अंतस रा आखर

( मेहाई सतसई – अनुक्रमणिका )

बात उण टेम री है जद म्हारी बाई (माताजी) आज सूं डेढ साल प्हैली अजुवाळी चवदस रा देशणोक म्हारै नानाणां सूं आप रा दूजा संगी साथी अर संबंधियों रे साथै देशणोक दरसण करवा रवाना हुवी। उण टेम म्है एक दूहौ मन में बणायौ के

ओरण माणस ऊमड्या, फेरी देवी काज।
आयी चवदस आपरी, मेहाई महराज।।

औ दूहौ बणियौ जद म्है औ सोचियौ के इण तरे रा चौथा चरण वाळा दोहा आज तांई किणी नी बणाया है। अर मौलिक चरण री वजह सूं अगर कोशिश करी जाय तो नामी फूटरा दूहा बण सके। इण रे बाद मां भगवती मेहाई री किरपा सूं एक पछै एक दुहा बणता गिया। म्है ऐ दुहा म्हारा सोसियल मिडिया रा ग्रुप “डिंगळ री डणकार” अर “थार थळी” मैं लगातार एक पछै एक पोस्ट करतौ रियौ।

म्हारे ग्रुप डिंगळ री डणकार रा साथी मित्र आदरणीय मोहन सिंह रतनू साहब चौपासणी, भवानी सिंह जी कविया नोंख, मीठाखां जी मीर डभाल आदि केई सर्जक पण दुहै रे इण चरण नें लेय आपरी कलम नें उण टेम चलाई।

जद ‘थार थळी’ नाम रा एक साहित्यक ग्रुप रे मांय म्हारा साहित्य परामर्श दाता अर गुरू तुल्य आदरणीय नवल जी जोशी (पोखरण) एक दिन म्हनै कहियौ के

नपसा नेहचौ राखजो, वरदा रही बिराज।
शतक बणैला सांतरौ, मेहाई महराज।।

म्है उण टेम ज्यादा नीं सोच म्हारी प्रत्युत्पन्न मति सूं जवाब दियौ जिका यूं हो

सतक बणै वा सतसई, जिण री नी परवा ज।
बस चाहूं म्हूं बोलणो, मेहाई महराज।।

पण पछै म्है सोचियौ के अगर कोशिश करी जाय तो दूहा और बण सके। म्है अर म्हारा दुजा केई साथी ग्रुप रे मांय उण टेम नवोदित कविता सिखणिया हा अर दोहा लिखण री कोशिश करता हा। हां ! म्हारै नानोशा सूं म्है लय अर छंदों रो पर्याप्त ग्यान जरूर बचपण म्है लियौ हो पर कविता इतरी परवान नी चढी ही। मां मेहाई रा गुणानुवाद रे सागै सागै दोहा री रचना रो अभ्यास ई हुय जावेलो औ सोच म्है मां री कृपा सूं सब सूं प्हैली दुर्गा सप्तशती रो तंत्रोक्तदेवी स्तोत्रम् रो भावानुवाद करण री सोची। मां री कृपा सूं वा पार पड गियौ। उणरे बाद एक पछै एक स्तोत्र रो भावानुवाद बणतौ रियौ, जिण में अर्गलास्तोत्रम्, वेदोक्त रात्रिसुक्तम्, ऋगवेदोक्त रात्रिसुक्तम, ऋगवेदोक्त देवीसुक्तम्, देवी अथर्वशीर्षम्, दुर्गा शप्तसती रो चौथौ अध्याय (शक्रादय स्तुति), दुर्गा सप्तशती रो ग्यारहवो अध्याय (जया स्तुति) आद रो भावानुवाद करण री कोशिश जरूर करी है। किती सफलता मिळी है बा तो पाठक ई बताय सकै।

बीस सूं बाईस दिन रे मांय समग्र रचना रा ७२८ दूहा बण गिया। सागै सागै म्हनै दूहा लिखण रो अाछो खासो अभ्यास ई हुय गो। ग्रुप रा गुणी सदस्य आदरणीय मोहन सिंहजी समै समै राजस्थानी दूहा री स्थानीय विशेषता जथा तीकडिया अनुप्रास, चौकडिया अनुप्रास आद री घडत समै समै मांथै बतावता रिया जिकण रो भी इण दूहा री रचना करण बखत आछो खासौ अभ्यास करण रो मौकौ मिळियौ।

दूहा री आपां बात करां तो दूहौ १३, ११, १३, ११ मात्रा रो विशुद्ध मात्रिक छंद हुवै। जिण में ग्यारह मात्रा वाळा चरण में तुकान्त में अन्त्यानुप्रास रो मिलान करीजे। अठै मेहाई महाराज चौथा चरण मे प्रयोग आपां करां तो मात्रा ग्यारह री ठोड़ बारै बण जाती ही। इण बाबत रो ध्यान म्हानै सबसूं प्हैली म्हारा मित्र आदरणीय भवानी सिंह जी कविया नोंख दिरायो। बाद में म्हारा एक अन्य मित्र आदरणीय नीतिराज सिंह जी सांदू सिहु म्हाने बतायौ के पुराणै जमाने रा दुहां रे मांय किणी प्रथम चरण रो शुरूआती शबद अगर गुरू हुवै तो वाने लघु गिणण रो प्रचलन हो अर उण हिसाब सूं चरण “मेहाई महाराज” मात्रा दोष रहित गिणीजैला।

आपरी किताब राजस्थानी दूहा संग्रह मे डा. शक्तिदान जी कविया साहब इण रो विस्तार सूं वर्णन दियौ है पेज ५८/५९ आप लिखै है।

“(ग)दीरघ वरण रो लघु उच्चारण : राजस्थानी दूहा में खास इतिहासू दूहा में केई ऐडा शबद आवै ज्यानें सही रूप सूं बोलियां तौ मात्रा बध जावै अर पुरो लघु उच्चारण कियां उण सबद रो रूप बिगड ने अरथ रो अनरथ होवण री संभावना बणै। ऐडी ठौडां दूहौ पढती वेळा दीरघ वरणां ने लघु ज्यूं उच्चारण करीजै।“

खैर ! आ तो व्ही मात्रा ने सही ठेरावण री बात। हा आपां “मेहाई” ने “मेहाइ” लिख मात्रा दोष रो निवारण जरूर कर सकां पर मां रा नाम री मात्रा छोटी बडी करण रो आपां नें कोई अधिकार नी है। हां म्है महाराज सबद रो दूहै में महराज कर दियौ जिण सूं मात्रा दोष रो निवारण कियौ जा सकै। ठौड ठौड माथै “ज” शब्द रो प्रयोग कठै कठै करियौ है जिका पुराणा दूहा में “ह” रो प्रयोग करता हा ठीक इणी तरै सूं।

जिण मारग केहर बुआ, रज लागी तरणांह।
बै खड ऊभा सूखसी, चरसी नी हरणांह।

कठै कठै तुकान्त में अनुस्वार, “ज” री ठौड “झ” आद री छूट लिरिजी है। जिका दोहा लेखन मे केई विद्वान जायज नी गिणी है। म्हारा गुणी पाठक म्हारी आ गलती ने ध्यान माथै नी लेवैला अर म्हारी मेहाई सतसई ने “रघुनाथ रूपक” रा “कवि मंछाराम जी सेवग” रा सनातन ब्रह्मवाक्य “अवध ईश गुण गावतां, लगै न दोष लगार” रे न्याव सूं तोलेला अर म्हनै माफ करैला।

“स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा” रे न्याव सूं मैं औ रचना बणावण री कोशिश करी है जिका मां री दया सूं अनायास बणगी है। अा रचना गर पाठकां ने दाय आवैला तो म्है इण नें म्हारौ सौभाग्य मानूंला। नीतर मैं इण ब्हानै भगवती रो नाम सुमिरण कियौ है औ मानूंला जथा “आगै के सुकवि रीझी है तो कविताई, न तो राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानौ है।”

इण रचना में म्हारा केई मित्र म्हाने सहयोग परोक्ष अपरोक्ष रूप सूं करियौ है जिकण रो आभार मानणों जरूरी है। सिंथळ रा वयोवृध्ध चारण सिरदार आदरणीय गिरजाशंकर जी बीठू, भाई मयूर सिद्धपुरा (जामनगर एस्सार), अर म्हारा छोटा साळा विशाल जी गढवी सांबरडा रो अंतर सूं आभार जिका रा आर्थिक सहयोग सूं आ पुस्तक आप तांई मैं प्रकाशित कर पूगाय सक्यौ। आदरणीय करसनभाई देवसीभाई ओडेदरा पोरबंदर रो घणो घणो आभार जिका आप मेहाई सतसई रो आवरण चितराम (पेन्सिल स्केच) बणायर म्हने आप कम समय रे माय उपलब्ध करवायो। अन्य बेलीयां में खास कर आदरणीय मोरारदान जी सुरताणिया मोरझर कच्छ रो आभार मानूं जितरो कम है। आदरणीय गिरधर दान सा रतनू दासोडी, मोहन सिंह जी रतनू, डा. गजादान जी चारण “शक्तिसुत” अर केई नामी गिरामी “डिंगळ री डणकार”, “काव्य-कलरव”, “थार थळी”, आदि वाट्स-एप परिवार रे सब सदस्यौ रो पण अंतस सूं आभार मानूं हूं। म्हारै माता (रतन कुँवर) पिता (आवडदानजी आसिया)  , नानोशा (स्व. अजयदानजी लखदानजी रोहड़िया, मलावा), जीवन संगिनी चेतना आद सब रो पण अंतस सूं आभार।

–आपरो नरपत आवडदान आसिया “वैतालिक”
दि. ११-१०-२०१६
विजया दशमी

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