सबै मिनख है एक सम (मा जानबाई एक परिचय)

जबतक हम हमारे महापुरुषों के आचरण को किंचित मात्र भी अपने जीवन में नहीं ढ़ाल सकते तबतक उनके चारू चरित्र और उज्ज्वल आदर्शों की बातें करना हमारे मिथ्याभाषण की ही अभिव्यंजना है। हां अगर हम उनके आचरण की आभा में सुगम पथ बनाकर उस पर चलना सीख लेते हैं तो सही मायने में हमने उन महापुरुषों व मनस्विनियों को जान भी लिया है और मान भी लिया। लेकिन ऐसा नहीं करके हम सर्वथा इसके उलट आचरण करते हैं तो मान ही लीजिए कि हम अपनी अधोगति के स्वयं ही भाग्यविधाता हैं।
जो महामना हुए हैं उन्होंने अपनी करनी और कथनी को एक रखकर हमें सुभग संदेश दिया कि मनुष्य-मनुष्य में भेद करना न केवल समाज के लिए अनिष्टकारी है बल्कि धर्म व देश के लिए भी विघटनकारी सिद्ध होगा। उनका मानना था कि-
निर्मलं न मनो यावत् तावत् सर्व निरर्थकम
यानी मनुष्य का मन जबतक निर्मल नहीं है तबतक पूजा-पाठ आदि सब धर्म कार्य निरर्थक है।
जब हम चारण देवियों का इतिहास पढ़ते हैं अथवा सुनते हैं तो हमारे समक्ष ऐसी कई देवियों के चारू चरित्र की चंद्रिका चमकती हुई दृष्टिगोचर होती है जिन्होंने साधारणजनों तथा खुद की संतति में कोई भेदभाव नहीं किया।
जिस छुआछूत को आजादी के इतने वर्षों बाद भी अथक प्रयासों के बावजूद हमारी सरकारें पूर्णरूपेण उन्मूलन नहीं कर सकी उसे हमारी देवियों ने पंद्रहवीं सदी व अठारहवीं सदी में ही अपने घर से सर्वथा उठा दिया था।
ऐसी ही एक देवी हुई है जानबाई। जिन्होंने छूआछूत को मनुष्य मात्र के लिए अभिशाप माना तथा उन्होंने इस अभिशिप्त अध्याय का पटाक्षेप अपने गांव डेरड़ी से किया।
इस महनीय बात पर आऊं उससे पूर्व मा जानबाई के संक्षिप्त जीवन चरित्र से परिचित करवाना समीचीन रहेगा।
जानबाई का जन्म वि. सं. 1756 में गूंदाल़ा गांव के गढवी मेघाणंद रेढ के घर चित्ताबाई की पावन कुक्षी से हुआ। मेघाणंद छोड़कर पछैगाम के गोहिल ठाकुर देवाणी के कामदार थे। अत: वे पछैगांम में ही रहते थे।
जानबाई को खोड़ियार देवी का अवतार मान जाता है। इनके अलोकिक चमत्कारों की कई बातें लोक विश्रुत हैं। किंवदंती है कि ये जब 6-7 वर्ष की थीं तब उनके पिताजी ने एक लाली नामक बाई को इनकी देखरेख हेतु रखा। एक दिन इनके माता-पिता घर पर नहीं थे। लाली इन्हें खेला रही थी कि लाली की दृष्टि दूर रखी कोठार की चाबी पर पड़ी। उसने चाबी लेके कोठार खोला तो उसकी दृष्टि आभूषणों पर पड़ी। उसकी नियत बदल गई। उसने वे सभी आभूषण जानबाई को पहनाकर फुसलाया कि-“चलो बापू के आने का समय हो गया है अतः सामने ही चलते हैं। ”
उसकी नियत में खोट थी। वो जानबाई को लेकर गांव के बाहर पहुंची तो उसे पास ही एक कूप दिखाई दिया। उसने जानबाई को पहनाए गहने खोलकर उन्हें उस कूप में धकेल दिया तथा स्वयं वहां से भाग गई। वो थोड़ी ही दूर भागी थी कि एकाएक उसकी आंखों की ज्योति चली गई और वो एक झाड़ी में जा गिरी।
इधर मेघाणंद घर आए तो दोनों को घर पर नहीं पाया। चिंतातुर होकर जानबाई को पूरी रात खोजा लेकिन वो मिली नहीं तब वे हारकर अपने घर आए और सूर्योदय की प्रतीक्षा करने लगे। इधर गांव में एक पिंजारे का अपनी पत्नी से झगड़ा हुआ था तो उसने पत्नी को बुराभला भी कहा और पीट भी दिया। पीटने से नाराज होकर वो पिंजारन आत्महत्या के उद्देश्य से उसी कुएं पर पहुंची। वो पहुंची तबतक सूर्योदय हो चुका था अतः जैसे ही वो पड़ने ही वाली थी कि कुएं में एक बालिका अठखेलियां करती हुई दिखाई दी। उसने पहचान लिया कि ये तो जानबाई है। उसने आपघात का विचार त्याग दिया तथा पुनः घर आई और पूरी बात अपने पति को बताई।
पिंजारे ने जाकर मेघाणंद को बताया तो वे दौड़े-दौड़े कुएं पर पहुंचे। उनके साथ गांव के कुछ अन्य लोग भी आए। उन्होंने देखा कि जानबाई ने पानी पर चूंदड़ी बिछा रखी है और उस पर आराम से खेल रही है।
मेघाणंद ने कहा बेटा-“मैं रस्सी के साथ किसी आदमी को कुएं में उतार रहा हूं, डरना मत। ”
यह सुनकर जानबाई ने कहा कि-
“बापू इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। लो मैं स्वयं ही बाहर आ जाती हूं। ” इतना कहते ही कुएं का पाणी ऊपर की तरफ बढ़ने लगा और जानबाई बाहर आ गई।
इस दिव्य चमत्कार से पूरा गांव अभीभूत होकर जानबाई की चरण वंदना करने लगा। तब जानबाई ने कहा कि चलो झाड़ी में से लाली को निकालते हैं। इतना कहकर वे वहां पहुंची जहां लाली पड़ी झाड़ी में कराह रही थी। उन्होंने उसे उठाया। दिलासा दी और सिर पर हाथ फेरकर मातृवत स्नेह देकर उसके अपराध क्षमा करते हुए ज्योति पुनः दी।
जानबाई की वय बढ़ने लगी तो तो मेघाणंद को उनके विवाह की चिंता सताने लगी। एक दिन संयोग से ईंगोवाल़ा के गढवी हरसूरभाई ने जानबाई का हाथ अपने भक्त, कवि व मेधावी पुत्र कांथड़भाई के लिए मांगा तो मेघाणंद ने सहर्ष हां भरदी और नियत समय पर दोनों की शादी हो गई।
कुछ दिनों तक कांथड़जी अपने पैतृक गांव में रहे फिर अपनी मवेशी लेकर डेरड़ी में अपना नेश स्थापित किया। उनकी भक्ति, उक्ति और सरलता देखकर भाडली ठाकुर कान्हाजी ने डेरड़ी गांव कांथड़जी को इनायत कर दिया। उस गांव में गायों के चरने के लिए लंबा झूंसरा था लेकिन पानी का सर्वथा अभाव था। कांथड़जी ने जानबाई से कहा भी था कि किसी अन्य गांव में नेस स्थापित करते हैं लेकिन यह गांव जानबाई को भा गया था। इसलिए उन्होंने सदैव के लिए यहीं रहने का विचार कर लिया।
जानबाई के दिव्य चमत्कारों व दयालु स्वभाव की चर्चा सर्वत्र फैल गई थी। अनेक लोग उनके नेस आते रहते थे। एकबार गर्मी का मौसम था। सूर्य अपने पूर्ण बल पर था। लूएं चल रही थी। ऐसी मंझ दोपहर में ओघड़ काठी अपने अश्वरोही साथियों के साथ डेरड़ी जानबाई के दर्शनार्थ आया। काफी दूरी तय करके आने से स्वयं व घोड़ों का मारे प्यास के बुरा हाल था ही परंतु जैसे ही उसे विदित हुआ कि इस गांव में पानी तो पताल में भी नहीं है तो वो घबरा गया। क्योंकि जिस गांव में पानी, वैद, वणिक और न्याय न हों तो वहां बसना तो दूर रातभर विश्राम भी दुश्कर कार्य है–
जिकण गांम में च्यार नीं, वणिक वैद जल़ न्याय।
बसणो तो अल़गो रयो, रात रयो नीं जाय।।
उसने अपनी व्यथा जानबाई को बताई तो जानबाई ने कहा कि-
“इसमें इतना घबराने की क्या जरुरत ?”
इतना कहकर उन्होंने अपने हाथ से उज्ज्वल रेत में एक छोटा खड्डा खोदा। खड्डे में से गंगधारा के समान मधुर पानी निकला।
उन्होंने ओघड़ से कहा कि-
“लो सभी पानी पीओ। आगे से इस गांव में पानी का यह अक्षय स्रोत यही होगा।”
फिर उन्होंने उस खड्डे की जगह एक विशाल बावड़ी बनाई। जिसमें अथाह पानी था। उन्होंने गांव में मुनादी करवा दी कि-
“यह बावड़ी मेरी है। इस गांव में जिस किसी भी जाति का है वे मेरे संतति समान है। अतः सभी बिना भेदभाव के इस बावड़ी पर पानी भरेंगे। किसी को संकोच की आवश्यकता नहीं है।”
इस संबंध किसी समकालीन कवि ने कहा भी है-
भंगी कळबी बांमणां, कोरी थोरी केक।
जो पांणी भरै जांनबा, आरै सरख्या एक।।
देश विदेशां डूंगरां, गढपत गांमो गांम।
ज्यां जावूं त्या़ं जानबा, आई आगैवांण।।
एक बार वाडोदरा के गायकवाड़ दामोजीराव (सं. 1816) के पुत्र फतेहसिंह के समय में 900सौ काठियों ने अमरेली परगने में डकैती की। तब फतेहसिंह तत्कालीन लाठी ठाकुर को साथ लेकर काठियों को सर करने हेतु चढ़ा। चूंकि फतेसिंह वीर भी था और उसके पास सैन्यबल भी अधिक था। इसलिए मारे डर के काठी अपने घोड़ों पर आगे भाग पड़े। पथ में काठियों ने कई जगह शरण मांगी परंतु गायकवाड़ के डर से किसी ने भी उन्हें शरण नहीं थी। भागते-भागते सांझ हो गई। सांझ के समय वे मारे प्यास के डेरड़ी पहुंचे। वहां बावड़ी पर पानी पीकर जानबाई के दर्शनार्थ उनके नेस पहुंचे। तबतक सांझ पड़ चुकी थी। वे दर्शन कर उठने लगे तब जानबाई ने कहा कि-
“उठ क्यों रहे हो? रोटी का समय है और इस समय कोई अतिथि भूखा निकले यह तो डूब मरने की बात है।”
यह सुनकर काठियों के सरदार ने कहा कि-
“आई! एक तो हम संख्या में अधिक हैं और दूसरी बात यह कि हमारे पीछे फतेसिंह ‘वाहर’ चढ़ा आ रहा है। ऐसे में हम आपको किसी कष्ट में नहीं डालना चाहते।”
इस पर जानबाई ने कहा-
“आप अधिक हुए तो क्या हुआ? अतिथि कोई घर साथ लेकर थोड़ा चलता है! आप आराम से बैठ जाइए। खाना तो खाना ही और रुकना भी यहीं है। जोगमाया भली करेगी। आपका बाल भी बांका नहीं होगा।”
सभी काठी रुक गए। आई ने भोजन बनाया। खिलाया।
इधर फतेसिंह को विदित हुआ कि काठी डेरड़ी में जानबाई के यहां है। वो आई के चमत्कारों से परिचित था। उसने अपने साथियों को डेरड़ी से थोड़ा रुकने का आदेश दिया और काठियों के वहां से निकलने का इंतजार करने लगा। रात्रि में उसका विचार बदल गया। उसने तय किया कि अंधेरे में सोते हुए काठियों पर आक्रमण किया जाए। वो उठा और डेरड़ी की तरफ देखा तो उसे एक विशाल किला और किले की बुर्जों पर तोपें लगी हुई तथा तोपची तत्पर दिखाई दिए। वो डर गया। उसने लाठी ठाकुर को जगाया और कहा कि-
“आपने मुझे बताया ही नहीं कि डेरड़ी में इतना बड़ा किला है।”
लाठी ठाकुर ने कहा कि-
“कहां ? यहां कोई किला नहीं है। यह आई जानबा की लीला है। हम काठियों पर आक्रमण नहीं करेंगे।”
सुबह फतेसिंह ने डेरड़ी समाचार कराए कि-
“मैं आई जानबा के दर्शनार्थ आना चाहता हूं।”
जानबाई ने कहलाया कि “यह तो आपका ही नेश है। इसमें पूछने की क्या बात है?”
फतेसिंह आया। जानबाई के नेस में खाना खाया। उनकी दयालुता व परहित की निस्वार्थ भावना से इतना प्रभावित हुआ कि जाते समय डेरड़ी का तांबापत्र जानबाई के चरणों में रखकर श्रद्धा सहित चरण छूए और जाने की आज्ञा ली।
लिखने को काफी कुछ बातें हैं लेकिन विस्तार भय से केवल एक और बात का उल्लेख कर बात समाहार कर रहा हूं।
जानबाई के दो पुत्र हुए- बावोभाई व राणाभाई।
बावाभाई सरल स्वभाव के व्यक्ति थे जबकि राणाभाई इसके उलट। राणाभाई का स्वास्थ्य थोड़ा नर्म रहता था। यह व्यथा उसने अपने मित्र भगा भरवाड़ को बताई तो उसने सहजता से कहा कि-
“यह सहज बात है। तुझ पर ईश्वरीय प्रकोप है क्योंकि तुम्हारी मा तो भ्रष्टाचारी है ही साथ ही पूरे गांव को भी विटळ कर दिया। एक बावड़ी से सभी को पानी भरने की छूट देकर तुम्हारी मा सरभंगी बन गई है। अगर बीमारी से निजात चाहते हों तो महतर, मेघवाल, कोली, थोरी आदि को अपने साथ पानी मत भरने दो।”
राणाभाई के यह बात अंगोअंग बैठ गई। वो घर आया। अपनी मा से कहा कि वो आगे से गांव को भ्रष्ट करना बंद करे। मैं अमुक-अमुक जातियों को बावड़ी पर पानी नहीं भरने दूंगा। आप कान खोलकर सुनलें।”
इस पर बावाभाई की पत्नी धानाबाई व स्वयं जानबाई ने उसे खूब समझाया। वो माना नहीं तब जानबाई ने कहा कि-
“जिस प्रकार तुम मेरे पुत्र हो उसी प्रकार इस गांव का हर निवासी मेरे पुत्र समान है। अतः तूं यह गंदे विचार तेरे दिमाग से निकाल देना क्योंकि ई पण माताजी नां डीकरा छे। तु जेम मारो डीकरो तेम ई पण मारा छोकरा छे। मा कोई दिवस छोकरां थी अभड़ाय नहि। ऐटले ऐमने पाणी नी मनाई तो नहि कराय। अभड़ावानीं बात खोटी छे।”
इतना सुनते ही वो सीधा बावड़ी पर पहुंचा। जानबाई समझ गई कि वो वहां विघन पैदा करेगा। यह सोचकर वे भी बावड़ी पर गई। उन्हें बावड़ी पर आया देखकर राणाभाई ने कहा कि-
“आई तुझे एक बात करनी होगी। या तो यह पानी साथ भराना छोड़ या फिर मेरा मरे का मुंह देखना।”
यह सुनकर जानबाई ने कहा कि-
“बेटा! पानी भरने में तो मैं भेदभाव नहीं कर सकती। मेरे लिए सभी समान है। रही बात तेरे मरने या जीने की तो जो जोगमाया करेगी वो मुझे सिर धरके स्वीकार करना पड़ेगा।”
इस बात पर रुष्ट होकर रात्रि में राणाभाई ने कटारी खाकर प्राणांत कर लिए। उनका दाहसंस्कार किया गया। फिर गांव के उन गरीब लोगों ने यानी महतरों, मेघवालों, नायकों आदि ने आई से कहा कि हम साथ पानी भरना बंद कर देंगे क्योंकि गांव में फिर कोई ऐसी दुखद घटना न हो।”
इस पर जानबाई ने कहा कि-
“क्या तुम मुझे अपनी मा नहीं मानते? एक डीकरो मुओ तो शूं थयो? तमै केटला डीकरा बैठा छो।
मैं तुम सभी को अपनी संतान मानती हूं। क्या मा अपने संतति से आभड़छोत (अश्पृश्यता) कर सकती है? नथी करती ! तमै जाणो छो तो आगे से पगलाई बात मत करना क्योंकि जल, थल, प्रकाश, वायु, आदि ईश्वर प्रदत्त वस्तुएं है। इस पर सबका समान अधिकार है। अतः डेरड़ी में सभी पानी अभेद रूप से भरेंगे।”
यह परंपरा निर्विवाद रूप से आजादी तक चालू थी और आजादी के बाद तो इन बातों का कोई मूल्य ही नहीं रहा।
ऐसी करुणामयी मा का नश्वर शरीर वि. सं 1826 में पंचतत्व में विलीन हुआ लेकिन उनके सुभग संदेश की सौरभ सदियों से मानवता का प्रसार विस्तीर्ण कर रही है।
।।जानबाई रा दूहा।।
जलम गुंदाळै जांमणी, जग सह चावी जान।
धरम दया द्रढ धारणा, जांणै सकळ जहान।।1
पितु मेघाणंद पवित भो, पुतरी तोनै पाय।
कीनो ऊजळ रेढ कुळ, मही प्रगट महमाय।।2
मेघाणँद मोटो मिनख, थिर सब बातां थाट।
दत्त छौळां जिथिये दहै, मही घमोड़ा माट।।3
मन रंजण तनुजा मुदै, रखण ध्यान दिन-रात
महल़ा लाली नांम री, तदन रखी घर तात।।4
दिन इक लाली देखिया, भूखण घर बो-भांत।
ललचाई वा लोभणी, मन नीं रयो निरांत।।5
तिकै आभूखण जान तन, पहराया धर पाप।
लाली लेखे खेल रै, उखणै लेगी आप।।6
ठगणी भूखण ठग लिया, दिगर करी ना देर।
जबर नाठी वा जान नै, पटक कुए में फेर।।7
परचो लाली नै प्रतख, आई दियो अदेर।
जोत गमा फस झाड़ियां, फळ ओ पायो फेर।।8
पितु देखी परभात रा, जळ पर रमती जोर।
उण दिन सूं आगै अवन, तर-तर बधियो तौर।।9
कव वरियो कांथड़ वडम, जान धरा जस काज।
मही सराई एक मन, सत जोड़ी सरताज।।10
देख बणायो डेरड़ी, निजपण हाथां नेस।
पग तो आवै परसवा, हर दिस हितु हमेश।।11
जळ तोड़ो जोयो जदन, आय दया उर आप।
बणा अथग जळ बावड़ी, कष्ट दियो सह काप।।12
आई सब नै आखियो, लेख सुणो सह लोय।
मोटो-छोटो इण मही, कदै न करजो कोय।।13
महतर बांमण एक मन, सबरो समवड़ सीर।
कोली चारण कोड सूं, निरभै भरजो नीर।।14
कुण मोटो छोटो कवण, कवण सिरै कुण हीण।
विरथा पड़ै विवाद में, मनो जिको मतहीण।।15
जळ उजास थळ विरछ जग, ईसर रचिया आप।
मानव री कीकर मनूं, धुर आंरी धणियाप।।16
सब मानव है एक सम, ईसर घरै अभेद।
देऊं न करबा डेरड़ी, भूलपणै ई भेद।।17
सुत रांणो सगती-तणो, निजपण हुवो नराज।
भिष्टवाड़ो बँद भोम पर, आई करजै आज।।18
कै तो बंद करजै कहूं, आभड़छोत अदेर।
नीतर तज इण नेस नै, डगर पड़ूं बिन देर।।19
जणणी हूं थारी जिमां, जिम दूजां री जांण।
समझायो विध विध सगत, उर ना लख्यो अजांण।।20
जितरो हक थारो जरू, उतरो महतर मांन।
पुनी वचन नह पाळटू, गढव रखै ओ ग्यांन।।21
है रहणो तो हरख रह, जांणो तो मग जोय।
जान थपी मरजाद जो, करै न उथपण कोय।।22
तजियो सुत सगती तदन, तजी न निजपण तीख।
आई उणदिन अवस ही, सकळ समापी सीख।।23
विमळ बावड़ी विमळ धर, विमळ बात विखियात।
भोम डेरड़ी भेद बिन, जळ पीवै सह जात।।24
की थारी प्रभता कथूं, लखूं न फिर आ लेस।
अरपूं केवल आपनै, इक चरणां आदेश।।25
संदर्भ-मातृ दर्शन-पिंगल परवतजी पायक
~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी