माताजी के कवित्त – अज्ञात कवि
जाके सुर शरन को वंदत चरन मुनी निगम नाहिं गम वाके नर नारी की।
खगपति बैलपति कमलयोनि गजपति गावै पै न पावै गति जग महतारी की।
एरे मन मोरे बोरे काहे को उदास होत धरे क्यों न आश अम्बेदास सुखकारी की।
दोय भुज वारे नर शरन बचाय लेत गही है शरन मैं तो बीसभुज वारी की।।
देवी दयासिन्धु तेरी इच्छा भक्त रक्षा की है यामे जे संदेह माने तेही तो अज्ञानी है।
भूत औ भविष्यत् वरतमान तीनों काल तेरे ही स्वरुप तत्व ऐसे उर आनी है।
जोगनी नगर पर उपद्रव लख्यो तातें कैद मिस संत देश लायबे की ठानी है।
एरे मन बौरे तू संकल्प व विकल्प तज लाज तेरे काज की तो अम्बे राजरानी है।।
दैत्य रक्त सोखनी औ पोखनी सकल विश्व मेरे अघ पुंज तेरे बिन कौन जारिहैं।
गो मैं अपराधी प्रेम लच्छना न भक्ति साधी लोचन कृपा की कोर मोहि को निहारिहैं।
तुही भक्त वच्छल तूही दीनन की रक्षक है एहि मोहि आसरो विरद चित्त धारिहैं।
अहा जगदम्ब तू है कृपा की कदम्ब तातें जानत हूँ मोहि भवसागर तें तारिहैं।।
~~श्री भूदेव जी आढ़ा द्वारा प्रेषित