लहू सींच के हमने अपना ये सम्मान कमाया है – मनोज चारण ‘कुमार’

आखे ‘मान’ सुणो अधपतियाँ, खत्रियाँ कोइ न कीजे खीज।
बिरदायक मद-बहवा बारण, चारण बड़ी अमोलक चीज।।
जोधपुर महाराजा मानसिंह का ये कथन चारण समाज के बारे में एक प्रमाणिक तथ्य प्रकट करता है कि, चारण शब्द ही सम्मान करने योग्य है। वैसे तो हर जाति का अपना इतिहास है, लगभग सभी जातियों के लोग अपने-अपने इतिहास पर गर्व करते हैं और करना भी चाहिए। चारण जाति का इतिहास बहुत पुराना इतिहास है। चार वर्ण से इतर है ये जाति, जिसे कमोबेस ब्रह्मा की सृष्टि से बाहर भी माना जा सकता है। चारण जाति की उत्त्पति के विभिन्न सिद्धांतों को हम माने या ना माने लेकिन फिर भी रामायण काल में हनुमानजी से चारण का वार्तालाप इस जाति के न सिर्फ प्राचीनतम होने का उदाहरण है बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष में निवास करने का भी प्रमाण है। कालान्तर में क्षत्रिय समाज से चारण जाति के जुड़ाव हुआ और राजपूत-चारण एक दूसरे के पुरक बन गए, लेकिन अक्सर क्षत्रिय समाज के कुछ ऐसे अनभिज्ञ और बड़बोले लोग जो इतिहास को नहीं जानते हैं, कह देते हैं कि हमने चारणों का बहुत सम्मान किया है, या हमने चारण जाति को सम्मान दिया है। कतिपय चारण भी अपने इतिहास के उज्जवल पक्ष और बलिदानों की उद्दात परम्परा से उदासीन हैं, जिनको ये नहीं पता कि सिर्फ कविता के लिए किसी जाति विशेष का सम्मान नहीं किया जा सकता, करोड़-पसाव, लाख-पसाव, जागीरें नहीं दी जा सकती।
हाँ, यह सच है कि राजपूत-क्षत्रिय समाज के लिए चारण जाति हमेशा आदर की पात्र रही है, लेकिन जितना सच ये है उससे ज्यादा सच ये भी है कि, लहु सींच के हमने अपने ये सम्मान कमाया है, किसी की खैरात नहीं है, किसी की दया नहीं, किसी का दाय नहीं है। झवेरचंद मेघाणी के शब्दों में, ‘चारणों ने वाणी को जीवित रखा एवं इतिहास की रक्षा की। ’
आवड तूठी भाटियां, गिगाही गोडाहं।
श्री बिरवड सिसोदिया, करणीं राठोड़ाह।।
यह दोहा साबित करता है कि, हमारी कुलदेवियों ने किस प्रकार राजपूत राजाओं को स्थापित करने में महत्ती भूमिका निभाई है। ठाकुर नाहरसिंह जसोल ने लिखा है कि, ‘समय-समय पर इस कुल में अनेक देवियों ने अवतार लिया और दुष्टों का संहार किया। एक बात विशेष रूप से कहना चाहूंगा कि, इन देवियों ने अनेक क्षत्रिय वंश के लोगों को अनेक भू-भागों का शासक बना कर उन्हें आशीर्वाद दिया। इन देवियों ने कभी भी अपने कुल के किसी व्यक्ति को शासक नहीं बनाया। यह एक बहुत ही बड़ी और अनोखी बात है। ’
नाहरसिंह जसोल की बात को प्रमाणित करता है माँ बिरवड़ी द्वारा हम्मीर सिसोदिया को अपने पुत्र बारूजी सौदा के पांच सौ घुड़सवारों के साथ सहायता देना, जबकि हम्मीर तो कुष्ट रोगग्रस्त हो चुका था और नितांत निराश हो कर द्वारका में प्राण त्यागने के लिए जा रहा था। ऐसी स्थिति में भी अपने समस्त संसाधनों और घोड़ों के साथ उसकी मदद करना जब राजस्थान के किसी अन्य राजपूत के बस की बात नहीं रही तब एक चारण देवी और उसके पुत्र ने उसकी मदद की थी। मेवाड़ के गौरव को पुनर्जीवित करने में चारणों का ये योगदान अविष्मरणीय है।
इतिहास में अनेक घटनाएं हैं जो ये साबित करती है कि चारण जाति ने अपने जातीय गौरव, स्वाभिमान और मर्यादा के लिए प्राणों की अक्सर बाजी लगाईं है। इतना ही नहीं अन्य समाज के व्यक्तियों के लिए और यहाँ तक कि पशुओं तक के लिए बलिदान दिया है। नागौर जिले के गाँव खुंडाला के हूंपकरण सांदू ने मालिक काफूर के विरुद्ध युद्ध में जैसलमेर में वीरगति प्राप्त करने वाले दुर्जनशाल भाटी की पत्नी जो कि खींवसर की ही थी को उसके पति का शीश रणभूमि से लाकर दिया था। राव चूंडा के पिता विरमदेव जब जोइयों के साथ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे तब चूंडा की माँ मांगलियाणी अपने पुत्र के साथ कालाऊ गाँव के बारठ आल्हाजी के घर पर रही थी और उन्होंने चूंडा को अपना भांजा और उसकी माँ को बहन मानते हुए उनका संरक्षण किया था। ये दोनों उदाहरण साबित करते हैं कि जब-जब घनघोर आपत्ति आयी तब-तब किसी-न-किसी चारण ने अपने सनातनी संबंधों को पालन करते हुए राजपूत महिलाओं-बच्चों की मदद की है।
जोधपुर के राव रिडमल की मेवाड़ के सामंतों ने पलंग से बाँध कर हत्या कर दी थी और राणा कुम्भा ने अपने मामा राव रिडमल के शव का दाह संस्कार नहीं किये जाने की मुनादी फिरा दी थी। राणा के विरुद्ध जाकर रिडमल के दाह-संस्कार करने की हिम्मत किसी की भी नहीं हुई। यहाँ तक कि, राव रिडमल के चौबीस बेटों में से एक भी मेवाड़ में नहीं रुका और मौत के भय से सब भाग गए थे, परन्तु इस प्रकार एक राजपूत सिरदार के शव का ये अपमान एक चारण से बर्दास्त नहीं हुआ
चौबिसुं रिडमाल रा, धर लाटण अवधूत।
कीरत पूत पच्चीसमों, है तूं चंद सपूत।।
उस चारण ने अपनी हवेली के चन्दन की लकड़ी के किवाड़ तुड़वाकर रिडमल का दाह-संस्कार किया। इतना ही नहीं बल्कि रिडमल की अस्थियों को लेकर गंगा-विसर्जन के लिए भी गए और वहां जब चारणों के गंगा-गुरु ने अस्थि-विसर्जन नहीं करवाया तो अपना गंगा-गुरु तक बदल दिया, लेकिन अपने चारणाचार और चारणत्व को जिन्दा रखा। इतिहास में उनका नाम चानणजी खिडिया के नाम से प्रसिद्द हैं। राणा कुम्भा ने इस बात पर क्रोधित हो कर चानणजी को मेवाड़ छोड़ने को कहा तो उस प्रतापी चारण ने राणा कुम्भा से बिना भय खाए कहा कि, ‘ऐसा कूकृत्य करने वाले राजा के राज में रहना तो दूर मैं पानी तक नहीं पीता। ’ यह कह कर अपने दो गाँवों की जागीर का त्याग करते हुए चानणजी ने चितौड़ छोड़ दिया। कालान्तर में जब राव जोधा मंडोर का शासक बना तो उसने चानणजी खिडिया को जागीर भेंट कर उऋण होने का प्रयास किया।
जैसलमेर के एक राजपूत ठिकाणे बोनाड़ा गाँव में मेघवालों को जब वहां के राजपूतों ने कुए से पानी नहीं भरने दिया तो चारणी लाछा माऊ जो सांईदानजी रतनू की धर्मपत्नी थी ने वहां मेघवालों के हक़ में जमर किया और अग्निस्नान करते हुए अपने प्राण त्याग किए और मेघवालों को पानी पीने का हक़ दिलाया। अपने हक़ और अधिकारों के लिए तो सभी लड़ते-मरते हैं लेकिन किसी दूसरे के हक़ के लिए कोई अपनी जान दे तो उसे महान कहा जाता है, लाछा माऊ ने भी चारण कुल की कीर्ति को धवल किया था। इसी बोनाड़ा गाँव के भाटी राजपूतों की गायों को जोधपुर के राठोड़ हांक कर ले जाने लगे और भाटी जो संख्या में कम थे इस का विरोध नहीं कर सके तो भीमजी और जगरामजी रतनू बीच में आए और भाटीयों की गायों को ले जाने के लिए राठोड़ों को रोका। जब राठोड़ उनसे लड़ने-मरने की बात कहने लगे तो चारणों ने कहा कि, हम चारण राजपूतों पर हथियार नहीं उठायेंगे परन्तु गायें भी हमारे जीते-जी नहीं ले जाने देंगे और ऐसा कह कर दोनों काका-भतीजा ने अपने गले कटारी खा कर अपने प्राण भाटियों के पक्ष में त्याग दिए और राठोड़ों को उनकी गायें छोडनी पड़ी। त्याग और बलिदान के ऐसे उदाहरण इतिहास में दुर्लभ हैं, लेकिन चारण जाति के इतिहास में ऐसी बहुत सी घटनाएँ मिल जाती है जो यह साबित करती है कि, मृत्यु का वरण करना किसी भी चारण के लिए बाएं हाथ का काम रहा है।
किरण नाहटा कहते हैं, ‘भारतवर्ष का चारण समाज भी एक ऐसा ही जागरूक समाज। यह समाज अपनी अदम्य इच्छा-शक्ति और प्रबल संकल्प-शक्ति के लिए विख्यात। अपने लक्ष्य-सिद्धि के लिए कठोर से कठोर कदम उठाने में भी इस समाज के यशस्वी पुरुषों ने कभी आगे-पीछे नहीं देखा। . . . . . . . . . . . . . . साहित्य सृजन के अतिरिक्त राजनैतिक सूझबूझ, शौर्य, कर्मठता, गुणग्राही वृत्ति और सच्चाई को दृढ़तापूर्वक कहने का साहस, ये कुछ ऐसे गुण हैं जिसके कारण इस समाज ने अपनी एक अलग छवि बनाई है। ’ अपनी इस छवि को चारण जाति के सदस्यों ने हर वक्त ध्यान में रखा और इन गुणों को पीढ़ी दर पीढ़ी सींचते हुए आगामी पीढ़ी को हस्तांतरित किया।
चारण समाज ने क्षत्रिय समाज के लोगों से यदि सम्मान प्राप्त किया है तो कई बार ऐसी भी परिस्तिथियाँ भी बनी है जब चारणों को अपने कुल और समाज की मर्यादा के लिए क्षत्रियों के सामने धरने, तागे, जमर और तेलिये भी करने पड़े हैं। सींथल के लूणोजी बीठू ने उदावत राजपूतों के अन्याय के विरुद्ध तागा किया था और जिसके बदौलत आज भी लूणोजी को दादोजी के नाम से पूजा जाता है। बीकानेर के राजा रतनसिंह ने अपने मुस्लिम मंत्री की बातों में आकर जब सींथल पर आक्रमण कर चारण-राजपूत की सनातनी परम्परा पर आघात किया तो सींथल की चारण महिलाओं ने जमर (जौहर) किया और खूमजी नगाणी, हनूतसिंहजी झुंझार हुए थे और कालान्तर में जब रतनसिंह को कुछ अलौकिक समस्याओं का सामना करना पड़ा तो उसने करणीदान बीठू से उनके पूर्वज हनूतसिंहजी का पिंडदान करवाया और उदासर गाँव की जागीर अर्पित की थी। उदासर की जागीर देना रतनसिंह द्वारा कोई सम्मान नहीं था बल्कि अपने कूकृत्यों का प्रायश्चित था।
चारण कुल के गौरव की लड़ाई का अमर प्रतीक है मारवाड़ का आहुवा ग्राम जो समस्त चारणों के लिए एक तीर्थस्थल है। जोधपुर के राजा मोटाराजा उदयसिंह के विरुद्ध आहुवा के कामेश्वर महादेव मंदिर में चारणों ने धरना दिया और मरण-त्योंहार मनाया। इस धरने के पक्ष में आहुवा के जागीरदार चम्पावत राजपूत गोपालदास ने भी अपनी जागीर पाली का पट्टा उदयसिंह को लौटा दिया था और अपनी पुश्तैनी जागीर आहुवा में चारणों का धरना संपन्न कराया। सनातनी परम्परा के इस पालन पर चम्पावत राजपूत के प्रति आज भी चारण जाति स्वयं को कृतज्ञ मानती है। इस धरने में एक सौ पिचासी चारणों ने अपने जीवन की आहुति दी थी। विश्व इतिहास में अपने तरह का यह अकेला सत्याग्रह है। आहुवा के इस आत्मोत्सर्ग वाले धरने का डंका मुगलिया दरबार तक बजा था।
बीकानेर के चूरू आक्रमण के वक्त बीकानेरी सेना का नेतृत्व नवलजी गाडण ने किया था और अपना बलिदान दिया, आज भी उनकी मूर्ति गढ़ के पास स्थापित है। सुरपालिया के मनोहरदासजी नांदू ने जोधपुर के अजीतसिंह को औरंगजेबी क्रोध से बचाने में वीरवर दुर्गादास का कंधे-से-कंधा मिलाकर साथ दिया था और स्वयं कनफड़े जोगी के रूप को धारण कर अजीतसिंह को दिल्ली से मारवाड़ तक लाये थे, इनकी इस सेवा का आज तक किसी ने उल्लेख तक नहीं किया और वीर दुर्गादास को भी अपना अंतिम समय उज्जैन में बिताना पडा था, हालांकि अजीतसिंह ने मनोहरदासजी को जागीर प्रदान की थी लेकिन इतिहासकारों ने पता नहीं क्यों इनको भुला दिया।
अपने कुल के गौरव को बचाने के लिए तो हमेशा ही चारणों ने बलिदान दिया लेकिन राष्ट्र के गौरव को कुल से भी ऊँचा रख कर चारणों ने विदुरनीति के उस श्लोक को चरितार्थ भी किया जिसमे राष्ट्र के लिए एक राज्य तक को कुर्बान करने की बात कही गई है। रामोजी सांदू को जब आहुवा धरने का बुलावा मिला उसी वक्त उन्हें हल्दीघाटी के युद्ध का भी बुलावा मिला था और अपने चारण कुल की लड़ाई को उन्होंने दरकिनार कर हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप के सेना के एक सेनापति के रूप में लड़ाई की और अपने प्राणोत्सर्ग किये जिसकी गवाही आज भी उनकी देवली (मूर्ति) जो हल्दीघाटी में है देती है।
पीठवा मिसण ने राणा कुम्भा की दर्पोक्ति के कारण करोड़ पसाव को ठुकरा दिया था, इस प्रकार का त्याग हर किसी के बस की बात नहीं होती। सहजपाल गाडण ने जालौर के कान्हड़देव के साथ कंधे-से-कंधा मिला कर अलाऊद्दीन खिलजी का मुकाबला करते हुए वीरगति प्राप्त की थी। आसोजी बारठ ने अपने मित्रधर्म के चलते बाघोजी कोटडिया को याद न करने पर उदयपुर महाराणा के लाख पसाव को ठुकरा दिया था, जबकि बाघोजी कोई बहुत बड़े जागीरदार भी नहीं थे। देवाजी महियारिया को जब राव शत्रुशाल ने लाख पसाव दिया तो देवाजी ने यह अपने मोतिसरों को दे दिया और इस त्याग के कारण ही मोतीसर महियारिया चारणों को हाथी बरीस कहते हैं।
बारूजी सौदा ने हम्मीर के वक्त ही प्रण लिया था कि वो मेवाड़ के अलावा किसी से भी कोई उपहार या जागीर नहीं लेंगे। जब मेवाड़ राणा क्षेत्रसिंह बूंदी के राव लालसिंह हाडा की राजकुमारी से विवाह करने गए तो लालसिंह को बारुजी के प्रण का पता चल और उसने बारुजी पर बूंदी शासक से भी पुरस्कार ग्रहण करने का दबाव बनाया। इस पर बारूजी ने उनसे वचन लिया कि पहले मैं आपको भेंट दूंगा तत्पश्चात आपसे भेंट स्वीकार करूंगा। इस पर लालसिंह सहमत हो गया तो बारूजी पास के बने कक्ष में गए और अपने सेवक के हाथों अपना कटा हुआ सर भेज दिया जिसे देख लालसिंह हतप्रभ रह गया, लेकिन बारूजी ने अपने अयाची होने का प्रण निभा लिया।
आहुवा धरणा के प्रमुख दुरसाजी आढ़ा ने अकबर के खिलाफ दत्ताणी युद्ध में सिरोही सुलतान राव सुरताण के साथ भाग लिया था और इतने घायल हो गए थे कि बड़ी मुश्किल से बचे थे। दुरसा आढ़ा इतने निर्भीक थे कि उन्होंने अकबर के दरबार में ही महाराणा प्रताप की वीरता, धीरता और स्वाधीनता के लिए किये जाने वाले संघर्ष को अपनी काव्य प्रतिभा से पेश किया जिसे इतिहास में ‘विरुद-छियतरी’ के नाम से जाना जाता है। अकबर के सामने उसी के दुश्मन की प्रशंसा में काव्य-पाठ करने का साहस कोई चारण ही कर सकता था। डॉ. मोहनलाल जिज्ञासु के शब्दों में, ‘धन, यश तथा सम्मान की दृष्टि से इनका महत्व हिन्दी के महाकवि भूषण से भी बहुत बढ़कर है। ’
जागोजी बारठ ने राजा मानसिंह के पक्ष में महाराणा प्रताप के विरुद्ध युद्ध लड़ा था लेकिन जब पिछोला पर अपने घोड़े को पानी पिलाते वक्त राजा मानसिंह ने कहा कि, या तो राव जोधा ने महाराणा का मानमर्दन किया था या मैंने महाराणा प्रताप को हराकर अपने घोड़े को इस पिछोला का पानी पिला रहा हूँ। राज मानसिंह की ये गर्वोक्ति सुन चारण कवी ने सच कह दिया कि, ‘जोधा ने तो अपने बल पर मेवाड़ से जंग रोपी थी, तुमने तो अकबर के बल पर ये युद्ध किया है इसमें इतना अभिमान करने की क्या जरुरत। ’ कवि की ये कटु वाणी सुन मानसिंह ने जागोजी की जागीर जब्त कर ली, लेकिन चारण अपनी जुबान से नहीं फिरा।
माधोजी दधवाड़ीया ने मुसलमानों से गायें छुड़वाने के लिए अपने पुत्रों के साथ बलिदान दिया था। नरूजी सौदा ने उदयपुर के जगदीश मंदिर पर अपने पुत्र-पौत्रों के साथ बलिदान दे कर एक नई नजीर पेश की थी। ठाकुर केशरीसिंह बारठ ने क्रांति की अग्निज्वाल में अपने बेटे, भाई, दामाद सबको झोंक दिया था। कुंवर प्रताप ने भी अपने पिता केशरीसिंह की आन-बान को अपनी जिन्दगी से बड़ा समझा और अंग्रेज अधिकारी के प्रलोभन को ठुकरा कर कह दिया, ‘मेरी माँ रोती है तो रोने दें, मैं साथियों के नाम बता कर सैंकड़ों माताओं को खून के आंसू नहीं रुला सकता। ’
बीकानेर के महाराजा सूरसिंह के विरुद्ध चौथजी बीठू ने बीकानेर के गढ़ जूनागढ़ के सामने तेलिया कर अपने प्राणोत्सर्ग किया था और उसकी बैचनी से और पाप से बचने के लिए सूरसिंह ने उस स्थान एक तालाब खुदवाया जिसे सूरसागर कहा जाता है, और एक करणी मंदिर भी बनवाया। औरंगजेब ने जगन्नाथ कविया को मिर्जा राजा जयसिंह की हत्या का प्रस्ताव दिया और जागीर का प्रलोभन भी लेकिन चारण ने अपनी सनातनी परम्परा का पालन करते हुए मिर्जा राजा को आगाह किया और दिल्ली से निकल पड़े। जैसलमेर के भाटियों और बीकानेर के राठोड़ों में धनेरी तलाई को लेकर काफी विवाद था और जब इस पर कब्ज़ा करने के लिए दोनों और की सेनाएं सज गई तो मिनजी रतनू ने दोनों सेनाओं के बीच खड़े हो कर अपने गले में कटारी खाते हुए अपना बलिदान दिया और कहा, ‘यदि मुझ एक व्यक्ति के प्राणोत्सर्ग से इतना बड़ा रक्तपात बच सकता है तो इन दोनों रियासतों और राजवंशों की भलाई के लिए मैं अपने प्राण न्यौछावर करता हूँ। ’ क्षत्रिय हितैषी एक चारण के इस बलिदान से दोनों सेनाएं हतप्रभ रह गई और युद्ध टल गया।
जैसलमेर के धाट-क्षेत्र में चारणों ने अपने पट्टे की जमीन मेघवालों को जोतने के लिए दे रखी थी और उस पर मुसलमानों ने कब्ज़ा कर लिया और इसमें सालमसिंह सोढा ने मुसलमानों का सहयोग किया था। मेघवालों को जोतने के लिए वो जमीन वापस दिलवाने के लिए चारणी जोमा हडवेची ने जमर किया और अग्निस्नान करते हुए मेघवालों को वो जमीन वापस दिलवाई। उमरकोट के सोढा राणा केसरसिंह ने अकाल पड़ने के कारण चारणों के सांसण गाँव खारोड़ा के माली समाज से लगान लेने का आदेश कर दिया। मालीयों ने कहा कि हम तो चारणों की प्रजा हैं, लगान नहीं देंगे और इस पर विवाद बढ़ गया तब हिंगलाजदानजी की माँ साहू ने गले कटारी खा कर अपना बलिदान दिया लेकिन अपने गाँव के मालियों को लगान से मुक्त करवा दिया।
चारण जाति पर टिप्पणी करते हुए विद्वान संत स्वामी संवित सोमगिरी महाराज ने कहा है, ‘पराशक्ति ने इस चारण कुल में जन्म लेकर अपनी दिव्य लीलाएं करने के लिए इसे ही क्यों चुना? क्या विशेषता इस कुल के जिन्स-प्रवाह में, इनके जैविक प्रवाह में है?. . . . . . . . . . . . . . . जीवन मूल्यों के लिए ‘तागा’, ‘धागा’, ‘तेलिया’, ‘कटार की नोक पर बैठना’, ‘जौहर करना’ क्या कोई साधारण मानव इसकी कल्पना भी कर सकता है। विलक्षण काव्य-प्रतिभा, प्रज्वलित प्रज्ञा, शौर्य, धैर्य, वीरता, विद्वता, परोपकार आदि-आदि गुणों का एक साथ एक कुल में इतनी विपुलता से प्रकट होना आश्चर्य व गर्व से अभिभूत करता है। ’ मनोहरसिंह राठौड़ ने लिखा है कि, ‘ये चारण पुत्र-पुत्रियाँ अपनी बात के धनी, सच्ची बात कहने वाले, राजपूतों की मान-मर्यादा को रखने में अपने धर्म-कर्म का पालन करने वाले हैं। ’
अस्तु, अंत में इतना ही कहना है कि, चारण समाज के व्यक्ति को जो सम्मान और सत्कार क्षत्रिय समाज ने दिया है वह कोई उपकार या दान नहीं है बल्कि चारण जाति ने अपने रक्त से सींच कर इस सम्मान को प्राप्त किया है। बलिदानों की उज्जवल परम्परा के कारण ही चारण इस सामान का हकदार और अधिकारी बना है। इतना ही कहना पर्याप्त है जो ठाकुर नाहरसिंह जसोल ने लिखा है कि, ‘अपने हक़ के लिए किस भांति हँसते-हँसते गले कटारी खा कर मरा जाता है। मरने की यह रीत संसार में सिर्फ एक ही जाति के पास है और वह जाति चारण है। ’
–मनोज चारण ‘कुमार’
(जैतासर) रतनगढ़, चूरू