कवि जालण सी – दूलेराय काराणी (अनुवाद: ठा. नाहर सिंह जसोल)

कच्छ के महारावदेसलजी की बहिन विजयवंतीबा का ब्याह ईडर के राव कल्याणमल के साथ हुआ। राव कल्याणमल न्यायप्रिय शासक, साहित्य पे्रमी,विद्वानों के गुण ग्राहक, कवियों के अश्रयदाता और स्वयं एक अच्छे कवि। उनकी ख्याति सुनकर अनेक कविजन, विद्वान उनके दरबार में आते, काव्य पाठ करते, साहित्य चर्चा करते और मान-सम्मान के साथ विदा होते।

सभी गुणों से परिपूर्ण होते हुए भी उन्होंने एक सुथारण महिला को अपनी रखैल रखकर अपने ऊपर एक काला धब्बा लगा लिया। उससे वे इतने रीझ गये कि ब्याहता पत्नि कच्छ की राजकुमारी विजयवंतीबा को भी भूल गये। राज्य के अनेक कामों में उस सुथारण का हस्तक्षेप होने लगा।

उस भटके हुए राजा को समझावे कौन?

कच्छ की राजकुमारी काफी समय तक राव कल्याणमल की यह उपेक्षा सहन करती रही। राजा को सही मार्ग पर कैसे लाये यह उसके लिए समस्या बन गई। वह दिन-रात मन ही मन घुटने लगी। किसको फरियाद करे? ससुराल में सुनने वाला कोई नहीं था।

अेसी विकट घड़ी में उसको अपने भाई राव देसल की याद आई। सोचा क्यों न मेरे भाई को अरदास करूं? शायद वह मेरी सहायता करे।

देसल वीरा वाहर कर।
दुखियारी तारी बेनड़ी।।

और विस्तार से अपना दुःखड़ा भाई को लिख भेजा। अंत में लिखा कि ‘‘यदि समय पर बहिन को उसके दुःख से नहीं उबार सके तो मुझे विषपान करके अपन इह लीला समाप्त करनी पड़ेगी।

बहिन का पत्र पढ़ते-पढ़ते राव की आंखां से अश्रुधारा बहने लगी। वे बहन के दुःख की गाथा पढ़ कर स्वयं दुःखी हो गये। उसको इस दुःख से कैसे छुटकारा दिलाया जा सके यह प्रश्न देसलजी को बार-बार दिन और रात कुरेदने लगा। रात-दिन प्रसन्न मुद्रा में रहने वाले राव देसल के मुंह पर अब मायूसी नजर आने लगी। राजदरबार में वे चिन्ता मग्न नजर आने लगे और राज काज में भी अब उनका जी नहीं लगता था।

देसलजी के दरबार में एक राज्य कवि था, जालणसी। राव का चहेता, विश्वासपात्र और कविता पाठ में धुरन्धर। प्रतिदिन वह राजदरबार में काव्य पाठ करता और वाह-वाही लूटता। काफी दिनों से राव के चेहरे पर उदासीनता देखकर वह भी चिन्तातुर हो गया। इधर-उधर की बातें करके कविराजा ने बहुत प्रयत्न किया कि राव की उदासीनता का कारण जाना जाय परन्तु कोई सफलता नहीं मिली।

एक दिन हिम्मत करके उसने रावजी को उनके उदास रहने का कारण पूछ ही लिया। कवि के प्रश्न से राव द्रवित हो गये। उनका जी भर आया। आंखों से आंसू छलक पड़े और उन्होंने कविराजा को अपनी बहिन की दुःख गाथा कह सुनाई।
राव देसल की हृदय व्यथा सुन कविराजा स्वयं द्रविभूत हो गये। अपने को संयमित करते हुए कवि बोलेः आप यदि उचित समझें और मुझे आज्ञा दें तो मैं राजकुमारी का दुःख निवारण करने हेतु ईडर जाऊं।

कवि के शब्दों से राव देसल को सांत्वना मिली। उन्हें कवि के इस प्रस्ताव में आशा की चिनगारी नजर आई। वह समय ऐसा था जब जो कार्य कोई दूसरा करने में सक्षम नहीं होता, उसे उस समय के चारण कवियों ने कर दिखलाया। इतिहास इस प्रकार की अनेक रोमांचक घटनाओं का साक्षी हैं। जालणसी एक सामर्थ कवि तो थे ही पर उसके साथ बुद्धिमता से परिपूर्ण एवं विवेकशील भी थे। स्वाभीमानी व स्पष्ट वक्ता भी थे। जो गुण एक कुलीन चारण में होने चाहिये वे सभी उनमें विद्यमान थे। और इसी कारण राव ने बड़ी आशा से कवि को ईडर जाने की आज्ञा दी।

जालणसी तो मां करणी को सुमिर कर ईडर की ओर चल पड़े।

वहां पहुंचने पर राव ने उनका खूब आदर सत्कार किया। कवि ने भी राज्य दरबार में कविता पाठ करके पहले ही दिन ईडर के राव और सभी सभासदों का दिल जीत लिया। अब तो पूरे नगर में कच्छ से आये विद्वान कवि की चर्चायें चलने लगी।

दिन बीतते गये। दरबार में नित काव्य पाठ होने लगा और ईडर का विद्यानुरागी राजा, कवि की चमत्कारी काव्य के जाल में फंसता गया। जब भी कवि वापस कच्छ जाने का आग्रह करे तो रावजी उसको थोड़े दिन और रूकने का आग्रह करे। कवि को जब पूर्ण विश्वास हो गया कि अब रावजी उसके बिना नहीं रह सकते तब वह कोई ऐसे मौके की राह देखने लगा जब वह राव को कुमार्ग से हटाकर सत्मार्ग पर ला सके।

एक दिन, दिन के समय जब सभी सभासद् बिखर गये व आराम कर रहे थे, उसने राजकुमारी विजयंतीबा से मिलने अन्दर रनिवास में जाने की इच्छा प्रकट की। अपने पीहर से आये कविराजा से मिलने हेतु वह स्वयं इतने दिनों से छटपटा रही थी। तुरन्त कविराजा को रनिवास में बुलाया। राजकुमारी ने चरण छू अभिवादन किया। परम्परानुसार कविराजा ने राजकुमारी के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। औपचारिकताएं पूरी होने केपश्चात कविराजा को आसन पर बिठाया। स्वयं सामने बैठी। बैठते ही राजकुमारी का जी भर आया। आंखां में अश्रुधरा बहने लगी। राजकुमारी को इस प्रकार रोते दुख, कविराजा भी भावुक हो गये। उनकी भी आंखें भर आई। परन्तु अपने को आस्वस्थ करते हुए कविराजा बोले, ‘‘बाईसा! अब आपके कष्ट के दिन पूरे होने वाले हैं। राजाजी मेरे पर पूर्ण रूप से रीझ गये है। मौका मिलते ही मैं उन्हें सही मार्ग पर ले आऊंगा, यह चारण का वचन है। बस! अब कुछ समय आप प्रतीक्षा करें। मां भगवती सब ठीक करेगी। इधर-उधर के सभी समाचार देकर कविराजा वापस अपने ‘डेरे’ पर आ गये।

एक दिन राव कल्याणमल भरे दरबार में कवि जालणसी का काव्य पाठ सुन रहे थे। राजदरबार में सभी कविराजा के काव्य पाठ का रसास्वादन कर रहे थे। उसी समय रनिवास ने अपनी सुथारण प्रेयसी का संदेशा आया कि, ‘‘आवश्यक काम से शीघ्र रनिवास में पधारें।’’

प्रेयसी का संदेशा आये और प्रेमी बैठा रहे? यह तो हो ही नहीं सकता। चलते काव्य पाठ को छोड़ ईडर का राव कल्याणमल भड़ाक से उठकर रनिवास की और चल पड़ा।

कल्याणमल को इस प्रकार जाता देख कवि का खून खौल उठा। उसने इसमें अपना घोर अपमान समझा और जाते हुए राव की पीठ पीछे जोर से कहाः

अच्छा बापू! आज अपना आखिरी राम राम! कवि के इस कथन से रावजी चैंक गये। पीछे मुड़कर बोलेः अरे कविरा! इस प्रकार आखिरी राम-राम कैसे हो सकता है? मैं अभी आया। आप बैठो।

अब बैठे जैसा नहीं राजा! अब बैठे जैसा नहीं!

पर ऐसा भी क्या हो गया? आग्रह पूर्वक राव ने पूछा।

टूटते कळेजे चारण के हृदय के उद्गार निकल पड़ेः

कांटे चड्यां कथीर, सुवर्ण सो घेरे थयां।
अे वेळाये वीर, ठपको कांऊं कल्याणमल।।
अर्थात्ः अब तो सुवर्ण की तराजू में पीतल तोला जाने लगा है, और सोना सस्ता हो गया है। ऐसा समय आ गया है, राजा कल्याणमल! किसको कहें?

कवि के कड़वे पर सच्चे बोल, कल्याणमल के हृदय में तीर के समान चुभ गये। कवि के इन कड़वे वचनों का अर्थ राव समझ गया। रनिवास में जाता राजा वापस अपने आसन पर आ विराजा। आदेश हुआः हां कविराजा – काव्य पाठ चालू रखो।

मन ही मन कविराजा खुशी से झूम उठा। ईडर आने का उसका उद्देश्य सफल हुआ। वह दुगने जोश से कविता पाठ करने लगा। पूरी सभा वाह! वाह! करके कवि को बिरदाने लगी। स्वयं राजा अपने विचारों में खो गया हो, ऐसा प्रतीत हो रहा था। काव्य पाठ कब बंद हुआ, कब सभासद् विसर्जित हुए राजा को कुछ पता न लगा। भुज की राजकुंवरी ने आकर पानी की ग्लास नजर की तब राजा को होश आया। नीची आंखें किये राजा ने पानी की ग्लास स्वीकार करते हुए अपने से हुई भूल का प्रायश्चित किया।

कवि जालणसी अब तो राव कल्याणमल का गले का हार बन गया। जब तक जालणसी दरबार में नहीं आये तब तक रावजी की हालत मानों जल बिन मीन जैसी। हर समय कविराजा साथ में। आस पास के कुटुम्ब कबीले में जाये तो जाळणसी साथ में, शिकार जाये तो जाळणसी साथ में, भोजन करे तो जाळणसी पास में बैठकर भोजन करे। इस प्रकार हसी खुशी के दिन व्यतीत होने लगे।

एक दिन राव कल्याणमल के मन में आया कि कवि वापस कच्छ जाने हेतु कहे उससे पहले इसको वचन में बांधकर ईडर में ही रहने हेतु बाध्य कर दिया जाए तो ठीक रहेगा। इस विचार से राव नें कविराजा से कहाः कविराजा, अब तो कच्छ को भूल जाओ। यहीं मैं आपको मांगो जितने गांव दे दूं और आप यहीं के होकर शेष जीवन मेरे साथ व्यतीत करो। इस हेतु मैं तुम्हारी स्वीकृति भी चाहता हूं और वचन भी कि तुम मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाओगे।

राव कल्याणमल के इस आकस्मिक प्रस्ताव से कविराजा स्तब्ध रह गये और उनके प्रति अगाढ़ प्रेम को लेकर वे गद्गद् हो गये। परन्तु अपने वतन कच्छ और देसल जैसे राजा को भी वे भूल नहीं सकते थे।

उधर कच्छ के राव को भी समाचार मिल गये थे कि जिस कार्य हेतु कविराजा को ईडर भेजा था उसमें कविराजा को सफलता मिल गई। वे हर्षित थे कि बहिन का कष्ट दूर हुआ। उनको भी जालणसी की कमी दिन-रात खटकने लगी। कवि बिन दरबार सूना लगता था। अतः वे भी निरन्तर कविराजा को कच्छ आने हेतु संदेश भेजने लगे।
कविराजा की गति सांप-छछुन्दर वाली हो गई। पकड़ो तो खाये, छोड़ो तो जाये। क्या करे? उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

कल्याणमल ने जब कविराजा के समने ईडर में ही स्थायी रूप से बस जाने का प्रस्ताव रखा तो बड़ी ही युक्तिपूर्वक उत्तर दियाः महाराज! आपका मेरे पर इतना स्नेह देखकर मैं भाव विव्हल हो जाता हूं। अपने दोनों के बीच तेरे मेरे का कभी भेदभाव अपने नहीं रखा। जहां इस प्रकार की आत्मीयता हो वहां से स्वतः जाने का मन भी नहीं होता। जब तक आपके और मेरे बीच तेरे मेरे का भेद न होगा तब तक मैं ईडर में रहने का वचन देता हूं। और जिस दिन आपने कह दिया कि यह मेरा और वह तेरा, उस दिन मैं चला जाऊंगा।

कवि के इस उत्तर से रावजी बहुत हर्षित हुए। हंसी खुशी के दिन बीतनें लगे। कच्छ के राव कविराजा को निरन्तर बुलावा भेजते रहते। कवि को भी वतन की याद अब सताने लगी थी। पर क्या करे? वचन जो दे दिया।

भादों का महीना। कोयलें चारों और टहुके दे रही थी। आकाश में बादल छाये हुए थे। मौसम बड़ा सुहाना था। रावजी के मन में आज बाग में जाकर जल क्रीड़ा करने की हुई। अपने चुनिन्दे सभासदों के साथ बाग में स्थित हौज में वे स्नान करने हेतु उतरे। जल क्रीड़ा के साथ भटियों से निकले दुबारे दारू की भी मनवारें हो रही थी। गरमा गरम सूले भी थोड़ी-थोड़ी देर से आरोग रहे थे। दूहों और अंताक्षरी का दौर भी चल रहा था। पता ही न चला कि दिन अस्त होने जा रहा हैं।

सबसे पहले हौज से कविराजा निकले। दुबारे के नशे में मस्त कविराजा, हौज की पाल पर पड़े कपड़ों में रावजी के कपड़ों की ओर बढ़े। रावजी भी कविराजा के पीछे-पीछे आ रहे थे। उन्होंने जब देखा कि कविराजा उनके कपड़ों को हाथ डाल रहे हैं तो उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘‘अरे रे रे कविराजा, ध्यान से देखो! आप किसके कपड़ों को हाथ हाल रहे हो? आपके कपड़े तो उधर पड़े है, ये तो मेरे कपड़े हैं।

कविराजा ने भी हंसते हुए कहाः महाराज मैं तो नहीं भूला पर आप आज भूल गये। इतने दिन अपने बीच तेरे मेरे का भेद नहीं था पर आज वह भेद स्वतः ही उजागर हो गया। अब वचन के अनुसार मुझे मेरे घर जाने की स्वीकृति दो।

कविराजा की बात सुन रावजी को अपनी भूल का अहसास हुआ। मन ही मन बहुत पछताये। पर क्या हो तीर कमाना से छूट चुका था। कुछ बोले नहीं। उदास मन से वापस महलां में पहुंचे। कवि भी पूरे रास्ते चुप रहा। वह राव के मन की व्यथा भांप गया।

कवि अब प्रतीक्षा करने लगा कि राव कब उसे घर जाने हेतु कहे, उधर राव यह प्रतीक्षा कर रहा था कि कब कवि घर जाने हेतु उसको कहे। दोनों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। एक-दूजे को छोड़ना भी नहीं चाहते थे और वचन के अनुसार कविराजा को घर भी भेजना था। इसी असनाय कच्छ से एक पत्र ईडर रावजी को फिर आ पहुंचा कि, अब ‘‘आपने हमारे राज्य कवि को इतने समय तक खूब आदर सम्मान से रखा इस हेतु बहुत आभार परन्तु अब कविराजा को शीघ्र वापस कच्छ भेजने की स्वीकृति दें।’’

कल्याणमलजी ने देखा अब तो कविराजा को भेजने के अतिरिक्त दूसरा कोई रास्ता नहीं। अतः उन्होंने भारी मन से खूब मान-सम्मान के साथ ढ़ेर सारा द्रव्य, घोड़े, शस्त्र आदि भेंट देकर विदा किया।

कवि ईडर में भले ही रहे पर यदा कदा उनको कच्छ व देसल बावा की याद आ ही जाती थी और सीधा-सीधा कल्याणमलजी को कच्छ जाने हेतु न कहकर देसलजी व कच्छधरा के लिए दोहे कह देते थे। वह उनका सांकेतिक आग्रह होता कि हे कल्याणमल अब तो घर जानें देः

देसल ठाकुर कच्छ धरा, अंतर उतारिया।
चोमासा रा दिनड़ा खन खन संभारिया।।
तन ईडर मन कच्छड़े, तन डे ताणातांण।
कच्छ में देसलराव, नें, ईडर राव कल्याण।।
कोयल सरवे सादड़े, माझम रात मंजूर।
थारे अब वन ढूकड़ो, म्हारे देसल दूर।। 

~~दूलेराय काराणी
अनुवाद: ठा. नाहर सिंह जसोल
सन्दर्भ: चारणों री बातां

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