स्वातंत्र्य चेतना के प्रखर चिंतक: कविराजा बांकीदासजी आशिया

अमूमन हम पढ़ते और सुनतें हैं कि डिंगल कवियों की रचनाओं में युगबोध नहीं होता है और न ही समकालीन सोच!! डिंगल कवियों पर यह भी आरोप लगाया जाता रहा है कि उनकी रचनाओं में संवेदनाओं और आम आदमी की व्यथा कथाओं का समावेश नहीं के बराबर होता है। प्रायः यह भी सुना जाता है कि डिंगल काव्य केवल और केवल सामंतवादी सोच का प्रतिनिधित्व करता है ऐसे में ठकुर सुहाती और अतिशयोक्ति पूर्ण रचनाओं का प्रतिपादन ही हुआ है। इन आरोपों की सत्यता शायद ही किसी ने खोजने की कोशिश की हो! क्योंकि जबतक हम पूर्वाग्रहों से ऊपर नहीं उठ सकतें और न ही हम अपनी दमित कुंठाओं को त्याज्य समझते तब तक न तो हम हमारा दृष्टिकोण बदल सकतें हैं और न ही सत्य की पड़ताल़ कर सकतें हैं।

साहित्य की परिभाषा ही सब का हित संधान करने वाली होती है तो फिर इसका सृजक चाहे वो किसी भी जाति, समुदाय अथवा धर्म का क्यों न हो वो व्यष्टिपरक हितसंधान की बात कैसे सोच सकता है? क्या कबीर, रहीम, ईशरदास बारहठ आदि मनीषी केवल अपने धर्म तक ही सीमित रहे या उन्होंने उस क्षुद्र बंधनों को तोड़ा!!

इसी बात को मध्यनजर रखकर मैंने कविराजा बांकीदासजी आशिया को अनेकों बार पढ़ा। जब हम डिंगल कवि के बतौर बांकीदास जी को पढ़तें हैं तो जो आरोप डिंगल कवियों पर लगाए जाते रहें हैं वे सारे के सारे निर्मूल सिद्ध होते हैं।

कविराजा बांकीदास जी (1828-1890) का जन्म भांडियावास (पचपदरा) के आशिया फतैसिंहजी के घर हुआ। इन्हें महाराजा मानसिंहजी (जोधपुर) ने अपना कविराजा बनाकर अपना भाषा गुरु भी स्वीकारा। संस्कृत, डिंगल, पिंगल, फारसी आदि भाषाओं में पारंगत कविराजा ने लगभग चालीस छोटे-बड़े ग्रंथों का प्रणयन करके राजस्थानी साहित्य को समृद्ध किया। ये जितने पद्य में प्रवीणता रखते थे उतनी गद्य में इन्हें महारत प्राप्त थीं। इन्होंने महाभारत का गद्यानुवाद ‘महाभारत री कथा सार संग्रह’ के रूप में करके यह सिद्ध किया कि भाषा की समृद्धता गद्य सृजन से ही संभव है।

कविराज बांकीदास जी की पद्य रचनाओं का हम समग्र अध्ययन करते हैं तो उनका अभिजात्य वर्ग के कवि रूप से कहीं बढ़कर उनके आम आदमी के पक्ष में अभिव्यक्ति करने वाले कवि रूप से हम अधिक परिचित होते हैं। एक सजग, संवेदनशील, दूरदृष्टा व समष्टिमूलक हितैष्णा वाले कवि का सहज रूप हमारे सामने आता है।

उस समय पूरा देश, पूरे देशी राजा अंग्रेजों के आतप से आतंकित और शंकित थे। उनके खिलाफ किसी में चूं तक करने की हूंस नहीं थी उस समय इस भविष्यदृष्टा कवि ने भारतीय जनमानस को जाति, पांति धर्म समुदाय की भावनाओं से ऊपर उठकर अंग्रजों का संगठित मुकाबला करने का आव्हान किया था। इस प्रकार का बेबाक उद्घोष करके सुशुप्त भारतीय जनमानस में जोश संचरण करने का प्रथम श्रेय लेने वाले बांकीदासजी ही थे।

1857 के गदर से 52 वर्ष पूर्व अर्थात 1805ई. में ‘चेतावणी रो गीत’ लिखकर राजस्थान के राजाओं को फटकारते हुए अंग्रेजी की कुचालों से बचने का आव्हान किया था-

आयो अंगरेज मुलक रै ऊपर,
आहंस लीधी खैंच उरां।
धणियां मरै न दीधी धरती,
धणियां ऊभां जाय धरा।।

कविराजा ने कितनी बेबाकी से कहा कि महि व महिला की रक्षार्थ तो हिंदू-मुसलमानों में मरने की समान प्रवृत्ति रही है अतः कोई तो साहस कर इन अंग्रेजों को ‘रजपूती’ (वीरत्व) दिखाएं-

महि जातां चींचातां महल़ां,
ऐ दुय मरण तणा अवसाण।
राखौ रे कैहिक रजपूती,
मरदां हिंदू कै मुसल़माण।।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश पर अंग्रेजों द्वारा किए जाने वाले दमन से कविराजा बेहद दुखी थे। उस समय ऐसे चिंतन अथवा चेतना की निनाद केवल डिंगल की डणकार द्वारा ही सुनाई दे रही थी जिसमें झूठी वीरता के दंभ भरने वालों पर क्षोभ, शंकित शूरों में साहस भरने का स्वर, तथा हुंकार भरके पुनः उठ खड़े होने का उद्घोष सुनाई देता है-

जाट व्रजंद्र कहावत हौ सो,
प्रयाग में कैद भयो नहीं लाजै।
दिक्खन को सुलतान कहावत,
विप्र विठोरै के घाट विराजै।
है रणजीत अजीत कहा भयो,
कंपनी के दल पे नहीं गाजै।
आज सबै अकलीपन पै इक,
वंक फिरंग की नौबत बाजै।।

कविराजा का संपूर्ण भारतीय परिदृश्य पर पैनी नजर थीं। जब गोरों ने भरतपुर को घेरा तब कविराजा ने लिखा-

अली मनसूर रो वंस कीधौ असत,
रेस टिपू विजै त्रंबक रुड़िया।
लाट जनराल़ जनरेल़ करनेल लख,
जाट रै किलै जमजाल़ जुड़िया।।

जोधपुर के कविराजा होते हुए भी भरतपुर के जाट शासकों के अदम्य साहस व अप्रतिम शौर्य की सराहना निष्पक्ष व निडरता से की थी-

छत्रपतियां लागी नह छांणत
गढ़पतियां धर परी गमी।
बल़ नह कियौ बापड़ां बोतां
जोतां जोतां गई जमी।
वजियो भलो भरतपुर वाल़ो
गाजै गजर धजर नभ गोम।
पहलां सिर साहब रौ पड़ियौ
भड़ ऊभां नह दीधी भोम।।

जब अंग्रेजों ने भरतपुर पर हमला किया तो वहां के जाट शासकों ने जो साहस दिखाया उसकी मुग्ध कंठ से प्रशंसा मारवाड़ के इस कवि ने सबसे पहले की। यही कवि का कविधर्म होता है। भरतपुर शासकों के श्रद्धेय महंत ने जब भरतपुर के साथ घात की और लोभवश फिरंगियों का साथ दिया उसीके परिणामस्वरूप जाटों को पराजय का सामना करना पड़ा तो इस महान देशभक्त कवि का हृदय झकझोर हो उठा। उनकी संवेदना इन शब्दों में निकल पड़ी-

माल खायो ज्यांरौ त्यारौ रति नायौ मोह
कुबुद्धि सूं छायो भायो नहीं रमाकंत।
वेसासघात सूं काम कमायौ बुराई वाल़ो
माजनौ गमायौ नींबावतां रै महंत।।

कवि ने भरतपुर के स्वाभिमानी शासकों के साथ हुए इस विश्वासघात पर अफसोस जताते हुए लिखा कि जो हुआ वो बुरा हुआ। अब उसकी कथाएं किसी को सुनाने से क्या फायदा-

हूणौ हुतो सो हो गयो गल्लां सुणायां हुवै की हमै?
कीधो नींबावतां धायां रंग में कुरंग!!

देशप्रेम से प्रदीप्त आपकी वाणी बिना किसी पूर्वाग्रहों के सदैव उन वीरों के पक्ष में गूंजी जिन्होंने गोरों के दर्प को गंजन हेतु अग्राज की। उन्होंने ईश्वर से आराधना की पाघ का आघ रख तथा टोपी को नष्ट कर-

भरतखंड सांमी भाल़ीजै।
वछां सुरभियां दिन वाल़ीजै।
पाघबंधां दासां पाल़ीजै।
गोपीवर टोपी गाल़ीजै।।

बांकीदासजी ने उन तमाम राजाओं व ठाकुरों की कटु निंदा की है जो गुपचुप तरीके से विदेशी सत्ता को दंड भरते थे और ऊपर से अपनी निडरता बताया करते थे-

सुहड़ां सीख घरां नै समपे,
गोढे राखो गोला।
रुपिया जाय भरो अंगरेजां,
बंगल़ै बोला बोला।।

बांकीदासजी ने अपनी रचना चुगल मुख चपेटिका में अंग्रेजों की धूर्तता व घातक कूटनीति से सावधान करते हुए लिखा है कि-

चुगल फिरंगी अत चुतर, विद्या तणा विनांण।
पांणी मांहै पलक में, आग लगावै आंण।।

बांकीदासजी न केवल स्वतंत्रचेता कवि थे अपितु वे बेबाक सत्यवक्ता भी थे। भले ही वे जोधपुर के कविराज थे लेकिन उन्होंने अपने सिद्धांतों के साथ कदापि समझौता किया हो, देखने में नहीं आया।

जहां राजकवि के कर्तव्य निर्वहन की बात हैं, उन्होंने निष्ठा के साथ इस पद की मर्यादा कायम रखी परंतु जहां उन्हें लगा कि यहां सत्य को दबाया या छिपाया जा रहा है। वहां उन्होंने मौन पकड़ना मुनासिब नहीं समझा। सत्य की स्थापना के पक्षधर के रूप में अपनी मुखर अभिव्यक्ति की। सुनने में आता है कि उसी का परिणाम था कि उन्हें दो बार जोधपुर राज्य से निर्वासित किया गया। लेकिन उन्होंने अपने जीवनादर्शों से कभी समझौता नहीं किया। इनके इसी स्वाभिमानी चरित्र की प्रशंसा करते हुए किसी समकालीन कवि ने कहा था कि–

वंकै वांकीदास री, करै न समवड़ कोय।
लाखपसाव तो इक लियो, देश निकाल़ा दोय।।

बांकीदासजी, नशा, हिंसा, विलासिता, शोषण, धूर्तता आदि मानवीय विकृतियों के सर्वथा खिलाफ थे। उन्होंने अपना विरोध समय समय पर प्रकट भी किया। उस समय की उनकी रचनाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिकता रखती हैं जितनी उस समय रखती थीं।

वन्य जीवों को सताने व मारने वालों से प्रतिप्रश्न करते हुए बांकीदासजी पूछते हैं कि इन मृगों को किस अपराध पर आप मार रहें हैं? इन्होंने आपके बाप को तो मारा नहीं है जो आप बदला ले रहें हैं?-

रवि ऊगै आखेटां रमणो
पूगै देखै खोज पगां।
म्रगां न थांरो बाप मारियो
मारै तूं किण खून म्रगां?

रिश्वत के बल पर यहां अपने भ्रष्ट आचरण को छिपाकर अपनी छद्म छवि निर्मित करने वालों को कवि कहता है कि भलेही यहां रिश्वत खाकर या खिलाकर दूसरों के धन पर मौज करलो! परंतु एकदिन इस भ्रष्टाचार की सजा अवश्यंभावी मिलेगी। क्योंकि ईश्वरीय दंड व्यवस्था में सूंक(रिश्वत) लेने-देने का प्रावधान नहीं है-

उठै सूंक बल़ नहीं उसीलो
करुणा आंणै धणी कुनै।
नांना मिनख कांय डर नावै
तिकण अदालत तणो तनै।।

कवि लिखता है कि सरकारी मुलाजिमों को अपने कर्त्तव्यों से कभी विमुख नहीं होना चाहिए। उन्हें अपना सेवा कर्म निष्ठा के साथ निर्वहन करना चाहिए-

आ रीत सदा सूं चाली आवै
कूड़ म जांणै वेद कहै।
खावंद सब दिन रिजक खवाड़ै
रिजक सीलियां सरम रहै।।

कवि ने उन लोगों को भी लख लानत दी है जो किसी की आजीविका में बाधक बनकर परम सुख प्राप्ति का अनुभव करतें हैं-

भूखां नूं करणा अन्नभेल़ा
सुधरम धरमां तणो सिरो।
परभांणै पाहण ले पटकै
गजब सिला त्यां सीस गिरो।।

कवि ने अंधविश्वास, अंध-श्रद्धा, अफंड, पाखंड पर जो लिखा वह आज भी शाश्वत सत्य है। कवि ने भूत-पलीत, तंत्र-मंत्र, टोने-टोटकों पर जमकर प्रहार किया है। कवि लिखता है कि ‘अरे डरपोकों अगर आप भूत-प्रेत जैसी बकवासी बातों पर विश्वास करके बैठे रहोगे तो आजीविका कैसे चलाओगे?’-

बड़ सूनो घर कूवो बावड़ी
तल़ तज देखै हकै बकै।
भूत पिसाच तणै डर भीनो
सठ नह खाय कमाय सकै।।

भोपों, ढोंगी बाबाओं सहित सभी प्रकार के पाखंड का जोरदार खंडन उस युगद्रष्टा कवि ने किया है। जिस समय अधिकतर कवि वीररस, भक्ति व गुण पूजा की कविताएं लिखकर अपने कविकर्म को साफल्य मंडित मानते थे, उस समय हमारे आलोच्य कवि ने आमजन में चेतना संचार करने वाले स्वरों को मुखरित किया है। कवि लिखता है कि भोपों के पास सिवाय अफंड के कुछ नहीं है। यह निरक्षर, भोली व गरीब जनता को ठगने में माहिर हैं। यह कभी देवी-देवताओं के नाम पर तो कभी भोमिया-जूंझारों के नाम पर विश्वासी जनों की आंखों में धूल झोंखते रहते हैं। अतः ऐसे लोगों के जाल में नहीं फंसे-

जूझार तणा केइक बण जावै
क्याहिक नूं देवरा कहै।
केइक देवी तणा कहावै
रीत ठगाई तणी रहै।।

कवि ने ऐसे ठगी लोगों पर विश्वास करने वालों को मूर्ख माना है। क्योंकि भोपों का काम ही भ्रम उत्पन्न करना ही होता है। जो भ्रमित होकर अपने पथ से भटकता है तो कोई क्या कर सकता है!-

आखो देख इष्ट अंग आणै
धूजै जाणै नह धरम।
भोपां रो सठ करै भरोसो
भोपा उपजावै भरम।।

कवि ने तत्कालीन शासक वर्ग में उत्पन्न हुए कुछ विकारों पर भी कठोर प्रहार करने में भी संकोच नहीं किया। यथा अपनी अहम संतुष्टि हेतु कन्या वध करने व विलासी जीवन यापन करने वालों को कविराजा ने सत्य सुनाने से कोई परहेज नहीं किया। आज हमारी सरकारें देश की आजादी के सत्तर वर्षों बाद बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे नारा लेकर आई हैं वहीं बांकीदासजी ने आज से दौ सौ वर्ष पहले इस पर लिखा और उसी शासक या राज को अच्छा माना जहां बेटी की हत्या न की जाती हो, गौ और ब्राह्मणों को श्रद्धेय माना जाता हो, सत्य पर अडग रहकर विद्वानों को सम्मान दिया जाता हो-

बोल साच, न मारै बेटी
मांनै बंभ सुरह मन मोट।
वित सारू दत्त दिए वीदगां
खत्रियां तिकां नै लागै खोट।।

कवि को लगा कि कन्या वध को रोकना है तो मातृपक्ष की संवेदना जगानी जरूरी है। उसकी सहायता लेनी होगी अन्यथा सारे प्रयास विफल है। इसलिए कवि ने ठाकुरों के साथ साथ ठकुरानियों से भी मार्मिक अपील की कि अगर ईश्वर को राजी रखना है तो आप बेटी होने पर उसकी रक्षा दृढता से करें। कन्यादान से बढ़कर कोई दान नहीं और कन्यादाता से बड़ा संसार में कोई दानी नहीं-

ठकुराणी सुणो!सांभल़ो ठाकुर!!
वात धरम री विसवावीस।
बेटी जणै राखजो कुशल़ै
जे राजी होसी जगदीश।।
भाई सैण भतीज महाभड़
सुभ परियां पावै सरग।
कुंवरी रो विमाह कल़ू में
ज्याग कहावै प्रगट जग।।

कविराज का शुद्धाचरण पर बहुत जोर था। उन्होंने आम व खास जन को मनसा, वाचा व कर्मणा से सही राह चलने का जगह जगह आव्हान किया है। दुराचार की तरफ आसक्त रहने वालों को सत्य की आरसी दिखलाने में कोई संकोच नहीं किया है। कवि उस समय के समाज में आई गिरावट का प्रत्यक्षदर्शी था। ऐसे में उन्होंने बुराइयों पर प्रहार करना उचित समझा। कवि विलासी लोगों को इंगित करते हुए लिखता है कि धारा-तीर्थ (युद्ध)में जाने का सुनकर जिनके हृदय में कंपन पैदा होता है वे ही अगर पारा-तीर्थ(वैश्यागमन संभोग) का नाम सुनते हैं तो मारे खुशी के नाचने लगते हैं-

विलखीजै रिण तूर वाजियां,
म्रदंग बाजियां हरख मचै।
धारख-तीरथ चढै धूजणी
पारा-तीरथ करण पचै।।

इस प्रकार के आचरण की उन्होंने कटु निंदा की है-

गवाड़ै तायफां चढ़ै माता गजां,
सांम नूं कहै सोह बांधसां सूत।
नह लियौ पिता रो वैर लाजै नहीं
पिता रै ठिकाणै विराजै पूत।।

कविराजा ने न केवल पुरुषों की विलासी मानसिकता को अपना निसाना बनाया बल्कि अगर कोई स्त्री भी उन्हें अपने सींचित संस्कारों के विरुद्घ आचरण करते लगी तो उन्होंने सत्य सुनाने में देर नहीं की-

गया दांत सिर सरब आया पल़ी
भांड जिम पाल़टै वेस भोपी।

घोड़े जैसे उच्च वंश में जन्म लेकर गधे जैसा आचरण करने वाल़ों को कविराजा ने कितना सत्य सुनाया है-

नहीं लाज सौ रुआं में घणी नालायकी
चाल सुभ न चालै पैंड चीठो।
जनमिया कोढ़ घोडा तणी जात रौ
दुलातां काढणौ रोढ़ दीठौ।।

कविराजाजी भलेही अभिजात्य वर्ग के प्रतिनिधि के बतौर जाने जातें हों लेकिन इस में कोई दोराय नहीं है कि वे एक संवेदनशील व्यक्ति थे, जिनके मन में दीन-हीन के प्रति लगाव व सामाजिक सुधार के भाव प्रबलता से विद्यमान थे। यही कारण था कि उन्होंने पाखण्ड का कभी भी मंडन नहीं किया। वे सही मायने में उच्चादर्शों के प्रणेता, चरित्रनिर्माता और आजादी की अदम्य जीजीविषा हृदय में लिए आनेवाली पीढियों के अग्रगामी नेता के रूप दृष्टिगोचर होते हैं। उन्होंने सदैव सद् का सत्कार व बद का तिरस्कार करने में कभी भी कौताही नहीं बरती।
महाराजा मानसिंहजी के कविराजा व काव्य गुरु होने के बावजूद उन्होंने नाथों के बढ़ते अत्याचारों, अनाचारों व चारित्रिक दुर्बलताओं का अपने काव्य के माध्यम से साहसपूर्वक प्रतिरोध करते हुए निंदा की है। कवि ने नाथों की स्वेच्छाचारिता व आचरण भ्रष्टता पर युवराज छत्रसिंह के विरोध की सराहना करते हुए लिखा है-

मान को नंद गोविंद रटै, जद
गं.. फटै कनफटन की।

सौभाग्यसिंहजी शेखावत ने सही ही लिखा है कि बांकीदास नाथों के प्रति कृतज्ञ होते हुए भी दुराचरण के पक्षपाती नहीं थे।

‘वैसक वारता’ में तो उन्होंने धनिकों की शोषणकारी नीतियों का खुलासा किया ही है परंतु उन्होंने अपने गीतों में भी शोषकों पर प्रहार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। गीत हुजदारां(कामदार) रौ में ऐसे शोषकों का खुलासा करते हुए कविराजाजी ने इनकी कामदार बनने से पहले की व बाद की दोनों स्थितियों का बेबाक वर्णन किया है। कवि लिखता है महाराजा की भूलवश ऐसे शोषकों की राज काज में दखल बढ़ गई है जिनके घर पर बिछाने के लिए पहले खाट(चारपाई ) नहीं थी अब वे रथों पर चलते हैं और व्यापार के लिए पहले हाटड़ी तक नहीं थी!! वे हुजदार बन बेठे हैं। शोषण में संलग्न ऐसे लोगों के राज में जनता सुखी कैसे हो सकती है?-

सदा गांम झाड़ां प्रजा थियै किण विध सुखी
मिटै किम चोर पाड़ां तणी मार।
खाट नह हूतौ उवै रथां बैठे खतम
हाट न हूतौ जिकै हुवा हुजदार।

कवि का किसानों के प्रति सद्भावी दृष्टिकोण था। कृषि कार्य में प्रवृत्त मेहनतकश जाट जाति व साधारण राजपूत जिन्हें हमारे यहां घर-धणी की संज्ञा से अभिहित किया जाता था कि प्रशंसा कविराजाजी ने दिल खोलकर की है। तत्कालीन साधारण ठाकुरों व भरतपुर, लाहौर के जाट शासकों की अंग्रेज विरोधी भावनाओं का इनके गीतों में वरेण्य वर्णन हुआ है। इससे हम अनुमान लगा सकतें है कि कविराजजी को स्वातंत्र्य प्रेमी सपूत अत्यधिक प्यारे थे। उन्हें जहां कहीं भी स्वतंत्रता से अनुराग व अंग्रेजी विरोधी चिंणगारियां दिखाई देती थी तो वे उसे सहज ही अपनी शब्द फूंक से आग में परिवर्तन करने का मादा रखते थे। किसानों की उदात्तता व हृदय विशालता को इंगित करते हुए कवि लिखता है कि ‘अपने मालिकों के कोठार धान से भरने वालों से बस्ती बनती है और उनके वहां रहने से ही बस्ती की प्रशंसा होती है’-

धानां रा कोठार भरै धणियां रा
कपि खायां नै बुरा किण।
बणै सदा जाटां सूं बसती
बसती सोभ न जाट बिण।।

कवि इनकी उदारता व भक्ति भावना को उद्घाटित करते हुए लिखता है-

पैड़ो चाढै प्रथी नूं पोखै
क्यावर चित ऊधरै करै।
करमां धनो हुवा आंरै कुल़
भगतां सिध जग साख भरै।।

कवि ने साधारण घर-धणियों की कर्मठता, आत्मीयता व अतिथि सेवा भावना की प्रशंसा इसलिए की है कि वे अपने बूते से बढ़कर अतिथि सेवा में संलग्न रहते थे। हर आम व खास के लिए इनका फलसा हमेशा खुला रहता था जहां बिना हिचक कोई भी राबड़ी पीने के लिए रुक सकता था। यही कारण है कि उन्होंने धोल़हरा(महलों) से झूंपो को श्रेष्ठ माना है क्योंकि वहां वटाऊ(यात्री) निःसंकोच विश्राम करते थे-

आयां मिल़ै नहीं अन आदर
धौल़हरां अल़गां सूं धौक।
क्यावर रा झूंपा कांटाल़ा
ले विसराम वटाऊ लोक।।
रोटी राब खाटलै राली
मिलिया राखै नहीं मणा।
गाम धणी ज्यां पाछै गिणियै
घर रां धणियां रंग घणा!!

कविराजा ने ऐसे परहित में रत्त लोगों को सबसे श्रेष्ठ माना है। कविराजा लिखते हैं कि उपकार से बढ़कर इस असार संसार में कोई पदार्थ नहीं हैं। अतः कोई कृतघ्नी ही होगा जो परोपकारी का सुयश नहीं करता हो!! ऐसे उपकारी पुरुषों की लंबी आयु की कामना करते हुए लिखा है-

सत पुरसां तणौ उदै सूरज रै
करै नहीं जस पुरस किसौ
वडौ पदारथ नकौ वांकला
जग मांहे उपगार जिसौ।।
सत राखै राखै नह स्वारथ
खाटै सुक्रत पड़ै नह खीण।
जिकै कुलीण घणा जुग जीवो
परमारथ रै पंथ प्रवीण।।

ऐसे महान कवि के सुभग संदेश का प्रचार-प्रसार बिना किसी पूर्वाग्रहों के संपूर्ण देश में होना ही इस पुण्यात्मा को सच्ची श्रद्धांजलि होगी-

साच कही सब हित सही, नर धिन रैय निशंक।
इण कारण ही आसिया, (तनै)वंदन म्हारा वंक।।

~~-गिरधरदान रतनू दासोड़ी
प्राचीन राजस्थानी साहित्य संग्रह संस्थान दासोड़ी, कोलायत, बीकानेर(राज)

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One comment

  • Ompal Singh Asiya

    श्रेष्ठ एवम प्रामाणिक जानकारी के लिए आभार

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