ले, वडभागी हल़ में म्हनै जोड़

सत कर्मां रै सुजस री सोरम इणगत पसरै कै उणरै सुखद लहरकै रो स्वाद हर कोई लेवणो चावै। इण विमल़ बेकल़ू में केई ऐड़ा नर रतन जनमिया जिणां रै नाम साम्य रै पाण लोकां आपरी मनघड़त सूं आपरै भांयखै रै आदम्यां रा नाम उणां री अजंसजोग कथा साथै जोड़ दिया।
ऐड़ो ई एक नर रतन हो भाटी देपाल़दे जैतूंग। जैतूंग राव तणू रो छोटो भाई। उणरी ऐल़ रा जैतूंग भाटी बाजै। देपाल़दे, बीकमपुर रो धणी। इण दातार पुरस री इतरी कीरती पसरी कै शंकरदानजी जेठीभाई देथा आपरी रचना “दातार बावनी” मे गोहिल वंशी देपाल़दे तो राजस्थानी बात संग्रह (डॉ मनोहर शर्मा) में ऊमरकोट गंघ सोढो तो उदयराजजी ऊजल़ रोड़ी सिंध रो भाटी मानियो है। पण मूलत: ओ बीकमपुर रो धणी हो। बीकमपुर रै आसै पासै जैतूंगां रा आज ई केई गांम है – गिरिराजसर, पाबूसर, कोल्हासर आद। देपाल़दे किण समय में होयो ओ तो अजै अनुसंधान रो विषय है पण लोक में इतरो विश्रुत है कै आथूणै इलाकै में इणरी उदारता अर मिनखपणै री ऊजल़ी कथा जात अर समाज री सीमावां नै लांघर जनप्रिय है। स्त्री विमर्श री बातां छमकणियां नैं इण सधर पुरस री बात सुणणी चाहीजै ताकि ठाह लागै कै कीकर स्त्री री पीड़ समझी जा सकै ? अर कीकर उणरो समाधान कियो जा सकै? आधुनिक काल में संस्कृति सूं सरोकार राखर सिरै सिरजण करणिया कवि श्रेष्ठ उदयराजजी ऊजल़ कितरी सतोली लिखै-
हल़ बहियो देपाल़ दे, भाटी करुणा भाल़।
उण सत मोती ऊपना, ऐ बैड़ी ऐवाल़।।
बात आ है कै एकर आथूणी धरा में धैकाल़ पड़ियो। नीं पीवण नै पाणी अर नीं खावण नैं अन्न। ढोर ढाढां ई मर पूरा होया। चौमासै री रुत आई इंद्र राटक र वरसियो। एक गांम में थाको चारण रैवै। घरै हल़ोतियो करण रो ई संझ नीं। करै तो कांई करै?
(ई चारण रो गांम उदयराजजी ऊजल़, गांम माड़वो अर उण चारण रो देपाल़दे री कीरत में खोदायोड़ो तालाब (देपड़ासर) देपालसर बतायो है। तो म्हारा दाता गणेशदानजी इण चारण रो गांम, लूंभै रो गांम बतायो है जिको जैतूंगां रै ई लूंभै रतनू नैं दियोड़़ो है। इण गांम में आज ई केई खेत मोतीसरा बाजै। लोक मानता है कै इण दोनां गांमां मांय सूं एक में देपाल़दे हल़ जुपियो। )
ऐड़ी हालत में ई मोटो बंधाणी! उण आपरी जोड़ायत नैं कैय़ो कै “हल़ तो बावणा ! पण बावणा कीकर!”
उण री जोड़ायत किरकै वाल़ी अर मर्दानी। उण कैयो “आप बीजो करो म्है हल़ खांचूंली। नींतर आगै बगत कीकर काढांला?”
उणरी जोड़ायत हल़ खींचै अर चारण बीजै। इतरै तो घोड़ै असवार देपाल़दे उठिनै निकल़ रैयो हो। उण एक लुगाई नैं हल़ खींचती देखी तो आपरो घोड़ो वां कनै जाय रोकियो।
देपाल़दे पूछियो “रे भला मिनख ! लुगाई हल़ जोती है ? थोड़ी दया कर। कोई संझ रो सराजाम कर। भलो मिनख लागै ! कांई जातिय़ो है?”
नसै रो उतार कर ऊपर सूं बैतियाण रा इतरा दपूछा! चारण नैं रीस आयगी। वो बोलिय़ो “चारण हूं बोल कांई करैलो ? इतरी ई दया आवै तो तूं क्यूं नीं जुप ज्यावै हल़ में?”
देपाल़दे नैं ठाह लागो कै ओ चारण है, बो घोड़ै सूं नीचो उतरियो अर बोलियो “बाजीसा माफ करजो ! ओल़खिया नीं। छो कोई बात नीं आप थोड़ा विसांई खावो, जितै म्हारी वैली लारै आय रैयी है।”
चारण बोलियो “आवती होवैला थारी वैली! ओड़ नैं ओड़ नीं नावड़ै लाडी! तूं थारो मारग नाप अर म्हारी घरवाल़ी नैं काम करण दे।”
आ सुणर देपाल़दे बोलियो “आ कीकर हो सकै बाजीसा ? हूं ऊभो देखूं अर म्हारी बैन हल़ खांचै! लो इणनै छोड़ अर म्हनै हल़ बावो।”
चारण देपाल़दे नै हल़ जोड़र तीन च्यार पाल़टां काढी जितै तो लारै सूं देपाल़दे रो जनानो वैली में आय पूग़ो। देपाल़दे आपरै हाजरियै नैं कैयो “ले एक किलोड़ो ला, बाजीसा नैं दां ताकि च्यार ऊमरा सोरा होवै।”
पूरी बात सुणियां बाजी नैं ठाह लागो कै ओ कोई साधारण बैतियाण नीं अपितु बीकमपुर रो राजवी है। खैर होई सो होई। हमें करै तो कांई करै ? देपाल़दे बलद देय आपरै मारग बैयो। दिन लागां खूंटणी होई। उण चारण एक राजा री श्रम साधना नै आदर देतै उण च्यार ऊमरां रै धान नै मोतियां सद्रस मानर वांदतां ओ दूहो कैयो –
जे जाणूं जिणवार, निकलंक मोती निपजसी।
हल़ हाकत हूंकार, दिन सारो देपाल़दे।।
बात आ ई बेवै कै उण सतधारी रै काढ्योड़ै च्यार पाल़टां में साचैकला मोती निपजिया। इण ओल़्यां रै लेखक आपरी रचना ‘रंगमाल़ा’ में लिखियो-
देख दसा दिल दूथियां, पेख सनातन पाल़।
हल़ जुपियो घर हेतवां, दाखां रँग देपाल़।।
जुपियो जादम जोड़ कँध वरधर दया विचार।
देपाल़ा दुनियाण में, सत रँँग लीधो सार।।
भलै मिनखां री भली बातां। सुजस री सोरम नैं पसरण सूं संसार री किसी ताकत रोक नीं सकै। इणी कारण जिण जिण भांयखै में देपाल़दे नाम रा राजवी होया लोकां इण कथा नैं बिनां पड़ताल़ उणां सूं जोड़दी। छो कोई बात नीं ! देपाल़दे हर भांयखै में स्त्री रै सम्मान सारु आदर पायो अर पावतो रैवैला।
इणी खातर तो किणी कवि कैय़ो है कै कवि दातार रै दियोड़ी चीज खाय या काम लेय पूरी करी अर्थात वा कवि कनै नीं है पण कवि जिकी चीज दातार नैं दी वा अमर है अर रैवैली-
दाता नै कवि को दिया, कवि गया सो खाय।
कवि नैं दाता को दिया, जातां जुगां न जाय।।
~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी