मैं हड़वेची बैठी हूं ना!
‘भुई बिन भला न नीपजै, कण तिण तुरी नरिंद’ कहने वाले ने कितना सारभूत दोहा कहा है कि अगर धरती उर्वरा है तो ही वहां अनाज, घास अश्व तथा नृपति श्रेष्ठ होंगे अन्यथा नहीं। इस संबंध में हम राजस्थान के इतिहास को खंगालने अथवा समझने की कोशिश करते हैं तो हमें ऐसे उदाहरण एक-दो नहीं बल्कि असंख्य मिलते हैं जिन्हें सुनकर हमें गौरवानुभूति होती है।
ऐसा ही एक गांव है ‘हड़वेचा’ (बाड़मेर)। यह गांव कूंपा मल्लीनाथोत ने बारठ आलनसी को इनायत किया था। इस संदर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है-
जुग जासी रैसी जरू, धर मालावत धांम।
कुंपे दियो कोड सों, गढपत हड़वेचा गांम।।
रोहड़िया चारणों की जो बारह शाखाएं हैं उनमेंसे एक हड़वेचा भी है, जिनका नामकरण इसी गांव के कारण हुआ। इस गांव की यह विशेषता थी कि यहां आई और जाई यानी बहुओं और बेटियों ने करीबन सोल़ह जमर किए। उन्होंने गांव के अन्याय के विरुद्ध आत्मबलिदान करने की परंपरा को समुज्ज्वल किया। इस संबंध में एक कवि लिखता है कि यह तो सत्य का परमधाम है-
धिन हड़वेचां धांम, सत रो सांसण सगतिया।
नवखंड चावो नाम, सोल़ैह जमर साजिया।।
बारठ आलनसी की वंश परंपरा में सुदरोजी हुए। जिनकी शादी माडवा गांव के थेहड़ चारणों में हुई। इनकी पत्नी का नाम पदमां था। जिनकी कुक्षी से पुत्री जोमां का जन्म हुआ।
बड़ी होने पर सुदरोजी ने अपनी बेटी जोमां की शादी धाट धरा के गांव राणाई के देथा अमरोजी के साथ की।
राणाई दल्लोजी देथा को केल्लण नंदोजी ने इनायत किया था। देथा भी अपने औदार्य के कारण पश्चिमी राजस्थान में प्रसिद्ध रहें हैं। इस संबंध में प्रसिद्ध रहा है-
नेता रहसी नांम, देथा दातारां तणा,
बद कायर बदनांम, मूंजिड़ा जासी मरै।।
या
‘दूथियां हजारी बाज देथा। ‘
दलोजी देथा सपूत चारण हुए थे। इनके अखजी नामक पुत्र हुए तथा अखजी के गरवोजी व मानोजी दो बेटे हुए।
मानोजी ने एक कागिये (मेघवालों की एक शाखा) को कुछ रुपये उधार दिए थे। काल का समय था, गरीब आदमी समयानुसार रुपये चुका नहीं सका। मानोजी उसके घर गए और लांठाई से उसकी सांयढ यह कहकर खोल लाए कि-
“जब तेरे पास पैसे हों तब आना और पैसे देकर सांयढ वापिस ले जाना।”
कागिया गरीब था वो कुछ नहीं कर सका। हार्ये को हरि नाम। कुछ देर तो रोया, कल़पा फिर गरवोजी के पास गया तथा आमना करते हुए कहा कि-
” ऐसे समय में आप मेरी मदद नहीं करेंगे तो कौन करेगा?”
यह सुनते ही गरवोजी को दया आ गई। वे मानोजी के पास गए और उलाहना देते हुए कहा-
“अरे! दयाहीण इस रिणी-रुत (अकाल का समय) में यह पैसे कहां से लाएगा? यह कोई हारमोर (गायब) थोड़े ही हो रहा है! यह तो अपना कारू (कार्य करने वाला) है। अतः इसका टंटेर वापिस दे दें।”
यह सुनकर मानोजी ने कहा कि-
“ज्यादा दया दर्शाने की आवश्यकता नहीं है। इतनी ही दया आ रही है तो घर से छीझिए। मेरे पैसे दीजिए और सांयढ ले जाइए वरन यह घड़ियाली आंसू यहां मत बहाइए।”
गरवोजी ने अपने पास से पैसे निकालकर मानोजी को दे दिए तथा सांयढ कागिये को खींचा दी। परंतु इस बात को लेकर दोनों भाइयों में विवाद इतना बढ़ा कि एक-दूसरे से बोलना और एक-दूजै के घर आना-जाना ही छोड़ दिया।
गरवोजी का मन इतना खिन्न हो गया कि उन्होंने राणाई गांव छोड़ने का मानस बना लिया। चौमासे का समय था। गरवोजी जंगल में अपनी मवेशी चरा रहे थे। जोरदार वर्षा हो रही थी। पानी नालों के रूप में बह रहा था कि गरवोजी ने देखा कि पानी एक जगह इकट्ठा होकर चक्राकार रूप में धरती में समा रहा है। कौतूहलवश उन्होंने वहां जाकर देखा तो विदित हुआ कि वहां एक कुआं है। दरअसल वो ‘केसड़ार’ नामक कुआं था। जो केसरिया शाखा के राजपुरोहितों के खुदाया हुआ था। राजपुरोहित वहां से कहीं अन्यत्र पलायन कर गए थे। वो कुआं बिना देखरेख के बूरीज रहा था। जहां जल है वहां जीवन है। गरवोजी चट रोटी और पट दाल की मानिंद अपना घर व अपने आदमी लेकर इस ‘केसड़ार’ पर आकर बस गए। तो इधर मानोजी ने भी राणाई छोड़कर पास ही मीठड़िया नामक गांव बसा लिया।
उन दिनों सिंध पर सीधा अंग्रेजों का शासन था। अतः बसने व खेती योग्य भूमि का पट्टा सीधे अंग्रेजी सत्ता से लेना पड़ता था। अतः बाद में अंग्रेजों ने गरवोजी के बेटे जुगतोजी को यहां का पट्टा ‘जुगता-मकान’ के नाम से दे दिया।
चारण मालधारी (मवेशी पालने वाले) हुआ करते थे। जहां हरियल धरती और तिरिया-मिरिया सरोवर देखते वहीं अपना गोल़ (अस्थाई घर) अजेज स्थापित कर लेते थे। पिछली जमीन की परवाह नहीं करते थे कि इसका क्या होगा? तो कुछ इस भ्रम में भी रहते थे कि ‘धरती म्हांरी म्हे धणी।’ यानी यह धरती हमारी है ही। इसे कौन ले सकता है। चाहे जब वापिस आ सकते हैं।
जुगतोजी ने भी यही किया। उन्होंने यह जमीन छोड़कर छाछरा के पास आए वेदांणी में रहने लगे।
अंग्रेजों ने वहां भी उन्हें जुगता-मकान से एक और पट्टा दे दिया।
योग ऐसा बना कि छाछरा के एक ‘सुद्रा’ जाति के मेघवाल ने ‘केसड़ार’ के कागियों में शादी कर रखी थी। वह यहां आकर एक खेत बोने लगा तो ‘भोज’ सोढों ने उसे धमकाया कि-
“यह खेत हमारे हैं अतः इन्हें न बोएं। ”
मेघवाल ने खेत चारणों के आजै (विश्वास) पर बोया था। यह सुनते ही उसने कहा कि-
“आपका कौनसा खेत? यह जमीन तो जुगतोजी की है और मैं उनका मेघवाल। अतः मुझे खेत बोने का हक है। होते कौन हैं आप मना करने वाले?”
यह सुनते ही सोढों ने कहा कि-
“कौन जुगता और कौन तूं? यहां कोई जुगते के बाप का पट्टा नहीं है। अब यहां हमारा पट्टा है। जमीन बोई तो चमड़ी उधेड़ दूंगा। ” कहने के साथ उसे धक्के मारकर खेत से निकाल दिया।
धक्के खाकर बेचारा मेघवाल डर गया। वो सीधा जुगतेजी के पास गया और पूरी बात बताई।
यह सुनते ही चारणों ने कहा कि-
“वो जमीन तो अपनी है। वे होते कौन हैं रोकने वाले?”
चारणों ने आकर सोढों को मना किया लेकिन वे माने नहीं। थोड़े दिनों बाद छाछरै के ठाकुर सालमसिंह सोढा ने अपने प्रभाव से ‘केसड़ार’ का पट्टा धड़ैले गांव के रंध बलोच शकलखान को दिलवा दिया।
इस बात से विवाद बढ़ा और बात कचेड़ी चढ़ गई। पेशियां पड़ने लगी। चारणों की तरफ से गवाह छाछरा के सोढा सालमसिंह व हमीरसिंह थे।
हाकिम ने कहा कि अगर ये दोनों राजपूत चारणों की गवाही दे देते हैं तो मैं फैसला आपके पक्ष में कर दूंगा। चारण आश्वस्त थे कि एक तो जमी हमारी, ऊपर से राजपूत गवाह तो फैसला हमारे ही पक्ष में होना है। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मक्खन छाछ में डूब गया। लालच व अहम में आकर सालमसिंह ने जीवित मक्खी गटकते हुए कहा कि “जमीन मुसलमानों की है। चारणों के पास जमीन कहां पड़ी है। यह तो हमारे ऊपर निर्भर है। हमारी ही जमी में पड़े हैं तो दूसरी तरफ हमीरसिंह ने कहा कि जमीन चारणों की कदीमी और पट्टा सहित है। लेकिन पखां खेती पखां न्याव, पखां हुवै बूढां रा ब्याव। वाली स्थिति में सालमसिंह ने अपने प्रभाव से फैसला करीम के पक्ष में करवा दिया।
चारण भी डोढ शूर कहलाते हैं- लड़वा कूं शूर, मरवा कूं महाशूर। बात के धनी चारण अपने स्वाभिमान की रक्षार्थ मरना और मारना दोनों अंगीकृत करते थे। उन्होंने अपनी जमीन के लिए धरना दे दिया। जमर की तैयारी हुई लेकिन जमर करें कौन ?किसी को सत नहीं चढ़ा। सही भी है स्वर्ग देखने के लिए मरना पड़ता है और स्वर्ग देखने के लिए मरे कौन?
आखिर तय हुआ कि एक आदमी हड़वेचा गांव जाएं और वहां से पवित्र मिट्टी लेकर आएं। उस मिट्टी के पावन स्पर्श से ही किसी को सत चढ़ सकता है वरन नहीं। इस धरने में अमरोजी भी शामिल थे। अमरोजी मानो जी के पौत्र व रामचंदजी के बेटे थे। उल्लेख्य है कि उन दिनों अमराजी की सास अपनी बेटी जोमां से मिलने वहां आई हुई थी। किसी ने मसकरी करते हुए कहा कि-
“अमराजी की सास हड़वेचा से आई हुई हैं। उन्होंने भी तो उसी तल़ै (कुएं) का पानी पिया है तो जमर वो कर लेंगी।”
जब यह बात जोमां की मा ने सुनी तो उन्होंने कहा कि-
“मैं हड़वेचा आई हुई हूं, जाई नहीं। जमर मैं नहीं करूंगी जमर मेरी बेटी जोमां करेगी। वो भी तो तो इसी उदर में लिटी है। ”
जब यह बात जोमां ने सुनी तो उन्होंने कहा कि-
“मिट्टी लेने के लिए हड़वेचा जाने की क्या आवश्यकता है? मैं खुद साक्षात हड़वेची यहां बैठी हूं तो फिर वहां जाने की क्या आवश्यकता है? वैसे भी हड़वेची मैं हूं मेरी मा नहीं! अतः जमर मेरी मा क्यों करेगी ? जमर तो मैं करूंगी। मेघवाल बारठों का नहीं है, मेघवाल देथों का है। उसके लिए जमर करना मेरा कर्तव्य है। ”
इतना कहते ही उनकी मुखाकृति बदल गई। शीश के बाल खड़े हो गए। आंखों से अंगारे बरसने लगे। उन्होंने उसी दिन वि सं. 1900 की चैत्र बदी द्वितीया के दिन मेघवाल के खेत व जातीय स्वाभिमान की रक्षार्थ जमर कर अमरता प्राप्त की।
जोमां माऊ ने हुताशन में स्नान करते हुए कहा था कि-
“सालम रा भीलै भिल़सै, छाछरो हमीर रै वल़सै।” यानी सालमसिंह की संतति भीलों में समाहित हो जाएगी और छाछरा पर हमीरसिंह की संतति का शासन होगा। इतिहास गवाह है कि सालमसिंह की संतति पथभ्रष्ट हुई और हमीरसिंह की सतति का वहां आभामंडल बढ़ा तथा उस शकलखान का घर तहस-नहस हो गया।
जिस सुद्रा जाति के मेघवाल की बात के लिए माऊ ने जमर किया था उसकी संतति आज भी मा जोमां के प्रति आगाध आस्था रखती हैं।
मीठड़िया गांव के डिंगल कवि जूंझारदानजी देथा ‘जोमां-जस’ में लिखते हैं–
अँबका धर आइय व्योम वजाइय,
थाइय बाइय वीर थळे।
समल़ी दरसाइय सौ सुरराइय,
सुद्दरा-जाईय पेब सले,
अरियां घर आइय बैचर बाइय,
मार सराइय झूळ मिळी।
जग जम्मर बैश साहू जिम जोमांय,
वेल वरन्न रै आप बऴी।।
काळका चड़ केहर रथ पे रोहड़,
छावियो डमर मद्द छके।
बण वेग वीसोतर थाइय वाहर,
तम्मर वम्मर झाळ तिके।
अखियात़ांय अम्मर कीध काल़ोधर,
दाबिय ऊसर संध दल़ी।
जग जम्मर बैश साहू जिम जोमांय,
वेल वरन्न रै आप बल़ी।।
इसी श्रृंखला में रूपदानजी बारठ का जोमां रा छंद भी प्रसिद्ध रचना है।
।।जोमां जस पच्चीसी।।
जोमां जनमी जोगणी, हड़वेचां धर हेत।
थिर कर चारण थापिया, खल़ दल़िया जुड़ खेत।।1
इल़ हड़वेचां आद सूं, गढव्यां तणो गुमेज।
आगै साहू ऊपनी, सतधर रखण सतेज।।2
सुदराई जोमां सगत, व्रन री कीधी वार।
झूल़ नवैलख जमर पथ, कर कीरत रो कार।।3
धिन धरती उण धाट में, रह जोमां रढियाल़।
जुड़ी नवैलख झूल़रां, आई जात उजाल़।।4
धिन अमरो कव धाट धर, बापनहर विखियात।
तिण घर गूंघट तांणियो, मांण बधावण मात।।5
मीठड़ियो तैं मंडियो, हड़वो मंडियो हेर।
चारण मंडिया च्यार चक, आई भीर अदेर।।6
केसरसर कुवो प्रसिद्ध, निरमल़ जिणरो नीर।
पिये जुगादी पात जल़, गढवी तेय गँभीर।।7
मुसल़ा आया गाढ मन, भड़ ले सोढा भीर।
कुण रोकै ज्यांनै कहो, निसचै भरतां नीर।।8
पातां आय’र पालिया, निज धणियप री नेस।
मुसल़ां सोढा पाण मन, लेखै लिया न लेस।।9
धरणो रचियो जिण धरण, मरण तेवड़्यो मांन।
जावण दां किम कूप जग, थिर भुज थपियो थांन।।10
बात विचारी वीदगां, जमर करै कुण जोय।
हड़वेचां धर हालसां, सुध रज लासां सोय।।11
जोमां सँभल़ी जोगणी, सकव्यां बात सताब।
डग भर आई डोकरी, ईहग कुल़ री आब।।12
जमर सजी झट जोगणी, चट मद अरियां चूर।
कुल़वट राखी कीरती, साखी जिणरो सूर।।13
राखी घरवट रीत धर, सतवट रख़्यो सधीर।
कुल़वट वाल़ी कीरती, निमल़ चढायो नीर। 14
धाट धरा धिन धाक सूं, उजवाल़ी अखियात।
जोमां धिन-धिन जोगणी, मुख लख कहियो मात।।15
अंजस जाती आपियो, सधर सदामत साख।
धिनो धिरांणी धाट री, नमो रल़ी नवलाख।।16
अमरो धव कीधो अमर, समर त्रिलोकी सांम।
जमर चढी पथ साच जग, नवखंड खाट्यो नांम।।17
सत पथ पर बहियो सधर, हितवा साथ हमीर।
छती दीनी धर छाछरो, भली करी बण भीर।।18
रूठ केवी घर रोल़ियो, जोमां जांमण जोय।
खरो सुजस धिन खाटियो, हितवां भीरू होय।।19
दीनी सोढै कुटल़ दिल, खोटी गवाह खरूंड।
खल़ सालम घर खाल़ियो, भू पर लीनी भूंड।।20
कज निज कारू कारणै, अंबा जमर अँगेज।
बैठी तूं तो वडमपण, जोमां झाल़ अजेज।।21
इल़ हड़वो ऊजल़ कियो, जग की ऊजल़ जात।
मुसल़ै रो घर मेटियो, मह जिण रूठी मात।।22
सँवत उनीसो साख सत, वाह चैत री बीज।
जमहर जोमां जोगणी, धर मन करियो धीज।।23
जोमां चारण जात रो, ऊंच कियो उतमंग।
धणियांणी निज धरण री, रोहड़यांणी रंग।।24
एह दूहा तव आखिया, मूढ कवि मत सार।
गढवी गिरधरदान री, बिखमी में कर वार।।25
~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी
कथासूत्र-रूपदानजी बारठ शेरूवाला