जब ठाकुर साहब ने की कविराज की चाकरी

संवत १७४० के आसपास मेवाड़ के सूळवाड़ा नामक गांव में चारण जाति के कविया गोत्र में कवि करणीदान जी का जन्म हुआ वे राजस्थान की डिंगल भाषा के महाकवि तो थे ही साथ ही पिंगल, संस्कृत व ब्रज भाषा के भी विद्वान थे इन भाषाओँ में उन्होंने कई ग्रन्थ लिखे। उनके लिखे “सुजस प्रकास” व “बिडद सिणगार” ग्रन्थ बहुत ख्यात हुए।

उस जमाने में लोगों के जातिय ढोंग व आचरण देख उन्होंने “जतोरासो” नामक ग्रन्थ लिखा जिसमे समाज के ऊपर तीखे कटाक्ष थे, पर एक साधू के कहने पर वो ग्रन्थ उन्होंने खुद ही जला डाला। उस वक्त की राजनीती में भी कविराज का ख़ासा दखल था। उन्होंने दिल्ली, गुजरात व दक्षिण भारत की कई राजनैतिक कार्यों से सम्बंधित यात्राएं की व युद्धों में भाग लेकर उनका आँखों देखा वर्णन किया।

वे कितने निर्भीक थे इस बात का पता इसी बात से चलता है कि एक बार पुष्कर में उन्होंने जयपुर व जोधपुर के राजाओं को सबके सामने फटकारते हुए एक दोहा कह डाला-

पत जैपुर जोधाण पत, दोनूं ही थाप अथाप
कूरम मारियो डीकरो, कमधज मारियो बाप।

दोहे में कूरम शब्द जयपुर के राजा के कुशवाह वंश और कमधज शब्द जोधपुर के राठौड़ वंश के लिए प्रयुक्त किया गया है।

एक बार तीज के मौके पर कविराज अपनी ससुराल जा रहे थे। उस वक्त मारवाड़ में प्रकृति की छटा निराली थी, कहीं मोर नाचते हुए बोल रहे थे तो कहीं पपीहे की पी पी की मधुर आवाजें सुनाई दे रही थी। हल्की बूंदाबांदी में पशुपक्षी कलरव करते किलोलें भर रहे थे रास्ते के सभी नदी नाले जल से भरे थे। प्रकृति मां का एसा सुरम्य नजारा देख उमंग से भरे कविराज ने घोड़े की खिडया में रखी शुरा की बोतल निकाली और घूंट घूंट पीते चलते गए। प्रकृति की बिखरी शानदार छटा को देख कवि की कल्पना जाग उठी। उनकी आँखों में ससुराल पहुंचे के बाद मिलने वाले सुख की कल्पना जीवित हो उठी और इसी उमंग में कब बोतल ख़त्म हो गयी और दूसरी निकल कर गट गायी जाने लगी पता ही नहीं चला, इतनी गटकने के बाद नशा तो होना ही था।

सांझ ढल चुकी थी चौमासे की अँधेरी रात्री ने चहुँ और अपनी अँधेरी चादर फैला दी कि रास्ता ही नजर ना आये, पर घोड़े ने नशे धुत कविराजा को अपनी पीठ पर लादे एक पगडण्डी पकड़ चलना जारी रखा। कुछ चलने के बाद के घोड़ा कविराज को लिए बड़ली गांव के ठाकुर लालसिंह के दरवाजे पर था। घोड़े की हिनहिनाहट सुन ठाकुर लालसिंह बाहर आये और दिए की रौशनी में देखा – कविराज करणीदान जी बारहठ

बिडद सिणगार के रचियता, जिन्हें जोधपुर के महाराजा ने हाथी पर चढ़ा जुलुस निकाला और जुलुस में खुद राजा पैदल चले।
वही महाकवि उनके दरवाजे पर खड़े है।

जिस कवि के रचे गीतों की राणा संग्रामसिंह जी ने पूजा की थी, जिनकी किसी खरी बात से नाराज हो जोधपुर राजा अभयसिंह ने सौगंध खायी कि – “इस कवि करणीदान का वे अब कभी मुंह नहीं देखेंगे। ”
यह सौगंध जब कवि ने सुनी तो उसने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए कहा – “राजा जी खुद मेरे पास ना आये तो मैं चारण नहीं। ”
और गुजरात विजय पर कवि ने ऐसी ओजपूर्ण कविता रची कि उसे सुनकर महाराजा से रहा नहीं गया और उन्होंने खुद आकर कवि को बांहों में भर अपने सीने से लगा लिया।

ठाकुर लालसिंह ने देखा आज वही कविराजा घोड़े पर चढ़े उनके घर के दरवाजे पर साक्षात् खड़े है। ठाकुर इस बात से उमंग से भर उठे।

“पधारो कविराजा ! पधारो ”
पर कविराजा तो नशे में धुत थे उन्हें तो कुछ होश ही नहीं था बोले –
“ससुराल जा रहे है, नहीं रुकेंगे। ”
ठाकुर लालसिंह ने उन्हें रोकने हेतु खूब मान-मनवार की पर सब बेकार। कवि बोले –
“ज्यादा बक बक मत कर, हुक्का भरले और चल रास्ता बता। ”
ठाकुर लालसिंह ने नौकर को रोका और खुद हुक्का भर कर लाये -आज मुझे ही कविराजा की चाकरी करनी है।
पर आँखे लाल करते हुए कविराजा ने हुक्म दिया – “हुक्का हाथ में ले ले और घोड़े के आगे हो जा, रास्ता बताने को। ”
ठाकुर लालसिंह समझ गए थे कि कविराज आज किसी और ही रंग में मस्त है सो हुक्का हाथ में ले घोड़े के आगे आगे चल दिए।

अँधेरी रात, हल्की बूंदाबांदी, कीचड़ भरे व उबड़ खाबड़ रास्ते में गड्ढों से बचाते ठाकुर चलते गए। एक जगह घोड़ा ठिठककर रुक गया, ठाकुर कुछ बोलते इससे पहले कविराजा ने अपने हाथ में पकड़ी बैंत की दो चार सटा सट ठाकुर को जमाते हुए बोले – ” सीधा नहीं ले जा सकता। ”
ठाकुर बोले नहीं मन ही मन हँसते हुए घोड़े की लगाम पकडे चल दिए। कवि को नशे में तरंग उठी –
“जानता नहीं हम ससुराल जा रहे है, चल कोई दोहा सुना। ”
ठाकुर कान में अंगुली डाल मुंह ऊँचा कर किसी ढोली की तरह दोहे गाने लगे –

लीलो चढियो मद पीयां, भालां कर भळकाम।
मदमाती धण मांण लो, अण चित्यां धर आय।।
लीला कांई ढीलो बहै, देस पयाणों दूर।
पंथ निहारे पद्मिणी, पनाज जोबन पूर।।
गढ़ ढाहण गळण, हाथ्याँ दैण हमल्ल।
मतवाळी धण माणतां, आज्यो सैण अमल्ल।।

वाह वाह करते, दुहे सुनते आधी रात को कविराजा अपनी ससुराल पहुंचे। जंवाई जी पधारे, जंवाई पधारे कह ससुरालियों ने उनका स्वागत किया। और कविराज तो घर के अन्दर दाखिल हुए और ठाकुर लालसिंह ने बाहर बैठक में अपने सोने की जगह पकड़ी, कवि के ससुरालियों ने ठाकुर को पहचान लिया सो उनकी अच्छी मान-मनवार के साथ खातिरदारी की व उनके सोने की व्यवस्था की।

सुबह दिन उगते ही कविराज का नशा उतरा वे ठन्डे पानी से अपना मुंह धो जनानखाने से बाहर आये देखा बड़ली के ठाकुर लालसिंह जी बैठे है। उनसे खम्मा घणी कर बाँहों में भर गर्मजोशी से मिले और पूछा –
“आज किधर से पधारना हुआ ?”
“मैं तो रात से आपकी चाकरी में हाजिर हूँ। ”
“है”! कविराज के तो पैरों तले से जमीन ही खिसक गयी। उन्हें बहुत पछतावा हुआ बोले – “धन्य है ठाकुर साहब आप। ” आज आपने मुझे ऋणी कर दिया पर मैं भी चारण का बेटा हूँ आपके इस ऋण के बदले आपको अमर कर दूंगा। पर झूंठी तारीफ़ तो मुझसे से होगी नहीं यदि आप किसी युद्ध में वीरता प्रदर्शित कर देंगे तो उसके वर्णन के ऐसे दोहे बनाऊंगा कि सुनकर किसी कायर को जोश आ जाए।

कुछ वर्षों बाद महादजी सिंधिया ने इस्त्मुरारदारा से खिराज वसूलने हेतु अजमेर पर आक्रमण कर दिया। ठाकुर लालसिंह ने इस युद्ध में सिंधिया के खिलाफ शौर्य प्रदर्शित करते हुए वीरगति प्राप्त की।

कवि व ठाकुर दोनों की लालसा पूरी हुई। कवि ने ठाकुर लालसिंह की वीरता पर दोहे व गीत बनाये जो जन जन की जुबां पर छा गए।

दळ उलट्या दिखणाद रा, तोपां पड़िया ताव
आ बड़ली तो अड़ली भई, बांकी खाग जलाल
सेंधर कबहूं न जावसी, लोहियां सींची लाल
बांका आखर बोलतो, चलतो बांकी चाल
जुडियो बंको खग झडा, लड़ियो बंको लाल
कै भज हूँ करतार, कै मर हूँ खागां खलां
रसद बातां दो सार, लाखां ही झूंठी लालसी।

~~Authored by Ratan Singh Ji Shekhawat on gyandarpan.com (Link)

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