लिछमी – कवि रेवतदान चारण

ओढ्यां जा चीर गरीबां रा, धनिकां रौ हियौ रिझाती जा।
चूंदड़ी रौ अेक झपेटौ दै,
अै लिछमी दीप बुझाती जा !

हळ बीज्यौ सींच्यौ लोई सूं तिल तिल करसौ छीज्यौ हौ।
ऊंनै बळबळतै तावड़ियै, कळकळतौ ऊभौ सीझ्यौ हौ।
कुण जांणै कितरा दुख झेल्या, मर खपनै कीनी रखवाळी।
कांटां-भुट्टां में दिन काढ्या, फूलां ज्यूं लिछमी नै पाळी।
पण बणठण चढगी गढ-कोटां, नखराळी छिण में छोड साथ।
जद पूछ्यौ कारण जावण रौ, हंस मारी बैरण अेक लात।
अधमरियां प्रांण मती तड़फा, सूळी पर सेज चढाती जा।
चूंदड़ी रौ अेक झपेटौ दै,
अै लिछमी दीप बुझाती जा !

जे घड़ी विधाता रूपाळी, सिणगार दियौ है मजदूरां।
रखड़ी बाजूबंद तीमणियौ, गळहार दियौ है मजदूरां।
लोई में बोटी बांट-बांट, जिण मेंहदी हाथ लगाई ही।
फूलां ज्यूं कंवळा टाबरिया, चरणां में भेंट चढाई ही।
घर री बू-बेट्यां बिलखी, पण लिछमी तनै सजाई ही।
इक थारी जोत जगावण नै, घर-घर री जोत बुझाई ही।
पण अैन दिवाळी रै दिन बैरण, सांम्ही छाती पग धरती।
ठुमकै सूं चढी हवेली में, मन मरजी रा मटका करती।
जे लाज बेचणी तेवड़ली, तो पूरौ मोल चुकाती जा।
चूंदड़ी रौ अेक झपेटौ दै,
अै लिछमी दीप बुझाती जा !

इतरा दिन ठगती रैई है, थूं भोळी बण छळ जाती ही।
खाती ही रोटी मांटी री, पण गीत वीरै रा गाती ही।
जे हमें जांण रौ नांम लियौ, तौ जीभ डांम दी जावैला।
जे निजर उठी मैलां कानीं, तौ आंख फोड़ दी जावैला।
जे हाथ उठायौ हाकै नै, नागोरी गहणौ जड़ दांला।
जे पग धर दीनां सेठां घर, तौ पगां पांगळी कर दांला।
महलां गढ़ कोटां बंगळां रा, वे सपना हमें भुलाती जा।
चूंदड़ी रौ अेक झपेटौ दै,
अै लिछमी दीप बुझाती जा !

~~कवि रेवतदान चारण

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