लोक में आलोक के कवि डॉ आईदानसिंह भाटी

जैसलमेर के रेतिले गांव ‘ठाकरबा’ में जन्मे डॉ आईदानसिंह भाटी भले ही एक जाने-माने आलोचक और एक प्रखर कवि के रूप में समादृत हैं परंतु सही मायने में ये आज भी शहरी चकाचौंध में गंवई संस्कृति के प्रबल पैरोकार, संस्कारों को अपने में जीने वाले संजीदा इंसान के रूप में भी अपनी अलग पहचान रखतें हैं। वर्षों महाविद्यालयों में अध्यापन कराने व शहरी वातावरण में रहने के बावजूद भी गांव इनके जहन से निकल नहीं पाएं हैं। आज भी गांवों की आत्मीयता, अनौपचारिकता, बेबाकी, खुलापन, सहजता तो परिलक्षित होती ही है, साथ ही भाव व भाषा को भी पूरी शिद्दत के साथ अपनी पहचान बना रखा है।
इनकी कविताओं में थार के थाट जिस चिंतन के साथ उद्घाटित होतें हैं वो अपने आप में श्रेण्य और वरेण्य हैं। जब हम इनकी कविताएं पढ़तें हैं तो मशीनीकरण और छद्म वैश्वीकरण के सहारे थार के संरक्षित वनीय भू- भागों व, खनीज भंडारों पर अंधाधुंध मंडराता खतरा हमारे सामने साकार खड़ा मिलता है। यहां की परंपराओं, रीति -रिवाजों पर हो रहे कुठाराघात, व रेगिस्तानी जहाज के विलुप्ति की ओर बढ़तें कदमों की आहट हमारी संवेदनाओं को द्विगुणित कर देती है।
भाटी की कहानियों व संस्मरणों के पात्र यहां शांति की संभावनाएं नहीं खोजकर सद्भावनाओं की स्थापना करतें हैं। भाटी की रचनाओं का मूल स्वर यहां की प्रकृति के मानवीयकरण को उद्घाटित करने का प्रतीत होता है। जब हम इन्हें पढ़तें हैं तो पाते हैं कि गांवों में किस तरीकों से लोग भाषा व भूषा की अभेदता के साथ एकाकार जीवन जीतें हैं। जहां जाति तो हैं परंतु पूर्वाग्रह व क्षुद्रता नहीं है। धर्म है परंतु धर्मांधता नहीं। यही भाटी की रचनाओं की रम्यता है जो मानव को मानव मानने का बोधगम्यता के साथ एक सुभग संदेश देती है।
‘हंसतोड़ा होठां रो साच’, ‘रात-कसूंबल’, ‘आँख हींयै रा हरियल सपना’, ‘थार की गौरवगाथाएं’ ‘समकालीन साहित्य और आलोचना’, ‘शौर्य पथ’, ‘खोल पांख नै बोल चिड़कली’ जैसी मूल कृतियों के साथ ही ‘गांधीजी री आत्मकथा’ और (अनुवाद), राईनोसोर्स (गैंडौ) का अनुवाद करने वाले हिंदी और राजस्थानी साहित्य जगत व प्रेमियों में आईजी के नाम से लोकप्रिय व प्रतिष्ठित भाटी को साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली अनुवाद पुरस्कार व साहित्य अकादेमी पुरस्कार के साथ ही राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का सर्वोच्च सूर्यमल्ल मीसण पुरस्कार तो मिला ही साथ ही मारवाड़ रत्न, सत्यप्रकाश जोशी कविता सम्मान, रावल हरराज साहित्य सम्मान सहित अनेकों संस्थाओं ने सम्मानित कर स्वयं को सम्मानित महसूस किया।
भाटी की यह महत्ती विशेषता है कि ये बिना लुकाछिपी और बेबाक बयानी के लिए जाने जाते हैं।
“हंसतोड़ै होठां रो साच” की मार्मिकता को उद्घाटित करने की बात हो या “आंख हींयै रा हरियल सपना” के माध्यम से आंख और हृदय के समन्वित स्वपनों को अपने शब्दों के सांचे से ढालने की बात !! आईजी ने अपनी निजी हतौटी की अलग मिसाल कायम की है।
गरीब और दीन हीन की प्रतीक चिड़कली की अभिव्यक्ति व मनमाफिक आकाश मुहैया करवाने के पक्षधर भाटी दलितों व वंचितों की आवाज भी बुलंद करते रहें हैं तो साथ ही इस धरा, धर्म व अपने स्वाभिमान की रक्षार्थ अनाम उत्सर्ग की भावना व कालजयी जीजीविषा लिए आतताइयों से लड़ वीरगति प्राप्त करने वाले को भी आपने “रात -कंसूबल” में याद कर कवि कर्म का सफल निर्वहन किया है।
‘थार की गौरव गाथाएं व शौर्य पथ’ दोनों ही कृतियां में माडधरा के मरटधारी नर-नारियों की जीवटता, जीवन मूल्यों, भेलप -भाईचारा, त्याग-अनुराग व सांस्कृतिक गौरव बिंदुओं को उद्घाटित किया गया है।
दोनों पुस्तकों में थार की गौरव गाथाओं को गुंफित कर भाटी ने यहां के मध्यकालीन इतिहास व वातावरण को पाठकों के सामने साकार रूप में ला खड़ा किया है।
भाटी को हम किसी विशेष विचारधारा या वाद के संकुचित दायरे में सीमित नहीं कर सकतें। भाटी ने मजदूरों, शोषितों, कृषकों दलितों के साथ ही वंचितों के हित में अपनी कलम की कड़पाड़ बताई ही है तो वे यहां के पर्यावरण, भाईचारा, समरसता को समर्पित परंपराओं के प्रबल पक्षधर के रूप में अड़िखंभ खड़े दिखाई देते हैं।
भाटी का रचना संसार लोक से आलोक ग्रहण कर लोक को ही आलोकित करने वाला है अतः भाटी को लोक में आलोक का कहा कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”
प्राचीन राजस्थानी साहित्य संग्रह संस्थान दासोड़ी, बीकानेर।