क्रांतिकारी कुँ. प्रताप सिंह बारहठ – उम्मेद सिंह देवल


चलतो रथ रवि रोकियो, पवन थामियो साँस।

कह जननी सूरो जन्यो कह सुर धरा प्रकाश।।
तन-मन दोन्यू ऊजला, सिर केसरिया पाग।
हरियाली हिरदै बसी कुँवर तिरंगों राग।।
~~स्वरचित

वीर प्रसूता गौरवमयी मेवाड़ की मॉंटी के उदयपुर में ज्येष्ठ शुक्ला ९ वि. सं. १९५० दिनांक 24 मई 1893 को स्वनाम धन्य वीरवर ठाकुर केसरी सिंह बारहठ की धर्म-पत्नी यथा नाम तथा गुणा माणिक कँवर की कोख से एक पुत्र-रत्न ने जन्म लिया। ”होनहार बिरवान के होत चीकने पात ”-पिता की पारखी नज़रों ने बालक के शुभ शारीरिक लक्षणों से तत्काल ही पहचान लिया कि कुल कीर्ति में वृद्धि करने वाला यह वीर विलक्षण प्रतिभा का धनी है, उसके प्रबल पराक्रम को पहचान पुत्र का नाम रखा-प्रताप। प्रताप का जन्म पिता की ओजस्विता, माता की धीरता एवं स्वयं की वीरता का अद्भुत् त्रिवेणी संगम था।

कुँवर प्रताप की पुश्तैनी जागीर का ग्राम शाहपुरा(भीलवाड़ा) के समीप देवी-खेड़ा है, लेकिन इनके दादा ठा. कृष्ण सिंह बारहट मेवाड़ महाराणा के आग्रह के कारण उदयपुर में रहने लगे, कालांतर में इनके पिता महाराणा के परामर्श दाता बने और यहीं इनका जन्म हुआ। मेवाड़ महाराणा के जामाता कोटा के महारावल साहब ने ठाकुर साहब की विद्वता, विलक्षण बुद्धि, एवं प्रतिभा से प्रभावित होकर महाराणा मेवाड़ से इन्हें मांग लिया जिसे न चाहते हुए भी महाराणा को स्वीकार करना पड़ा और परिवार कोटा आ गया।

कुँवर प्रताप की प्रारंभिक शिक्षा हर्बर्ट हाई स्कूल कोटा तथा बाद में डी. ए. वी. हाई स्कूल अजमेर में हुई। इसके बाद इन्हें श्री अर्जुन लाल सेठी के वर्धमान जैन विद्यालय जयपुर में भेजा गया। लेकिन जब श्री सेठी जी ने अपना विद्यालय इंदौर स्थानांतरित कर लिया तो इनके पिता ने इनको और इनके बहनोई श्री ईश्वर दान आसिया को प्रसिद्ध क्राँतिकारी मास्टर अमीचंद के यहाँ देश-सेवा के प्रशिक्षण के लिए यह जानते हुए कि यह मरण-पंथ है, भेज दिया।

अँग्रेज सरकार की सूक्ष्मतम दृष्टि श्री केसरी सिंह जी बारहठ के हर वतन परस्ती के क्रिया-कलापों पर सतत लगी हुई थी। तात्कालिक ब्रिटिश सरकार का मानना था कि राजपूताना में उनकी सत्ता के लिए गंभीर संकट पैदा करने वाला सबसे खतरनाक व्यक्ति कोई है, तो वह है-केसरी सिंह बारहठ। यह बात स्वयं ए. जी. जी. के ऑफिस सुपरिंडेंट ने ए. जी. जी. की टॉप सीक्रेट रेड कलर्ड डायरी के अनुसार ठाकुर साहब से कही थी। ब्रिटिश सरकार हर सूरत में इन्हें वश में रखना चाहती थी, यह एक ऐसी चाहत थी जैसे कोई बालक आकाश को मुठ्ठी में भरना चाहे।

प्रथम विश्व युद्ध के आरम्भ काल में शाहपुरा के राजाधिराज नाहर सिंह ने अँग्रेज सरकार को प्रसन्न करने के उद्देश्य से इनकी जागीर, गढ़ नुमा विशाल हवेली को जब्त कर लिया, उसके अंदर के साजो सामान को नीलाम करवा दिया यहाँ तक की उनके कृष्ण भारती पुस्तक भवन जिसमें नायाब ग्रंथों का दुर्लभ संग्रह था, अपने महल में मंगवा लिया। फिर भी वह उनके अडिग इरादों को नहीं डिगा सका।

वीर प्रवर ठाकुर साहब का जो परिवार अब तक राजसी शान औ शौकत की जिंदगी जी रहा था उसे ठाकुर साहब की वतन परस्ती और स्वतन्त्रता की उत्कट अभिलाषा के कारण दर दर की राह भटकने को मजबूर होना पड़ा। पर धन्य हैं वे लोग जिन्होंने विपदा को भी पुष्प हार समझकर गले लगाना स्वीकार किया लेकिन अपने शीश को, अपने आत्माभिमान को झुकाना गवारा नहीं किया। सच में ठाकुर साहब का यह त्याग कई त्यागों से श्रेष्ठ है –

धन, मन भामाशाह दिया, तन, मन दिया प्रताप।
तन, मन, धन तीन्यू दिया, केसरी धरा ने आप।।
~~स्वरचित

मानव के लिए इन तीनों से भी मूल्यवान होता है उसका परिवार और उसकी संतान। धन्य वह महान आत्मा जिसने अपना सर्वस्व माँ भारती के चरणों में अर्पित कर दिया, और हर घोर विपदा को ईश का आशीर्वाद मान सहजता से मुदित मन ग्रहण किया ।

भारत माता को दासता के बंधन से मुक्त करानेके लिए संघर्षरत प्रमुख क्रांतिकारियों में एक थे बंगाल के श्री रास बाहरी बोस। श्री अमीचंद दिल्ली में उनके विश्वस्त सहयोगी थे। श्री अमीचंद ने जोरावर सिंह, प्रताप सिंह और ईश्वर दान आसिया को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष विविध कसौटियों पर कसकर यह जान लिया कि ये तो असली कुंदन हैं, माँ भारती के सच्चे लाल।

तदुपरांत श्री अमीचंद ने इनकी मुलाकात श्री बोस से करवाई और उन्हें बारहठ परिवार के बलिदान की गाथा का परिचय दिया तो श्री बोस के मुख से बरबस ही निकल गया कि- “भारत में एकमात्र बारहठ केसरी सिंह जी ही एक ऐसे क्रांतिकारी हैं जिन्होंने भारत माता की दासता काटने के लिए अपने समस्त परिवार को आजादी के मुंह में झोंक दिया है।”

श्री रास बिहारी बोस की अनुभवी एवं पारखी नज़रों ने प्रताप के शौर्य एवं साहस को तुरन्त ही भाँप लिया। श्री बोस अपने कार्य क्षेत्र का विस्तार उत्तर भारत में करना चाहते थे, बनारस में उनके दाहिने हाथ थे श्री शचीन्द्र नाथ सान्याल जो यहाँ की क्रांतिकारी गतिविधियों की कमान सम्हालते थे, कुंवर को अविलम्ब उनके पास भेज दिया।

श्री बोस ने “ब्रिटिश अजेय हैं” इस मिथक को तोड़ने के लिए, इस भावना को निर्मूल सिद्ध करने हेतु लार्ड हार्डिंग्ज पर बम फेंकने की योजना बनाई एवं इस योजना को मूर्त रूप देने के लिए जोरावर सिंह, प्रताप सिंह को दिल्ली बुलवा लिया, योजनानुरूप लार्ड हॉर्डिंग्ज पर बम फेंका गया लेकिन नियति की इच्छा नहीं थी और लार्ड बच गया लेकिन उद्देश्य फिर भी सफल रहा, इस बम की गूँज दुनिया के कोनों तक सुनी गई और भारतीयों में इस भावना का संचार हुआ कि अँग्रेजो पर प्रहार किया जा सकता है। इस षडयंत्र केस में प्रताप सिंह की गिरफ़्तारी हुई, लेकिन पर्याप्त सबूतों के अभाव में ब्रिटिश हुकूमत को इन्हें छोड़ना पड़ा।

बनारस षड्यंत्र केस :-श्री शचीन्द्र नाथ सान्याल पंजाब की ग़दर पार्टी एवं श्री रास बिहारी बोस के बीच की कड़ी थे। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इन लोगों ने भारत में सशस्त्र क्रांति की योजना को कई गुप्त मंत्रणाओं के बाद मूर्त रूप दिया। तय यह हुआ कि 21 फरवरी 1915 को बनारस से सशस्त्र विद्रोह का आगाज किया जायेगा। इस दौरान दल के सदस्य सैनिक छावनियों में संपर्क करेंगे और भारी मात्रा में बंदूकें और अन्य युद्धोपयोगी सामान एकत्रित करेंगे। लेकिन इसमें हुई एक चूक ने भारत के इतिहास की धारा को ही मोड़ दिया अन्यथा आज भारत का इतिहास ही और होता।

हुआ यह कि पंजाब की ग़दर पार्टी के क्रांतिकारियों को इस बात की सूचना मिल गई कि ब्रिटिश सरकार को उनकी योजना का पता चल गया है, अतः उन्होंने तिथि परिवर्तन का निर्णय लिया लेकिन यह सूचना समय रहते श्री सान्याल तक नहीं पहुँच पाई। पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार श्री सान्याल अपने सहयोगियों के साथ बनारस के परेड ग्राउंड पर पहुँचे, वहाँ मौजूद पुलिस बल ने उन लोगों को घेर कर उनकी गिरफ्तारियाँ शुरू कर दी। श्री सान्याल सहित कुल 25 गिरफ्तारियाँ हुई। श्री रास बिहारी बोस जापान चले गए। श्री सान्याल को आजन्म काला पानी की सजा मिली। श्री रणवीर सिंह, श्री प्रताप सिंह, श्री गुरचरण कार सहित 16 क्रांतिकारियों पर डिफेन्स ऑफ़ इंडिया एक्ट के तहत केस चलाया गया।

पुलिस कुँवर प्रताप को वहाँ गिरफ्तार करने में नाकाम रही, वे वहाँ से निकलकर गुप्त-रीति से छद्म वेश और नाम के हैदराबाद (सिंध) पहुँच गए। वहाँ उन्होंने एक डिस्पेंसरी में कम्पाउंडर का कार्य प्रारम्भ कर दिया, लेकिन इस काम से उन्हें भला कब संतोष था ? अतः शेष समय में युवकों में क्रांति और देश-भक्ति की भावना भरना प्रारंभ कर दिया, यही तो उनका मुख्य ध्येय था।

एक तरफ पुलिस इन्हें तलाश रही थी, वहीँ दूसरी और इनके साथी क्रांतिकारियों ने इनके परिचितों एवं रिश्तेदारियों में इन्हे ढूँढना प्रारम्भ कर दिया। आख़िरकार मेहनत रंग लाई और उनके साथियों को यह पता चल गया की प्रताप हैदराबाद (सिंध) में हैं। लेकिन पुलिस को भ्रमित करने के उद्देश्य से उन्होंने हैदराबाद (दक्षिण) में उनके होने की अफवाह फैला दी। पुलिस उनको हैदराबाद (दक्षिण) में तलाश रही थी, और उनके साथी श्री राम नारायण चौधरी हैदराबाद(सिंध) में।

व्यक्ति अपने आप को छुपा सकता है परन्तु अपने व्यक्तित्व को नहीं। श्री राम नारायण चौधरी ने जब हैदराबाद में कुँवर प्रताप को तलाशने का कार्य प्रारम्भ किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि एक युवक यहाँ के युवाओं में क्रांति की लौ जला रहा है, उनमें वतन-परस्ती की भावनाएँ भर रहा है, तो उन्हें यह समझने में बिल्कुल भी देर नहीं लगी कि उनकी मँजिल कहाँ है ?

दोनों सहृदय सप्रेम मिले। श्री राम नारायण चौधरी ने प्रताप सिंह से कहा कि हमारे संघठन की यह इच्छा है कि आप राजपूताना पधारे, हमें वहाँ संघठन को नई गति प्रदान करनी है, और इसके लिए आप की महती आवश्यकता है, अतः आप मेरे साथ चलने की स्वीकृति प्रदान करें। सेवा देश की करनी है चाहे यहाँ हो या चाहे वहाँ। अतः महत्व को प्राथमिकता मान प्रताप ने फ़ौरन हामी भर दी। अगले दिन दोनों ने वहाँ से प्रस्थान कर दिया। दोनों के बीच निर्णीत हुआ था कि श्री चौधरी राजधानी में कोई कार्य करने लग जायेंगे और प्रताप सिंह देहात में, उचित अवसर पर पुनः मिलकर आगे की कार्य-योजना का निर्माण करेंगे।

“प्राणी की इच्छा और है, प्रभू की इच्छा और”। शायद परमात्मा से भी प्रताप का वियोग सहन नहीं हो रहा था, अतः चूक तो होनी ही थी। जोधपुर के समीप आशा-नाड़ा स्टेशन का स्टेशन मास्टर उनके दल का पूर्व में सदस्य रह चुका था, अतः प्रताप यहाँ की नवीनतम परिस्तिथियों की जानकारी जुटाने के उद्देश्य से यहाँ उतर गए। आशा-नाड़ा स्टेशन पर कुछ दिन पूर्व बम का पार्सल पकड़ा जा चुका था, अतः अपनी खाल बचाने और सरकार का कृपाकांक्षी बनने के लिए वह पुलिस का मुखबिर बन गया और प्रताप की पुलिस को सूचना देकर विश्वासघात कर डाला। धोखे से प्रताप को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।

बनारस षडयंत्र केस के तहत वारंट तो था ही, इन्हें पाँच वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गई। इन्हें बरेली की सेन्ट्रल जेल ले जाया गया वहाँ इन्हें काल कोठरी में रखा गया। यह कोठरी 6’x3’ की थी, इसमें रोशनदान तक नहीं था, इसमें करवट भी लेने में परेशानी होती थी। सर्व प्रथम अँग्रेज सरकार ने इन्हें प्रलोभन देने का यत्न किया, इनसे कहा गया “यदि तुम सरकार का सहयोग करते हो तो सरकार तुम्हारे परिवार के सभी केस वापस ले लेगी, तुम्हारी जागीर सहित सभी सम्पति लौटा दी जावेगी और तुम्हें तत्काल रिहा कर दिया जायेगा।”

शिकार जाल में फँसता है शिकारी नहीं, और ये तो खुद अँग्रेजों के शिकारी थे सो भला कब जाल में फँसने वाले थे। जब सरकार को यहाँ सफलता नहीं मिली तो उन्होंने भावना को झखझोरने वाला पासा फेंका, सर चार्ल्स क्लीवलैंड ने प्रताप को उनकी माता के द्वारा पाये जा रहे कष्टों को बताया, उनकी विपत्तियों का सविस्तार वर्णन किया और कहा कि वह ममतामयी माँ तुम्हारी याद में हर क्षण रोती रहती है, अब तुम्हारा क्या जवाब है ? और प्रताप का वह जवाब तो इतिहास की धरोहर बनकर रह गया, उन्होंने कहा- “मैं अपनी एक माता को हँसाने के लिए तैंतीस कोटि पुत्रों की माताओं को रुलाना नहीं चाहता”।

पुलिस प्रशासन बौखलाया जरूर पर सोचा शायद पिता की दशा इनके दिमाग की दिशा बदल दे, यह सोच इन्हें हजारी बाग़ जेल ले जाया गया, जहाँ इनके पिता श्री केसरी सिंह बारहठ सजा काट रहे थे। पुत्र को वहाँ देखते ही उनके माथे की त्यौरियां चढ़ गई, उन्होंने प्रताप से कहा – “अगर तुम अपने पथ से भ्रष्ट हुए तो सरकार शायद तुम्हें माफ़ कर दे, पर मैं तुम्हारा प्राण-हन्ता बन जाऊँगा”। प्रताप का प्रत्युत्तर भी निरुत्तर करने वाला था, कहा- “क्या आपको अपने खून पर भरोसा नहीं रहा ? आपने पहचानने में चूक कैसे कर दी? यह मुलाकात तो अँग्रेजों की चाल भर है, जो मुझे यहाँ जबरदस्ती लाएँ हैं”। धन्य है यह धरा जहाँ ऐसे पिता-पुत्रों ने जन्म लिया।

अब अँग्रेज सरकार की सहन-शक्ति जवाब दे चुकी थी, और प्रताप की सहन-शक्ति की परीक्षा बाकी थी। पुलिस ने मानसिक रूप से सबल प्रताप को, यह सोचकर की शायद शारीरिक यंत्रणा काम कर जाए घोर अमानुषिक शारीरिक यंत्रणाएँ देना प्रारम्भ कर दिया। जैसे-जैसे यंत्रणाएँ बेअसर होती गई, वैसे वैसे ज़ुल्मों की हदें बढ़ती गई। वह प्रताप ही क्या जो पथ से डिग जाए? वे अंत तक अडिग रहे।

इस नश्वर शरीर की अपनी सीमायें है, पर आत्मा तो असीम होती है। आखिरकार सितमों की पराकाष्ठा ने प्रताप के शरीर को अंतिम सीमा पर पहुँचा दिया। दिनांक 24 मई 1918 को देह का देश हित बलिदान हो गया, और नाम का अँकन अमर शहीदों में। आत्मा का तेज परमात्मा के प्रकाश में जा मिला –

मौन साध बैठी धरा, अपलक रह्यो आकाश।
नखत गति सब रोक ली, (जब) तेज सूं मिल्यो प्रकाश।।
~~स्वरचित

कायर अँग्रेज पुलिस का भय अभी भी समाप्त नहीं हुआ, इस डर से कि जेल में धुआँ देखकर कोई आंदोलन ना हो जाये, कुँवर प्रताप के पार्थिव शरीर को वहीं गड्ढा खोदकर दफना दिया गया। पर कुँवर प्रताप के कार्यों को वे दफ़न नहीं कर सकते थे, क्योंकि ये उनकी सामर्थ्य से परे था। 1857 की क्रांति के बाद राजपूताना से देश के लिए यह प्रथम शहादत थी।

उद्गार:-

शचीन्द्र नाथ सान्याल :– “प्रताप जैसे युवक मैंने बहुत ही कम देखे हैं, उनके वीरत्व के निकट भगवान की निष्ठुरता भी हार मानने को बाध्य होती है। प्रताप स्वयं ही आनंद में रहते हों सो नहीं, उनके संग में जो रहते थे वे भी आनंद पाते थे ”

राम नारायण चौधरी :- “जितने विप्लववादी देशभक्तों से मेरा परिचय हुआ, उनमें प्रताप की छाप मुझ पर सबसे अच्छी पड़ी थी। वे बड़े कोमल स्वभाव के निहायत शिष्ट् और सदा खुश रहने वाले जीव थे। गीता के अनुरूप वे सच्चे कर्मयोगी थे, धन और स्त्री की इच्छा को उन्होंने खूब जीता था”

राव गोपाल सिंह खरवा :- “विधाता ने सौ रंघड़ (वीर क्षत्रिय ) भाँगकर एक प्रताप को बनाया था”।

उपसंहार – शाहपुरा (भीलवाड़ा) में 40 वर्ष पूर्व स्थानीय लोगों के संकल्प से श्री केसरी सिंह बारहठ स्मारक समिति की स्थापना हुई। इनके प्रयासों से बड़े चौक का नाम त्रिमूर्ति चौक रखा गया, जहाँ इन तीनों क्रांतिकारियों की मूर्तियां लगाई गई है। स्थानीय राजकीय महाविद्यालय का नाम श्री प्रताप सिंह बारहठ राजकीय महाविद्यालय और वीर प्रसूता जननी के नाम पर बालिका उच्च माध्यमिक विद्यालय का नाम वीर माता माणक कँवर बालिका उच्च माध्यमिक विद्यालय रखा गया है।

यहाँ जान बूझ कर बार बार स्थानीय शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है कि यह शायद हमारे सोये हुए जमीर को जगा सके। जो लोग आजाद भारत में सत्ता का सुख भोग चुके या भोग रहे हैं, उनके नाम के मार्ग, स्मारक, भवन, योजनाएं, आदि न जाने कितने कितने समूचे भारत में देखने को मिल जायेंगे। लेकिन जिन्होंने अपना सर्वस्व देश हित में होम दिया, क्या वह शहादत स्थानीय थी? क्या वे लोग एक स्थान या समाज के लिए जिए, मरे ? क्या शहीदों के लिए स्थानीय लोगों या समाज के लोगों का ही दायित्व बनता है ? यह हमें सोचना है कि यह हमारे लिए गर्व की बात है, या शर्म की कि देशहित में बलिदान हुए शहीदों का दायरा वर्तमान व्यवस्था ने संकुचित कर दिया है। और उस पर भी कोढ़ में खाज यह कि उनके स्मारकों के लिए संघर्ष करना पड़ता है।

हम भारत के लोग जिस दिन सभी शहीदों को आदर मन से राष्ट्रीय धरोहर मान उनके स्थान को जिसे आज स्थानीय बना दिया गया है, उसे राष्ट्रव्यापी बना देंगे, वही दिन उन को सच्ची श्रद्धांजलि का शुभ दिन होगा।

आभार:-
1. बंदी जीवन प्रथम भाग -शचीन्द्र नाथ सान्याल
2. बीसवीं सदी का राजस्थान -राम नारायण चौधरी
3. श्री फ़तेह सिंह मानव
4. श्री केसरी सिंह बारहठ स्मारक समिति शाहपुरा (भीलवाड़ा )

~~उम्मेद सिंह देवल

(आदरणीय उम्मेद सिंह जी देवल के ब्लॉग से साभार। मूल लेख को पढने के लिए यहाँ क्लिक करें।)

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