खूबड़जी री स्तुति – गंगारामजी बोगसा

डिंगल कवियों की यह उदारता भी रही है कि अपने मित्रों, हितेषियों व संबंधियों के आग्रह पर ये उन्हीं के नाम से भी रचनाएं लिख देते थे। ऐसे एक नहीं कई उदाहरण मिलते हैं। बाद में मूल कवि के स्थान पर उस कवि का नाम चल पड़ता है जिसके नाम से मूल कवि ने रचना बनाई।
ऐसा ही एक उदाहरण आज गंगारामजी बोगसा सरवड़ी की कुछ पांडुलिपियां पढ़ते हुए मिला। गंगारामजी ने किन्हीं ठाकुर सरदारसिंहजी के नित्य पाठ हेतु मा खूबड़ी की स्तुति लिखकर दी थी।
“श्री खूबड़जी री असतूत ठाकुरां सरदारसिंहजी(रै) पाठ करवा नै कहाड़ि(यो) बोगसा गंगाराम कनै सूं”
गंगारामजी बोगसा महाराजा तखतसिंह जी जोधपुर के समकालीन व डिंगल़ के श्रेष्ठतम कवियों में से एक थे। खूब स्तुतिपरक रचनाओं के साथ अपने समकालीन उदार पुरुषों पर इनकी रचनाएं मिलती है।
आज जोधपुर में मेरे परम स्नेही महेंद्रसा नरावत सरवड़ी जो पीएचडी के छात्र व अच्छे कवि भी हैं। ये पांडुलिपियां लेकर हथाई करने आए। महेंद्रसा, गंगारामजी के चौथी पीढ़ी के वंशज हैं। अपने पर-पितामह की पांडुलिपियों का संरक्षण कर रहे हैं। आजकी युवा पीढ़ी जहां एक ओर पुराने साहित्य से दूर भाग रही हैं वहीं महेंद्रसा जैसे संस्कारित युवा भी हैं जो इस मुहिम में लगे हैं कि अपने पूर्वजों की लग्न व निष्ठा से लिखे गए इस महनीय साहित्य की अंवेर कैसे जाए?
एक बांनगी आपसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। छंद का थोड़ासीक अंश आपके अवलोकन हेतु-
।।दोहा।।
खूबड़ रो परचो खरो, है हाजरा हजूर।
काछेली ऊपर करै, कुल़जुग घोर करूर।।1
दूजा देवी देवता, सातादीप सधाय।
विघन वडारण सरवड़ी, मादाई महमाय।।2
कियां साद ऊपर करै, समर्यां सदा सहाय।
जगतम्ब सरदारो जपै, ऊपर करजो आय।।3
मनसुध साचो माहरै, वीसहथी विसवास।
समरै कर जोड़े सदो, आई पूरै आस।।4
।।छंद – त्रोटक।।
समरूं धर ध्यान सदा सगती।
महमाय वरीसण सुध्द मती।
जय खूबड़ मात जगं जरणी
कछराय सहाय सदा करणी।।1
जगदंब नको सुर आप जसो।
करवूं जस हेकण जीभ कसो।
धणियाप सदा समर्यां धरणी।
व्रहमंड पुरांण गुणां वरणी।।2
धरणी धर शंकर ध्यान धरै।
मुनि सेस गुणेस सदा समरै।
सुरलोक भूगोळ पताळ सही।
रम आप त्रहूं पुर मांह रही।।3
घटघाट सदा तुम भांज घड़ै,
विध संभू हरि नह आप वड़ै,
भगती कर चुंड न्रपाळ भजी।
मरू देस वरीस हुई मरजी।।4
सुरतांण भजी जग धांन सजै,
भड़िया दळ बाइस लोक भजै।
कछवाह जेसाह जो ध्यान कियं।
दळ रौद दल्लिपत गाळ दियं।।5
कमधांपत वीक भजी करणी।
धर जंगळ री बगसी धरणी।
त्रसियो अखवी रण मांह तठै।
जपियो अनपूरण आप जठै।।6
तण वार जो सेन हुई तरसी।
विखमी पुळ वादळ ती वरसी।
लड़तांय चामंड वचाय लियो।
दुख वार अगै दह दियो।।7
~~गंगाराम जी बोगसा
प्रेषित: गिरधरदान रतनू “दासोड़ी” / महेंद्र सिंह नारावत “सरवड़ी”