कविता ना व्यापार
कल्पक ना छोटा बडा, रंक किवा उमराव।
अपनी अपनी कल्पना, अपने अपने भाव।।१
कवि तो कवि होता सखे!, क्या आला क्या तुच्छ।
खुद खुद की निजता लिए, गढते पुष्पित गुच्छ।।२
कविता मन की कल्पना, कल्पक की सुकुमार।
मंचों की महिमा नहीं, नहीं वणिज व्यापार।।३
कविता केवल ना विषय, नही शब्द लय भाव।
जन जन की पीडा अनत, मन के गहरे घाव।।४
कविता इक संवेदना, मन की गहरी सोच।
उमडेगी वह चित्त में, जब जब लगे खरोंच।।५
कल्पक केवल जाति या, ना है व्यक्ति विशेष।
जिसका अंतस हो दु:खी, वो कविता-दरवेस।।६
नहीं बधिक नें क्रोंच पर, ताना होता तीर।
कविता कैसे चीखती, रामायण बन वीर!।।७
छंद नहीं;लय भी नहीं, ना मुक्तक अतुकांत।
कविता कोलाहल कभी, कभी तथा वह शांत।।८
कविता न ही संयोग है, कविता न ही वियोग।
कविता मन संवेदना, अभिव्यक्ति रोग।।९
कविता मन संवेदना, चुभकर करतीचोट।
घाव बिना घायल करे, घट भीतर विस्फोट।।१०
कविता ना विग्यान है, ना दर्शन उपदेश।
कविता केवल दर्द है, बाँटत कवि दरवेश।।११