माताजी का छंद भुजंगी – कवि दुला भाया “काग”

।।दोहा।।
शांतिकरण जगभरण तुं, घडण घणा भवघाट।
नमो आध नारायणी, विश्र्वरूप वैराट।।
।।छंद – भुजंगी।।
नमो ब्रह्मशक्ति महाविश्र्वमाया,
नमो धारनी कोटि ब्रह्मांड काया।
नमो वेद वेदांत मे शेष बरनी,
नमो राज का रंक पे छत्र धरनी।।1
नमो पौनरूपी महा प्राणदाता,
नमो जगतभक्षी प्रले जीव घाता।
नमो दामनी तार तोरा रूपाळा,
नमो गाजती कालिका मेघमाळा।।2
रमे रास तुं व्योम बाळा हुलासी,
पूरे साथिया के’क रंगे प्रकाशी।
लहे ताल ब्रह्मांड ऐकी अवाजे,
तुंहारां अनोठांह वाजिंत्र वाजे।।3
निशा शामळी कामळी ओढ काळी,
तुंही काळरात्री ननामी कराळी।
तुंही तारले ज्योत झीणी जबूके,
फरे आभ का पंथ फेरा न चूके।।4
प्रभा भानुमें मात तोरी प्रकाशे,
लखी उग्रता ओघ अंधार नाशे।
तुंही चंद्रिका रूप व्योमे हसंती,
धरी ओढणी श्र्वेत आभें लसंती।।5
दिशा-काल के भेद तोरा न दिसे,
नमो सेव्यनी ब्रह्म रुद्रं हरिसे।
तुंही आभ औकाश केता निपावे,
मथे मानवी थाह तोरा न पावे।।6
तुंही सायरां नीर गंभीर गाजे,
भीडे आंकडा वांकडा नाट साजे।
धके हालता लोढ लेता हिलोळा,
करंती जळां बोण अंगे किलोळा।।७
तुही वादळां पा’ड माथे पछाडे,
सरिता बनी घूघवे घोर त्राडे।
अषाढे सु नीलंबरं अंग ओढी,
तुही जाणिये पाणिये सेज पोढी।।८
हिमंते अनोधा हिमाळा हलावे,
तुही पौनमां शीतल गीत गावे।
वंसंते तुही मात हेते हुलासी,
लता झाडमां फुल फुले प्रकाशी।।९
भडी दानवा साथ बुढ्ढी भुजाळी,
अखाडे अरि आमळा दीध ताळी।
पवाडे टला केतरी वार लीधा,
रणे दोखियांरें सरे रेश दीधा।।१०
तहीं वार काळी धरी हाथ कातां,
रांग्यां राखसां लोई बंबोळ रातां।
भवानी असां भारथां के’क कीधां,
पछाडी घणां दानवां रेर पीधां।।११
तुंही लोह खांडां धरी वीश हाथे,
मंडी केध वाघेश्र्वरी दैत माथे।
वडा पं’ड शा आवता राह आडा,
धकी वेढके त्रोडियां कांध जाडां।।१२
पछाड्यो जळां सोवळां दैत धाती,
धरा दीध राखी रसाताळ जाती।
कहे सेवकां पाहि तोहि सराही,
नमो विश्र्वग्राही अग्राही वराही।।१३
तुंही टेर प्रेलादरी सुण ध्रोडी,
तंमंकी बणी सिंहणी थंभ त्रोडी।
हणी दीध तें रामरो दैत द्रोही,
नमो नारसिंघी असुरां। विमोही।।१४
फतेकार नेता तिहारा फरुके,
जपे सुर माळा तुही पाव झुके।
तुही हेक चंडी महा मान खंडी,
विखंडी दळां दानवां लोक मंडी।।१५
तुही श्र्वास-उसासरी हाथ दोरी,
कळा कोण जाणे तिहारी अघोरी।
सुणी सादने अंबिका धाय वारे,
करो सेवकां जा’ज माता किनारे।।१६
तुही कारणी मारणी मोह माया,
तुही तारणी जे शेरे कीध दाया।
तुही जग्त निभावणी विश्र्वकाया,
नमो राजराजेश्र्वरी योगमाया।।१७
भरी पूर्ण ब्रह्मांडमां पूर्ण पासे,
अणु बीजमां तुं अनेरी प्रकाशे।
तुंही जोगणी भोगणी जीव जाया,
नमो सात द्वीपेश्र्वरी वज्र काया।।१८
तुंही ब्रह्मविध्या अविध्या परेषी,
तुंही तुल्या द्रष्टी तुही उग्र द्रेषी।
परा पश्यती मध्यमा वैखवानी,
न जानी गति जाय गंभीर ज्ञानी।।१९
खनु एक तुं के’क ब्रह्मांड थापे,
खनुं ऐकमें के’क लोका अथापे।।
तुही तुं तुही तुं तुही तुं ज जानी,
मति है यथा मोरी ऐती बखानी।।२०
नमो मात कागेश्र्वरी भद्रकाळी,
कळा सोळ धारी रूपाळी कृपाळी।
दया दीठ से दास अंगे निहारो,
भरोसो मुंही ऐक अंबा ! तिहारो।।२१
~~कवि दुला भाया “काग”