मानवीय संवेदनाओं के संवाहक कवि ईशरदास बारठ

IsardasJiजब हम भारतीय साहित्य के मनीषी कवियों को पढते हैं तो हम पाते हैं कि हमारे भारतीय वाङ्मय में कवियों को जो सम्मान मिला वह अपने आप में अद्भुत व वरेण्य है। हमारे कवि, आदि कवि, कवि भूषण, कवि श्रेष्ठ, कविराज आदि अलंकरणों से आभूषित हैं लेकिन जब हम इसी वाङ्मय के अंर्तगत राजस्थानी साहित्य को पढते हैं तो पाते हैं कि हमारे मध्यकालीन कवि ईशरदासजी बारठ को जो आदर हमारे राजस्थानी साहित्य प्रेमियों ने दिया वो स्तुत्य है। यही कारण है हम इन साहित्य प्रेमियो के समक्ष अपने आपको नत-मस्तक पाते हैं क्योंकि इन्होंने अपने प्रिय कवि के साहित्य का निरपेक्ष मूल्यांकन करके जो सम्मान उन्हें दिया वो विश्व में शायद ही आज तक किसी कवि को मिला हो! यहां के जनमानस ने ईशरदासजी के काव्य का मूल्यांकन करते हुए अमूल्यवान तो माना ही साथ ही साहित्य के रस में आकंठ डूबे काव्य प्रेमियों ने उन्हें साक्षात ईश्वर के तुल्य मानकर ‘ईसरा सो परमेसरा’ के अलंकरण से अलंकृत किया। कितना अद्भुत ! कितना अतुलनीय ! सम्मान उन्हें दिया गया, इसे ईशरदासजी की गिरा गरिमा व यहां के साहित्य प्रेमियो की सहजग्राह्य शक्ति का मणिकांचन संयोग नहीं तो और क्या कहा जा सकता हैं?

पश्चिमी राजस्थान के धवल धोरों की धरती भादरेश में सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में सूराजी बारठ के घर इस कवि का जन्म हुआ। ईशरदासजी जैसे प्रज्ञा व प्रतिभा संपन्न कवि की जन्म स्थली होने के कारण भादरेश साहित्य प्रेमियों के लिए एक तीर्थ सदृश है। सत्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि व इनके मानस शिष्य पीरदान लाल़स लिखते हैं-

उथियै साहिब ऊपना, भोम नमो भादरेस।
पीरदान लागै पगां, ईसाणंद आदेस।।

कवि की प्रज्ञा, प्रभा की प्रखरता का प्रसार बाल्यकाल से ही चतुर्दिक होने लगा। किसी कवि ने कितना सटीक कहा है कि

‘ईशरदास तो चारण के घर चंदण रूपी प्रकट हुआ है जिसकी यश रूपी
सोरम समीर के साथ चारों ओर संचरित होने लगी है –

ईसाणंद ऊगाह, चंदण घर चारण तणै।
प्रिथमी जस पूगाह, सोरम रूपै सूरवत।।

ईशरदासजी को भक्ति व वीरता का पर्याय कवि मानते हुए अपने समकालीन कवियों में सर्वश्रेष्ठ कवि स्वीकार किया गया है। किसी कवि ने सारभूत व अनुभूत सत्य लिखा है-

कवित्ते अलू दूहे करमाणंद, पात ईशर विद्या चो पूर।
मेहो छंदै झूलणै मालो, सूर पदै, गीतै हरसूर।।

पूर्ववर्ती समीक्षकों ने तो यहां तक ही इतिश्री नहीं की है अपितु इन्होंने तो ईशरदासजी को महाकवि, कवि के रूप में अंतःस्तल से स्वीकार किया व लिखा –

कव आसा ईशर कवि, पूजै जगत प्रमाण।
तारण कुल़ छत्र्यां तिकै, जिकै महाकव जाण।।

महाकवि केवल महाकाव्य विरचित करने से ही नहीं होता, महाकवि तो वो भी होता है जिसके काव्य में मानवीय उदात्त गुणो का प्रकटीकरण व मानवीय संवेदनाओं से सरोकार लक्षित हो।

जब हम ईशरदासजी को पढते हैं तो पाते हैं कि इनकी कविताओं में शिल्प के साथ ही संवेदनाएं प्रवाहित हुई है। इनकी कविताओं में उपदेश नहीं अपितु सुभग संदेश के स्वर गुंजायमान हुए हैं। ईशरदासजी, किसी जाति, समुदाय, समाज या धर्म विशेष के हितचिंतक नहीं थे। वे तो मानव मात्र की हितैष्णा व संवेदनाओं के संरक्षक व संवाहक कवि थे। जिन्होंने जातिय सहिष्णुता व संप्रदाय सद्भाव की भावनाओं के वशीभूत होकर आमजन के मनोगत भावों को उकेरने में अपना अहम योगदान दिया।

ईशरदासजी की कविताओं में दीनता के स्वर नहीं अपितु स्वाभिमान के भाव स्वाभाविक रूप से उद्घाटित हुए हैं। इनकी कविताओं में अलगाव के नहीं बल्कि सद्भावना की स्थापना परिलक्षित होती है। सही मायने में ईशरदासजी मानवीय अस्मिता के पक्षधर कवि थे, यही कारण है कि इनकी कविताओं के माध्यम से साधारण भी असाधारण का दर्जा प्राप्त कर लोकमान्य बने। भले ही ईशरदासजी ने भक्ति व वीरता के स्वर गुंजायमान किए हों परंतु जब हम इनको समग्र रूप से पढते हैं तो देखते है कि इन्होंने सर्वजन के साथ खड़े होने में न तो संकोच महसूस किया और न ही असहजता।

तीर्थांटन करते समय ईशरदासजी नागरचाल़ा(सौराष्ट्र) पहुंचे और वहां ग्वाड़ में बैठे कुछ व्यक्तियों से कहा कि “मुझे किसी सहृदय क्षत्रिय का घर बताया जाए, जहां मैं रात्रि विश्राम कर सकूं।” नागरचाल़ा के कुछ दंभी लोगों को ‘सहृदय’ शब्द चुभ गया और उनका दंभ जाग उठा, उनमें से किसी ने कहा हमारे गांव में तो सांगा गौड़ ही एक ऐसा आदमी है जिसके घर अतिथि रुकते हैं ! आप भी वहीं जाहिए ! साथ ही इशारे से घर का पथ भी बता दिया। ईशरदासजी छोटे से गांव में जैसे ही पूछते हुए सांगा के घर पहुंचे तो देखा कि एक टूटी-फूटी टपरी और उसके आगे एक अधेड़ महिला बैठी है। कवि हृदय ईशरदासजी समझ गए कि लोगों ने उनके साथ चाल की है और यह घर बताया है! उनका मन भी द्रवित हो उठा लेकिन उन्होंने तय कर लिया कि अतिथि तो सांगा का ही बनूंगा। उन्होंने महिला से पूछा तो पता चला कि वह सांगा की विधवा मां है और 14-15 साल का सांगा गांव के बछड़े चराकर जैसे-तैसे ही अपना और अपनी मां का जीवन यापन कर रहा है। महिला ने बड़े संकोच के साथ पूछा कि आप कौन है और सांगा का क्यों पूछ रहें हैं? तो ईशरदासजी ने पूरी बात बताई और कहा कि मैं आज सांगा का मेहमान हूं। जब सांगा घर आया और उसे पता चला कि आज उसके घर जो मेहमान ठहरें हैं वे मारवाड़ के कवि ‘ईशरा सो परमेसरा हैं।’ तो माँ-बेटे के मन में सम्मान व उत्साह की सरिता खलकने लगी। अपनी हैसियत से बढकर सेवा की। इस बात का पता जब नागरचाल़ा के कुछ अच्छे लोगों को लगा तो वे अपराधबोध से ग्रसित होकर ईशरदासजी को अपने घर ले जाने हेतु सांगा के घर आए और ईशरदासजी को अपने घर चलने को कहा, परंतु ईशरदासजी जैसे महामना और मानवीय संवेदनाओं के संरक्षक सहृदय कवि ने कहा कि “मैं अब कहीं नहीं चलूंगा। सांगा का घर आत्मीयता का आगार और सत्कार का साकार रूप है। जिसका दिल बड़ा होता है वही सही मायने में बड़ा है। जिसकी मानसिकता संकुचित और भाव कलुषित हो वह बड़ा नही हो सकता ! मैने देख लिया कि आपके गांव मे तो यह सांगा गौड़ ही श्रेष्ठ है”-

दियां रा देवल चढै, क्यां कोई रीस करेह।
नागरचाल़ा रा ठाकरां, (थांमे)सांगो गौड़ सिरेह।।

ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि अहमदाबाद के सुल्तान ने घोड़ों के व्यापारी साधारण चारणों को धनाढ्य समझकर उन पर कर लगा दिया जो उनसे भरा नहीं गया, जिनके जमानती ईशरदासजी बने। इसी प्रकार काठियावाड़ के सुल्तान ने भी अहीरों पर कर लगा दिया और नहीं भरने की स्थिति में धर्म परिवर्तन करने तथा कैद करने की धमकी दी। साधारण अहीरों के जमानती भी ईशरदासजी ही बने, लेकिन इन दोनों के पैसे ईशरदासजी चुका नहीं सके और दोनों के बदले उन्हें दो बार जेल जाना पड़ा। ईशरदासजी के बदले सुल्तानों को पैसे हलवद के स्वामी रायसिंहजी ने अपनी राणी के आभूषण बेचकर भरे तथा कवि को कैद से मुक्त करवाया। रायसिंहजी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए ईशरदासजी ने कहा-

काराग्रह सूं काढियो, वीदग बीजी वार।
अइयो रायांसिंघ रा, घर हंदा उपकार।।

इन कतिपय उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि ईशरदासजी के मन में गरीबों और जन साधारण की अस्मिता को लेकर किस प्रकार का चिंतन था? ये इनकी व्यथा-कथा को जानते थे। ईशरदासजी इनकी भावनाओं, अधिकारों व अस्तित्व के प्रति चिंतनशील ही नहीं अपितु एक सुदृढ़ रक्षक के रूप में खड़े दिखाई देते हैं। यह ही तो उनकी उदात्त मानसिकता और मानवीय दृष्टिकोण है जिसके फलस्वरूप लोगों ने इन्हें ‘ईशरा सो परमेसरा’ का दर्जा दिया। परमेश्वर भी तो छल-छंद के फंद व उसके द्वंद से मुक्ति दिलाता है और यही काम दुखियों के लिए ईशरदासजी ने किया। साधारण जनों के बदले कारावास जाकर ईशरदासजी ने अपनी असाधारणता का जो परिचय दिया वैसा आजके जनकवि होने का ढोंग रचने वाले कवि जो केवल अपने शब्दो में संवेदनशीलता प्रवाहित करते हैं और अपनी सहृदयता का ढिंढोरा पिटवाते हैं परंतु यथार्थ के धरातल पर उनका ऐसा कोई वास्तविक उदाहरण नहीं मिलता जैसा ईशरदासजी का मिलता है। ईशरदासजी ने कहा ही नहीं अपितु करके दिखाया। डॉ आईदानसिंह भाटी के शब्दों में कहें तो यही आज की भाषा का मानवाधिकार है और ईशरदासजी तात्कालिक समाज के सबसे बड़े मानवाधिकारवादी। मुझे ऐसा अहसास होता है कि ईशरदासजी पर लिखने वालों ने अभी तक उनके मानवीय दृष्टिकोण की तरफ शायद अपना दृष्टिपात ही नहीं किया है। नहीं तो क्या कारण है कि हमारे आज के चिंतक जिन बातों पर आज चिंतन कर रहें हैं उन पर ईशरदासजी ने अपनी चिंता सोलहवीं शताब्दी में प्रकट कर दी थी।

किसी भी समाज अथवा देश में विघटन अथवा बिखराव का सबसे बड़ा कारण होता है जाति-पांति, छूआ-छूत व छोटे-बड़े का भेद। छूआ-छूत के भूत से हमारा समाज उस समय भी ग्रसित था और आज भी मुक्त नहीं हुआ है। सांप्रदायिक सद्भाव के साथ खिलवाड़ करके उन दिनों भी रोटियां सेकी जाती थी और आज भी लोग सत्ता के गलियारे सांप्रदायिक उन्माद फैलाकर ही देखने का स्वप्न पालते है। ईशरदासजी ने मानव मात्र के कल्याण हेतु इन बातों पर खुलकर मंथन किया। हमारे यहां भ्रमित लोग कहते रहते हैं कि ऊंच-नीच आदि का नियंता ईश्वर है। अतः ईश्वरदासजी सीधे ईश्वर से प्रश्न करते हैं कि यह खेल खेलना तुम्हारे हाथ में है तो फिर तूं क्यों ऊंच-नीच का भेद पैदा करता है? क्यों नहीं सभी को समान बनाता? क्यों तुमने लोगों को अपमानित होने के लिए यह पाप उनके पीछे लगाया है-

आदि तूझथी ऊपना, जग जीवन सह जीव।
ऊंंच-नीच घर आवतरण, दे क्यूं वंश दईव।।
आपौ तैं हूता अनंत, आप्यौ तैं अवतार।
पाप-धरम क्यूं पीड़वा, लायो जीवां लार।।

ईशरदासजी की कृति ‘गुण-निंदा-स्तुति’ अपने आपमें अतुलनीय, अद्वितीय व अद्भुत है। यह कृति इनके वैश्विक सोच व चिंतन को उद्घाटित करती है। इस महामानव ने शाश्वत साहित्य के रूप में समाज को जो बौद्धिक संपदा दी है उसकी कोई सानी नहीं है। इसका जब हम अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि राजस्थानी में इनके समान्तर उदाहरण दुर्लभ है। ईशरदासजी को केवल भक्त कवि के दायरे में सीमित करने वालों को देखना चाहिए कि उन्होंने किस प्रकार लोकभावना की ललक को अभिव्यक्ति दी? उसका हम निष्कर्ष निकाले तो ये लोकनायक की भूमिका मे दृष्टिगत होते हैं।

‘गुण निंदा-स्तुति’ में कवि ने संप्रदायिक सद्भावों के सुदृढ़िकरण हेतु सशक्त अभिव्यक्ति की है। परम सत्ता से प्रश्न पूछते हुए कवि कहता है कि जब सब तेरी ही संतान है तो फिर क्यों तूं इनके मानस मे रक्तपात करने या करवाने की कुत्सित भावनाएं भरता है? क्यों इनमें हिंदू-मुसलमान की भावना भरकर अलगाव पैदा करता है-

तूं कजि बिना जुया तड़ताणै।
जोई तूं ए कोई मरम न जाणै।
मैहलां बिने चडी मै बारै।
थियै जल़गाथै कारण थारै।।
* * *
झूंबै लूंबै जूझै।
बिने खसम री खबर न बूझै
खेध चड़ै सोकै बे खसै।
प्री घरि बैठो निजर न पेसै।
नारि एक पीछम दस नमै।
पूरब दिस एक नारि प्रणमै।।
करि एकण जप माल़ा कीधी।
एकण हाथ तसबी लीधी।।

सारहीन संप्रदायिक उन्माद फैलाने हेतु कुतर्क करने वालों को ईश्वरदासजी ने इन पंक्तियों के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार करवा दिया। क्या यह वैश्विक सोच के दायरे मे नहीं आती कि संपूर्ण विश्व मे लोग लड़े नहीं और शांति तथा सौहार्द के साथ सह अस्तित्व की भावना से जीए और अपनी रोजी-रोटी कमाएं-

सगल़ै जीव सुखी कर सामी।
काजि सह समापि बहुनामी।।

जब हम इनकी कृति ‘हालां-झालां रा कुंडल़िया’ की बात करतें हैं तो निश्चित रूप से यह वीर रस की सर्वोत्कृष्ट कृति है, परंतु जैसे जैसे इसकी गहराई में उतरने का प्रयास करते हैं तो यह रचना हमें नीति नगीनों से जड़ित लगती है। जीवन मूल्यों, मरने की सार्थकता, जीवट के साथ जीवन यापन, सांस्कृतिक सरोकारों का रक्षण, स्त्री जीवन व उसके त्याग का मूल्यांकन व साधारण में असाधारणता का दिग्दर्शन भी कवि ने अपनी इस रम्य रचना में करवाया है। संवेदनशील कवि ही ऐसा कह सकता है कि दंभी के दंभ के सामने झुकने से श्रेयष्कर टूटना है। या यूं कहें कि सार्थक मरण का वरण करना ही श्रेष्ठता है। कवि का मानना है कि हम कायर-कपूतों की तरह कितने ही युग जी लें परंतु जीवन निरर्थक है, इससे तो अच्छा है कि ऐसी मृत्यु का आलिंगन करें कि हमारी बातें जीवटता उदाहरण बन जाए व मृत्यु का आलोक दूसरों के लिए प्रेरणादायक। कवि कहता है कि हम यदि किसी के साथ हो लिए तो फिर आगत संकट में उसे अकेला छोडकर कर भागें नहीं अपितु उसके कंधे से कंधा जोड़कर उसका संबल बने और मृत्यु सामने हो तो वहां अपना सब कुछ न्यौंछावर कर दें। जिस प्रकार पिरोये हुए हार का डोरा टूटता है तो उसके मोती आस-पास ही बिखरते हैं, दूर नहीं, उसी प्रकार ही हमारा रक्त उसके रक्त में समाहित हो जाए-

मरदां मरणो हक है, ऊबरसी गल्लांह।
सापुरसां रा जीवणा, थोड़ा ही भल्लांह।।
हूं बल़िहारी साथियां, भाजै नह गइयाह।
छीणा मोती हार जिमि, पासै ही पड़ियाह।।
केहर-केस भमंग मणि, सरणाई सूहड़ांह।
सती पयोहर क्रपण धन, पड़सी हाथ मूवांह।।

‘हालां-झालां रा कुंडलिया’ के माध्यम से कवि ने उन उदात्त जीवन मूल्यों व आशावादी दृष्टिकोण को अभिव्यक्त किया जो आज भी प्रासंगिक है। हीरालाल माहेश्वरी के शब्दों में कहें तो “निर्भीकता, स्पष्टता, और संवेदनशीलता उनकी वाणी के गुण है।” स्पष्टता और निर्भीकता उस कवि की वाणी में होगी जिसकी रग-रग में स्वाभिमान समाया हो। कवि मानता है कि दीनता अपमान को न्यौता देती है और संवेदनशीलता उसका प्रतिकार करती है। जो स्वयं संवेदनशील होगा वही दूसरों की संवेदनाओं को स्वर देने की शक्ति रखता है। हम ईशरदासजी के संवेदनशील मन व स्वाभिमानी भावों को इस एक उदाहरण से समझ सकते हैं।

अमरेली के स्वामी वीजा सरवहिया जो किसी बात पर चारणों से नाराज हो गया। इस नाराजगी स्वरूप उन्होंने चारणों से मिलना ही बंद कर दिया। इनका लड़का करण, ईशरदासजी का परम शिष्य था। उसने अपनी शादी में ईशरदासजी को शामिल होने का निवेदन किया। जब ईशरदासजी शादी में शामिल होने के लिए वहां पहुंचे तो पाया कि करण की सर्प दंश से मृत्यु हो चुकी है। ईशरदासजी का चमत्कार कहें या कोई देविय संयोग कि करण ईशरदासजी के एक गीत के चमत्कारिक प्रभाव से पुनः जीवित हो उठा। इस बात का जब विजाजी को पता चला तो उन्होंने एक कनात लगाकर उसकी आड़में ईशरदासजी से मिलने व उनकी कृतज्ञता ज्ञापन करने का मानस बनाया, मगर जैसे ही उन्होंने ऐसा करना चाहा तो एक स्वाभिमानी कवि ने इस अपमानित करने वाले प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया कि “अगर हमारे स्नेह युक्त नयन परस्पर नहीं मिलते हैं तो इन हेत विहीन हाथों को आगे करना मै निरर्थक मानता हूं और ऐसा अपमानजनक व्यवहार मुझे स्वीकार्य नहीं” –

की होवै आगां कियां, हेत विहूणा हत्थ।
नैण सलूणा नह मिलै, बाल़ अलूणी बत्थ।।

जैसा कि कह चुका हूं कि जो संवेदनशील होगा वही अन्यों की संवेदनाएं समझ पाएगा और उनका सम्मान भी कर पाएगा। जब ईशरदासजी को पता चला कि विजाजी किसी भ्रमवश चारणों पर नाराज हैं तो कवि ने कहा कि “जैसे वृक्ष पर बैठने वाले पक्षी वृक्ष के पत्ते तोड़ते हैं, फल खाते हैं, वहां आश्रय लेते हैं और बदले मे उसको वींटों (मल) से भी भर देते हैं परंतु फिर भी उस वृक्ष के हृदय की विशालता देखिए कि उनको कभी भी नहीं ताड़ता”-

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ईशरदासजी के शब्दों में समाहित सुभग संदेश को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में समझने व उसके वांछित प्रचार-प्रसार की महती आवश्यकता है। ईशरदासजी के महान ग्रंथ ‘हरिरस‘, ‘देवीयाण‘, सहित सभी कृतियों की अपनी-अपनी महत्ता है। इन ग्रंथों के माध्यम से हमें ईशरदासजी के सामाजिक व सांस्कृतिक चिंतन को समझने व जीवन में उतारने की जरूरत है।

~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी

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