मातृ रूपेण संस्थिता

स्त्री की संपूर्णता व साफल्यमंडित जीवन का सारांश है मातृरूप का होना। जरूरी नहीं है कि मा जन्मदात्री ही होती है, मा वो भी होती है जो अपने ममत्व की सरस सलिला से दग्ध हृदय का सिंचन करती है तथा अपने स्नेह के आंचल में व्यथित व व्याकुल हृदयों को निर्भय होकर विश्रांति की शीतल छाया उपलब्ध करवाती है।
जब हम मध्यकालीन चारण काव्य का अध्ययन करते हैं तो निसंदेह हमारे सामने मानवीय मूल्यों के रक्षण तथा जीवमात्र के प्रति असीम दया के उदात्त उदाहरण मिलते हैं।
इसमें इसमें कोई दोय राय या अतिशयोक्ति नहीं है कि चारण समाज में अनेक देवियों ने अवतार धारण किया है तथा दीन-हीन की रक्षार्थ आतताइयों को दंडित कर सन्मार्ग पर लाने को सदैव अग्रगामी रही है। इसीलिए तो महाराजा मानसिंहजी जोधपुर ने लिखा है-
देवियां व्है जाके द्वार दुहिता कलत्र है।
इन देवियों की न केवल चारण समाज में अपित सर्व समाज में व्यापक लोक मान्यता थी और है। राजस्थान, गुजरात, सिंध, मालवा आदि अंचलों में इन देवियों के अनेकानेक जनहितकारी कार्यों की एक लंंबी श्रृंखला है जो न केवल हमें अचंभित करती अपितु श्रद्धा से भी सराबोर करती है।
ऐसी ही एक दया, समर्पण, स्नेह व ममत्व की चतुष्टय दृष्टिगोचर होती है बाईस बाइयां की कथा।
तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की बात है। गुजरात की सौराष्ट्र धरा जो संतों, शूरवीरों, स्वाभिमानियों तथा शक्तियों की जन्म तथा कर्मभूमि रही है। किसी कवि ने कहा भी है-
झालर बाजै झूलणो, देवपुरी रो मट्ठ।
बैठक राव खंगार री, अइयो धर सौरट्ठ।।
इसी सौरट्ठ की धींगी धरा में बावळा शाखा के चारणों के गांव बावळ-नेस की चारण दंपति बोधाभाई व मीणलबेन के घर चार लड़कियो का जन्म हुआ- बायाबैन, देवलबैन, जीवणीबैन, व जालुबैन
बाया देवल जीवणी, जालू धी घर बोध।
बैन च्यारां चक च्यार में, पातां दियो प्रमोद।।
डिंगळ कवि ईसरदानजी लिखते हैं–
बावड़े धरियो जनम बायल,
चारणां घर संचरी।
तव बाप जोधो मात मीणल,
अघहरण तूं अवतरी।
माहेश्वरी महमाय मैया,
आई अंबा आवड़ी।
बावीस रमवा वेश बाळै,
बेन हेकण बेनड़ी।।
रूपवान, शीलवान व बुद्धिमान तो थी ही साथ ही दिव्यगुणों से परिपूर्ण थी।
बोधाभाई को अपनी बड़ी बेटी बायाबैन के रिश्ते की चिंता हुई इसलिए वे चारणों के यहां आने जाने लगे।
किंवदंती है कि एक दिन ऐसा दुर्योग बना कि बोधाभाई अपने गांव से बाहर गए हुए थे। बायाबैन घर पर एकेली थी बाकी बहिनें पडोस में खेलने गई हुई थी। ऐसे में बायाबैन अपने नेस का फळसा ढककर बाखळ में नहाने बैठ गई। उसी समय बोधाभाई भी गांवतरै से आए और सीधा फळसा खोला और बाखळ में आ गए। जैसे ही उनकी दृष्टि नहाती हुई अपनी बेटी पर पड़ी तो वे अपराधबोध से मुड़कर खड़े हो गए। बायाबैन को भी नहाते हुए ऐसा विदित हुआ कि कोई पुरुष बाखळ में घुसा है। उन्हें क्रोध आ गया कि मैं नहा रही हूं, पिता घर पर नहीं है ऐसे में मेरे घर में घुसने की यह धृष्टता किसने की है? उनके मुख से अनायास निकला कि-
“अरे भण्यु रोझ कांई छो?आ भण्यु चारण ना झूंप छे, नसे जाणतो भणु रोझ!”
जैसे बायाबैन के यह वचन निकले और इधर एक चीख के साथ बोधाभाई रोझ में परिवर्तित हो गए। डिंगळ कवि चारण ईसरदानजी लिखते हैं–
नावण करंती तू नकी त्यां,
बाप आगळ बढ्ढियो।
अण जाणतां जांण्यां विनां,
कही रोझ वेणां कढ्ढियो।
अकळीत काया पलट अदभुत,
तात नील भो तिण घड़ी।
बावीस रमवा वेश बाळै,
बेन हेकण बेनड़ी।।
मुंह से निकले वचन और छुटा हुआ बाण वापिस मुड़ नहीं सकते। बायाबैन को घोर पश्चाताप हुआ लेकिन अब कुछ भी हो नहीं सकता था।
बायाबैन ने अपने कौटुम्बिक सदस्यों के समक्ष घोषणा की कि- “मैं आजीवन कौमार्य व्रत का पालन करूंगी तथा मेरे वचनों के कारण पिता को नीलगाय बनना पड़ा है! अतः मैं इनका मातृवत ध्यान रखूंगी।”
बड़ी बहिन की ऐसी कठोर प्रण की घोषणा सुन शेष तीनों बहिनों ने भी यही व्रत धारण किया। सभी हितैषियों ने सभी बहिनों को खूब समझाया, लेकिन प्राण जाए प्रण नहीं जाए की अटल आखड़ी की पालनार्थ बहिनों ने मना कर दिया।
जो जिस शरीर में होता है वो उसी के अनुरूप जीवनयापन कर प्रसन्नता महसूस करता है। रोझ भी अपनी खाल में मस्त था। जंगल में विचरण करना और कोंपलें तथा फल इत्यादि चरके आराम से आकर अपने यथेष्ठ स्थान पर विश्राम करना उसकी दिनचर्या बन गई।
संयोग से एकदिन रोझ प्रभास-पाटण के राजा मुधराज वाजा की फुलबाड़ी में चला गया। फिर तो उसका नित्यकर्म बन गया। मुधराज को जब उसके माली ने आकर बताया कि इस तरह एक रोझ अपनी बाड़ी में आकर छकके चरता है और फिर मलफता हुआ चला जाता है। हमारे वश की बात नहीं है।
राजा ने पागियों से पता कराया तो विदित हुआ कि रोझ बावल़ानेश के चारणों का पालतु है। राजा ने चारणों को धमकाया तो साथ ही रोझ को मारने की धमकी दी ऐसे में चारण अपनी मवेशी लेकर वहां से निकल गए मीती गांव में जाकर रुके।
यहां भी राजा ने चारणों को धमकाया तो वे वहां से वरड़ाडूंगर के पास रोझड़ा गांव में रहने लगे।
रोझ यहां से भी वाजा की फुलवारी में नुकसान करने लगा। एकदिन राजा ने उसके पीछे अपना घोड़ा दबाया। तीर चलाए। जिससे रोझ घायलावस्था में हांफता हुआ रोझड़ा अपने घर आ गया। बायाबैन ने यहां से भी उछाल़ा किया और जाम जोधपुर के पूर्व दिशा में वेणु-फुलझार नदी के संगम के किनारे बसे कोटड़ा गांव में अपना नेश स्थापित किया। लेकिन दुर्योग ने चारणों का यहां भी पीछा नहीं छोड़ा। रोझ यहां से भी मलफता हुआ वाजा की बाड़ी में चरकर आने लगा।
राजा के माली ने पता करवाया कि चारण रोझड़ा से कहां गए हैं? पागियों व खबरचियों ने आकर बताया कि कोटड़ा में चारणों का नेश है और वहीं से यह रोझ हमारी बाड़ी में हानि करने आता है।
एक दिन नवरात्रि की अष्टमी थी। सभी चारण जमा-लाखणसी के टीबे पर जोगमाया की जोत व यज्ञ कर रहे थे। इधर रोझ वाजा की बाड़ी में चरने निकला। खबरचियों ने राजा को आकर बताया तो क्रोध में तमतमाते हुए राजा ने अपना अश्व रोझ के पीछे दबाया। आगे रोझ और पीछे राजा मरूं या मारूं की स्थिति में आ रहा था।
इधर जोत में घृत सींचते हुए चारण छंद पढ़ रहे थे कि-
जोगणी जोत रै रूप जागै।
उधर घोड़ों की पोड़ों व रोझ के दौड़ने की आवाज सुनी तो मारे आशंका के बायाबैन उठी। उन्होंने देखा कि आगे रोझ और पीछे राजा एक दूसरे को मात देने की होड़ में दौड़ रहे हैं।
जैसे ही राजा ने अपना भाला फेंकने के लिए लक्ष्य बनाया और बायाबैन ने आर्त आवाज दी कि-
“नहीं! नहीं ! वीरा यह जंगल का जीव है। अबोल है, असहाय है। अवध्य है। आप राजपूत हैं ! सिंहों की शिकार खेलिए। यह हमारा पालतु व प्रिय है। इसे मत मारिए।”
लेकिन मदांध राजा ने एक नहीं सुनी और भाला फेंका। भाला रोझ की आंतड़ियां चीरता हुआ आरपार हो गया। रोझ गगनभेदी चीत्कार के साथ होम करते हुए चारणों के बीच गिरकर मर गया।
यह करुण दृश्य देखकर बायाबैन की क्रोधाग्नि जाग उठी। उन्होंने राजा को श्राप दिया कि-
“जा, तूं जहां है, उसी स्थिति में पत्थर बन जा। तेरा वंश नष्ट हो जाए।”
लोकमान्यता है कि राजा उसी समय पत्थर बन गया। इस संबंध में ईसरदानजी लिखते हैं–
श्रापित वाजा कियो राजा,
पत्थर थाजा पापिया।
लोभी भंडार्यो अरी मार्यो,
असा परचा आपिया।
नव नोरतां री अठम सारी
हवन वारी शुभ घड़ी।
बावीस रमवा वेश बाळै,
बेन हेकण बेनड़ी।।
इतना कहकर बायाबैन ने समाधिस्थ होकर योग बल से ज्वाला उत्पन्न की तथा उस मृत रोझ की देह को अपनी गोद में उठाकर उस ज्वाला में बैठ गई।
बायाबैन को इस तरीके से ज्वाला के साथ नहाते देखकर उनकी बहिनों के साथ अन्य 18 चारण कन्याओं ने भी अग्निस्नान किया। यानी उस रोझ को नहीं बचा पाने के कारण मुधराज वाजा के खिलाफ 22 चारण कन्याओं ने जमर कर पशुप्रेम की अद्भुत मिशाल कायम कर अपने मातृत्व धर्म का सफल निर्वहन कर संसार में ‘बाईस-बाइयां’ के नाम से विश्रूत हुई।
यही कारण है कि सतरहवीं सदी के नामचीन कवि मेहाजी वीठू अपनी रचना ‘करनीजी रा छंद’ में इस घटना का स्पष्ट उल्लेख करते हुए लिखते हैं–
सति जीह राखे नीर सरवरि,
राख पैठि मनरळी।
रोळियो राजस मूध राजी,
रोज साथै प्रजळी।
काळग धोमं अगनि काया,
कीध होम करग्ग ऐ।
चारणी वडियां पाट चारण,
जस करनी जग ऐ।।
यही बात इनके समकालीन कवि रामचंद्रजी बाबरिया अपनी रचना ‘करनीजी रो त्राटको’ में लिखते है-
करनादे पाट थपै किनियांणी,
चौराड़ी चौईस।
जीझळ रोझ तणै झळाहळ,
बळी संग बाईस।।
करुणा, वचनपालन, तथा मूकप्राणी के प्रति अपना जीवन जीने तथा समाप्त करने वाली इन बाईस ही मनस्विनियों के चरणों में कोटि-कोटि वंदन—
साच, धरम करुणा सधर, वचन वसु विखियात।
बाईसूं वरदायनी, मही हुई धिन मात।।
~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी
संदर्भ-
1-कोटड़ा बावीसी महात्म्य- सं. किसनदान भूराभाई लांगा
2-आईयु ने आरदा- सं. चारण प्रवीणभा हरसुरभा मधुड़ा
3-मेहा वीठू काव्य संचै- स़. गिरधरदान रतनू दासोड़ी
4-निजी संग्रह