कल़ायण !

धरती रौ कण-कण ह्वे सजीव, मुरधर में जीवण लहरायौ।
वा आज कल़ायण घिर आयी, बादळ अम्बर मं गहरायो।।

वा स्याम वरण उतराद दिसा, “भूरोड़े-भुरजां” री छाया !
लख मोर मोद सूँ नाच उठ्यौ, वे पाँख हवा मं छितरायाँ।।

तिसियारै धोरां पर जळकण, आभै सूँ उतर-उतर आया।
ज्यूँ ह्वे पुळकित मन मेघ बन्धु, मुरधर पर मोती बरसाया।।

बौ अट्टहास सुन बादळ रौ, धारोल़ा धरती पर आया।
धडकै सूँ अम्बर धूज उठ्यौ, कांपी चपल़ा री कृस काया।।

पण रुक-रुक नै धीरै-धीरै, वां बूंदा रौ कम हुयौ बेग।
यूं कर अमोल निधि-निछरावळ, यूं बरस-बरस मिट गया मेघ।।

पणघट पर ‘डेडर’ डहक उठ्या, सरवर रौ हिवड़ो हुळसायौ।
चातक री मधुर ‘पिहू’ रो सुर, उणमुक्त गिगन मं सरसायौ।।

मुरधर रे धोरां दूर हुयी, वा दुखड़े री छाया गहरी।
आई सावण री तीज सुखद, गूंजी गीतां री सुर-लहरी।।

झूलां रा झुकता “पैंग” देख तरुणा रौ हिवड़ो हरसायौ।
सुण पड़ी चूड़ियाँ री खण-खण, वौ चीर हवा मं लहरायौ।।

ऐ रजवट रा कर्मठ किसाण, मेहणत रा रूप जका नाहर।
धरती री छाती चीर वीर, ऐ धान उगा लावै बाहर।।

उण मेहणत रौ फळ देवण नै, सुख दायक चौमासौ आयौ।
धरती रो कण-कण ह्वे सजीव, मुरधर मं जीवण लहरायौ।।

~~कवि स्व. मनुज देपावत

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