मैं ही तो मोरवड़ा गांव हूं

मैं ही तो मोरवड़ा गांव हूं। हां भावों के अतिरेक में हूं तभी तो यह मैं भूल ही गया कि आप मुझे नहीं जानतें। क्योंकि मेरा इतिहास में कहीं नाम अंकित नहीं है। होता भी कैसे ?यह किन्हीं नामधारियों का गांव नहीं रहा है। मैं तो जनसाधारण का गांव रहा हूं जिनका इतिहास होते हुए भी इतिहास नहीं होता। इतिहास सदैव बड़ों का लिखा व लिखाया जाता है। छोटों का कैसा इतिहास?वे तो अपने खमीर के कारण जमीर को जीवित रखने के यत्नों में खटते हुए चलें जाते हैं।

मैंने सप्त सदियों को बीतते हुए अपनी आंखों से देखा है। आप तो सुधिजन हैं! जानतें ही है, आपको क्या बताऊं ?फिर भी आपकी स्मृति को तरोताजा करदूं कि मुझे 14वीं सदी में खारी (बाड़मेर) के चारण चांपाजी महिया ने आबाद किया था। बड़नामा के ठाकुर तेजसी ने चांपाजी महिया को सांसण जागीर के रूप इनायत किया था-

सँमत तेरे सौ चौसठै, तेरस रवि उछाव।
तिण दिन समप्यो तेजसी, चापै नै सिरपाव।।

वैसे तो आप जानते हैं कि सांसण क्या होता है? फिर भी निवेदन करदूं कि सांसण गांव वो गांव होता है जिससे राजा/ठाकुर, प्राप्त करने वाले को स्वशासन के रूप में देते थे। जो हर प्रकार की लगावाग से सदैव के लिए मुक्त रहता था। यह कदीमी परंपरा थी जो उस गांव के तांबापत्र पर अंकित की जाती थी।

इस सांसण में चापाजी ने सर्वप्रथम मेरी गोदी में अपने आवास की छड़ी रोपी थी। तब वटवृक्षों पर मयूरों ने मारे उमंग के टहुके भरे थे तो उन्होंने सुगन विचारकर मेरा नाम मोरवड़ा रख दिया।

महिया, चारणों की वाचा शाखा के अंतर्गत आते हैं। इनके पूर्व पुरुष बहपूरजी के सांदू, महियो, वाचा, आढा व लालो नामक पांच पुत्र हुए। आगे चलकर इन्हीं पांचों के नाम से चारणों की क्रमशः वाचा, महिया, सांदू, आढा व लाला शाखाएं चली।

आपको बतादूं कि यहां चापाजी की संतति अपनी कर्मठता से फली-फूली। गौधन पालन व अश्वों के शौकिन महियों ने अपना पोरिया करके जीविकोपार्जन किया।

यहां के महिया भैरजी दातार तो अणदाजी चारणाचार से अभिमंडित चारण थे। अन्याय व अत्याचार के खिलाफ होने वाले धरणा (सत्याग्रह) के वे सबल संरक्षक थे। इनकी इन्हीं विशेषता को पादर ठाकुर जगतसिंहजी ने अपने दोहों में पिरोया था कि “हे महिया! तूं तो मणिधर सर्प की मानिंद है। इसलिए तो अत्याचारी तेरे से शंकते हुए कहते हैं कि धरणा का स़रक्षक अणदा महिया आ गया दिखता है-

महिया मिणधारीह, तूं पाखर धरणा तणी।
संकै धर सारीह, आयो दीसै अणँदियो।।

ऐसे सुभटधारियों के सान्निध्य में षट सदियां कब व्यतीत हो गई ! मुझे अहसास ही नहीं हुआ। क्योंकि मैंने सुना तो सदैव था कि समय बड़ा क्रूर होता है। जब वो पलटी खाता है धोरों की जगह डेरियां और डेरियों की जगह धोरे कब स्थापित करदें ? पता ही नहीं चलता। पता तब चलता है जब वो दंश देता है।

और वो दंश एकदिन इस फुरकण समय ने मुझे दे ही दिया। एकदिन सुबह का समय था। सूर्य अपने सदन से दांतुन करके निकला ही था कि मेरे वक्ष पर कुछ अश्वों ने दुर्भावनापूर्ण अपने सुम गडाए। मुझे असह्य वेदना हुई। मेरी वेदना को मेरी गोद में रमने-कूदने वाले मेरे दुलारों ने महसूस की और वे अपने घरों से निकले। निकले तो देखा कि सिरोही के तत्कालीन महाराव केशरीसिंहजी के कुछ घुड़सवार थे। जो चारणों से कर उगाही हेतु आए थे। केशरीसिंह को विदित था कि सांसण लागवाग से मुक्त हैं फिर भी उन्होंने यह मर्यादाविहीन कृत्य किया। वैसे इस घराने में पूर्व में भी वचन से पलटी खाने की घटनाएं घटित हो चुकी थी। बात की बात में आपको एक बात बतादूं जो मुझे एकबार हथाई में डॉ. शक्तिदानजी कविया ने बताई थी। इन्हीं केशरीसिंह के पूर्वज वैरीसालजी को जोधपुर के प्रतापी शासक मानसिंहजी ने पकड़कर गिरदीकोट में कैद कर लिया था। तब सिरोही के चारणों ने मानसिंहजी से अनुनय-विनय किया कि हमारे महाराव को छोड़ें। तब महाराजा ने उन पर सत्तर हजार का दंड ठहराया और कहा कि-
“अगर सिरोही पहुंचने पर महाराव नहीं भरे और नट जाए तो वो रुपये चारणों को घराघरू भरने पड़ेंगे।”

जब वहां के ऊंड, झांखर, पेसुआ, वड़दरा व खांण के चारणों ने यह लिखत करके दी कि- “अगर महाराव ये रुपये नहीं भरेंगे तो हम भरेंगे।” इस शर्त पर महाराव को छोड़ दिया। वहां पहुंचते ही महाराव अपनी बात से मुकर गए और कहा कि-
“यह बात तय है कि इन रुपयों के कारण महाराजा आप चारणों को मारने से रहा। लेकिन बात के धनी चारण अपने स्तर पर रुपयों की तजबीज करने लगे तब उदार मानसिंहजी ने उन्हें बुलवाया और फारगती करते हुए कहा कि- “महाराव से रुपये लेने मुझे आते हैं। मैं चारणों से संताकर रुपये नहीं भरा सकता।”

हालांकि एक-दो घटनाएं मुझे पूर्व में भी कवियों ने सुनाई थी। लेकिन आपको लगेगा कि मैं वाचाल होकर मूल बात से भटक रहा हूं। अतः मूल बात पर ही आ रहा हूं।

जब घुड़सवारों को इस तरह खमखमिये हुए देखा तो गांव वालों ने अश्वरोही होकर गांव में घुसने व सांसण की मर्यादा भंग करने का कारण पूछा। तब घुड़सवारों ने दंभ के साथ कहा कि-
“हम तो कर उगाही के लिए आएं हैं।”

गांव वालों ने कहा कि- “यह तो सांसण गांव है। जो हर प्रकार के कर से मुक्त है। यहां कोई कर नहीं है।”

घुड़सवारों ने पहले तो दंभ में और फिर धूर्तता से कहा कि- “कोई बात नहीं, सांसण है तो आप ऐसा कीजिए अपने खेत से एक गेहूं की पूल़ी दे दीजिए। हम कर के के रूप में भरपाई कर देंगे।”

यह सुनते ही उस चारणों ने जो कहा उसके लिए मैं उन्हें दोष नहीं देता। क्योंकि यह दोष उनका नहीं था अपितु मेरा था। यह मेरी रेत का रजमा और पानी की ताछ थी कि वे उन घुड़सवारों की बात मानने के बनिस्बत कह उठे कि-
“कर के नाम पर तो हमारे पास केवल यह सिर हैं जो देने के लिए तूठे पड़ रहें है।”

बात बढ़ गई और महियों ने अपने मरट को कायम रखते हुए सिपाहियों को धक्के देकर गांव से खदेड़ दिया। मैं महियों की हूंस देखकर सिहर उठा। क्योंकि मुझे पता था कि राज यह बात सहन नहीं करेगा। राजा ऐसे दुस्साहसिक लोगों का दमन दूसरे डरपोक लोगों में दहसत भरने के लिए करते आएं हैं और यहां भी शीघ्र आएगा। मुझे पूरी रात झपकी नहीं आई। आती भी कैसे ? मेरी छाती बैठी जा रही थी। आज मेरे आंगन में पूरी रात मोर कुरला रहें थे। कुत्ते रह रहकर डाड रहे थे। मुझे कुत्तों के डाडने का जितना भय नहीं था उससे कहीं ज्यादा मुझे मोरियों का कुरल़ाना दहला रहा था। मैं आसन्न संटक से व्याकुल था, फिर भी मेरे कान घोड़ों की टापें सुनने हेतु व्यग्र थे। ऐसे में पीला बादल हुआ ही था कि निगोड़ी मेरी आंख लग गई। आंख भेल़ी हुई ही थी कि राजा के डेढ़ सौ लोगों ने मुझे चारों तरफ से घेर लिया। मेरा डर सही साबित हुआ। लेकिन मेरे पानी की तासीर ही ऐसी थी कि महिया एक भी डरा नहीं। मैंने उस दिन जाना कि सच्चा बलवान कौन होता है? सच्चा बलवान वो होता है जो
‘सबलो अनपच्युत’
सच्चा बलवान वो है जो कभी किसी से डरकर भागता नही है।

मुझे राजस्थान के चारण कवियों पर रीस आती है क्योंकि इनकी वाणी का पानी ही ऐसा है कि जिसने पयपान किया वो मान के कारण जीवित रहा और मान की रक्षार्थ ही मर मिटा-

सांई तोसूं वीणती, ऐ दुइ भेल़ी रक्ख।
जीव रखे तो लाज रख, लज्ज बिन जीव न रक्ख।।

जिन्होंने जगती को यह सुभग संदेश दिया वो भला अपनी लज्जा के टक्के कैसे होने देते?
ये ठालेभूले तो इस शाश्वत सत्य को आत्मशात कर चुके थे कि इस संसार में मरना सभी को है। रहना केवल यश है। अगर यश ही रहेगा तो फिर अपयश के साझीदार क्यों बने-

सूरां दाता पंडितां, तीनां एक सभाय।
जनमै सो मरसी खरा, अमर नाम रह जाय।।

राजा के आदमी महियों के किसान जो कलबी जाति के थे, को बंदी बनाकर दंडित करने का निर्णय लेकर आए थे। जब महियों को यह विदित हुआ तो वे बिफर पड़े। उन बचकेक महियों ने मरण-मतै होकर अपनी डांगें निकाली और दहाड़ की कि ये कलबी हमारे किसान हैं। इनके हाथ लगाने का मतलब है बाघण के गले में बाल़ला डालना–

अधपतियां री गोरड़ी, बणजारै री आथ।
बाघण रै गल़ बाललो, मरै सूं घालै हाथ।।

जबतक हमारी नकतूण्यां में वायरा फरूक रहा है तबतक इनकी तरफ हम किसी को देखने भी नहीं देंगे। मैं उन कालों का डकरेलपणा देखकर भावविह्वल हो गया। शायद आप यहां काला शब्द सुनकर थोड़े आश्चर्य में पड़ गए होंगे कि ऐसे वीरों को मैं काला यानी पागल कैसे कह रहा हूं? मुझे लगता है कि आप कैलाशदानजी उज्ज्वल का यह दोहा शायद पढ़ लेते तो अचरज में नहीं पड़ते-

संबोधन काला सुणे, मती बुरा मन मान।
प्रिय छोरू नै मात-पित, बोलै इण इज बांण।।

मैं समझ गया कि ऐसे काले लोग ही इस मरणहार संसार में अपना नाम काम के बूते अक्षुण्ण रखके स्वर्ग पथ के राही बनतें हैं। समझदारों से नाम अक्षित नहीं रह सकता-

नर सैणां सूं व्है नहीं, निपट अनोखा नाम।
दैणा मरणा मारणा, (ऐ) कालां हदां काम।।

सभी महियों ने तय किया कि एक बापके होकर लड़ेंगे। उन्होंने ‘मरणिया सीरा’ (मरने से पहले हलवा बनाकर खाना) बनाया और गेरिये बनकर निकल पड़े। उनके निकलते ही मैं अनिष्ट की आशंका से किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। क्या करूं ?रोकूं इन्हें!जान है तो जहान है। आप मरने के बाद जग परलै है। ये खेत, धान, धीणा, ऊंठ, घोड़े बल़द भला किसके काम आएंगे?यह ठालेभूले तो मोत को मसकरी समझ रहें हैं। एक पूल़ी ही तो देनी थी!दे देते। मुझे तो यह केवै नहीं देखने पड़ते कि मेरे ये लाडले जम की दाढ़ में जा रहें हैं। तो दूसरी तरफ मैं इन मरणमहोत्सव को उतावले हो रहें इन रणबांकुरों की अणियाली मूंछों की मरट पर मर मिटने को स्वयं आतुर था। मुझे मेरे कायर विचारों पर आत्मग्लानि होने लगी। मैंने सोचा कि अरे पगले !यह तासीर तेरी इसी माटी की ही तो है। कण तृण, नर और अश्वों की श्रेष्ठता की जनक यह भूमि ही तो होती है। इसमें इन बेचारों का क्या दोष है?जैसा खाए अन्न वैसा होता है मन्न और जैसा पिए पाणी, वैसी बोले वाणी। मैं समझ नहीं पाया कि यह मेरे ही संस्कारों का सुफल है या कुफल कि ये सभी के अपने स्वाभिमान की रक्षार्थ ऐसे निकल पड़ें हैं जैसे मानों जान में जा रहें हैं।

मैं अभी विचारों के भंवर में खोया हुआ ही था कि देखता हूं कि महियों की आंखों में भैरू नाच रहा था। उन्हें इस बात का रत्तीभर भय नहीं था कि एक ओर हम ईनमीन साढे तीन आदमी और दूसरी ओर शस्त्रों से सुसज्जित सिरोही राजा के डेढसौ आदमी।

मैं अपलक नेत्रों से देख रहा था कि खेताजी, अचलाजी, मकाजी (मुकनजी) प्रेमजी, धीरजी, कानजी, मनरूपजी, हिंदूजी कुल आठ आदमी अपने पास जो शस्त्र यथा लाठियां थी को लेकर निकल पड़े। उन्हें निकलते देखा तो जवा जिनकी आयु 18-19 साल की थी, भी निकलने ही वाला था कि गांव के सभी भाइयों ने इसे रोका और कहा कि-“अरे जवा तुम तो मत जाओ। देखो तुम्हारी शादी तो कल ही हुई है। अभीतक तूंने कांकण-डोरड़े भी नहीं खोले। मोड़ बडा नहीं किया। यहां तक कि देवता-थान फिरने की रस्म भी नहीं हुई। फिर सोच तूं जहां जा रहा वहां कौनसे लड्डू बंट रहे हैं। वहां तो मृत्यु नाच रही है। ऐसे में तेरे कुछ हो गया तो बेचारी इस चारण कन्या का क्या होगा। अभी इसने इस घर का खाया ही क्या है? इसने देखा ही क्या है? इसने जो भविष्य के सुखद स्वपन संजोकर रखे थे वे सारे धूलधूसरित हो जाएंगे। इसकी हथल़ेवै की मेंहदी भी नहीं सूखी है। हमारे कर्मों का फल इस बेचारी को मत भुगता।”

इतना सुनते ही जवा ने प्रत्युत्तर दिया कि- “मेरे बड़े भाई, चाचा, ताऊ व दादा मरे और मैं फिटकड़ी आंखों वाला उन्हें मोत के मुंह में जाते देखता रहूं। लोग मुझे यह कहकर ताने नहीं मारेंगे कि मृत्यु को गांव में घूमती देखकर जवा अपनी लुगाई के घाघरे में लुक गया था। यह ताना मेरे लिए मृत्यु से भी बढकर है। धरती, धर्म और स्त्री सम्मान के लिए तो सभी मरते हैं और उन्हीं के सुयश की सोरम संसार में विस्तीर्ण होती है। वो ही यश देह धारते हैं। कायर तो जीवित कलंक के कीच में और मरने के बाद धूड़ में समाहित होता है। मैं ऐसा हरगिज नहीं करूंगा। मैं लज्जा बेचकर चैन की बंसी कैसे बजा सकता हूं?” कहकर वो निकल ही रहा था कि उन्हें ओरे में बंदकर दिया गया। लेकिन जिन्हें सुयश प्यारा होता है वो यम से नहीं डरते। क्योंकि वे तो अपने सिर पर रुष्ट हुए घूमते रहते हैं। तभी तो कहा-

प्राण पियारा नह गिणै, सुजस पियारा ज्यांह।
सिर ऊपर रूठा फिरै, दई डरप्पै त्यांह।।

जवा हट्ठी था। उसकी आंखों में रक्तवर्णी कस थे। वो लाज के लंगरों से आबद्ध था। उसने अपने बाहूबल से ओरड़ै की छत की उसी तरह चीर दिया जिस तरह वृकोदर ने दुशासन के वक्ष को चीर था। वो भी मैदान में आ गया।

मेरे आंगन में यम को किलकारियां करते देखकर भी मेरे लाडले सहमे नहीं। वे सिरोही दरबार की क्रूर जमात से भिड़ पड़े। इनका चारणपणा, निडरता, स्वाभिमान, साहस व शौर्य देखकर मेरा एक तरफ काल़जा बल़ रहा था तो दूसरी तरफ मैं इनके पराक्रम पर मन ही मन मुदित हो रहा था। गड़ागड़ बज उठी। एक तरफ पंद्रह-बीस लाठीधारी चारण तो दूसरी तरफ डेढसौ बंदूक व तलवार वाले लोग। दनदनाती गोलियां चल रही थी। मैं देख रहा था कि ये महिये मिनख थे कि बजराग!गोलियों के सामने उसी प्रकार जा रहे थे जिस प्रकार खरतीडिए अग्नि की ज्वालाओं पर जाते हैं। इस लड़ाई को देखकर मुझे मेड़ता में मराठों व जोधपुर के बीच हुई लड़ाई का संस्मरण हो आया। वहां एक तरफ मराठी सेनापति डिबोय तोपें चला रहा था तो दूसरी तरफ मारवाड़ के राठौड़ उन गोलों की परवाह किए बिना अपनी अभय राह पर चल रहे थे। यही हाल यहां था। महियों ने गोलियों की परवाह किए बिना उनकी तरफ बढ़े जा रहे थे।

एक तरफ लठैत तो दूसरी तरफ बंदूकधारी। महियों का मंतव्य मात्र अपनी परंपरा की रक्षा का था तो दूसरी तरफ का उद्देश्य परंपराओं का दमन कर उपजाऊ भूमि से कर उगाही कर खजाना भरने का। मैं मूकदर्शक बना देख रहा था कि गोलियां निरंतर बरस रही थी। महिये बराबर बचाव करते हुए उनकी तरफ बढ़ रहे थे। महिये अपने बूकियों के गाढ़ में यह भूल गए थे कि यह लड़ाई बाहुबल की नहीं अपितु तकनीक की थी। गोलियों और लाठियों का भला क्या मुकाबला! इतने में मैं देखता हूं कि एक दनदनाती गोली पाधरी आकर जवा के लगी। जवा भी ठालाभूला किस माटी से घड़ा था कि चीस करने की जगह रीस में भाभड़ाभूत हो रहा था। इतने में किसी ने कहा-
“जवा ! अभी भी समझ। यहां कोई गुड़ नहीं बंट रहा है। तूं खड़ा मत रह और आडा हो जा, ताकि तेरे तो कम से कम गोली न लगें।”

यह सुनते ही वो फूटती मूंछों का मांटी बोल पड़ा-
“क्या कहा? आडा हो जाऊं! मेरी मा ने इस दिन के लिए सेर सूंठ नहीं खाई थी कि मैं एक गोली के भूटके से ही आडा हो जाऊ। ना!ना! मेरा जन्म उस रात का नहीं है। मुझे आडा करने के लिए एक गोली से काम नहीं बनेगा अपितु इन आतताइयों को गोलियों की बोछार करने पड़ेगी। अब जवला आपके साथ ही मोटी मंजिल चलेगा-

मरदां मरणो हक्क है, मगर पचीसां पाय।
महलां रोवै गोरड़ी, मरद हथायां मांय।।

कहकर जवा पुनः आगे बढ़ने लगा। काल तो बड़ा विकराल है। उसे दया नहीं आती और न ही वो बूढ़े और बाल में अंतर करता है। फिर काल को दया आती भी कैसे? जवा तो काल से बाथ घालकर मिलना चाहता था। जवा को देख काल ने क्रूर अट्टहास की लेकिन जवा ने परवाह नहीं की और यश की राह पर चलता रहा।

मैं आपको क्या बताऊं ? इन महियों को इनकी मांओं ने क्या खाकर पैदा किया था कि मृत्यु का तो इन्हें भय ही नहीं रहा। जिन राजाओं के नाम मात्र से हिरण बांडे हो जाते थे। लोग उनके लवाजमें को देखकर, थे वहीं दुबक जाते थे। ऐसे ही एक राजा को अपनी भूली मर्यादा का स्मरण कराने हेतु वे इस ध्येय के साथ वहां लड़ रहे थे कि आप मरे बिन स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती है। इनका उत्साह अनिर्वचनीय था। एक-दूसरे को बोकारते हुए व उत्साह दिलाते हुए सभी अपना पराक्रम दिखाते हुए बंदूकों से निकलती गोलियों को अपने अंगों में रमाना चाहते थे। मुझे इनका दृढसंकल्प देखकर बलूजी चांपावत की वो गर्वोक्ति याद आ गई जो उन्होंने आगरा के किले से अमरसिंहजी का पार्थिव शरीर लाते समय मुगलों से लड़ते हुए कही थी। किसी चारण कवि ने कितने सुंदर शब्दों में कहा था कि-“गोपालदास का पुत्र राजाओं के संबोधित करते हुए कहता है कि युद्ध लड़ना ही है तो मरण मतै होकर ही लड़ना चाहिए। अगर आप कहते हैं कि कि युद्ध में पांव रूपे रहेंगे या उखड़ेंगे। इन सारी बातों की भाव डोरी भगवत के हाथ में है। अगर यह सही है तो भगवत मुझे भगाकर दिखाएं-

गोपाल़ोत कहै गढपतियां, मंडियां मरण तणै इज मंत।
भाजवणो सारो भागवंत रै, भजवो नीं मोनूं भगवंत।।

यही भावभंगिमा इन नरनाहरों की थी।

मैं इनकी निर्भीकता, निश्छलता व अटल निश्चय को शब्दों में बता नहीं सकता। यह मानलो कि मेरे लिए यह विवरण गूंगे वाला गुड़ हो रहा है। ये अदम्य साहसी व लड़ाके थे। फिर भी हमारे यहां एक कहावत है कि ‘घण जीतै अर जोधार हारे।’ ये आतताइयों से हारे तो नहीं लेकिन काल की क्रूरता के आगे हार गए। इन्होंने जो कहा वो कर दिखाया। जबतक इनकी फुरण्यों में श्वास संचरता रहा तबतक इन्होंने इस कहावत को चरितार्थ किया कि ‘तबतक सास शरीर में, जबतक ऊंची तांण।’ मैंने देखा कि अचलाजी महिया के कई गोलियां लगी। तब कहीं जाकर वो वीर धराशायी हुआ। फिर तो क्रम बढ़ता ही रहा।  मकाजी, पेमाजी, कानजी, धीरजी, मनरूपजी, हिंदुजी व जवाजी का शरीर छलनी-छलनी होकर धरण सैज पर शयन कर गए। लेकिन मैं इनके समर्पण, सहकार व साहस पर बलिहारी हूं। वे एक-दूसरे से आगे बढ़कर मरने हेतु उत्सुक थे। गोलियों की तड़ातड़ी से छितराए नहीं। हाला-झाला रा कुंडलिया में ईसरदासजी ने उन वीरों के लिए लिखा है लेकिन इन वीरों ने भी वही भावभूमि ग्रहण की–

हूं बल़िहारी साथियां, भाजै न गइयाह।
छीणा मोती हार जिम, पासै ई पड़ियाह।।

रक्त के बकराल छूट गए। इन गर्विलों ने ऐसी होली खेली कि मेरा पूरा शरीर लाल रंग से रंग दिया। माना वीरगति प्राप्त करने वालों की याद में आंसू नहीं बहाने चाहिए। क्योंकि ऐसा देखकर उनकी आत्मा कल़पती है। मैं भी क्षणिक भावों में काठा रहा। लेकिन लगता है कि यह सब बातें कहने-सुनने हेतु ही बनी है। जिसका कलेजा ही निकल जाए वो कितनी देर माठ (धैर्य) पकड़ेगा? नहीं पकड़ पाएगा। मैं भी आपसे बात छिपाऊंगा नहीं। कुछ देर तक दिमाग से काम लिया लेकिन अधिक देर निष्ठुर नहीं रह सका। मेरे अंदर भी तो एक दिल था। भावनाएं थी। संवेदनाएं थी। अधिक देर तक इस दृश्य को देख नहीं पाया। मुझे भी कायरता आ गई। आनी ही थी। मेरा पूरा परिवार मेरे खोले में चिर शांति धारण किए सो रहा था। कल रात जो मांगलिक गीत, कहकहे, मान-मनवारें। हथाई के होकबे न जाने कहां विलीन हो चुके थे। मेरा पूरा घर मेरी गोद चिरनिंद्रा में सो गया। मैं एक-एक के रक्तरंजित कुंतलों को सहलाते-सहलाते करुण क्रदन में कब डूब गया। मुझे होश ही नहीं रहा। चारों तरफ वीभत्स दृश्य था। केवल सन्नाटा ही सन्नाटा।

मेरे आंगन का वातावरण ही बदल गया था। चारों तरफ लाशें ही लाशें पसरी पड़ी थी। कल की रात और आज की ढलती सांझ में जमीन-आसमान का अंतर था। कल जहां जवा का बधावणा हो रहा था, आज वहीं उसके हलावणै के लिए चार कांधिये भी आने से कतरा रहे थे। मैं अश्रुपूरित नयनों से जवा का दमकता उणियारा निहार रहा था। उसके चेहरे पर कर्तव्य निभाने का परम संतोष झलकता परिलक्षित हो रहा था।

उसके संतोष को देखकर मेरा मन एकबार फिर भटक गया। मेरा मन जवा की बीनणी की तरफ चला गया। ईश्वर ने उसे क्या रुप और लावण्य दिया है। वो दुल्हन के वेश में कितनी सुंदर लग रही है। कल्पना मात्र से मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था। बेचारी ने सोचा ही नहीं था एक ही दिन में बरी (दुल्हन की पोशाक) की जगह लाशी (वैधव्य की पोशाक) ओढ़नी पड़ेगी! उसे अभीतक पता ही नहीं था कि वो विभागण बन चुकी है। उसकी निश्चलता, शालीनता, व सुघड़ता मैंने देख भी ली थी और परख भी ली थी। लेकिन हाय रै! भाग्य तूं जो खेल दिखाता है देखना ही पड़ता है। जवा का दीप्तिमान चेहरा देखकर एकबार पुनः मुझे महात्मा ईसरदासजी की पंक्तियां याद गई-

ग्रीधण दियै दुड़बड़ी, समल़ी चंपै सीस।
पख झपेटां पिव सुवै, हूं बल़िहार थईस।।

वींदोलै वागै में जवा परणेत को अमर विछोह देकर अप्सरा से परिणय हेतु प्रयाण करके बांकीदासजी के इस गीत को सार्थक कर गया जो उन्होंने प्रणवीर पाबूजी पर कहा था। उन्होंने कहा कि हे पाबू आपने जिस वर-वागै से राजकुमारी का वरण किया उसी वागै से अरियों की घड़ (सेना) रूपि कन्या का भी वरण किया। यही बात जवा ने की। जिस वागै से वो सगरतांकंवर कल़हठ को ब्याहकर लाया था, कोडिला उसी वागै से स्वर्ग में विवाह रचाने चला गया–

प्रथम नेह भीनो महाक्रोध भीनो पछै,
लाभ चमरी समर झोक लागै।
रायकुंमरी वरी जैण वागै रसिक,
वरी घड़ कंवारी जैण वागै।।

ये सभी वीर कहते थे कि तबतक सिर है जबतक कोई कर नहीं। सिर चला गया तो धरती भी चली जाएगी-

सिर साटै धर भोगवै, धर जाते सिर जाय।

ये सभी स्वर्गलोक के यात्री थे। वास्तव में ऐसे वीर जब वहां पहुंचते है तो वहां शायद गाजां-बाजों के साथ बधाकर लिया जाता होगा। क्योंकि यह बात मुझे तो पता नहीं थी लेकिन ‘कल्ला रायमल्लोत रा कुंडलिया’ में दूदाजी आशिया ने कही थी तो शतप्रतिशत सत्य है-

बैकुंठ थिया बधामणा, नीधसिया नीसांण।
सिर अप्पै समियांण नै, रत्थै बैठो रांण।।

मेरा पूरा आंगन जीराण (श्मशान) बन चुका था। जिस डकरेलों की डकर से पूरा इलाका शंकित रहता था। वे आज धरण पर निष्प्राण पड़े थे। मेरे दूसरे लोग जिनके सम्मान हेतु इन्होंने मरण का वरण किया था, वे इस समय डरे हुए थे। वे सारे के सारे मारे डरके उसी तरह दुबक गए थे, जिस प्रकार बाज के सग्गाट से ढूले अपने आल़ख़ों (घोंसलों) में लुक (छिप) जाते हैं। बेबसी क्या होती है? मुझे आज विदित हुआ। इतने दिन यह कहावत केवल सुनी ही थी कि ‘धण्यां बिनां धन सूनो है।’ लेकिन आज अनुभूत भी करली। टोगड़िये खूंटों पर डाड रहे थे तो गायें फाटते ऊवाड़ै (दूध सहित थन) ढींक रही थी। घोड़ियों की हिनहिनाहट न जाने कहां गायब हो गई? वे वहीं खड़ी सजल़ नैत्रों से अल़वल़ियै (शौकिन, पारंगत) असवारों की बापो!बापो!! की आत्मीय आवाज सुनने हेतु प्रतीक्षारत थी। मैंने इसी दिन महसूस किया कि घोड़े को देव-प्राणी क्यों कहते हैं? जितना यह प्राणी अपने धणी से प्रेम करता है और समर्पित रहता है, उतना दूसरा कोई नहीं। वाह रै! अश्वों वाह! एक कदम आगे नहीं भरा। इन अबोलों की संवेदनाओं के आगे मैं नतमस्तक हूं। इसे कहते हैं कृतज्ञता।

तो दूसरी तरफ मैंने मिनखों की कृतघ्नता भी देखी। इनके आंखों का मरता पाणी भी देखा। ये आठ वीर तो धराशायी हो गए थे लेकिन मरटधारी खेताजी जो इस स्वाभिमानी अभियान का अगुवा था। वो अभी रणांगण में डटा हुआ था। तभी सिरोही टुकड़ी के नायक ने लड़ाई रोक दी और खेताजी को समर्पण करने का आदेश दिया। खेता ! तो खेता ही था। वो कौनसा समर्पण करता?- वो कोई हाथी तो था नहीं, जिसे पकड़कर चाहे जहां ले जाया जा सके! वो तो सिंह था सिंह!-

गयवर गल़ै गल़थियूं, जंह खंचे तंह जाय।
सिंह गल़त्थण जे सहै, तो दह लक्ख बिकाय।।

उसने उनके आदेश की परवाह ही नहीं की और अपने इन प्रियों के मृत शरीर को अपलक देखता रहा। मैं देख रहा था, ये वो ही खेता महिया था जिसने महाराव केशरीसिंह के मुंह पर उनके मर्यादाविहीन व्यवहार करने पर खरी-खोटी सुनाई थी। लेकिन आज वो बेबस अकेला खड़ा था। उसने अपनी आंखों से एक भी आंसू नहीं बहाया और न ही अपने पारिवारिक जनों को धर्मडाड (मृतक के शोक में रोना) दी। उसने अपने हृदय को वज्र का कर लिया था।

मेरे हियाबूझी आ चुकी थी। मैं हियाफूट हो चुका था। रीस में रोना कलेजे में अटक गया था। आंखों से इतनी लाशें देखकर भी एक टपका नहीं पड़ा। आंखें पत्थरा गई थी। आप कह सकते हैं कि मैं हृदयहीन हो गया था। नहीं! मैं उन वीरों की अंजसजोग मृत्यु पर खूणा (कोना) पकड़ लेता तो फिर उन आठ लाशों को रुखालना और ऐढे लगाने की व्यवस्था कौन करता ? इसलिए मैंने छाती काठी करली। ये समाचार पासके ही गांव मीठण पहुंचे। अचलाजी की मां व चतरजी महिया की पत्नी गैरां अपने पीहर मीठण में थी। जब उन्हें विदित हुआ कि उनके घर मोरवड़ा में ऐसी दुखद घटना घट चुकी है। तो वो एक पल भी वहां रुक नहीं सकी। रुकती भी कैसे? मुझे याद है उन्होंने आजसे तीन वर्ष पूर्व कह दिया था कि-
“एक दिन सिरोही का राजा हमारे गांव पर आएगा। दुखद घटना घटित होगी और उस दिन में जमर करूंगी।”

वो मोरवड़ा आई। अपने गांव के चोहटे में आठ पारिवारिक जनों की लाशें बिना खांफण (कफन) पड़ी थी। उन्होंने देखा और कहा कि-
“अरे हठीलों ! एकबार मुझे याद तो किया होता। इस अन्याय के खिलाफ में पहले ही जमर कर लेती। यह दुखद दृश्य देखने से तो बच जाती। खैर विधि को जो स्वीकार था वो ही हुआ। वाव (स्थानीय एक बेरा) का जल मंगाओ। मैं जमर करूंगी।”

कोई किशोर वाव का जल लाया। उन्होंने उस पवित्र जल से स्नान किया और जमर ज्वाला में बैठी। बैठते ही उन्होंने केशरीसिंह को संबोधित करते हुए कहा कि-
“हे केशरीसिंह! पहले तेरा वंश नष्ट हो जाएगा यानी ये राज तुम्हारी संतति के हाथ में नहीं रहेगा। फिर तेरी यह पायगा (अश्वशाला) भी नष्ट हो जाएगी। जिस पायगा से तुमने घोड़े हमारे यहां भेजे हैं। फिर तेरे राज में अफरातफरी मच जाएगी-

पैली जासी पोल़, पछै ज थारी पायगा।
रचसी रापटरोल़, कवल संभाल़ै केसरा।।

गैरां, हरियां माऊ की भतीजी थी। चारणत्व इनके रक्त में समाहित था। हरियां ने भी अन्याई क्षत्रियों के खिलाफ जमर किया था। उन्हीं का अनुशरण करते हुए गैरां भी जमर ज्वालाओं में स्नान कर अपने पीहर मीठण को उज्ज्वल कर गई–

गैरां गुणधारीह, धवल़ा सांवल़ कीध धर।
बातां बल़िहारीह, जुड़ियो मोरवड़ै जमर।।

जैसे ही जमर-ज्वालाएं आसमान को छूने लगी। सिरोही के सैनिक आगत अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो गए। वे भागने ही वाले थे कि किसी असंवेदनशील ने कहा कि- “खेता महिया को तो पकड़कर दरबार के यहां पेश करो।”

सैनिकों का एक समूह आया और निहत्थे बैठे गांव के चार वरिष्ठ चारणों को पकड़ लिया- खेताजी, लखजी, खूमोजी व कुशालजी।

मेरा आपको बताते हुए गला भर रहा है। मेरे आठों दुलारों का पार्थिव शरीर गांव चोहटे में उन्हीं स्थानों पर पड़े थे जहां वो धराशायी हुए। कोई उठाने वाला नहीं था। उठाता भी कौन? गांव में केवल बच्चे और विधवाएं बाकी रही थी। जिन महिलाओं ने घर की थलकण (चौखट) भी नहीं देखी थी, उनके ऊपर इतना भयंकर वज्रपात हुआ कि उन्हें केवल विलिताप (शोक में रोना) के अलावा कुछ सूझ ही नहीं रहा। वो दुखदायी रात मेरे लिए अखूट हो गई। लाशों को रुखालने वाला केवल राम था। पूरी रात नीरवता छाई रही परंतु रहकर-रहकर सहुआल़ियों (स्त्रियां) का वीसूरणा मेरी वेदना को द्विगणित कर रहा था। मैं उन बेचारियों का दर्द समझ रहा था लेकिन मेरे पास कोई उपाय नहीं था। पांच मकार जो मानव जीवन में दुखदाई माने जाते हैं। उनमेंसे चार तो मेरे घर एक ही दिन में घटित हो चुके थे यानी घड़ी में घड़ियाल़ हो गया, और पांचवा ममा मारे डरके मेरे मरघट जैसे आंगन में आज आना ही नहीं चाहता था–

मोत मुकदमो मांदगी, मंदी रू मेहमान।
पांचूं ई ममा बुरा, पत राखै भगवान।।

इधर उन चारों को पकड़कर पासके ही गांव मंडार में रखा गया। मंडार के तत्कालीन ठाकुर भोपालसिंहजी, सूरतसिंह ने इस कुकृत्य की निंदा तो की थी लेकिन राजभय के कारण वे चारणों की कोई दूसरी सहायता नहीं कर सके। इधर खेता महिया को पकड़े जाने का जितना दर्द नहीं था, उससे कहीं ज्यादा दर्द स्वयं के जीवित रहने से वो ग्लानि महसूस कर रहा था। उसने आव देखा न ताव। भींत से सिर टकरा-टकराकर अपना प्राणांत कर लिया। जब यह बात केशरीसिंह तक पहुंची तो उन्होंने आदेश दिया कि बाकी तीनों चारणों को छोड़ दिया जाए। अन्यथा ये निधणीके इसी तरह सिर फोड़-फोड़कर मर जाएंगे। इन्हें छोड़ दिया। ये सभी दूसरे दिन उस खेता महिया के पार्थिव शरीर को गाडी पर डालकर लाए। वाह रे समय तेरा खेल!जो खेता ऊभा गया था वो आज आडा होकर आ रहा था। ये सभी दूसरे दिन दोपहर को पहुंचे। इनके पहुंचने से थोड़ी देर पहले बाछोल (पालनपुर) के भूरेखां आदि दो-तीन मुसलमान आ चुके थे। भूरखां की मां उसे जणकर धन्य हुई।

कवियों ने सात सुखों में से एक सुमाणस पड़ोसी भी गिनाया है। भूरेखां ने सिद्ध कर दिया कि ‘भेल़ा बैठा भाई हुवै।’ उन दिनों धर्म केवल मिनखपणा ही था। लोग हिंदू-मुसलमान में बंटे हुए नहीं थे। सभी में काका-बाबों के रिश्ते हुए करते थे। भूरेखां ने जैसे ही गांव में प्रवेश किया और चोहटे में निकदरी (बिना आदर के) लाशों को देखा तो उस ठालेभूले से यह क्रूर दृश्य सहन नहीं हुआ। उसकी आंखों से चौसरे छूट पड़े। उसे इतना क्रोध आया कि उसने रीस में अपने बूकियों का मांस डांचा भर-भरकर तोड़ लिया। उसकी श्वेत पोशाक उसके रक्त से रंगीज गई। उसे इस बात का मलाल था कि वो पड़ोस में बैठा था और पड़ोसी चारणों के साथ इतना बड़ा अनर्थ हो गया। वो रोता जा रहा था और कहता जा रहा था कि “अरे भाईड़ों मुझे खबर तो की होती। मैं आपको अकेला नहीं मरने देता। कंधे से कंधा जोड़कर लड़ता। लेकिन अब तो केवल तुम सभी को कंधा देने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं रहा।”

इन मुसलमानों, दो कलबियों व एक चोरड़ा के क्षत्रिय सपूत ने इन सभी लाशों को इकट्ठा कर एक साथ ही उनका दाह संस्कार किया। वास्तव में चाणक्य ने भाई कौन है? की सही परिभाषा दी है-

आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे।
राजद्वारेश्मशाने च यः तिष्ठति स बान्धवाः।।
अर्थात मांगलिक अवसरों में, बीमारी की दशा में, दुर्भिक्ष पड़ने पर, शत्रुओं द्वारा दुख आने पर, राजा के समीप जाने पर जो साथ रहे वो ही बन्धु है।

इस हिसाब से भूरेखां आदि महियों के भाई बनकर आए। उन सबकी संवेदनाएं देखकर मेरा यह विश्वास दृढ़तर हो गया कि अभी मिनखपणै के बीज धरती ने खोए नहीं हैं।

उस समय यहां महियों के 9-10 ही घर थे और हर घर से लाश निकली। तीन दिन तक पूरे गांव ने निःश्वास छोड़ते हुए अंजल ग्रहण नहीं किया। करते भी कैसे? आठ-पहर तो लाशें ही नहीं उठी। दूसरे दिन ढलती सांझ को सभी दस लाशों का दाह संस्कार हुआ। आप सोचेंगे कि लाशें नौ ही थी तो यह दसमी लाश कहां से आ गई। दसमी लाश खेताजी महिया की वृद्धा मां की थी। वो डोकरी निर्दयी लोगों के हाथों निर्दोष मारी गई। जब गैरां माऊ जमर कर रही थी। तब उस मनस्विनी के अंतिम दर्शन करने हेतु यह डोकरी अपनी लाठी के सहारे थिगती-थिगती आई थी और उधर से गोली छूटी तथा सीधी इनके वक्ष को चीरती हुई निकली गई। वो ‘हे नवलाख आं वैर्यां रो काल़जो तूं भखै’ के करुण क्रदन के साथ ही सदा के लिए शांत हो गई। मैं इस क्रूर दृश्य को झरते आंसुओं से बेबस देखता रहा।

तीसरे दिन संवेदनशील लोगों ने जैसे-तैसे ही इन परिवारों को एक-दो कोर जबरन खिलाए।

वास्तव में दुखां रा पालण दिन ही होते हैं। अगर ऐसी बात नहीं होती तो लोग कूक-कूक के और सिर फोड़के मर जाते। लेकिन लोगों ने हृदय के आडी गार देकर धीरे-धीरे इस दुख को भूलना शुरु किया। दुखों को भूलते तो क्या? भूलथाप देनी शुरु की।

मैं पहले ही बता चुका हूं कि अपना वो ही होता है जो विषम परिस्थितियों में सहारा व संबल दें। इस नाते बात करूं तो मैं तत्कालीन पालनपुर नवाब को जितना रंग (शाबाउ) दूं उतना थोड़ा है। उन्होंने जब सुना कि मोरवड़ा के महियों पर सिरोही रियासत ने अत्याचारों की पराकाष्ठा करदी तो उनका हृदय द्रवित हो गया। वो भलेही दूसरे धर्म के अनुयायी थे लेकिन मानवता व पड़ोसी धर्म की टेक निर्वहन में अग्रगामी थे। वो चारणों से आत्मिक लगाव व स्नेह रखते थे। वैसे वो ही क्यों? चारणों से तो जालोर के बिहारी नवाब खानड़खान, गजनीखांन, जबदलखां, कमालखां आदि नवाब असीम प्रेम रखते थे। ये सभी नवाब, चारण काव्य के प्रेमी व चारणाचार के पूजारी थे। तभी तो कवियों ने कमालखां, जबदलखां आदि की उदारता व मानवीय गुणों की प्रशंसा की है-

कमा बिहारी सारसा, अवर न आचारीह।
कहा बतावत लंक को, बींटी सोनारीह।।
आसी जासी और, रूंख पतों ज्यूं राजवी।
जबदल नै जाल़ौर, जूना नह व्है च्यार जुग।।

अतः पालनपुर नवाब ने अपने वकील द्वारा आबू स्थित ब्रिटिश कोर्ट में चारणों की तरफ से अपने खर्चे से वाद दायर कर चारणों को न्याय व मुआवजा दिलाने की बात की।

सत्य कहता हूं कि मैं पालनपुर के ओसाप को उतार नहीं सकता। मैं ही क्या मेरे टाबरिये भी नवाब का ओसाप मानते हैं। मैंने उन्हें यही सिखाया है कि आदमी से अवगुण कई बार होते हैं लेकिन गुण एक ही बार होता है। उसे नहीं भूलना चाहिए। क्योंकि गुणचोर का एक दिन विनाश तय है-

जन रजब्ब गुणचौर का, भला न होसी नेट।
भस्माकर भस्मी भयो, महादेव गुण मेट।।

नवाब ने मेरा दिल बिना बोली लगाए खरीद लिया। या यों कहूं कि उन्होंने मेरा दिल जीत लिया तो भी कोई अणूंती (बिना जचती, ज्यादा) बात नहीं होगी। अगर वो मुकदमा नहीं करते तो आज हजारों अन्य कहानियों के साथ मेरी यह कहानी भी शून्य में विलीन हो जाती। मैं अगर आपको बताता तो भी आप मुझे अवसादग्रस्त मानकर मेरा मखौल उड़ाते।

आपको आश्चर्य होगा कि मुकदमा तो नवाब ने कर दिया लेकिन महाराव के आतंक से मेरे पक्ष में धूंप पर डालने योग्य भी गवाह तैयार नहीं हुआ। होता भी कौन? ताव को आव कौन कहे? राजाओं से खरगसा (वैर) कौन बांधे? लेकिन नवाब भी अपनी बात का पक्का था। उसने हाकदड़बड़ों से पैर पीछे नहीं खींचे। अगर मनुष्य हिम्मत करता है तो भगवान उसकी मदद करते हैं क्योंकि ईश्वर नाक की डाडी पर खड़ा है। उसके घर देर है, अदेर नहीं। न्याय मेरे ही पक्ष में हुआ। इसकी मुझे खुशी नहीं हुई अगर होती भी तो किसके साथ साझा करता? जो रैयांणों के मांझी थे वे तो स्वर्ग के बटाऊ थे। पीछे थे तो नयनों में चिर उदासी लिए बेचारे बाखोटिए (नन्हें बच्चे) ! जिनके कंधों पर उठते ही घर-परिवार का भार आ गया। अणूंत भाठै से कठोर होती है। यह बात मैंने इस हादसे के बाद कई मर्तबा महसूस की और हर बार साकले (कल सुबह) सब बात भली होगी कि चिर आशा में बिना माथै कंवाड़ी (कुल्हाड़ी) चलाता रहा। जरा (जन्मते ही) दुखी होते हैं वो जीवन भर दुखी ही रहे, कोई जरूरी नहीं है। ऐसों के जीवन में भी सुख का सूर्योदय निश्चित रूप से होता है।

महिये जीवटता और जीजिविषा के धनी थे। अपनी मेहनत से घरकोलियों से घर खड़े कर लिए। सही है ‘साहसे खलु श्री वसति’ साहस में ही लक्ष्मी बसती है।

उधर सिरोही राजपरिवार में अशांति का वातावरण निर्मित होता रहा। महाराव अज्ञात बीमारी से ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हुए। संवेदनशील व धर्मभीरु महाराणी साहिबा ने अपने आदमी भेज मोरवड़ा से नोर-थोरै (अनुनय-विनय) करके महियों को बुलवाया और 8000हजार रुपये गुनाह के महियों को देना चाहा। लेकिन सभी महियों ने मना कर दिया। उन्होंने जो कहा वो आज भी मुझे अंदर से मजबूत बनाता है। उन्होंने महाराणी साहिबा से कहा-
“हुकम! पेट अन्न खाने से भरता है, धूड़ खाने से नहीं। हम हमारे प्रियजनों को पेट में नहीं घाल (डाल) सकते। उनका रक्त हमारी मिट्टी की उर्वरा और हमारी ऊर्जा बन चुका है। उसे हम बेच कैसे सकते है? हमें भी आखिर मरना और उनके पास जाना है तो हम उन्हें मुंह किस डोल़ से दिखाएंगे? माफ करें हम यह रक्तरंजित रुपये लेना तो दूर छूकर भी पाप के भागी नहीं बन सकते।

महियों ने नैनप (घर में कोई वरिष्ठ सदस्य न हों) व नादारगी (भयंकर गरीबी) में भी अपना स्वाभिमान कायम रखा। मुझे मेरी इस ऐल (संतति) पर गर्व हुआ। वास्तव में स्वाभिमानी लोगों का रक्त अन्य से हटकर होता। तभी तो कहा गया है–

मनस्वी म्रियते कामं कार्पण्यं न तु गच्छति।
अपी निर्वाण मायाति नानलो याति शीतताम।।

स्वाभिमानी लोग अपमानजनक जीवन के स्थान पर मृत्यु पसंद करते हैं, क्योंकि स्वाभिमानी आग के समान प्रकृति वाले होते हैं। आग बुझ जाती है लेकिन कभी ठंडी नहीं होती।

महाराणी साहिबा अपनी क्रूरता और सांसण की मर्यादा को तार-तार करने पर पश्चाताप में थी। उन्होंने कहा कि- “आपके यह रुपये मेरे पास अमानती पड़ें हैं। आप घरमें काम न लें तो कहीं धर्म खाते लगादें। लेकिन यहां से ले जाए। आज न लें तो जब, जी चाहें तब ले जाए। मैं उतने दिनों का ब्याज दूंगी।”

लेकिन ‘नटियो मूंतो नैणसी, तांबो दैण तलाक’ की भांति महियों ने रुपये तो दूर सिरोही राजपरिवार का जल तक ग्रहण नहीं किया। वो ‘अपिया’ (अन्न-जल का बहिस्कार) आज भी है।

धीरे-धीरे मेरे घाव भरने लगे। कभी बधाई की थाली तो कभी घुड़चढ़ी (बारात चढ़ते समय बजाया जाने वाला मांगलिक ढोल) का ढोल सुनकर ‘बीती ताही विसार दे, आगे की सुधि लेय।’ की तर्ज पर इस दुख रूपि गरल को नीलकंठ बनकर पी चुका हूं। क्योंकि आज जब चारणों की हथाई सुनता हूं तो मेरे उन नौ ही वीरों की वीरगति पर मुझे अंजस आता है। वे जीना जानते थे तो मरना भी। वास्तव में कवियों ने सही ही कहा है कि जिन्हें मरना आता है वे ही संसार में सदैव जीवित रहते है। मैंने पहले तो केवल सुना ही था। लेकिन जब किसी वैवाहिक अवसर पर डिंगल के कवि मौजीरामजी मोतीसर (गोमेई) मेरे यहां आए तो कोटड़ी में रैयाण हुई। उस समय उस कवि से मेरे सपूतों के दो प्रहास साणोर गीत सुने। तब मैं उस दारुण दुख को भूल उन आंटीलों के टेक निभाने की हठीली आदत पर मुदित हुए बिना नहीं रह सका। मुझे बाहरी दुनिया का कोई ज्यादा ज्ञान नहीं था। जब मौजीरामजी ने बताया कि ऐसा अद्भुत और अनिर्वचनीय काम अंगुलियों पर गिने, उतने ही लोगों ने किया है, और उनमेंसे यह चांपाजी की संतति भी अग्रगण्य है। तब मैं उन रढियालों (हठीले) की आन-बान की आखड़ी (नियम) पालने की दृढ़ता पर वाह!वाह! महियों तुम सभी ने मृत्यु पथ पर चलकर भी अमरत्व प्राप्त कर लिया। कहे बिना नहीं रह सका। मौजीरामजी की गर्विली व टकशाली वाणी का एक नमूना आपसे साझा कर ही दूं–

मोरवड़ै माथैह, आवी फौज अचाण री।
सिरोही साथैह, मरवा रो कीधो मतो।।

धमच घोड़ां पगां सेस सिर धूजियो,
रजी गैणांग सर डमर रचियो।
फलै आया थकां अरि ऊगै फजर,
महाभड़ घोर तद आभ मचियो।।
मौड़ बंधो जवो वींद जूझै मुवो,
लड़ंतां झोक मनरूप लागै।
इल़ा पर हिंदलै मरण कीधो अमर,
इसो साको नहीं सुण्यो आगै।।
जीवतां आद इल़ दीधी न जोरवर,
खरै बजराग भड़ आग खेते।
अंगवर धिनो जांमा तणां आपरी,
जगत में अरक लग सुजस जैतै।।

संमत-उगणीस नै सिसोतर-साल में,
जबर-नर अंतता समर जड़िया।
आवतां राज री फौज सिर ऊपरै,
लखां धिन सूरमा जुद्ध लड़िया।।
जात अर मात वां धिनो-धिन जिकां री,
जुगां धर अमर नह सुजस जासी।
मुसाफर ऐतलां न दी निज भोमका,
पाछला डीकरा शांत पासी।।

वास्तव में जिन लोगों ने कवि की जबान पर यश स्थापित नहीं करवाया है तो वे मानव जीवन में नाहक ही आएं हैं। यह बात मैं नहीं कह रहा हूं बल्कि कवि शिवरामजी कह गए हैं। मुझे सारभूत लगी तो आपसे लुकाई (छिपाई) नहीं-

ऐतो सरब पायो नाहक गमायो जनम,
जस ना बसायो जो पे रसना कविन की।।

इसका कारण कवि जादूरामजी ने सटीक बताया है कि कवि-रसना पर चढ़ा आदमी हमेशा अमर रहता है–

कविता में गावै सो ई अमर रहावै अरे,
कवि की जबान पे चढै सो नर जावै ना।।

इसीलिए तो मनीषियों ने कहा है कि उदार, धार्मिक व शूरवीरों के सुयश का श्रवण मनोयोग से सुनना चाहिए। उनके दोषों की तरफ दृष्टिपात नहीं करना चाहिए-

दातृण धार्मिकाणां च शूराणां कीर्तनं सदा।

मेरे सभी सपूत आज भी कवियों की रचनाओं में अमर है और उनकी वीरता इनका वर्ण्य विषय है। यह मेरी दृढ़ धारणा पिछले दिनों आयोजित हुए ‘मोरवड़ा जूंझारजी शताब्दी स्मृति समारोह’ को देखकर बनी।

मैं देख व सुन रहा था कि जो लोग कल तक इन महियों को इसलिए मूर्ख कहकर संबोधित करते थे कि उन्होंने एक कणक के पूल़े खातिर अपने प्राण गंवा दिए। वे ही लोग उसी सागी मुंह से आज इनके मरण-महोत्सव की दिल खोलकर प्रशंसा कर रहे थे।

सही है भाईसैणों का आगमन मेरे लिए वैसा ही मानता हूं जैसा शुष्क धोरों व जल चुके वनों में गुडलै बादलों के बरसने से आच्छादित होनी हरियाली हो। मेरा मुरछाया मन भी स्नेह आगमन से कमल की भांति खिल उठा।

कण धोरां विकसै कमल़, महि झड़ अमृत मंडेह।
प्राजल़िया वन पांगरै, सांप्रत दीठ सनेह।।

मेरा मन तब अधिक प्रफुल्लित हो उठा तब मारवाड़, मेवाड़, माड, और जांगलधरा के डिंगल कवियों ने उसी परंपरा का निर्वाह करते हुए मेरे उन सपूतों पर अपनी लेखनी चलाकर कृतकृत्य हुए कि-

मात-पिता सुत मेहल़ी, बांधव विसारैह।
सूरां पूरां बातड़ी, चारण चीतारैह।।

और जब जूंझारों के उसी थान आगे मोहनसिंह रतनू चौपासणी ने काव्यपाठ किया जहां आज से ठीक सौ वर्ष पहले मैंने दुखों का पहाड़ ओढ़े उन्हें एक साथ मुखाग्नि दी थी तो मैं उसी वातावरण में खो गया-

धिन धिन मोरवड़ा धरा, धिन जूंझारां धांम।
पावन रज ले शीश पर, पुनि पुनि करू प्रणांम।।
महिया मोरवड़ै मरद, बहिया कुळवट वाट।
खेली होळी खून री, झेली सिर खग झाट।।
सुभट जलमिया साहसी, जँग लड़िया खग धार।
प्रण राख्यो प्राणां सटै, बी धरती बल़िहार।।

यही नहीं मरटधारी मेवाड़ धरा के कवि हिम्मतसिंह उज्ज्वल (भारोड़ी) के कवित्त बाढाण धरा के चंदनदान बारहठ ने पढ़कर चारणों की वाचिक परंपरा का परिचय दिया तो मुझे मेरे नौ ही नक्षत्रों की दीप्ति मेरी गली-गली में महसूस हुई-

आन हित मान हित शान स्वाभिमान हित,
लेखनी रा धणी लड़्या मूंछां नै मरोड़ नै।
सांसण जागीर सूं भी शासक उगाही करी,
प्रबल विरोध कियो सूरां हद तोड़ नै।।
खेत री रुखाल़ हित सूरा रणखेत रह्या
चारण समर चढ्या जीव मोह छोड़ नै।।
निवण करे है आज सारो ही मिल्यो समाज,
तीरथ सी ठोड़ मोरवड़ सिरमोड़ नै।।

कवि कविताएं पढ़ रहे थे। जांगलधरा से आए गिरधरदान रतनू दासोड़ी ने जब बात एक पुराने दोहे से शुरु करते हुए कहा कि मरण तो सभी का होता है। भलेही वो कायर हो या वीर। लेकिन मरने-मरने में अंतर है। कायर मरके धूल में समाहित होता है जबकि वीर यश देह धारण कर सदैव अमर रहता है। इनकी कवितिओं की भी कुछ पंक्तियां देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। जब इन्होंने महियों के मरट को उकेरते हुए कहा कि जो जो भूछ (मूर्ख) पनंग की पूंछ पर पांव रखेगा अथवा सिंह की मूंछ के बाल खींचेगा तो फिर उसकी अकाल मृत्यु अवश्यंभावी है। महिये भी पनंग अथवा सिंह के सदृश थे-

लजधारी लड़ियाह, मुड़िया नहीं महीप सूं।।
झाटां लग झड़ियाह, धरण-आंक महिया धरण।।
चारण की है चीज, देखी मोरवड़ै दुनी।
खाग कलम री खीझ, रण महियां साथै रची।।।
उर उर उमँगायोह, वीरारस छायो वसू।
ऊजल़ पर्ब आयोह, महियां मनचायो कियो।।
रल़क्या रतखाल़ाह, मतवाल़ा महिया मुदै।
वीदग बल़वाल़ाह, मोरवड़ै वाल़ा मरद।।
इक इक सूं आगैह, खागां कीरत खाटणा।
सूरा नव सागैह, बास पुरंदर पूगिया।।
पूतल़ियां पाखांण, ऊभी अजलग अवन पर।
अडरां रा ऐनांण मोरवड़ै भाल़ो मही।।

चारण को तज्यो भाव सिरोही के महाराव,
खाय हूं के ताव साव बजायो नक्कार है।
सुन्यो कविराव जबे कह्यो सुर आव-आव,
मरण उछाव भयो खायो मन खार है।
धरा पे आए कष्ट धरम जबे होत भ्रष्ट
महिला की लाज नष्ट जीवन धिक्कार है।
भगाहर घर-घर कियो सबे हर-हर,
भर-भर उर जोश मरन स्वीकार है।।
सांसण पे सेन आई, कर की उगाई काज,
महिया सबे सीस देय डांण पांण भरेगो
गोली की बोछार भई, श्रोणित की धार बही,
अछरा के हार काज एक-एक लरेगो।
पनंग की पूंछ पाव मयंद की मूंछ पाण,
दियो सोई भूछ मान मीच मोत मरेगो।
ऐसे शूरवीरन की गल्ले सुनी धीरन की,
पंगी कवि गीध मान मोद धार करेगो।।

मैं महियों की कमनीय कीर्ति पताका को आभ में फहराते हुए देखकर गुमर (गर्व) किए बिना नहीं रह सका। उन्होंने मृत्यु का वरण करके भी धरण पर नाम को अक्षुण्ण कर लिया। सही है मरना इसे ही कहते है जिस पर सदियों गर्व करती रहे।
कहने को मेरे पास बहुत कुछ है। भावों का उबाल है। लेकिन अब मन भारी हो रहा है। दिल उन मरटधारियों की याद में रोने-रोने को है। परंतु आज रोकर आपके सामने उनकी मृत्यु को बिगाड़ूंगा नहीं। क्योंकि महात्मा ईसरदासजी ने कहा ही है कि सद्पुरुषों का जीना कम से कम ही सार्थक है। उनकी सुयश बातें दीर्घजीवी होनी चाहिए-

मरदां मरणो हक्क है, उबरसी गल्लांह।
सापुरसां रा जीवणा, थोड़ा ई भल्लांह।।

~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”

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One comment

  • पुष्पेंद्र जुगतावत

    साहब साधुवाद। मोरवड़ा रा महिया हुतात्माओं नै नमन। गिरधरसा री लेखनी नै वंदन।
    पुनः निवेदन:
    गिरधर कथी सु गल्ल, आद जुगां जस ऊबरी।
    मुंहघा गाहड़ मल्ल, किया अमर तें केशवत।।
    आभार।

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