कोटा मे क्रांति के सूत्रधार कविराजा दुर्गादान

‘मैं देश सेवा को अति उत्कृष्ट आदरणीय मनुष्य धर्म समझता हूं’, इन शब्दों में स्वतंत्रता की अमिट लालसा तो थी ही, साथ ही पराधीनता के दौर में औपनिवेशिक सरकार को दी गई चुनौती की एक लिखित स्वीकारोक्ति भी थी, जो रियासतयुगीन कोटा के प्रमुख जागीरदार कविराजा दुर्गादानजी द्वारा 20 दिसंबर 1920 ई. को कोटा रियासत के दीवान ओंकारसिंहजी को प्रेषित एक पत्र में उल्लेखित थी। वास्तव में 1920 ई. का दशक स्वतंत्रता संग्राम के एक लोमहर्षक युग का प्रवर्तक था। जब रोलेट एक्ट द्वारा क्रांतिकारियों पर दमनचक्र के आर्तनाद की छाया में महात्मा गांधी के आंदोंलनों की स्वतंत्रता की ओर शुरुआत थी, वहीं सोशलिस्ट रिवोल्युशनरी पार्टी पंडित चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में बंगला क्रांतिकारी वीरेंद्र घोष के मार्ग निर्देशन में शक्ति प्रदर्शन से ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर संघात कर रही थी। उधर, समग्र विश्व में उग्र राष्ट्रवाद पनपा कर जापान, जर्मनी, इटली, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमरीका आदि क्षितिज पर अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने को आतुर थे। इसी विभीषिका के मध्य राजस्थान मे श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा, श्री अर्जुनलाल सेठी, श्री गोपालसिंह जैसे राष्ट्रवादी क्रांतिपुंजों के समानांतर कोटा राज्य भी अखिल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक सशक्त प्रणेता बन गया।
हाल ही में ऐसे अनेक दस्तावेजों का रहस्योद्घाटन हुआ है, जिनके अनुसार कोटा में एकमात्र स्थान था, जहां स्वतंत्रता के दीवाने एक सशक्त संगठन बनाकर अखिल भारतीय स्तर पर क्रांतिलीन थे। यह स्थान था कविराजा साहब की हवेली एवं इस संगठन के संचालक थे स्वयं रियासत के कविराजा पद की दसवीं पीढ़ी के स्वामी श्री दुर्गादानजी। विस्मयकारी ढंग से कविराजा साहब ने इस हवेली में एक वर्ग विशेष के क्रांतिकारियों से ही संबंध न रखा, वरन् प्रख्यात बैरिस्टर तथा कांग्रेसी नेता श्री भूलाभाई देसाई यहां मंत्रणा करने आते थे वहीं सोशलिस्ट रिवोल्युशनरी पार्टी के श्री मन्मथनाथ गुप्त भी कविराजा साहब के संगठन के सदस्य थे। भारत में प्रथम कृषि आंदोलन के मसीहा श्री विजयसिंह पथिक तथा प्रजामंडल आंदोलन के कर्णधार श्री माणिकलाल वर्मा व पंडित अभिन्न हरि तक इसमें सम्मिलित थे। 1896 ई. में जन्मे कविराजा साहब ने अभिजात्य वर्ग की वैभव सुविधागम्य ब्रिटिश पराधीनता को अपने उग्र राष्ट्रवादी दृष्टिकोण के कारण असह्य मान लिया था। इसकी प्रेरणा उन्हें अपने उच्च शैक्षणिक स्तर से मिली।
बनारस में कविवर जयशंकर प्रसाद व युवा क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त के साथ अध्ययन करते हुए उन्होंने 15 वर्ष की आयु में ग्यारहवीं कक्षा उत्तीर्ण की। तदुपरान्त उन्होंने स्नातकोत्तर स्तर तक अध्ययन किया। अपनी अपूर्व प्रतिभा से उन्होंने संस्कृत के अठारह ग्रंथ कंठाग्र कर लिए। इसके उपरान्त कोटा लौटकर वे अपनी जागीर मे अपने व्यक्तित्व को स्वतंत्रता की कसौटी पर परखकर भारत-भारती के स्वप्न देखने लगे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने निर्णय लिया था कि स्थानीय राष्ट्रीय आंदोलनकारियों को स्वयं अपनी शक्ति से आंदोलन संचालित करने चाहिए। इसी पृष्ठभूमि में राजस्थान में प्रारंभ प्रजामंडल आंदोलन का प्रथम घटक कोटा में 1927 में कोटा प्रजामंडल की संज्ञा से स्थापित हो गया। कविराजा साहब ने राष्ट्रप्रेम की अभिव्यक्ति के दो आयाम चुने। प्रथम में वे प्रजामंडल के शासन सुधार कार्यक्रमों में संलग्न हुए द्वितीय में वे राष्ट्रस्तरीय क्रांति के कर्णधार बन गए तथा पंच ‘क’ अर्थात करणी माता, कोटा राज्य, कोटड़ी, कविराजा, क्रांति आदि के पंचतत्वों में समाहित हो गए।
वयोवृद्ध क्रांतिकारी पंडित अभिन्न हरिजी ने हाल ही में यह रहस्योद्घाटन किया कि प्रजामंडल के उन आंदोलनों को कविराजा साहब सक्रिय सहयोग देते थे, जो कृषकों के हित में व पराधीनता के विरोध में क्रियाशील थे। स्वयं कोटा महाराव उम्मेदसिंह (द्वितीय) की जानकारी में यह तथ्य मुखबिरों द्वारा लाया गया। यही नहीं जब महाराव ने उनसे क्रांतिकारियों को अपनी हवेली में आतिथ्य, आर्थिक सहायता एवं वस्त्र आदि प्रदान करते रहने के विषय में पूछताछ की तो वे सौम्यतापूर्वक बोले- ‘इन सभी से मेरे निजी संबंध है।’ इस तर्क से महाराव पुनः क्रांति संगठन के विषय में जिज्ञासु न बन पाए। 1942 ई. में भारत छोड़ो आंदोलन में सम्मिलित अभिन्न हरिजी व उनके साथियों ने जब रामपुरा कोतवाली पर तिरंगा फहरा दिया था, तब प्रशासन ने उन्हें कारावास भेज दिया। इस समय कविराजा साहब ने स्वयं महाराव से अनुरोध करके इन राष्ट्रभक्तों को रिहा करवा दिया। पंडित अभिन्न हरिजी व कोटा के प्रख्यात शिक्षाविद् श्री दलेला की स्मृतियों में वह समय अभी तक रोमांचक बना हुआ है जब देशनायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस स्वयं 1930 ई. मे कवीराजा साहब के पास मंत्रणा हेतु आए थे व दिनभर उनकी हवेली में अतिथि बने रहे। उन्होंने कोटा में अन्यत्र कहीं भी अपना समय व्यतीत नहीं किया।
तत्कालीन भारत में यह चर्चा थी कि कविराजा साहब प्रत्येक भेंटकर्ता क्रांतिकारी को मार्ग व्यय, भोजन, वस्त्र आदि प्रदान करते थे। फरार क्रांतिकारियों के लिए भोजन, उनकी हवेली से काला कुआं नामक कृषि फार्म के माध्यम से गुप्त रूप से पहुंचाया जाता था। यह स्थान कोटड़ी तालाब के समीप है। यही सब कारण थे कि स्वतंत्रता के प्रथम वर्ष 1948 ई. में दैनिक नवज्योति के एक अंक के संपादकीय में तत्कालीन संपादक श्री रामनारायण चौधरी ने लिया था कि कविराजा दुर्गादान ही राजस्थान के एकमात्र जागीरदार हैं, जो अपनी जागीर की परवाह नहीं करते हुए क्रांतिकारियों को संरक्षण प्रदान करते हैं। इसी राष्ट्र प्रेम के वशीभूत कविराजा साहब 24 जुलाई 1955 ई. को ब्रह्मलीन हो गए।
~~डॉ. अरविंद सक्सेना
इनकी रचनाए मिलती है क्या?