कवित्त – मालव मुकुट बलवंत ! रतलामराज

मालव मुकुट बलवंत ! रतलाम राज,
तेरो जस जाती फूल खोलैं मौद खासा कों।
करण, दधिचि, बलि केतकी गुलाब दाब,
परिमल पूर रचै तण्डव तमासा कों।
मोसे मधुलोभिन कों अधिक छकाय छाय,
महकि मरन्द मेटै अर्थिन की आसा कों।
चंचरीक सु कवि समीप तैं न सूंघ्यो तो हू,
दूरि ही सों दपटि निवाजें देत नासा कों।।७८।।
ऊंचो जो न होय तो कहा है होयबे में फल,
पंथ पै न होय तो जो उच्चता उघारे नां।
छाया जो न होय जो वृथा ही पंथ ब्हेबो श्रांत,
अध्वग न आवै तो सुछाँह छवि धारै नां।
एबो हू वृथा जो फल फूल विधुरा न मेटैं,
अध्वनीन याही एक आश्रय सों हारै नां।
पारिजात ! पंथ के नरेश “बलवंत !” फलि,
फूलि के नम्यो तो फेरि को कर पसारै नां?।।७९।।
विद्या भूमि में न होते अर्थ बीज अंकुरित,
छत्र धर्म दादुर दुराकृति दरसतो।
मेधावी मयूरन को मोद मिटि जातो शूर,
वीरन को मान मीन पंक न परसतो।
अतुल उदार “बलवंत” रतलामराज,
चातक चतुर मन ताप न तरसतो।
बाड़व दरिद्र कवि सागर सूखै तो जोपै,
मालवेन्द्र ! तू न मास बारह बरसतो।।८०।।
जामें होय जो गुन बढ्यो अति विशेषता सों,
सोहि जग अन्तर सराहिबे के बंगैं हैं।
होत जे सुकवि ते वृथा गुन बखानैं नाहिं,
सत्य होत सोहि सबही के मन रंगैं हैं।
मालव मुकुट “बलवंत” रतलामराज !
माँगिबे में एब न तो कीरति कुढंगैं हैं।
रीझ रीझ तो पर लिखे सो कविधर्म यातैं,
यो न जानिलेनी ए कवित्त रंक मंगैं हैं।।८१।।
~~महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण