंवेदनशील लोगों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं है।
किसनगोपालजी अपने कुछ साथियों के साथ ऊंटों पर धान लाने हेतु बीकानेर से पूर्व की तरफ गए थे। उनके साथ हुकमोजी सुनार भी थे। दुर्योग ऐसा बना कि हुकमोजी, जिनकी कमोबेस आयु 23-24वर्ष के आसपास बमुश्किल रही होगी, रास्ते में अचानक कालकवलित हो गए। साथ वाले मायुस हो गए तो साथ ही कहा कि ‘हिंदू मरे जठै ई हद हुवै। क्यों नहीं इनको यहीं दाग दे दें।’ यह सुनकर सेठों ने कहा – “नीं, इयां कीकर हो सकै ? आपां हुकमै नै करनीसर लारै पूगाय’र घरै हालसां।” लोगों ने कहा “सेठों ज्येष्ठ का महिना है, यह गर्मी और चार पांच दिनों का पैंडा! (यात्रा) कैसे पार पड़ेगी?”
सेठों ने कहा – “हुकमै री लाश अठै असंधै भूतां में नीं बाल़ूं। आगै हुकमै म्हनै पूछियो कै सेठां इयां कांई डरतां हें करी जको म्हनै बैता ई अरड़-नरड़’र दुरड़ग्या? तो मैं वहां क्या प्रत्युत्तर दूंगा? और क्या हम हुकमे के घरवालों को बताएंगे?”
लाश चार-पांच दिनों से गांव पहुंची। आपको जानकर घोर आश्चर्य होगा कि उस ज्येष्ठ की चिलचिलाती धूप और विकट यात्रा के दरम्यान सेठों ने भोजन तो दूर की बात पानी से ओष्ठ भी नहीं भिगोए थे। साथ वालों ने कहा कि – “सेठों जे थे पाणी नीं पीयो तो थांनै ई हुकमै रै भेल़ो खांधो दैणो पड़सी।”
यह सुनकर सेठों ने कहा कि – “कांई भरतरी हुवणो है? एक दिन तो मरणो ई है पण आंख्यां आगै लाश ! पछै म्हैं पाणी पीऊं !मरणो है कै अठै ई रैणो है। म्है मिनख हूं, गिरजड़़ो नीं। पाणी हुकमै नै अंजल़ी दियां ई पीऊं, पैला नीं।”
हुकमेजी सोनार को दाग देने के बाद सेठ किसनीरामजी नहाए और अपने साथी को जलांजलि देने के बाद पानी पीया। इन किसनीरामजी के पुत्र मोहनजी चांडक जिनकी आयु लगभग नब्बे वर्ष के आसपास है। वे आज नोखा में रहते हैं। वो ही जीवटता। वो ही त्याग और वो ही सत्यवादिता। अपनी के खाऊ। हुकमोजी के एकाएक पुत्र मोतीजी सुनार दुर्ग(छग)में रहते हैं और अस्सी से ऊपर इनकी आयु है।
।।14।।
डांग ले डोकरो आप आयो
हिंदी की एक पंक्ति अति प्रसिद्ध है कि “आवश्यकता आविष्कार की जननी है। ” इसे ही राजस्थानी में कहें तो यों है “पड़ पड़’र असवार हुवै। “ हमारे गांव के हिंगल़ाजदानजी बाजीसा के किस्से सुनते हैं तो वास्तव में लगता है कि आदमी को परिस्थितयां पारंगत बना देती है।
सुना है कि हिंगल़ाजदानजी के माता-पिता इनके बचपन में चल बसे। आजीविका के साधन थे नहीं। ऐसे में ये बचपन में ही किसी के साथ सिंध चले गए थे। इनके दादा रुघजी अपने समय के मौजीज मिनख तथा साधन संपन्न होने के साथ-साथ नामचीन कवि थे। इनकी कविताएं टकशाली व सरस हैं तो साथ ही भाव व भाषा की दृष्टि से भी समृद्ध-
अघट तप तेज इधकार लीधो इमट,
कीरती प्रगट चहुंबार केला।
आपरो भाव दिनरात घट मे अमट,
टोपबंध दिए दरसाव टेला।।(टेलगिरिजी रो गीत)
पास के ही गांव खिखनिया के भाटी राजूसिंहजी ने इनसे कहा कि – “आप मेरा भी एक गीत बनाएं। मैं आपको घोड़ा इनायत करूंगा।”
रुघजी ने शानदार गीत बनाया लेकिन राजूसिंहजी की स्थिति घोड़ा दे जैसी थीं नहीं। अतः बाजीसा ने कहा कि “आप घोड़ा ही घोड़ा है!, गीत के बदले एक बकरी दे दें। मैं घोड़ा मान लूंगा।” लेकिन परिस्थतियां वश अथवा मन बदल जाने के कारण राजूसिंहजी कवि का मन नहीं रख पाए। उस समय रुघजी ने जो एक दोहा कहा था वो आज भी हमारे इलाके मसहूर है-
रजपूती रैयी नहीं, पिटगी आदू प्रीत।
सिटग्यो इक छाल़ी सटै, (म्हारो)गिटग्यो राजू गीत।।
रुघजी खाकै वाले पुरुष थे। यानी वे “भूपां रा भायला हा। “ डाकुओं के साथ रहते थे। सुना है कि एक बार ये धाड़वियों के साथ ‘ईंदावटी'(ईंदा राजपूतों का इलाका) में से निकल रहे थे। उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति खींप के पीछे शौचमुक्त होकर उठा। उन्होंने देखा कि वेशभूषा से भोपा नुमा लग रहा था लेकिन उजल़ाई(सफाई) करने के लिए उसके पास कोई साधन नहीं था। वो व्यक्ति सीधा पास के एक देवी मंदिर की तरफ जा रहा था। ऐसा देखकर रुघजी ने अपने साथी से कहा कि – “मुझे जोगमाया का हुकम हुआ है कि आज पावरा (चमड़े का बना हुआ बड़ा थेला या थेलानुमा) भरके मिश्री व खोपरे खाने को मिलेंगे। चलो अपन भी मंदिर में दर्शन कर लेते हैं।”
रुघजी ने देखा कि वो व्यक्ति उसी मंदिर का भोपा था। काफी लोग भोपाजी को आखा दिखाने व पूछने हेतु एकत्रित हो रखे थे।
भोपाजी एक जाजम पर बैठ गए और आखा देखने लगे। पास ही रुघजी बैठ गए।
दो क्षण ही हुए थे कि रुघजी ने ध्यान मुद्रा में जोर से हाकल की – “अणहींच! अणहींच!!(शौच जाने के बाद सफाई नहीं करने वाला)”
जैसे ही भोपाजी ने अणहींच(अणसींच) शब्द सुना तो उसके हौश उड़ गए। उसने सोचा कि असली भोपा तो ये ही है। उसने आव देखा न ताव। उसी समय रुघजी के पैरों में पड़कर कहा – “हे! माँ जे किणी धूड़ खायली है तो हमकै-हमकै गुन्हो माफ करी!”
ऐसा सुनकर रुघजी ने उसी मुद्रा में कहा “छांट! छांट!!”
छांट बरताने के बाद रुघजी वापिस ध्यान मुद्रा से बाहर निकले और भोपाजी को आदेश दिया कि ये मिश्री और खोपरे इस पावरे में डलवा दें।
रुघजी के तेजजी और तेजजी के हिंगल़ाजदानजी हुए। हिंगल़ाजदानजी के ही पारिवारिक भाई थे मघजी। मघजी ताकतवर व हिम्मती व्यक्ति थे। कहते हैं कि जब कभी गांव में मांस बनता था तो यह चरू के पास बैठते और मांस यह कहकर चखते रहते कि अभी तक पका या नहीं। ऐसा करते करते वो पूरा चरू खाली कर देते थे। यानी एक बकरा चखाई-चखाई में खा जाते थे। आज भी “मघजी वाल़ी चखाई। “ गांव में बहुत प्रसिद्ध है।
कहते हैं कि एकबार गांव में कोई मल्ल आया। गांव के तथाकथित सभी पहलवानों को उस मल्ल ने पटका। तभी किसी एक ने कहा कि- “अब तो मघजी बाजी ई कीं कर सके!” तब दूसरे ने कहा कि- “बाजी तो अबै ढल़ती ऊमर रा है !!” जब पहले ने कहा कि “भई ! डांग भागगी तो ई डोकरी जोगी है। पूछण में हरज ई कांई है?”
लोगों ने जाकर उन्हें बताया कि किस तरह एक इक्के ने पूरे गांव के मल्लों की मल्लाई को ढाई मना दी है। उस समय वो भोजन कर रहे थे। थाली एक तरफ की और उठ खड़े हुए। लोगों ने मल्ल की ताकत बताते हुए कहा कि- “आपसे पार पड़ेगी कि नहीं?” तब उन्होंने कहा कि- “हाल हां अर भल़ै पार को पड़ै नीं! आ किण कैयी?” उन्होंने उस मल्ल को इतनी जोर से पटका की उसको आधा घंटा तो श्वास ही नहीं आया।
कहते हैं कि ये भी आजीविका हेतु सिंध गए थे। वहां इन्हें किसी ने कहा कि “कब्रिस्तान में रात को दीपक करने का काम है, कर लोगें?” उन्होंने कहा “कर लूंगा। ” जैसे ही वे रात को दीपक लेकर कब्रिस्तान की तरफ जाने लगे तो उन्हें लगा कि कोई भटकती आत्मा रास्ता रोककर खड़ी है। उन्होंने बिना डर के कहा-“भाईड़ा! काल़ै कोसां टाबर पाल़ण आयो हूं। पाल़ण दे तो थारी मरजी अर नीं पाल़ण दे तो थारी मरजी पण हूं थारै ई चाल़ां डरूं! वा जागा खाली है।” कहते हैं कि वो छाया क्या थीं क्या नहीं? लेकिन उसके बाद उनके मार्ग में कभी वापिस अवरोध पैदा नहीं किया। मघजी अपनी बेबाकी के लिए मसहूर थे। कहते हैं कि गांव में किसी के लड़के की शादी तय हुई तो उन्हें भी जान चलने के लिए कहा लेकिन ऐन समय पर लड़के के बाप ने कहा कि “मघजी! आप बडेरा हो म्हें सगल़ा जान जावां सो घर री भोल़ावण थांनै है।” यह सुनकर मघजी ने कहा कि-“जान नीं ले जावै तो म्हारै बणां थारै घर रै चूंची लागो नीं।”
।।13।।
करनी करै ! तनै पांणीझरो निकल़ै!!
सरसत ज्यां मूंढै बसै!! या बिन भणियां बातां करै!! आदि काव्यांश चारणों के लिए कहने वालों की बातों पर कोई विश्वास करें या न करें लेकिन मैं अक्षरशः करता हूं। इसलिए नहीं करता कि मैं चारण हूं! बल्कि इसलिए करता हूं कि बिना पढे ही वेद के उचारन करने वाले सरस्वती साधक मैंने मेरे इस लघु जीवन में देखें हैं। जिन्हें अक्षर ज्ञान तो नहीं था लेकिन काव्य का अद्भुत ज्ञान था। काव्य जैसे उनकी जीव्हा से स्वतः प्रवाहमान हो रहा हो। एकदम नैसर्गिक। प्रकृति प्रद वरदान।
हमारे गांव में एक हरदानजी रामप्रतापजी रा हुआ करते थे। सुलझे हुए तथा काव्य के प्रेमी। उनके विषय में सुना है कि वो कैसे ही माठे मजदूर से काम करा लिया करते थे। हर छोटे को लाला के नाम से संबोधित किया करते थे। खेत में मजदूरों को काम पर लगाते और कुछ समय बाद कहते कि –
“बाकी तो पूरां तणर बैवै पण एक आदमी अजै ई खोटाई करै। पण हणै नीं बताऊं !!आथरणा नाम खोलूंला!!”
और यह सुनकर हर आदमी काम मेहनत से करता था। वे दुकान रखते थे। एक बार उन्होंने गोमजी किरपैजी रा को दो रूपये का उधार सामान दिया। उन दिनों दो रूपये की भी कीमत हुआ करती थी। हरजी बाजीसा ने तगादा किया तो गोमजी ने कहा कि –
“आप मुझे खेत का गंवार दो रूपये में तोड़ना ठेकै दे दो।” इन्होंने दे दिया।
गोमजी इनके खेत गए और दोपहर तक एक नैणा किया। दोपहर को हरजी बाजीसा आए और गोमजी से कहा-
“भाई गोम! अजै एक ई नैणो! तो ओ कितै में तूटैला गंवार। मोटयार है तणर तोड़।”
गोमजी ने कहा-
“थे क्यूं सांसै पड़ो ! थे छूटा। ओ म्हारै ठेकै है। आज तोड़ूं तो कांई अर काल तोडूं तो कांई!!”
थारी मरजी ! म्है तो थारै ई भलै कारणै कह्यो। बाकी थारो काम। हरजी बाजीसा ने कहा और चले गए।
एक नैणा गोमजी ने सांझ को फिर किया। हरजी बाजीसा जानते थे कि गोमजी कैसा काम करते हैं!! सांझ को फिर आ गए। और आते बोले –
“लाला ! इंयां किंयां पार पड़ेली!! मोटयार है घणा दिन लगावैला तो घाटो तनै ई है!!”
यह सुनकर गोमजी ने कहा कि-
“म्हे में तो दो हा ऊवां रा ऐ पड़िया दो नैणा!! म्हारा तो दो हा अर दो ढूकग्या!!
आज भी हमारे गांव में यह वाक्य कहावत के रूप में प्रयुक्त होता है कि –
गोमजी वाल़ै दांई, दो ढूकोवो मती!!खैर
मैं बता रहा था कि हरजी काव्य के भी प्रेमी हुआ करते थे। उन्होंने हमारे बाजीसा महेशदानजी को एक समस्या पूर्ति हेतु एक अर्द्ध दोहा कहा –
मर जासां मेसूंदांन!
और पूरा करने हेतु कहा। बाजीसा पूरा करते उससे पहले ही उधर से निकल रही शिवजी दादोजी की माँ, (जिन्हें पूरा गांव दादीजी के नाम से संबोधित करता था) ने सहज भाव से यह दोहा पूरा कर उन दोनों को सुनाया-
मर जासां मेसूंदांन! रड़दो कर कर रातदिन।
भजियो नीं भगवान, कूकर ज्यूं करणी करी।।
शुद्ध साहित्यिक सोरठा। भाव व भाषा दोनों से प्रांजल़। लेकिन मैं जानता हूं कि उनके लिए काल़ा अक्षर भैंस बराबर था।
दादीजी का पीहर ढाढरवाला था। इनके दादा बगसीरामजी लाल़स आठ भाषा निधान थे। बगसीरामजी के चार पुत्र थे-नवलदानजी, आईदानजी, ऊमरदानजी व शोभदानजी। दादीजी शोभदानजी की पुत्री थी। इनका नाम सिरैकंवर था। शक्ति साधना को समर्पित। इनके जबान फलने से संबंधित कई किस्से हैं लेकिन एक आपसे साझा कर रहा हूं।
एकबार ये वृद्धावस्था के कारण गली में धीरे धीरे चल रही थीं कि हमारे पास के ही गांव मिठड़िया के दुरजारामजी कुम्हार अपनी ऊंटगाडी से उधर आए। दादीजी! दादीजी!! दो तीन बार आवाज दी लेकिन इन्हें सुनाई नहीं दी। दुरजारामजी अपने गाड़े से उतरे-उतरे तब तक ऊंट का मुंह उनके सीस को छू गया और उन्होंने अनायस पीछे देखा और कहा –
करनी करै तनै पांणीझरो निकल़े।
आप विश्वास नहीं करेंगे कि दुरजैजी को पाणीझरा (टाईफाईड) निकल गया। भयंकर बीमार पड़े। घरवालों ने इधर-उधर इलाज करवाया लेकिन ठीक नहीं हुए। आखिर दुरजैजी ने अपने घरवालों से कहा कि –
म्हनै दासोड़ी, दादीजी रै पगां में नांखो।!ओ म्हारी भूल रो डंड है। उठै ई ठीक होऊंलो!!
उन्होंने ऐसा ही किया और दादीजी के पास लाए। दुरजैजी ने कहा-
दादीजी म्हारी भूल ही, म्है नीचै उतर र ऊंठ री मोरी नीं झाली!!
बीच में ही दादीजी ने कहा कि –
“कीं नीं रे! तूं ई म्हारो टाबर!!”
तो म्हारै माथै हाथ फेरो! थांरै बचायो बचूंलो!!
क्यूं क्या हुआ? दादीजी ने सहज रूप से पूछा तो दुरजैजी ने पूरी विगतवार बात बताई।
दादीजी ने कहा –
“मोरो लागै रै म्हारी जीब रै जा भगवती ठीक करसी।” और उसी दिन से एक दो दिन बाद उनका स्वास्थ्य सुधर गया।
दादीजी बीमार पड़ी। तो लोगों ने कहा कि हरिरस सुणावो। एक दो आदमी ने सुनाया तो उन्होंने कहा कि –
कोई ऊवै बास जावो अर गिरधर केसु रै नै बुला लाओ, उणसूं सुणूंला!!
कोई मेरे पास आया और कहा कि “दादीजी घड़ी पलक रा है हाल हरिरस सुणा!!”
मैं गया और दादीजी को संबोधित किया और कहा -“हरिरस सुणावूं!!”
उन्होंने कहा –
“हां सुणा! ऐ गैलसफा बिगाड़र सुणावै!! म्हनै सुहावै नीं।”
मैंने जैसे शुरू किया तो वे मेरे से आगे बोलने लगी। मैंने वहां उपस्थित लोगों से कहा कि दादीजी को अभी कुछ नहीं होगा। ये तन्मयता से शुद्ध हरिरस पढ रही हैं। इसके दो वर्ष बाद यानि बैशाख सुदि ग्यारहस वि.स़. 2050 में दादीजी ने उस नश्वर देह को त्याग दिया लेकिन जसदेह आज भी अमर है।
।।12।।
म्हनैं तो फगत उण री पीठ थपथपावणी है!!
महाभारत के पांच पांडव प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार सींथल में भी बीसवीं सदी में पीथों के वास के पांच भाई अपने बाहुबल के कारण इसी नाम से अभिहित किए जाते थे।
पीथों के वास में राछसिंहजी (रासजी)हुए, उनके पांच पुत्र हुए – काशीराम जी, गोरखदानजी, मंगलजी, माधजी व सतीदानजी।
वैसे तो पांचों ही भाई अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण आज भी अपने गांव व समाज में स्मरण किए जातें हैं लेकिन इनमें सतीदानजी अपने बाहुबल के कारण बीकानेर में सामाजिक हथाई में आज भी गर्व के साथ याद किए जातें हैं।
सतीदानजी की एक बहिन केशरबाई मेरे दादोसा गणेशदानजी के ताऊजी बदरीदानजी को ब्याही हुई थी। बदरीदानजी अपने समय में दासोड़ी में ही नहीं अपितु आस-पास के गांवों में भी बहु सम्मानित व्यक्ति हुआ करते थे लेकिन उम्र कम ही लिखाकर लाए थे। भरपूर जवानी में ही काल कवलित हो गए। ऐसे में अपनी बहन व भांजा-भांजियों से मिलने सतीदानजी अक्सर दासोड़ी आया-जाया करतें थे।
एकबार वे दासोड़ी अपनी बहन को लेने आए हुए थे। उस समय गांव में एक आंकल पाडा था जो विशालकाय, ताकतवर व महाक्रोधी था-
पनगां दूध पिलावणो, गोल काढणो गन्न।
भैंस ऊंठ मनभावणो, धणी खावणो धन्न।।
गांव वालों में उस पाडे का इतना आतंक था कि प्रायः लोग उससे बचाव की मुद्रा में रहते थे।
जैसे ही सतीदानजी आए और अपनी बहन से मिले तो बहन ने मिलते ही कहा-
वाह भाई सतू रै हूं तनै ई उडीकती !!तूं आयग्यो, जीव में थावस आयग्यो। एक रोड़ियो है, जको पूरै गांम नै अदा (तंग) राख्यो है। हूं बहू-बहुआरी उण लारै दौड़ती ओपूं कोनी!! तूं उणरै नाथ घाल।
यह सुनकर सतीदानजी ने कहा “बाई भाई सैणां रो गांम !! म्हारो ओ ई काम है कै हूं पाडा नाथू ?”
यह सुनकर उनकी बहन ने कहा, नहीं ! ऐसा नहीं है !! मेरी जबान सचल़ी (शांत) नहीं रही मैंने जीबाछल़ लगा लिया कि मेरे भाई सतड़ को आनो दो कभी!! इस खोले (भैंस/भैंसे के लिए हीनता सूचक ) का क्या? वो तो नवहत्थे को भी काबू में कर लेगा!! अगर तूं भी डर जाएगा तो मेरी जबान का क्या होगा?
सतीदानजी ने कहा नहीं ऐसा नहीं है। मैं आपकी जबान की रक्षा हेतु अपने प्राण भी दे सकता हूं लेकिन भाई-सैण मसकरी करेंगे कि “वीठू पाडो ई नीं छोड्यो। पखालां ढोवैला कांई!! इसलिए कहा वरन इस पाडिये का क्या!!
गांव वाले तो इसी ताक में थे कि कब सतीदानजी आए और कब इस झोटींग से पिंड छूटे। उन्होंने सुना तो तिबारी में आए और सतीदानजी से कहा “गिनायत ओ पाडो तनै ले जावणो पड़सी!! उन्होंने वापिस कहा कि थे रतनू हो ऊंठ दो घोड़ो दो ओ पाडो देयर म्हनैं कांई मोटो करो ? भलै मिनखां!!
गांववासियों ने पूरी हकीकत बताई तो उन्होंने कहा कि मैं मोल किए बगैर पाडा नहीं ले जा सकता। गांव वालों ने उनके आग्रह का आदर करते हुए एक प्रतीकात्मक मोल कर दिया।
उन्होंने अपने ऊंठ पर अपनी बहन केशरबाई, भांजे हेतुदानजी व भांजी ताजाबाई, ऐंजांबाई को को चढ़ाकर बहीर (रवाना) किया और खुद उस पाडे को काबू में करके पीछे-पीछे चलें। दासोड़ी और खींदासर के बीच मोडिये धोरे से ढले ही थे कि पाडे ने अपना वितंडी रूप दिखाया। रिड़ककर पूंछ झाटकी और एकाएक सतीदानजी के सामने भेटी तानली।
संयोग से उनकी डांग ऊंठ के पिलान पर ही टंगी रह गई, लें तो किस प्रकार लें!! उन्होंने पाडे से बचाव हेतु इधर उधर देखा तो एक केलकिया (युवा खेजड़ी, छोटी खेजड़ी) दिखाई दिया। वे उधर लपके तो पाडा भी पीछे का पीछे। उनकी बहन ने देखा कि पाडा बिगड़ गया है और भाई को हानि पहुंचा सकता है तो उन्होंने भी ऊंठ को झेका (बिठाया) और उतरकर उधर लंफी कि देखा सतीदानजी ने शीघ्रता से उस केलकिया को एक ही झटके में उखाड़ा और बिना देर किए पाडे की पीठ पर जरकाया। वार इतना ताकतवर था कि पाडे के चारों पैर वहीं जमी में धंस गए तो साथ ही उसके प्राण पंखेरू भी उड़ गए।
उन दिनों भायसे (पाडे की खाल) की बड़ी अहमियत व कीमत हुआ करती थीं। सतीदानजी ने सोचा कि भायसा गिरज (गिद्ध) यूं ही खा जाएंगे तो क्यों नहीं दासोड़ी चलकर भायसा निकालने वालों को सूचना दी जाए!! वे दासोड़ी आए और भायसा निकालने वालों को बुलाकर वहां लाए जहां पाडा मृत होते हुए भी जस का तस खड़़ा था!! बेचारे पाडे को देखकर डर गए। पास जाने की हिम्मत ही नहीं हुई। वापिस भागते हुए उलाहना देते हुए कहा “वहा ओ ठाकरां म्हां हूं किसै भव रो आंटो साजो? ई जीवतै पाडे री खाल म्हां हूं पड़ावणी चावो!! जिणनैं इड़ियो-इड़ियो (भैंस-पाडे को बुलाने का एक संकेत) म्हांरा धणी ई नीं कर सकिया पछै म्हांरी कांई जनात?”
सतीदानजी ने कहा जावो रै गैलां थे कठै ई आ सुणी है कै कोई साल़ी छोड’र सासू सूं मसकरी करतो हुवै? थां हूं कैड़ी मसकरी? लो ओ देखो पाडो मरियोड़ो है यह कहकर उन्होंने उस पाडे को एक टिल्ला दिया कि पाडे के चारों पैर सीधे हो गए। तब कहीं जाकर उन बेचारों का डर मिटा।
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सतीदानजी वास्तव में बलिष्ठ और निडर व्यक्ति थे। डर ! क्या होता है वे शायद जानतें ही नहीं थे। वे कितने ताकतवर थे आप उनके एक और किस्से से अंदाज लगा सकतें हैं।
किस्सा यूं है कि सींथल़ के पास ही नोरंगदेसर गांव है। वहां के चोधरी भी काफी ताकत वाले थे। चौमासे का समय था। सींथल के बीठू ‘विजजी मोभजी रां’ की गायें नोरंगदेसर के चौधरी गणेशाराम के खेत में घुस गई। जैसे ही विजजीअपनी गायों को निकालने गए और वैसे ही गणेशाराम अपने भाईयों के साथ वहां आ गया। गणेशराम भी बहुत बलशाली व अक्खड़ व्यक्ति था। उसने विजजी को पकड़कर पीटा और बाद में उन्हें बिना लदाव वाले कुंड में डाल दिया और स्वयं अपने गांव चला गया। पीछे से जैसे-तैसे ही विजजी निकलकर सींथल आए। उन्हें अपना अपमान असह्य हो रहा था लेकिन बल़ बिन बुद्ध बापड़ी होती है। क्या करें?आखिर उन्हें एकमात्र सहारा सतीदानजी दिखाई दिए।
वे सतीदानजी के पास गए। सतीदानजी ने उन्हें देखते ही कहा ‘आ भाई विजू!!’ वे कुछ आगे बोलते उससे पहले ही विजजी रोने लगे।
सतीदानजी भौचक्के रह गए। उन्होंने पूछा कि ‘घर में सबकुछ ठीक तो है ना? तूं ऐसे रो क्यों रहा है?
विजजी ने पूरी हकीकत बताई। पूरी बात सुनते ही उनकी भ्रकुटियां तन गई। आ मजाल उण जाट रै छोरे री कै सतू रै टाबरां रै हाथ लगावै!! हाल बता किसो छोरलो है!’
इतना सुनते ही विजजी ने कहा कि ‘वो बहुत ताकतवर है किसी और के साथ ले लेतें हैं।’
‘जा रे गैलसफा सतियो दूजां रै भरोसै हाल ही कांई? एक लागां पछै आज तक किणी पाणी को मांगियो नीं!! हाल!!’
वे दोनों उस गणेशाराम के खेत में आए।
जाट भी समझ गया कि यह सतजी को बुलाकर लाया है लेकिन उन्हें अपनी ताकत पर गर्व था अतः वो कोई विचलित नहीं हुआ।
सतजी ने आते ही कहा कि ‘किसै री मोत आई है रे ! सो सींथल़ रै चारण रै हाथ लगायो है!!’
उसी तैश में आकर उस जाट ने कहा ‘हां बो हूं हूं कीं नौ गी तेरे करै तो!!’
‘संभ अर पैला वार करले, पछै मन में ई रैवैला!!’ सतजी ने कहा तो उसी लहजे में वापिस जाट ने कहा, लेकिन सतजी ने कहा कि मैं पहले वार नहीं करता यह मेरा नियम है अतः पहले तूं ही करले और तेरी ताकत आजमाले।
जाट ने अपनी डांग से वार किया लेकिन सतजी ने टालते हुए कहा ले संभ!! जाटअपनी डांग दोनों पंजों में मजबूत पकड़कर पुनः वार करने की सोच ही रहा था कि सतजी का एक वार उसी डांग पर पड़ा जिससे उस गणेशाराम के दोनो हाथ पुणचों तक चीर चीर हो गए और वो वहीं यह कहकर बैठ गया कि “गईवाल़ मिनख है कै डाकी मेरा हाथ फाड़ दिया।”
सतीदानजी गांव आ गए। दूसरे दिन उस गणेशाराम का बाप दो तीन चौधरियों को साथ लेकर सींथल आया। सतीदानजी के बड़े भाईयों से मिला। भाईयों ने मिलते ही कहा ‘बडा ! सतियै धूड़ खाधी। कपूत अर कल़हगारो है!! म्हें थां सूं माफी मांगां!!
इतना सुनते ही उस चौधरी ने कहा ‘क्यागी माफी? म्है तो उण मरद नै देखण अर पीठ थपथपावण आयो हूं जिकै मेरले गणेशियै कै हें करा दी!!’
इतना सुनते ही वहां उपस्थित लोग एक दूसरे का मुंह ताकने लगे।
ऐसे थे वे लोग जो वैरी का घाव भी दिल खोलकर सराहते थे।
।।11।।
एक नै तो म्हैं खायग्यो!!
बीकानेर का सींथल गांव अपनी कुछ महत्ती विशेषताओं के कारण विशिष्टता रखता है। वैसे तो हर गांववासी को अपने गांव पर गर्व होता ही है लेकिन इस गांव के निवासियों को अपने गांव पर जो गर्व है वो यहां कि बातों और ख्यातों में भी अभिमंडित हो चूका है। जैसे कोलकाता भारत के महानगरों में पहले से ही शुमार है लेकिन सींथल के साहूकार इसे मात्र एक गांव ही मानते थे और सींथल को शहर!! ये जब वहां रहने वाले अपने किसी पारिवारिक सदस्य को पत्र लिखते तो लिखते थे कि “लिखी सैर सींथल़ सूं आगे गांम कलकतियै“। सींथल के निवासी स्वाभिमानी तो होते ही है साथ ही भोजन भट्ट के रूप में भी प्रसिद्ध रहे हैं-
सैर रा साठ अर सींथल़ रा आठ।
लेकिन मैं जो बात बता रहा हूं वो काफी पुरानी है।
सींथल में मूलों के बास में दो भाई रहते थे। नारायणसिंह और मानदान। दोनों भाईयों के पास बहुत जमीन थी। उन दिनों भी कन्या काल होने के कारण बड़े भाई नारायणस़िंह का विवाह नहीं हो पाया। लेकिन मानजी का विवाह वहां रहने वाले रतनू सूजाजी की बेटी के साथ हो गया। मानजी बड़े जागीरदार होने के कारण उग्र स्वभाव के थे। संयोग से ससुराल़ वालों के साथ अनबन हो गई और उनके हाथ से उनका एक साला खेत रहा। सूजाजी ने अपना वो घर छोड़ दिया और खेत में रहने लगे। सूजाजी के पल़ींडै में एक खेजड़ी थी वो आज भी वहां खड़ी है और सूजाजड़ी के नामसे जानी जाती है। एक दिन मानजी की पत्नी अपने पड़ौस में माथो गूंथावण गई। पड़ौसण किसी काम में व्यस्त थीं जिससे उसने मानजी की पत्नी की तरफ कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। इससे उन्हें क्रोध आ गया और बोली कि “भली आदमण ! थारा डोभा फूटोड़ा है!! थनै म्हैं जारोकी (जब से, काफी देर से) उडीकूं अर थूं थारै काम में मस्त।”
ऐसा सुनकर पड़ौसण भी तमतमाकर बोली-“इत्तो मोड़ो हुवै तो जेठाणी ले आवो!! थांरै तो ओ रोजीनै रो छातीकूटो है!! म्हैं म्हारो काम करूं कै थांरी हाजरी बजावूं? म्है कोई आपरी डावड़ी थोड़ी ई हूं!! जिको इतरा राता पील़ा हुवो हो। “
मानजी की पत्नी को अत्यधिक अपमान महसूस हुआ लेकिन धणी रो धणी कुण? वो उठकर बिना बोले अपने घर आ गई और बिना शीश संवारे खुले केशों ही चारपाई पर सो गई। क्रोध इतना आया कि उन्होंने अपना किसी भी प्रकार का गृह कार्य संपादित नहीं किया।
सांझ को मानजी घर आए तो देखा कि घर में मायूसी छाई हुई है और गृहस्वामिनी ने अभी तक दीपक भी नहीं किया है। उन्हें आशंका हुई कि कहीं रतनुओं ने मेरे भाई के साथ कुछ अनहोनी तो नहीं करदी है!! वे बदहवास से घर में घुसे ताकि पत्नी को पूछूं कि यह सन्नाटा क्यों पसरा है?
वे अंदर घुसे तो देखा कि उनकी सायधण चंडीका बनी चारपाई पर खुले केशों बैठी है। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि सदा प्रसन्नचित्त रहने वाली गृहस्वामिनी ने आज यह क्या हाल बना रखा है!!
जैसे ही दोनों कि आंखें मिली और मानजी अपनी पत्नी से कुछ पूछते, उससे पहले ही पत्नी ने कहा कि- “जितै तक जेठाणी नीं आवै उतै तक म्हैं अन्नजल़ लेवूं तो तीनसौ तलाक !! “
यह सुनकर एकबार तो मानजी स्तब्ध रह गए। लेकिन जलदी ही संभलकर बोले कि- “भाग्यवान तूं तो जानती ही है कि मेरा तेरे से कितनी कठिनाई से विवाह हुआ था !! जागीर प्राप्त करनी सहल लेकिन किसी चारण से कन्या प्राप्त करना अत्यंत कठिन। फिर साठ वर्ष के अधखड़ भाई कौ कौन ऐसा चारण होगा जो अपनी बेटी देगा ?”
यह सुनकर मानजी की पत्नी ने कहा कि-“कै तो जेठाणी आवैला कै आ देह ही जावैला !!”
तो तुम ही बताओ कि मैं कहीं से किसी चारण की बेटी उठाकर लाऊं? या किसी रूंख के लगी हुई है जिसे धधूणी से झाड़कर लाऊं? मानजी ने कहा तो उनकी पत्नी बोली कि क्यों न मेरी बहन का हाथ मांगलें!!
तेरी बहन का हाथ ! क्या तेरे भी लासी(वैध्वय की प्रतीक ओढनी) की जच गई है? तेरे घर पर मैं जाऊं! जहां मृत्यु मेरा इंतजार कर रही !! मानजी ने अपनी पत्नी से कहा तो वो बोली कि आप मेरे साथ चलें जो होगा सो देखा जाएगा।
मानजी ने अपनी घोड़ी पर जीण कसी और दोनों सूजाजी रतनू की ढाणी की तरफ रवाना हो गए।
जैसे ही ढाणी स्थित लोगों ने घोड़ी के पौड़ सुने तो सचेत हो गए!! उन्होंने देखा कि खेत की सीमा पर आकर घोड़ी रुक गई। घोड़ी पर से एक स्त्री-पुरुष उतरे। पुरुष वहीं खड़ा रहा और स्त्री निशंक ढाणी की तरफ आ रही है। उन्होंने आश्चर्य मिश्रित नयनों से देखा कि आने वाली और कोई नहीं बल्कि उनकी अपनी बहन और उनके घोर शत्रु मानजी की पत्नी है। जैसे ही बहन-भाईयों की आंखें मिली तो एकबार मौन पसर गया लेकिन दूसरे ही क्षण बहन नै भाई के आगे निशब्द शीश झुका दिया। भाई ने भी निशब्द अपनी स्नेहाधिकारी बहन के शीश पर हाथ रख दिया। दोनों ही अबोल अपनी आंखों से अश्रु वृष्टि करने लगे। आखिर बाप ने पसरे मौन को समेटा और बोले कि- बेटी आखिर तूं “बूढे बाप सूं आंख्यां भेल़ी करण आयगी!! इत्ता दिन तूं थारै भाई नै पेट में घालियां बैठी रह्यी!! पण छौ आज ई आई तो भली, जा खुणै में बैठी मा नै की धीजो दे !!
नहीं जीसा मैं मा को धैर्य देने नहीं बल्कि उसके बेटे को मारने वाला देने आई हूं!! वो देखो घोड़ी पर आपके बेटे का प्राणहंता खड़ा है!! मैं आज आपके यहां मोकाण(किसी के यहां गमी में जाकर बैठक में शामिल होना) करवाने व लांबी (विधवा के पहनने की कंचुकी) पहनने आई हूं!! बहन के ऐसा कहते ही भाईयों ने अपनी तलवारें खींची और उस घुड़सवार की तरफ बढने ही वाले थे कि ढाणी के अंदर से बूढी डोकरी ने कड़क आवाज में कहा “जावो रै कायरां ! म्हारो दूध ई लजायो! थे आ बात कदै सुणी नीं है कै घर आयो अर मा जायो बरोबर !! घर बाप रो मारणहार ई आव जावै तो ई घाव नीं करणो, पछै बहन नै लांबी पैराय’र कांई धनकनामो काढोला ?”
आगे बढने वालों के पैर रुक गए और उनमेंसे एक बोला कि मा फिर हमारा वैर ? यह आज हमारा बहनोई नहीं अपितु शत्रु है और कहा गया है कि “आंटा आनै पर वैर नहीं छोडना चाहिए!!” तूं अपने पुत्र को इतनी निर्ममता से भूल रही है! फिर तूं कैसी मा है?
डोकरी ने उसी दृढता से कहा कि मैं बेटे की मा थी तो इस बेटी की भी मा हूं ! क्या मैं इतनी निर्मम हूं कि बेटी के सुहाग को भी अपनी आंखों मिटता देखूं? अगर आगे बढे तो मैं यह कटारी अपने वक्ष में झोंक दूंगी!!
तो फिर क्या करें ? बेटोँ ने पूछा तो रतनू सूजाजी बोले बेटों तुम्हारी मा सही कह रही है ! इसके अश्रु अभी सूखे ही नहीं है तो क्यों बेटी को लासी ओढाकर इसे पुना खुणा (शोक में बैठने की जगह) पकड़ा रहे हो ? मेरी बात सुनो-
औगण ऊपर गुण करै, दिल को मेट दरद्द
मार सकै मारै नहीं, ताको नाम मरद्द
बेटों का कुछ गुस्सा शांत होने को था ही कि खुद निशस्त्र मानदान उनके सामने खड़ा हो गया!!
मानदान जैसे बलिष्ठ, स्वाभिमानी और अक्खड़ आदमी को एकाएक इस तरह अपने सामने खड़ा देखकर वे भौचक्के रह गए। वे कुछ कहते या करते उससे पहले ही मानदान ने सूजाजी के सामने अपना शीश रखते हुए कहा “ले बडा रतनू ओ थारै बेटे रै मारणहार रो माथो !! उतार र वरसां सूं बल़तै काल़जै नै ठंड पुगा !!”
सूजाजी की आंखों से अविरल अश्रु छूट पड़े और बोले “नीं रै बडा सिरदार !!सूजो इतरो कायर अर निपोचो ई नीं है जिको पगां में राखियै माथै नै रड़बड़ावै !!ले ऊभो हो म्है म्हारै हाथां बेटी नै लांबी नीं पैरावूं !!”
तो फिर आप वचन दें तो खड़ा होऊं!! मानजी ने कहा तो सूजाजी ने कहा- “कैसा वचन ? मैं वैर को त्याग रहा हूं!! सींथल़ रै पाटवी म्हारा पग झालिया मतलब वैर आयो हुयो !!”
“वैर आयो हुयो तो म्हारै भाई रो घर बांधो!! आपरी बाई नारायणसिंह नै दिरावो “!! मानजी ने कहा तो एकबार तो नीरवता छा गई लेकिन दूसरे ही पल अंदर से डोकरी (सूजाजी की वृद्ध पत्नी) ने कहलाया कि “वैर ई आयो कियो तो इण वीठू नै पगां साम्हीं जोवतो मत जावणो दो। बाई दो!! जे केशरिया-कंसूबो अर चूड़ो चूंदड़ी (सौभाग्य का प्रतीक) लिखियो है तो कोई कीं नीं कर सकै। “
सूजाजी ने अपनी बेटी नारायणसिंहजी को ब्याह दी।
साठ साल के नारायणसिंहजी के सात पुत्र हुए- रामदास, पदमसिंह, गणेशदास, प्रभुदान, डूंगरसिंह, और भैरूदान। एक का नाम विदित नहीं है।
नारायणसिंहजी स्वयं बलिष्ठ, पुरषार्थी और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। जब बेटे जवान हो गए तो वृद्ध पिता से कहा कि “क्यों नहीं आप खेत में काम करना छोड़ दें। उन्होंने अपने बेटों का कहा मानकर काम करना छोड़ दिया। संयोग से एक दिन पडोसी गांव नापासर का एक सेठ (नाम याद नहीं) जो इनके धर्मभाई थे, वो आ गए। नारायणसिंहजी के खेत लापसिया में ल्हास थी। आस-पास के अन्य कई गांवों के लोग इनके खेत ल्हास में आए हुए थे।
नारायणसिंहजी अपने डेरे में आराम कर रहे थे कि सेठ ने पूछा “भाई नरा ! कस्सी बेगी खांधै घाली है ! जे बाल़कियां घर बसतो हुवै तो बाबो बूढली क्यां लावै?”
सेठां छोरा ई म्हारा जाया है!! आप तो म्हारी हाणी (समव्यसक) रा हो बाकी कोई मोटयार हुवै तो भ्रम काढ लेता! नारायणसिंहजी ने कहा तो सेठ ने कहा कोई बात नीं नरजी डांग भागी तो ई डोकरी जोगी तो है !! तनै तो को निभतो नीं पण छोरां जोगो थारो ओ भाई है।”
सेठ और नारायणसिंहजी के सातों बेटे खेत के काम में लगे। पूरै दिन न तो सेठ ने पीच (पानी पीना) की और न ही नारायणसिंहजी के लड़कों को करने दी। पूरे दिन एक नब्बे साल के वृद्ध ने छक जवानों के साथ झफीड़ से कस्सी खींची लेकिन हार नहीं मानी आखिर सूर्य भी अपनी मा के घर चला गया !! तब इन्होंने कार्य छोड़ा ! अफसोस कि इस जिद्दीपन का शिकार नारायणसिंहजी का छोटा बेटा हो गया। जैसे ही काम छोड़ा और उसने प्यास से व्याकुल होकर अपने प्राणों को छोड़ दिया। स्तब्धता छा गई कि एक वृद्ध बाप को यह खबर कैसे दी जाए?
सन्नाटा और मातम छा गया आखिर रामदास ने सेठ से कहा कि- “बाबा हमें आ बात तो जीसा नै थे ई कैवो म्हांरी हूबाड़ को फाटै नीं। “
यह सुनकर सेठ ने कहा जावो रै भोल़ियां वो बाप अर हूं वडो बाप!! फरक कांई वो पापरो बाप अर हूं धरम रो!! पण हूं ई छोकरै रो काल़ आज जोग सूं आयो। डाकी हो सो ई नै खायग्यो। काल़चो काचो कियां कांई हुवैला? हालो बतावां।
सेठ और अन्य भाई अपने सबसे प्यारे भाई की मृत देह को लेकर डेरे आए। सेठ ने नारायणसिंहजी से कहा “भाई नरा! थारै एक छोकरै नै तो इण डाकी खाधो पण इण छवां नै भलांई किनै ई फैंक, कठै ई नीं अड़ै।”
यह सुनकर नारायणसिंहजी ने अपने दिल पर पत्थर रख लिया।
।।10।।
ले भाई तोल़ा! थारो काम काढ!!
हमने पढा है कि बीरबल ने मित्रों को तीन श्रेणी में विभक्त किया है-मितरोल़ियो, मीत और यार। बीरबल ने कहा है कि ‘यारी का घर दूर होता है!’जो वस्तुतः सटीक लगता है। यार को पाना बहुत दुश्कर कार्य है क्योंकि यारी होने के बाद तेरा और मेरा का भेद अभेद में बदल जाता है। इसलिए तो महात्मा ईशरदासजी बारठ ने ईश्वर को ‘यार’ कहकर भी संबोधित किया। यानि मित्र कहने से और यार भावों को समझकर कार्य संपादित करता है। कृष्ण और अर्जुन अभिन्न मित्र थे –
साचो मित्र सचेत, कैयो काम न कर किसो?
हरि अरजन रै हेत, रथ कर हाक्यो राजिया।।
यानि कहने से कृष्ण अर्जुन के सारथी बने थे, लेकिन अपनी इच्छा से नहीं !लेकिन यार के बीच औपचारिकताओं का पर्दा नहीं होता।
ऐसा ही एक यारी का किस्सा है सींथल के तोलजी सोनी और खेतजी (बल्लजी रा) बीठू का।
सींथल में तोलजी सोनी अपने हुन्नर और ईमानदारी के कारण न केवल गांव में अपित इतर भी अति प्रसिद्ध थे तो इनसे ही ज्यादा प्रसिद्ध थी इनकी दुकान- ‘तोल़ोजी रो हाटड़ो।’
इस ‘हाटड़ै’ में दिन-रात स्वर्ण आभूषण घड़े जाते थे साथ ही वहां साहित्यिक और सांस्कृतिक विमर्श भी हुआ करता था। कई विद्वान चारण वक्ता और श्रोताओं के रूप में अपना अवदान देते थे। ‘हाटड़ै’ में समय की कोई पाबंदी नहीं थी। अतः काम और हथाई अनवरत चला करते थे।
एक दिन रात का तीसरा प्रहर अपने अवसान की ओर अग्रसर था। हाटड़ै मे केवल तीन व्यक्ति मौजूद थे-तोलजी, इनके पुत्र शिवजी (शिवरतनजी)और खेतजी बीठू। रात का समय था इससे खेतजी की आंखों में नींद आने को छटपटा रही थी! कभी खेतजी नींद पर भारी तो कभी नींद खेतजी पर। खेतजी को नींद में समझकर तोलजी ने अपने पुत्र को फुसफुसाते हुए कहा “शिव! काम घणो ले लियो! ओछी पूंजी धणी नै खावै! सावा सांकड़ा अर च्यार रुपिया री मजूरी पण मींडा अणूंत भाठै सूं काठी!गैणो लोगां नैं घड़र कठै सूं दैणो रैयो? वैण चूकां बेइज्जती होई सो न्यारी !”
शिवजी कुछ कहते उससे पहले ही खेतजी उठे और बिना कुछ बताए अपने घर चले गए! घर जाकर उन्होंने अपनी पत्नी से कहा “ले!थारो पूरो गैणो-गा़ठो दे तो ! तोल़जी रो एकर तो अड़ियो काम काढां। “ उनकी पत्नी ने बिना किसी शिकन के पूरे आभूषण एक ही पल में लाकर दे दिए! शायद राजस्थानी कवियों ने ऐसी स्त्रियों के लिए कहा होगा-
कांई पाड़ोसण बापड़ी, नाक हलावै नत्थ।
की वरिया मो कंथड़ै, हेम दियो परहत्थ।।
खेतजी बमुश्किल आध घंटे से पहले ही वापिस हाटड़ै आ गए।
बाप -बेटे ने देखा कि खेतजी इतनी द्रुतगति से वापिस क्यों आ गए? उन्ह़ें आशंका हुई कि कहीं कोई अनहोनी तो न हो गई हो। वे कुछ पूछते उससे पहले ही खेतजी अपने पास की पोटली देते हुए कहा “लो तोल़जी एकर तो थांरो काम काढो !आगे री आगे देखसां !”
तोलजी ने बड़ी कृतज्ञ भावों से देखा तो करीब 50-60 भरी स्वर्णाभूषण उस पोटली में थे। तोलजी ने पूछा “कितने क होंगे? अपन तोल ले जरा इसको !”
“जा रे! भेल़ा बैठर कोई कवा गिणीजै?थारै घड़ियोड़ा है अर पाछा घड दैई !”
खेतजी के अप्रतिम विश्वास को देखते हुए तोलजी आगे कुछ बोल नहीं पाए!
।।9।।
भाई रे थारो एहसान है! जको म्हांनै कूटिया नीं!!
जिण भूइ पनँग पीवणा,
कैर कंटाल़ा रूंख !
आकै फोगै छांहड़ी,
हूंचां भांजै भूख !!
राजस्थानी कवि ने वर्षों पहले अनुभूत करके यह दोहा कहा था जो हमारे इलाके पर तो पिछले सालों तक सटीक बैठता था। इसका एक उदाहरण काफी वर्षों पहले का है।
हमारे गांव दासोड़ी में गुलामजी तेली हुए थे। बातपोश व सुलझे हुए आदमी थे। एकबार वे अपने चचेरे भाई के साथ दासोड़ी से झझू जा रहे थे। उन दिनों बसें तो नाम मात्र की ही थी और थी वो भी मार्ग में रूठ जाती थी। तब लोग धक्के देकर उन्हें मनाया करते थे। ऐसे में गुलामजी अपनी ऊंटगाड़ी पर ही यात्रा किया करते थे। यह वाकया बताऊं उससे पहले गुलामजी का एक दिल्ली का किस्सा बताना चाहूंगा। वे अपनी जवानी के दिनों में अपने कुछ साथियों के साथ खाने-कमाने दिल्ली गए थे। वहां वे कुछ खरीदने गए लेकिन संयोग से ठग बाजार में चले गए!! ठग उनको अंडरग्राउंड में बनी दुकानों में ले गए और खरीदारी पर जोर देने लगे। वे समझ गए कि उन्होंने कुछ मोल भाव किया तो जबान में फंस जाएंगे। ऐसे में उन्होंने, दुकान मालिक से कहा “भाई हम तो ठहरे मारवाड़ी! हमारी सभी लेनदेन उधार चलती है और हम फसल निकालने पर हिसाब करतें हैं अगर इतने ठहर सकते हो तो चाहे जो चीज दे दो वरन मेरे पास तो नगद पैसा है नहीं! संभाल ले सकते हों !!” दुकानदार ने कहा निकलो यहां से साला हमारा ही बाप निकला।
खैर, मैं बता रहा था कि वे दासोड़ी से झझू जा रहे थे। मार्ग में विश्नोइयों का गा़व चकड़ा (चक विजयसिंहपुरा) आता है। वहां उन्होंने देखा कि एक खेत में बड़े-बड़े मतीरे लगे हुए हैं-
मोठ मतीरा बाजरी, काचर खेलर खाण।
धन अन्न धीणा धोपटा, वरसाल़ै बीकाण!!
उन्होंने भाई से कहा “जा दो पक्के हुए मतीरे ला आ।” भाई गया और दो-तीन अच्छे मतीरे ले आया। जैसे ही उन्होंने मतीरे फोड़े और खाने ही वाले थे कि देखा कि एक विश्नोई नौजवान हाथ में लट्ठ लिए गालियां निकालता हुआ आ रहा है। आते ही पहले तो उसने उन दोनों के हाथ से मतीरे की खुपरियां छीनी और उसके बाद उनसे पूछा “क्यूं रे ! खेत थांरे बापको है कै, जिको बिन पूछियां मतीरा तोड़िया? ओ गेड दीसै एक टेकी तो भोगन री किरची किरची हो जावैला !” इतने में गुलामजी ने कहा “ना भाई खेत थारो र थारै बाप रो ! म्हांरी धूड़ खावणी माफ कर वीरा। ” वो मान गया और अपनी खुपरियां व बाकी दो मतीरे वापिस ले गया।
इस बात के काफी समय बाद झझू के आस-पास भयंकर काल पड़ा और हमारे गांव में जमाना था। वो ही विश्नोई पशुओं के लिए लांसू(फोग वृक्ष की पत्तियां) इकट्ठा करने के लिए हमारी कांकड़ में आया और संयोग से गुलामजी की ढाणी पहुंच गया। गुलामजी ने तो देखते ही पहचान लिया लेकिन वो गुलामजी को पहचान नहीं पाया।
गुलामजी ने अपने लड़कों से कहा “लाओ रे भाई सिनानी (विश्नोइयों के लिए सम्मानजनक उद्बोधन) खातर मांचो ! अर चोखा देख र मतीरा !”
बच्चे, अच्छे मतीरे लेकर आए। विश्नोई ने मतीरे खाए। फिर खाना खाया और गुलामजी के खेत से ही लांसू इकट्ठे किए। वो गुलामजी के व्यवहार से अभिभूत हो गया और बोला “खांजी किनाई (कभी) म्हांरै आईयो !”
वो कुछ और कहता उससे पहले ही गुलामजी ने कहा “ना भाई रे मालक टाल़ै थारै आवणो ! भोल़ै बामण भेड खाई अर भलै खावै तो राम.दुहाई। ”
विश्नोई ने ऐसा उत्तर सुनकर आश्चर्य से पूछा “क्यूं खांजी इसो के है म्हांरै गा़म ?”
गुलामजी ने कहा “नीं भाई इयां तो थारो एक एहसान है म्हांरै माथै !!”
उसने और आश्चर्य से पूछा “मेरो (मेरा )”
“हां भाई थारो ” गुलामजी ने मतीरों वाली पूरी कहानी सुनाते हुए कहा “भाई रे! तैं उणदिन इतो तो मिनखपणो राखियो कै म्हांनै गेड (लाठी) सूं कूटिया (पीटना) कोनी। ओ थारो एहसान म्है जीवूं जितै भूलूं कोनी !!”
उसे भी पूरी बात याद आ गई लेकिन आगे वो कुछ बोल नहीं पाया।।
।।8।।
गांव की ईमानदारी का सवाल जो ठहरा!
कुछ लोग अपने जीवन का यह ध्येय बनाकर ही जीते हैं कि ‘राम -राम जपना, पराया माल अपना ‘ या-
अपना स्वार्थ संधते,
लोग हंसे तो हंसने दो।
सीरा खाते दांत घिसे,
तो घिसने दो।।
कुछ के जीवनादर्श ही यह होते हैं कि “परायो धन, रगत जैड़ो ” यानी-
हक री लेय हजार, बेहक राख हराम ज्यूं।
समझै नीं संसार, साची बातां शंकरा।।
मैंने हमारे गांव में एक ऐसे व्यक्तित्व को देखा है जो कम बोलना और पूरे तोलना में ही विश्वास रखता था। सादा जीवन और उच्च विचार, उनके जीवन का ध्येय था। पूरा गांव ही नहीं अपितु चोखल़ै में भी लोग उनकी मिसाल देते थे। वे थे विसनदानजी, जो विसनजी बाजी, विसनजी भाभोजी, विसनजी भीखजी रा, के नामसे सर्वविदित व सम्मानित नाम।
लोगों से सुना है कि इनके पिताजी क्रूर प्रवृत्ति के आदमी थे। काफी धनवान थे। उनकी टक्कर का पूरे गांव में एक ही घर था जुगतोजी सुथार का। ये अक्सर कहा करते थे कि अबकी दफै भयंकर काल पड़ेगा। तब एक मेरा घर रहेगा और जुगते कारीगर का, जब हम एक-एक सिट्टा, मजदूरी का मजदूरों को देंगे और मजदूरी कराएंगे। इनके उलट विसनजी बाजी इतने ही सहज, सरल और सादगी की प्रतिमूर्ति थे। बास के बच्चे चाहे किसी के भी हो साधिकार विसनजी बाजी के लाड का हकदार थे। अक्सर पांच-छः बच्चे इनके इर्द-गिर्द रहते ही थे, जिनमें से एक दो कंधे पर, एक दो हाथों के लटूंबै ( लिपटे) हुए।
हमारे गांव में ही नहीं अपितु चोखल़ै में भी ‘विसनजी रो झूंपड़ो‘ प्रसिद्ध था। जो हर किसी मेहमान के लिए खुला था। सिंवाल़ियै ठाकर मुकनसिंहजी की अतिथि सेवा व चंवरै(झूंपड़ै) की प्रशंसा किसी कवि ने की थी, वो इनके झोंपड़ै पर भी सटीक बैठती है-
चंवरां वाल़ी चूंप, भुरजां सूं दीसै भली।
राजै थल़वट रूप, सिरियंद मुकन सिंवाल़ियै।।
इनके पास खूब ऐवड़(रेवड़) व सांढियां थी। ऐवड़ हमारे पास भी था। जब मैं छोटा था तो खिंदासर के एक भैरजी भाटी जो पूरे इलाकै में ‘भैरजी बाधी हांडी वाल़ा’ के नाम से मसहूर थे। वे ज्यादा डीगे(लंबे) तो नहीं थे परंतु शारिरीक रूप से बड़े हृष्ट-पुष्ट थे यानी भोजन भट्ट थे।
जब गांव की स्त्रियों में किसी बात को लेकर झगड़ा हो जाता था तो ये एक दूसरे को शाप देते हुए कहती सुनी गई कि ‘राम करै थारै भैरजी बाधी हांडी वाल़ो आवै।’
यानी पूरी खीचड़ै की एक हांडी एक बार में चट कर जाते थे। वो अक्सर हमारे गांव आते रहते थे। वो हमारे गांव में दो ही जगह रुकते थे, एक हमारी गडाल़ में व दूसरी विसनजी के झोंपड़ै। मेरे बासा(भुवाजी जो बाल़ विधवा थी और हमारै साथ ही रहती हैं) का स्वभाव थोड़ा कड़क था और उनको कोई कुछ भी नहीं कहते थे। जब भैरजी आते तो यह कहती ‘ऊं आयग्या !कांई भूलग्या, जिको लेवण आया हो?’ मेरे दादाजी और इनके बड़ा प्रेम था। ये इतनी ही सहजता से कहते ‘बाई तूं अकाज मत कर, पैला थूं जीमावैला जिको जीमलूं ला अर पछै विसनै रै झूंपड़ै!! अबै तूं राजी। न कोई शिकन न शिकायत। वास्तव में वे जीमकर ही जाते थे और वापिस भी उसी तन्मयता से आते थे जैसे उनका अपना ही घर हो। गडाल़ में चारपाई पड़ी रहती थी। निकाल़ी और घर के भाति(सदस्य) की भांति आडटेड करते थे।
विसनजी के झूंपड़ै की बात चली तो मुझे एक छप्पय की कुछ पंक्तियाँ याद गई जो इनके ऊपर सटीक लगती है-
रजै घरां नैं रंग,
पई अन्नजल़ नित पावै।
रजै सरां नैं रंग,
जीव तिसियो नह जावै।।
झोपड़ै में इनके बड़े भाई भैरजी जो जन्मांध थे, हर समय मिलते थे। इतने सचेत थे कि कुए से ‘बारा’ स्वयं लेते थे। कोई भी आ गया तो घड़ा खाली नहीं भेजा यह उनका नियम था। विसनजी हमेशा अपना चोल़ा कंधे पर रखते थे, पहनते नहीं थे।
एकबार देराजसर के आदूजी जाट व शेरोजी जाट अपना ऐवड़ लेकर दासोड़ी आए। काफी दिन रहे। जब जाने लगे तो इन्होंने अपने ऐवड़ की गिनती की तो एक गाडर(भेड़) कम मिली।
पंचायती हुई। इन्होंने कहा कि – “हमारी गाडर आपके गांव में खो गई है।” और जिन-जिन के पास ऐवड़ थे उन्होंने कहा हमारे ऐवड़ो में है नहीं। विसनजी को जब पता चला कि जाट देराजसर अंबादानजी के गांव के हैं। (ज्ञात रहे कि अंबादानजी वो व्यक्तित्व था, जब चारण छात्रावास बीकानेर के निर्माण-निमित्त चारण सम्मेलन रतनगढ में करना तय हुआ और जैसे ही लोग वहां इकट्ठे हुए। अंबादानजी को पता चला कि रतनगढ में चारण रुकेंगे ! और हमारा गांव नजदीक है। ये वहां गए और बिना तैयारी सब लोगों को जबरन अपने गांव देराजसर ले आए। अभूतपूर्व स्वागत किया। ) विसनजी बाजी पंचायत में खड़े हुए और कहा-
“हां भाई चौधरी ! थारी लरड़की म्हारै ऐवड़ में है, हाल लिया।”
किसी ने सही कहा है-
जस जीवण अपजस मरण, कर देखो सह कोय।
कहा लंकपति ले गयो, कहा करन् ग्यो खोय।।
कुछ समय बाद जब आदूजी अपना ऐवड़ वापिस अपने गांव ले जा रहे थे तब गारबदेसर गांव में रुके। गारबदेसर किसनसिंहजी जैसे भक्त का गांव। किसनसिंहजी भक्त, कवि व मानवीय गुणों से अभिमंडित व्यक्ति थे। उनका ये दोहा बहुत प्रसिद्ध है-
गारबदेसर गांम में, सह बातन को सुक्ख।
ऊठ सवारै देखणो, मुरल़ीधर को मुक्ख।।
किसनसिंहजी के कई दोहे अति लोकप्रिय हैं। एक दोहा कितना सारगर्भित है-
सौ कोसां बिजल़ी खिंवै, तासो किसो स्नेह।
किसना तिसना जद मिटै, (जद) आंगण वरसै मेह।।
इसी गारबदेसर गांव में एक आदमी ने कहा कि – “भाई आदूजी आपकी भेड़ मेरे ऐवड़ में रह गई थी।”
आदूजी ने देखी और पहचान ली। ईमानदार थे, अपराध बोध हुआ। अब क्या करें!! कुछ वर्षों बाद उनका वापिस हमारे गांव आना हुआ तो वे सीधे तीन-चार गाडरें लेकर विसनजी बाजी के पास पहुंचे और माफी मांगते हुए कहा कि-
“बाजीसा ! म्हारै माथै आप पाप चाढ दियो। म्हारी लरड़की अठै गमी ई नीं ही। ओ म्हांरो फखत भ्रम हो, अर म्है जिद कियो। आप जिकी गाडर दी ही बा, दो तीन बैम ब्यागी है सो ऐ लिरावो अर म्हनै माफी दो।”
साथ ही आदूजी ने कहा कि – “आपके पास मेरी गाडर थी ही नहीं तो फिर आपने दी क्यो?”
विसनजी ने बड़ी सहजता से कहा – “एक तो म्हनै ओ पूरो पतियारो हो कै थे साचड़िया मिनख हो। कूड़ नीं बोल सको। म्हनै ठाह पड़ग्यो कै थांरी गाडर गमी जरूर है। भलांई गमो कठै ई! दूजो थे अंबादानजी रै गाम रा हो तो भाई-सैण कांई सोचैला का खूटोड़ा म्ह़ांरै चौधर्यां री लरड़ी ई खायग्या। गाम री साख रै बट्टो लागतो सो धन भलांई जावो ईमान नीं जावणो चाहीजै।”
।।7।।
जीवटता जिनका पर्याय थी
राजस्थानी की एक है कहावत है ‘नर नानाणै, धी दादाणै ‘ सही और सारभूत है। जब हम, हमारे परिचित या आस-पास के चेहरों को देखतें हैं तो यह सत्य प्रतीत होती है। मेरे बाजीसा(दादोसा गुणजी के बड़े भाई) महेशदानजी, जिनका ननिहाल सुवाप था। जब मैं छोटा था तो ये अपने नानाजी करनीदानजी किनिया का एक किस्सा सुनाते थे कि एक बार कोई चोर उनकी ढाणी में घुसा, वहां कुछ सामान तो मिला नहीं, एक सुंदर कुल्हाड़ी थी, वो चोर ले गया। चोर इतना चतुर था कि अपने पैरों पर चिंथड़े लपेट रखे थे ताकि कोई पागी(पैरों आदि के चिह्न वगैरह देखकर पहचानने वाला) पैर न पहचान सके। उसकी दाहिनी हथेली का कुछ हिस्सा उनके फलसै का बाहर टिक गया। जब करनीदानजी अपनी ढाणी आए। उन्होंने ढाणी के बाहर देखा कि पगों के चिह्न जैसे कुछ मंड रखे हैं लेकिन किसके पैरों के निशान है ? पता नहीं चला। जब उन्होंने इधर-उधर देखा तो फल़से के बाहर एक हथेली का निसान मिला और कुछ नहीं। बात आई-गई हो गई।
एक बार भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा तो लोग-बाग अपनी मवेशी लेकर सिंध की तरफ गए। सिंध में जिसके पास रुके, वो आदमी अपने घर पर एकाएक था। अतः स्वयं रोटी पकाने लगा और करनीदानजी उसके पास बेठे थे। जैसे ही उसने बाजरी की रोटी को तवा पर रखा और हथेली मंडी। करनीदानजी अपनी जगह से उठे और उस व्यक्ति का मुर्चा पकड़ लिया। उसने सहमकर कहा “क्यों भई यह क्या बात है? मेरा हाथ इस तरह क्यों पकड़ा है?” तब करनीदानजी ने कहा “भाई! सच-सच बताना कि तुम इतने वर्ष पहले सुवाप गांव की एक ढाणी से कुल्हाड़ी चुराके लाए या नहीं?”
उसने सहजता से कहा “हां, लेकिन तुझे कैसे पता चला?” करनीदानजी ने कहा “तुमने वाकई चोरी बड़ी होशियारी से की लेकिन तुझसे एक चूक हो गई कि तुम्हारी यह हथेली मेरे फल़से के बाहर टिक गई!” वो मान गया कि करनीदानजी वाकई पागी हैं।
बाजीसा भी हमारे इलाके के श्रेष्ठ पागी थे। वो कहते थे कि यह गुण मुझे विरासत में ननिहाल से मिले हैं। वे पचास वर्ष के हो गए तब पढना शुरू किया और हिंगल़ाजदानजी को अपना गुरु बनाया था-
लालच हो कछु लैण रो, कई न सरियो काज।
वरस पचास वोल़ाविया, (जणै)हेर्यो गुर हिंगल़ाज।।
हिंगल़ाजदानजी भी हमारे गांव के नहीं अपितु पूरे इलाके के जाने-माने वैद्य थे। सुना है कि मुरारजी (किरपैजी रा) बीमार पड़े और देहावसान हो गया। जब उन्हें अर्थी पर लिटाया गया तब हिंगल़ाजदानजी आए और अर्थी पर उन्हें देखा। देखकर अपने घर गए और कुछ औषधि लेकर आए तथा वहां खड़े लोगों से कहा कि “ई मुरारिये नै च्यार-पांच जणा झाल लो नींतर ओ उठतो ई म्हारै सूं चटी करसी!” लोगों ने कहा कि “बाजीसा कांई बिलल़ी बात करो? आं रो तो हलावो-चलावो(मुर्दे को श्मशान की तरफ ले जाने की व्यवस्था) हुय रह्यो है अर आप झालण रो कैय रह्या हो!!” उन्होंने पुनः उसी दृढ़ता से कहा तो लोगों ने एक क्षण बैद्यजी का मन रखने को पकड़ लिया। उन्होंने उनकी आंख में न जाने कौनसी दवा डाली थी कि केवल पांच मिनट बाद वे आंखों को मलते हुए जोर से चीखकर उठ खड़े हुए और कहा कि “अरे ई गंजिये (वे गंजे थे) म्हारी आख्यां बाल़दी।” उसके बाद वे काफी वर्ष तक जिए थे।
हिंगल़ाजदानजी अच्छे कवि व पशुप्रेमी थे। उनके पास अच्छी नश्ल की गायें थी तो एक भैंस भी थी जो फांडर(जिसमें प्रसव धारण करने की क्षमता न हों) थी। उन्होंने वो भैंस पास के ही गांव खिखनिया के भाटी भोजराजजी को दे दी थी। भोजराजजी अपनी निष्ठुरता के लिए इलाके में मसहूर थे। जब कवि को लगा कि मालिक बदलने पर शायद भैंस मन ही मन में खुश हो रही है! तो उन्होंने एक कविता बनाई थी। उसकी दो पंक्तियां पेश है-
मनमें घण मोद करे महकी,
आज मेरो दिनमान फुर्यो है!
(पण) जमराज फिरै जिम जीव दोल़ो,
ज्यूं ही भैंस दोल़ो भोजराज फिर्यो है।।
उनके दो वृद्ध विधवा चाचियां थी जो उनके साथ ही रहती थी। उनमें से एक चाची मूंझासर की थीं। जब वे अपने भाई-भतीजों से मिलने गई थीं तब घर से एक पटू (ऊंन से बना हुआ सुंदर तथा कशीदाकारी किया हुआ बड़ा शॉल) ओढकर गई थी। वापिस आने लगी तो भतीजों ने उनका वो पटू ठगाकर रख लिया। शर्दी का समय था। उन्हें जब बगैर पटू देखा तो कवि से रहा नहीं गया और बेबाक कहा-
लूचां लियो लंकारियो, कर कर मनमें कोड।
मंझ सियाल़ै सी मरै, (थांरी) भुआ उघाड़ै भोड!!
खैर उन पर कभी विस्तार से लिखूंगा। अभी मूल बात पर आ रहा हूं।
बाजीसा को सैंकड़ों गीत-दोहों, छंदों के साथ पूरी पांडवयशेंदु चंद्रिका, हरिरस, नागदमण, रघुनाथ रूपक, रामचरित मानस, गीता कंठस्थ थे।
जब मैं चोथी-पांचवी का छात्र था तो दोपहर में इनके पास केवल इस लोभ से जाता था कि ये छंद पढेंगे तो मैं सुनुंगा।
रघुनाथरूपक का एक गीत-
‘सुण सेस रे! सुण सेस रे!
दिल केकैई उपदेस रे!
वनवास जावण वेसरे,
इम आखियो अवधेस रे!!‘
पर तो ये रोने लग जाते थे। उस समय यह करुण भाव मेरे समझ में नहीं आते थे। बस केवल इनकी बुलंद आवाज का एक आकर्षण था जो इनकी तरफ खींच ले जाता।
वैसे तो इनकी जीवटता के गांव मे कई किस्से हैं परंतु एक किस्सा यह है कि एक बार जैसलमेर के कुछ लोगों ने इनकी सांढियां चुराली। ये और मुरारदानजी (जो कि स्वयं पागी थे और गांव में पागीजी के नामसे जाने जाते थे) सांढियों की वाहर चढे। पूछते-पूछते जैसलमेर के कंकरीले मगरे में पहुंच गए। भोजन की कहीं व्यवस्था बेठी नहीं, संयोग से एक मतीरा कहीं से इन्हें मिल गया। दोनों ने बैठकर मतीरा खाया। बाजीसा ने पागीजी से कहा कि ‘मुरार तूं मेरे से छोटा है तो एक सिफल़ियो(मतीरै की फांक) ज्यादा ले ले। कंकरीली जमीन पर सांढियों के पैरों से रक्तस्राव होने लगा, उन्होंने उस रक्त के आधार पर पीछा किया। तीन दिन बाद पागीजी ने कहा ‘मेसूभाई भूख लागगी, हमें पार पड़णी दोरी है!’ उन्होंने जो जवाब दिया वो आज भी हमारे गांव में कहावत बन चुका है। उन्होंने कहा “जा रे डोफा तैपैले(यानी तीन दिन पूर्व) दिन तनै एक सिफल़ियो बत्तो(ज्यादा) दियो! पछै कांयरी भूख लागगी?”
‘बडोड़ै गांव’ के पास उन्होंने अपनी सांढियां खोज भी ली और ले भी आए। जो ले गए थे उन्होंने कहा ‘बाजीसा सिंघां रा जबाड़ां मांय सूं ऐ सांढियां पाछी थे ई ले जावो ! बाकी तो रामो ई राम हरे!! मसाणां आयोड़ी लकड़ी पाछी हालै तो इण भाटिपै मांयसूं कोई मवेशी पाछी ले जावै!! पण थांरै आगै म्हांरा ई हाथ पाधरा।”
।।6।।
आप तो हमारे गिनायत हैंं
चाहे इसे बुरी कहें या अच्छी लेकिन हमारे यहां जाति व्यवस्था रही है और आज भी है। जातीय जकड़न से अभी निकट भविष्य में मुक्ति मिलना शायद दुश्कर लगता है। आजादी से पहले और उसके कुछ बाद तक जब यह अलग अंदाज में थी तब का एक किस्सा मैंने सुना है जो मैं आप तक भी पहुंचा रहा हूं।
हमारी अत्यधिक दकियानुसी व जड़ता के कारण कुछ कर्मठ जातियों को अपने मूल काम से घिन उत्पन्न हो गई और उन्होंने सामूहिक रूप से निर्णय लेकर उस काम को अलविदा कह दिया जो वे सदियों से करते रहें हैं। जब काम छोड दिया तो उन में से कुछ एक को अपनी जाति बताते हुए भी शर्म महसूस होने लगी। लेकिन हमारे गांव के जीयोजी जो गांव व आस-पास के इलाके में ‘बोरोजी’ के नामसे बहुत प्रतिष्ठित थे, कारण कि इनके पास उन दिनों के हिसाब से काफी पैसे थे। वे अपना परिचय सदैव ‘जीयो चाकर’ कहकर ही देते थे। अपने लोगों के प्रति इनके हृदय में अपनापन कूट-कूट के भरा हुआ था। एक किस्सा गांव में सुना है कि भीखोजी सोनार जिनका घर जीयोजी के बास में ही था। उन्हें पास के गांव चिमाणा का एक शातिर जाट जो बंडिया के नाम से चर्चित था। कारण कि उसका एक हाथ कटा हुआ था। बंडिया ने खोटी आड सस्ते में असली करके बेचदी। यानी भीखोजी के साथ ठगी करली।
उस बात को इंगित करके दूसरे बास के दानजी बाजीसा ने जीयोजी पर तंज कसा कि “भाई जीया हणै तो सोनो घणो सस्तो है।” आगे कुछ नहीं कहा। जीयोजी समझ गए कि हमारे सोनार लोभवश शायद ठगाए गए। उन्होंने उसी समय आकर भीखोजी से पूछा कि “इन दिनों किसी से कुछ सोना या उससे बनी कोई चीज खरीदी है क्या?” लेकिन सोनारों ने ऊपर से तो मना कर दिया लेकिन अंदरखाने उस आड की जांच की तो सर्वथा पीतल की निकली। भीखोजी ने उसी समय जीयोजी को पूरी बात बताई तो उन्होंने कहा कि जो हुआ सो हुआ। अब एक उपाय है कि “सुबह मैं उस बंडिये की ढाणी जाता हूं और दोपहर तक तुम्हारे लड़के जोरे को केवल बलध देकर भेज देना कि गाडी की आवश्यकता है। बाकी काम मेरा है।”
भीखोजी ने ऐसा ही किया। अपने लड़के जोराराम को बलध देकर भेज दिया।
जोराराम ने वहां आकर उस जाट से कहा कि बाबे ने गाडी मंगवाई। पील़ी की पाखल़ी ले जानी है। हमारी गाडी खराब है।” चौधरी ने कुछ नानुकुर की तो वहीं बेठे जीयोजी ने कहा कि “भाई चौधरी ! टाबरिये ने गाडी दे। पील़की री पाखल़ी न्हांखर पाछी पूगती कर देला।” और जोराराम से कहा “जा गाडी जोतले और आथरणा तक पहुंचा देना।
जैसे ही गाडी दासोड़ी पहुंची तो जीयोजी भी पहुंच गए और भीखोजी से कहा कि “इसके पहिए खोलकर गाडी गडाल़ में डाल दे।” तथा स्वयं सांझ को दानजी बाजीसा से मिले और कहा कि “काले सोनो सस्तो अर आज गाडियां सस्ती है।” खैर यह किस्सा काफी लंबा है अतः इसको यहीं छोड़ता हूं।
जैसा कि बता चुका हूं कि वे बोराजी के नाम मसहूर थे। उनके पास कोई भी जरूरतमंद आ गया तो उन्होंने हाथ का उत्तर ही दिया मुंह का नहीं। इनके भतीजे मुरारजी व हड़मानजी सुथार के बीच खेत विवाद को लेकर मुकदमा चला, जिससे गांव खेमाबंदी में बंध गया। मुरारजी का एक किस्सा सुना है कि वे झूठ नहीं बोलते थे। 2025 वि. के काल के समय सरकार ने रोजगार हेतु कुछ काम चलाए थे। हमारे गांव व खिंदासर के बीच मुढिया सड़क बन रही थी। इनका भी नाम लिखा हुआ था। यह अपनी चिलम लेकर वहां चले जाते थे लेकिन काम नहीं करते थे। जांच करने वाले आए, कम काम देखकर इनसे पूछा “बाबा सच्च-सच्च बताना कितनी मुढ डाली है?” इन्होंने सत्यता से कहा “भगवती कूड़ नीं बोलावै तो भाई रे! कोई काकरियो तो पगरै अंगूंठै सूं रोड़क र ग्योपरो तो ठाह नीं है, बाकी हाथ सूं तो चिमठी ई नीं न्हांखी।”
मैं मूल बात खेत के मुकदमे की पर आ रहा हूं। किसी ने सही कहा है कि-
मोत मुकदमो मांदगी, मंदी और मकान।
ऐ पांचूं मम्मा बुरा, पत राखै भगवान।।
मुकदमा राजस्व मंडल चला गया। वहां उन दिनों कैल़ाशदानजी उज्ज्वल शायद अध्यक्ष थे या सदस्य पक्का नहीं कह सकता लेकिन वे वहां किसी महत्वपूर्ण पद पर थे यह पक्का है। जीयोजी के एकाएक लड़के की शादी ऊजल़ां हुई थी। किसी ने जीयोजी से कहा कि आप ऊजल़ां जाओ और वहां से किसी योग्य आदमी को अपने साथ लेकर कैल़ाशदानसा से मिलो ताकि आपका काम सहज में हो जाए। इन्होंने दृढता से कहा कि कैल़ाशदानसा से ही मिलना है ! तो किसी के साथ जाने की कहां जरूरत है? कैल़ाशदानसा, आज के अफसरों की तरह नहीं थे। वे तो सादगी, आत्मीयता, व सहजता की प्रतिमूर्ति थे। शायद उनके इन्हीं गुणों से अभिभूत होकर नारायणसिंह जी सेवाकर ने इनके पिता की प्रशंसा करते हुए लिखा था-
सांवल़ नै ऊजल़ सुण्यो, जद चकराई जात।
ऊजल़ शिवदत एक है, बाकी थोथी बात।।
आज के अफसरों को तो विधाता ने छ मेखें बनाकर दी हैं, जिन में से दो को ये अपने कानों में रखतें हैं ताकि फरियादी के शब्द सुनाई न दें, दो आंखों में रखते हैं, जिससे सबल और अबल दिखाई नहीं दें, एक जीब पर रखते हैं जिससे किसी की विपत्ति नही पूछते, छठी मेख मूलद्वार में रखतें है जो सेवानिवृत्ति के बाद लोगों द्वारा सम्मान नहीं मिलने पर खटकती रहती है। इसी बात को इंगित करते हुए किसी कवि ने लिखा है-
पदहीण होय हाकम पछै,
छठी मेख तल़द्वार में।
पांच ही मेख छिटकी परी,
सरल़ हुवै संसार में।।
लेकिन कैल़ाशदानजी तो कैल़ाशदानजी ही थे ! जितना उच्च पद उतनी ही विनम्रता। इसलिए तो मूल़जी मोतीसर ने कहा था ‘बहै जो आज कैल़ाश वारा।‘

इन्होंने बड़ी सहजता से कहा “भाईड़ा तूं थारै साहब नै इतरो कैयदे कै दासोड़ी रो जीयो चाकर आयो है अर आपसूं मिलणो चावै। जे साहब हां भरै तो म्हनै ई मिलाई।”
चपरासी भला आदमी था उसने भरे ऑफिस में सबके सामने यह बात साहब से कही। चपरासी का कहना हुआ और कैल़ाशदानसा का कुर्सी छोडकर उठना हुआ। वे बाहर आए और जीयोजी को बड़े आदर के साथ अंदर ले गए। उनके व्यवहार और सादगी से प्रभावित होकर जीयोजी ने कहा “आप कुर्सी छोड र उठिया ओ म्हारै माथै पाप चढियो। ओ आपरो मोटापणो है।”
कैल़ाशदानसा ने कहा “केण रो मोटापणो, आप तो म्हांरा गिनायत हो, म्हें म्हांरी बाई दी है थांनै। थे बेटी रा सुसरा! सो म्हांरै आदरजोग।”
।।5।।
कोई बणो नीं रे घड़ीक खेतो रणजीतजी रो
धनवाल़ां रो धाम, जाण बिनां जाणै सुजन।
निरधनियां रो नाम, कोई न लेवै किसनिया!!
कविवर किसनाजी छींपा ने कितनी सटीक बात कही कि लोग धनवानों के घर तो बिना जान-पहचान के चले जातें हैं अर्थात बलात परिचय बताने की कोशिश करतें हैं परंतु निर्धन चाहे भाई भी क्यों न हो, उसका नाम तक नहीं जानतें। लेकिन ऐसे भी लोग हमारे यहां हुए हैं जिन्होंने कमजोर व हालात से मजबूर ऐसे लोगों की मदद की हैं जो केवल उनके जाति से भाई थे।
काफी वर्ष पहले का ऐसा ही एक किस्सा है खेतजी पुत्र रणजीतदानजी देशनोक का।
उन दिनों ऊंट का हमारे यहां बड़ा महत्व था। जिस घर में ऊंट होता था वह घर गांव में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, किसी कवि ने कहा भी है-
चोखी व्है दस छाल़ियां, एक भलेरो ऊंठ।
सौ खेजड़ व्है सांतरा, काल़ काढदां कूट।।
खेतजी ऊंटों के अच्छे जानकर व व्यौपारी थे। वे प्रायः अपने परिचितों को ऊंट मोल लाकर देते थे। हालांकि उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ नहीं थीं परंतु लोगों को उन पर विश्वास था। अतः उनको लोग उधार पैसे दे देते थे।
एकबार उनके किसी अति विश्वासी आदमी ने उन्हें यह कहकर पैसे दिए कि “आप बिना लाभ लिए मुझे ऊंट लाकर दें और पैसे अग्रिम ले लें।” उन्होंने उस व्यक्ति से पैसे ले लिए और ऊंट लाने की नियत से अपने साथ एक आदमी लेकर गांव से रवाना हुए और घूमते -घूमते ओसियां (जोधपुर)के आसपास चारणों के किसी एक गांव में पहुंचे।
संयोग से वहां खाबड़ा(बीठू चारणों का एक गांव) के बीठुवों की एक बारात आई हुई थी। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि उन दिन कन्या काल़ (बच्चियों की कमी) था। अतः पश्चिमी राजस्थान में कुछ एक गांवों व घरों को छोड़कर लगभग सभी जातियों में बेटी को रीत(बेटी के बदले वर पक्ष से पैसे लेना) लेकर शादी करने का रिवाज था।
भलेही हम आज इस बात को बुरी माने परंतु उन दिनों यह बात सामान्य व मान्यता प्राप्त थी। जिस घर में खेतजी रुके ही थे कि घर धणी (मालिक) ने कहा हमारे गांव में अमुक घर पर आपके भाईयों की जान(बारात) आई हुई है और समेल़े (मिलन) का तेड़ा(बुलावा) आया हुआ है अतः वहीं चलते हैं। खेतजी भी मेजबान के साथ समेल़े में आ गए। जैसे ही मनवारें होकर वर को बधाने के लिए वधू के घर रवाना होने का समय आया तो वधू के पिता ने कहा कि ‘वींद रो काको कुण है, किणरै कन्नै है खरचण-बरचण’? एक आदमी ने कहा हुकम करें मैं हूं!! वधूपक्ष ने कहा अगर पंद्रह सौ रूपयों की व्यवस्था हो तो वर को उठाना वरना यहीं चींचड़ खाएंगे। बेटी नहीं मिलेगी। सुनते ही वरपक्ष बगलें झांकने लगा। सलाह हुई लेकिन सभी बारातियों से मिलकर भी उक्त व्यवस्था नहीं हो पाई। क्या करें अपरिचितों को पैसे उधार भी कौन दें? और आज की तरह पैसे थे भी कहां?
उन दिनों तो बारात भी ऐसे आदमी को ले जाते थे जिसके पास स्वयं का ऊंट हो अथवा उसका हाथ फुरता(आर्थिक स्थिति ठीक हो) हो। वधु पक्ष ने पुनः कहा कि आप सभी बाराती सोचलो, फिर यह मांग(संबंधित लड़की) आपकी नहीं रहेगी। बीठुवों की मांग है! और आप इतने बीठू यहां हैं। हम बीठुवों की मांग अन्यत्र दे देंगे। अणूत (वस्तु का न होना) पत्थर भी से कठोर होती है। सभी एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। बारातियों को मुंह लटकाए बेठे देखकर घरातियों की तरफ बेठे खेतजी देपावत उठे और अपनी नोल़ी(पैसे रखने की थेली विशेष) खोली और वधूपक्ष से कहा “खरा-खरा इण मांय सूं ले लो अर खोटा म्हारा छोड दो।’ दोनों पक्ष एक -दूसरे के सामने देखने लगे। माजरा समझ में नहीं आया। ये हैं कौन ? लोग एक दूसरे के कानों ही कानों में पूछने लगे। एक अपरिचित आदमी और इतनी सहृदयता!!
खेतजी समझ गए। इन्होंने कहा ‘हूं खेतो रणजीतजी रो, देशनोकियो। खाबड़ै रा बीठू सौवे पीढी ई सही, है तो म्हारा भाई। सो म्हांरी मांग मरियां जावैला। आप तो अपने पैसे लो और वर को बधाकर चंवरी चढाओ।’ शायद ऐसे लोग के कारण ही कहावत चली हो ‘भायां तणी भीड़, भायलां भागे नहीं।‘ जो खेतजी के साथ था। उसने कहा ‘फिर ऊंट!’ खेतजी ने कहा ‘ऊंठ तो डोफा लिखियो है तो भल़ै ले लां ला पण बात पाछी कठै मिलेल़ा?’
आज भी देशनोक में किसी को उदारता दर्शाने के लिए प्रेरणा स्वरूप कहा जाता है- कोई बणै नीं रै घड़ीक खेतो रणजीत रो।
।।4।।
खुद तो मेरी बागर की खोह में माय गए थे!!
खुद तो मेरी बागर (घास का बड़ा ढेर) की खोह (घास के ढेर के नीचे बनाया गया एक स्थान जिसमें चारपाई आ जाए) में माय (समा जाना) गए थे!!
स्वाभिमान और साहस के साथ जीना हर किसी के वश की बात नहीं है। जो स्वाभिमान रखेगा उसके सामने संकट मुंह फाड़े खड़ा है। साहस को रखना है तो संकट को सखा बनाकर जीना पड़ेगा। जिन-जिन लोगों ने साहस रखा व स्वाभिमान की डगर चले उन्हें पग-पग पर कष्टसाध्य जीवन जीना पड़ा। ऐसे ही साहसी व जीवट से जीवन जीना वाले एक नाम से हम में से काफी लोग परिचित हैं, वो हैं भोपालदानजी सांदू भदोरा। उनकी रगों में प्रवाहित रक्त के कतरे-कतरे में स्वाभिमान संचित व संचरित था।
इनके विषय में एक किस्सा अति प्रसिद्ध है कि ये एक बार कहीं जा रहे थे। बीच में सैनणी(नागौर) गांव आया। इन्होंने अपना रेखला रुकवाया और गांव वालों से पूछा कि यह कौनसा गांव है? गांव वालों ने कहा सैनणी! इन्होंने उसी समय कहा कि गांव के मुखियों को बुलाओ। मुखिये आए। इन्होंने तुरंत कहा कि आप सभी इसी समय निर्धारित लगान मुझे जमा कराओ। मुखियों ने कहा गांव खालसे का है हुकम। आप लगान नहीं ले सकते। इन्होंने कहा मेरा नाम सुना है ! मैं भोपालदान हूं, गांव मेरा है लगान लाओ। लोगों ने लगान दे दिया। दरबार तक शिकायत पहुंची। इन्हें बुलाया गया। इन्होंने सहज भाव से कहा “हां हुकम म्है आपरो चारण अर गांव सैनणी(बिना दूही) म्है दू ली!” दरबार हंसके रह गए। इनके पूर्वज भैरजी सांदू ने सम्पूर्ण जातिय सम्मान के खातिर देवगढ के ठाकुर को ललकारकर मारा था। इन्हीं के पदचिह्नों पर चलते हुए क्षत्रियत्व के खिलाफ आचरण करने व भरी सभा में भोपालदानजी से अभद्रता करने वाले भाद्राजूण ठाकुर को पोकरण की हवेली में भरी सभा के बीच कटारी से भोपालदानजी ने मार दिया था। वासणी के समकालीन कवि बांकजी बीठू ने कहा है-
दादै बाई देवगढ, पोतै जोधपुरेह।
उवा कटारी आजदिन, सांदू माल घरेह।।
जाडाल़ा थंड में जबर, गाढाल़ा कर गाढ।
भोपाला बाई भलां, दाढाल़ा जमदाढ।।
इन्हीं कवि के एक गीत की पंक्तियां-
आठसै नरां बिच मालहर आछटी,
पांचसै कोस पल़ल़ाट पड़ियो।।
भाद्राजूण जैसे ठाकुर को कटारी के वार से मारने की बात तीव्रगति से पूरे मारवाड़ में फैल गई। भोपालदानजी मारवाड़ राज के गुनहगार बन गए, ऐसे में इन्हें मारवाड़ में शरण कौन दें? जब इन्होंने बीकानेर के दासोड़ी गांव में अपने रिस्तेदारों के यहां रहना सुरक्षित समझा। दासोड़ी के इंद्रभाणजी रतनू के यहां काफी समय तक रहे थे। इंद्रभाणजी अपने गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से एक थे। किसी को कोई विशेष पता न चले इसलिए इन्होंने इनके रहने की व्यवस्था अपने एकांत घासके बाड़े में कर रखी थी। जहां भोपालदानजी लगभग छ माह तक रुके थे। इंद्रभाणजी की निष्काम सेवाभाव व चारणाचार से अभिमंडित व्यक्तित्व से प्रभावित होकर जाते समय भोपालदानजी ने कहा कि “आप मेरे वैसे तो गिनायत हैं ही परंतु आपकी एक पोती, मेरे पोते को देकर तन (निजी रिस्तेदार) बनाकर मुझे बड़ा करें!”
बादमें देवीय चमत्कार से महाराजा तख्तसिंहजी ने इनकी सजा भी माफ करदी थी। समय अपनी गति से चलता है। यह किसी का किसी बात के लिए इंतजार नहीं करता। संयोग से कुछ समय बाद न तो भोपालदानजी रहे और न इंद्रभाणजी।
इंद्रभाणजी के लड़के ने अपनी बेटी का रिस्ता भदोरा करने का निश्चय किया और अपने गांव से रवाना हुए। देवयोग से भदोरा से पहले ये किसी चौधरी की ढाणी में रुके और वहीं भोपालदानजी के लड़के संभवतः जवाहरदानजी इन्हें मिल गए। चौधरी ने कहा “लो आपके घर बैठे गंगा आ गई। आप जिनके घर जा रहें हैं, वो ये बाजीसा जवाहरदानजी आज स्वतः ही यहां पधार गए।” चौधरी ने जवाहरदानजी को बताया कि ये दासोड़ी के रतनू है और आपके यहां रिस्ता करने आए हैं।
जवाहरदानजी देखा कि एक साधारण सा आदमी, ठेठ थली की वेशभूषा। न चढने को घोड़ा न ऊंट! यह क्या खाक मेरे घर रिस्ता करेगा! जवाहरदानजी ने बड़े घमंडी भाव से पूछा “तो आप भोपालदानजी के घर रिस्ता करने हेतु ठेठ वहां से यहां आए हैं?” “ह़ां हुकम इंद्रभाणजी के लड़के ने जवाब दिया। ” “तो आपरै घरै भोपालदानजी रा मावै जितरी जागा है! कांई आप भोपाल़दानजी रां नै झाल लो ला ?” उन्होंने सहज भाव से जवाहरदानजी को प्रत्युत्तर दिया “हुकम भोपाल़दानजी रा तो हमे मोटा है! म्हारै घरै मावै कै नीं पण खुद भोपालदानजी छवु महीणा म्हारी बागर री खोह में मायग्या! भोपालदानजी रा किताक मोटा है ? म्हैं सूं झलै क नीं, कांईठा? पण खुद तो छवूं महीणा म्हांसूं झलग्या हा!!” चौधरी उनके मुंह की तरफ देखता रहा और जवाहरदानजी से कोई जवाब देते नहीं बना।
।।3।।
आंधी है !! तो धिणी डांगड़ी खांचेलो !
मेरे बाबोसा(ताऊजी) स्व.रामदानजी रतनू फलसूंड(जैसलमेर) में कुछ दिन अध्यापक रहे थे। वे अपने काम के प्रति समर्पित और अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे। सिंद्धांतों के साथ समझौता शायद उन्होंने कभी किया ही नहीं छोटी उम्र लिखा के लाए थे। शिक्षा प्रसार अधिकारी के पद पर पदोन्नत हुए ही थे कि क्रूर काल ने वि.सं.2035 में हमारे से छीन लिया। लेकिन जब मैं यह दोहा पढता हूं तो सार्थक लगता है कि-
मरदां मरणो हक्क है, मगर पच्चीसी पाय।
महलां रोवै गोरड़ी, मरद हथायां मांय।।
आज भी जब गांव में उनकी बात चलती है तो हमें गर्व महसूस होता है कि हमारा उनसे रक्त संबंध था। जब लोग हमारी किसी बात पर असंतुष्ट होकर कहते हैं कि “कठै दयालजी अर कठै थे!!” तो झिझक मिश्रित गौरवान्वित तो हम हो ही जाते है कि चलो निंदा में ही सही हमें प्रशंसा तो मिली!
मैं बात उन दिनों की बता रहा हूं जब वे फलसूंड शिक्षक थे। उनकी शाला में पास के ही गांव कसूंबला के देवीदानजी बारठ के दो बच्चे पढते थे जोधदानजी और भैरू़दानजी। दोनों प्रतिभा संपन्न थे लेकिन उनका स्नेह भैरूदानजी पर अधिक था। जब वे छुट्टियों में गांव आए तो इनके सगे मासयात(मौसी का लड़का) व कौटम्बिक भाई रामदयालजी, जो बादमें काफी समय तक हमारे गांव के सरपंच भी रहे, ने इनसे अपनी सुंदर व सुशील लड़की के लिए कोई अच्छा लड़का बताने के लिए कहा।
इन्होंने कहा कि “रामदयालभाई अगूण-आथूण नीं करो, जणै तो टाबर हूं बताऊं, थांनै तो कोथल़ी में आटो घालर फिरो तोई नीं लाधै।”
रामदयालजी ने कहा कि अगर तूं बताएगा तो मैं बामण(ब्राह्मण) को ही नहीं पूछूंगा।
इन्होंने कहा कि “कसूंबलै देवजी रै छोटोड़ो लड़को भैरजी, म्हनै दाय है थे रिस्तो करदो।”
रामदयालजी, कसूंबला गए और देवीदानजी ने अत्यधिक सरसता व सहज भाव से रिस्ता तय कर लिया। उन दिनों न तो लड़का, लड़की को देख सकता था और न कोई और औपचारिकता होती थीं यानि ऐसा विचार ही उत्पन्न नहीं होता था। जब किसी चुगलखोर को यह पता चला कि रामदानजी ने इतने अच्छे लड़के से रामदयालजी की लड़की का रिस्ता करवा दिया और ‘हींग लागी न फिटकड़ी।’ उसने भैरसा के अग्रज जोधदानजी को बहकाया कि “आपने जिस लड़की की सगाई अपने भाई से की है वो तो अंधी है! क्यों अपने भाई को खड्डे में पटक रहें हो?”
जोधदानसा ने यह बात सहज रूप में मानली और मानना भी लाजमी था क्योंकि भाई के भविष्य का सवाल जो ठहरा। जोधसा ने अपने पिताजी को इस बात से अवगत करवाना आवश्यक समझा।
वे गांव आए और देवीदानजीसा को बताया कि “आपने जिस लड़की से भैरूं की सगाई की है उसमें खोड़(कमी)है !”
देवसा ने कहा कि “भैया चारण री बेटी में की खोड़!! आंधी र खोड़ी नीं होणी चाहीजै। बाकी की खोड?”
जोधसा ने कहा “दाता यही तो मैं कह रहा हूं कि बच्ची अंधी है।”
लेकिन जनाब समय आजकी तरह सिटल़ा व मिनख विटल़ै नहीं थे। उनमें विवेक व बड़प्पन कायम था-
हाथी हींडत देख, खल़ कूकर लव लव करै।
वडपण तणो विवेक, क्रोध न आवै किसनिया!!
देवीदानसा ने बिना क्रोधित हुए सहज भाव से कहा “भैया आंधी है तो भैरो डांगड़ी खांच हे! देवो थूक र आज चाटै र नीं कालै।”
आजके अर्थ व रूपके पीछे अंधे समाज में इतनी दृढता कहां? आज जो समाज में विकृति आई है उसके पीछे स्वयं की वचनबद्धता का खोखलापन व मूल्यहीनता ही है।
।।2।।
गायों ने बिगाड़ ज्यादा किया है !या इन सांडों ने?
आजसे काफी वर्ष पहले हमारे गांव व आस-पास के लगभग 20-25 गांवों मे स्वास्थ्य सेवाओं का नितांत अभाव था। आर्थिक विपन्नता व आवागमन के साधनों की कमी गांवों में घुसते ही परिलक्षित होती थी। कई गांव तो पानी भी हमारे गांव से पखालों पर ले जाकर पिया करते थे। उस समय हमारे चौखले में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में अनवरत व अथक सेवाएं देने वाला एक मात्र सहारा व नाम था वैद्य गफूरजी तेली का। उन्हें लोग गफूरजी कहकर यदाकदा ही पुकारते थे। वे तो वैद्यजी के नामसे ही जाने जाते थे। वे आयुर्वेदिक दवाईयां देते थे। कह नहीं सकता कि वे ‘भणिया’ (पढना) तो कितने थे परंतु ‘गुणिया'(गुनना) तो अत्यधिक थे। हाथ में यश था, नाड़ी देखकर रोगी का रोगी पहचान लेते थे। वेल़ा(समय) अवेल़ा(असमय) कोई भी आता तो निराशा छोडकर आशान्वित होकर ही जाता। तभी तो इनके लिए महेशदानजी रतनू ने कहा था-
आछी देवै औषधी, दोख करै सब दूर।
गुणी दासोड़ी गाम में, गैरो वैध गफूर।।
आप यह अचूंभा(आश्चर्य) करेंगे कि इनके एक बैल था। जिससे इन्होंने खूब खेती की। खूब धन-धान्य प्राप्त किया। जब वह बैल वृद्ध हो गया तो लोगों ने कहा इसको बेचदो। तब उन्होंने कहा कि मैं ‘गुणचोर’ नहीं हूं, इसका मुझ पर अहसान है। गांव से दो कोस(6किमी.) दूर अपने खेत में चरने के लिए छोड़ दिया और अपनी वृद्धावस्था के बावजूद उसको पानी पिलाने के लिए सदैव पैदल खेत जाया करते थे।
खैर। मैं जो असली बात आपसे साझा कर रहा हूं वो इनके पिताजी से संबंधित है। उनका नाम था मौजदीनजी। मैंने सुना है कि मौजदीनजी जितने रीसटी(क्रोधी) थे उनके पिताजी उतने ही शांत स्वभाव के। एकबार मौजदीनजी के खेत मे चारणों की गायें घुस गई। गायों ने बाजरी का कम और मतीरों का ज्यादा नुकसान किया। मौजदीनजी ने देखा तो उनका पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने गांव से पंचायती ले जाकर खेत बताने का निर्णय किया।
चूंकि गांव में चारणों का बाहुल्य था अतः पंच भी चारण ही होने थे। जब मौजदीनजी के पिताजी को यह पता चला तो उन्होंने मौजदीनजी से कहा कि कोई बात नहीं ‘स्याल़ियां रो खज’ था! गायों ने खा लिया तो क्या फर्क पड़ता है। परंतु वे माने नहीं और खेत का बिगाड़ दिखाने के लिए पंचों को ले गए।
पंचों ने पहले उजाड(बिगाड़) देखा फिर धोरे पर बैठकर मौजदीनजी से अच्छे-अच्छे मतीरे मंगाए, खाए और दो-दो-चार-चार अपने ‘गोछो’ में बांधकर निर्णय दिया कि ‘भाई मौजूं ! पेट मोटो कर।’
इतने में ही पीछे से मौजदीनजी के पिताजी आ गए और अपने बेटे को फटकारते हुए कहा-
“डफोल़ !इण गोधां(सांडों)उजाड़ घणो कियो कै बापड़ी उण गायां। “
आज भी यह वाक्य हमारे गांव मे कहावत के रूप में प्रयुक्त होता है।
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बात सन 81-82के आस-पास की है। मैं उस समय कक्षा 4-5 में पढा करता था। हमारे पास काफी गायें थीं, संयोग से एक बैड़की (जवान गाय) खो गई। जो ग्याबण और अच्छी नस्ल की गाय थी। उस समय तक गांवों में गायों का महत्व कायम था। उसे खोजकर लाना लाजमी था। मेरे जीसा (दादोसा) जो आस-पास के चौखल़ै में “गुणजी बाजीसा” के नाम से मशहूर व प्रतिष्ठित थे। जीसा ने कहा, गाय को खोजने मैं जाऊंगा! घरवालों ने कहा कि आप वृद्ध हैं, कहां जाएंगे? तो जीसा ने कहा मुझे एक-दो दिन ऊदट तो वैसे ही जाना है। “म्हनै भोमजी ठाकरां रै अठै बैठण (गमी मे मिलने हेतु) तो जावणो ई है।”
अतः जीसा गाय के नासेटू (खोई हुई वस्तु आदि को गांव दर गांव खोजने वाला) बने। उन्होंने अपने ऊंट पर डोल़ की और रवाना होने लगे तो मैंने भी कहा “जीसा हूं ई हाल हूं।” चूंकि वे मुझे बड़ा दुलार देते थे, अतः अपने साथ ऊंठ पर चढा लिया।
हमें ‘मीठड़िया’ (एक गांव) की कांकड़ में बावड़ (सूचना) मिले कि ऐसी-ऐसी गाय ऊदट के फला-फला विश्नोई की ढाणी में बंधी हुई है। जीसा सीधे ऊदट पहुंचे। गांव में घुसते ही लोगों ने आत्मीयता से अभिवादन किया और अपने घर चलने की मनुहार की, लेकिन जीसा ने विनयपूर्वक मना करते हुए कहा कि “मैं भोमजी ठाकरां रै अठै ई ज रुकूंलो!” मुझे भी अटपटा लगा कि ये कह रहें है तो क्यों नहीं रुक जाते? वहां ऐसा क्या है?
खैर, हम भोमजी ठाकरां (ठाकुर भोमसिंह रूपावत) के यहां पहुंचे। मैंने देखा फरहरी (लंबी) दाड़ी वाले एक दुबले-पतले सज्जन झोंपडें मे एक चारपाई पर बैठें, माला के गिड़के लगा रहें है। मैंने अनुमान लगा लिया कि शायद ये ही भोमजी ठाकुर हैं।
जीसा ने झोंपड़े में घुसते ही कहा “जय माताजी री।”
शायद ठाकर साहब को सुनना-दिखना कम ही था, अतः उन्होंने वापिस पूछा “कुण बोलियो? थोड़ो नैड़ो आव र कैय।”
जीसा ने पास जाकर हाथ पकड़कर कहा “ओ तो हूं गुणो हरदानजी रो!”
ठाकरसाहब को मानो कोई झटका लगा हो, चारपाई से उतरते हुए कहा “कांई गुणो हरदानजी रो अजै जीवै? म्हैं तो सोचियो कै बारियो (द्वादशा) कदै बीतियो होवैला!”
वे कुछ कहते उससे पहले ही जीसा ने कहा “गुणो जीवतो कठै है? जीवतो होतो तो बीस-पच्चीस दिन ऊपर थोड़ा ई निकल़ता।”
और इन्हीं शब्दों के साथ दोनों की आंखों में अविरल अंश्रुधारा बहने लगी। मैं कभी जीसा की तरफ और कभी ठाकुर साहब की तरफ देखता रहा। मुझे ठाकुर साहब का यह कहना बड़ा नागवार गुजरा कि “म्है सोचियो कै बारियो कदै ई बीतियो”। दोनों डोकरिया (वृद्ध) काफी देर तक आंसू बहाते रहे। जैसे-तैसे ही चुप रहे। फिर तो ज्ञान की बातें होने लगी। बातों-बातों में यह दोहा भी मैंने उस समय सुना-
बढ-कटियो ठाकर कनै, अपछर वरियो अंग।
संग लड़ियो सुरतांण रै, रूपावत नैं रंग।।
उस समय इस बात व हथाई की मार्मिकता मेरे कुछ पल्ले नहीं पड़ी। हम दो दिन वहीं रुके। हमारी गाय जहां बंधी थी वहां से कब ठाकुर साहब की कोटड़ी में आ गई पता ही नहीं चला। जब हम हमारे गांव वापिस रवाना हुए तो जिज्ञासावश जीसा से पूछा कि “भोमजी तो आपनै मरियोड़ा मान लिया अर आप उणांनैं कीं ओल़भो नीं देयर उणांरै साथै रोवण लागग्या?” तब उन्होंने कहा “बेटा तूं इण बात री गहराई नीं समझे। भोमजी रो पोतरो हालतो रैयो। आज कोई बीस-पच्चीस दिन होयग्या अर हूं इणां.सूं आंखियां भेल़ी करण ई नीं आ सकियो जणै जीवतो कठै? भोमजी, ऊदट रै एक बाढ रा धणी अर म्हारा हमजोल़ी, पण तूं अजै टाबर है! इण बातनैं नीं समझे।”
वास्तव में उस समय तो इस बात की गहराई व मार्मिकता नहीं पकड़ पाया और जब इस बात को समझा तो ये बातें और वे लोग नहीं रहे जो इस आत्मीय अभिवादन से मिला करते थे।
~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”
Your posts are very interesting and impressive.
अंजस जोग आख्यान। गिरधरसा नै घणा रंग है कि ऐ भूली-बिसरी आंचलिक बातां पाछी सामें लावै है।