मेरा यही पश्चाताप है

इसे ईश्वरीय अनुकंपा का अनुपम उदाहरण कहें कि कुदरत का करिश्मा कि चारण मनस्विनियों के मुंह से निकले वचन धनुष से छूटे तीर की मानिंद अपने लक्ष्य भेदन में अचूक थे। भलेही आज हम इसे भावों का अतिरेक या अंध आस्था का उदाहरण कहल़ें लेकिन लोक विश्रुत बातों को सुनते हैं तो हमारा हृदय हमें यह सोचने हेतु तो उत्प्रेरित करता ही है कि सदियों बीत जाने के बावजूद भी इन देवियों के प्रति लोकविश्वास ज्यों का त्यों ही क्योंकर है।

क्या कारण है कि लोक में यह मनस्विनियां देवियों के रूप में समादृत होकर सर्वसमाज में स्वीकार्य है?

इसका सीधासाधा कारण यही है कि इन मनस्विनियों ने अपना जीवन लोकहिताय समर्पित किया। जो अपना जीवन लोकहिताय जीते हैं और लोकहितार्थ ही समर्पित करते हैं। लोक उन्हीं को अपना नायक मानकर उनकी स्मृतियां अपने मानसपटल पर सदैव के लिए अंकित रखता है।

ऐसी ही एक घटना है मा सभाई की।

वर्तमान पाटण जिले के समी तालुका में आए हुए राकू गांव में मा सभाई के सुयश की सौरभ आज भी संचरित होती है और यही इसके प्रसिद्धि का कारण है।

राकू फूनड़ा चारणों का गांव था। अठारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में यहां लूंभाजी फूनड़ा रहते थे। इन्हीं लूंभाजी की पुत्री का नाम था सभाई।

राकू वढियार (इलाका विशेष) इलाके में आया हुआ है। बढियार की विशेषताएं बताते हुए किसी कवि ने कहा है कि–

धांन धींगा मन मोकल़ा, दल़ दातार दीदार।
संत सूरा ज्यां संचरे, (ऐवी) बसुंधरा बढियार।।
धाबल़ वरणी धरतरी, अन्न पाकै रसदार।
मायाल़ू मानवीयो, (ऐवी) बसुंधरा बढियार।।

शूरवीरों, सत्यवादियों, तथा स्वाभिमानियों की धरा बढियार के वासिंदे लूंभाजी के पास खूब मवेशी थी। राकू में सब बातों का थाट था लेकिन पानी की बहुत कमी थी। अतः यहां के लोग अपने गांव के बोल़िया तालाब के आगोर में विरड़ी (पानी की कमी में ताल़ाब आदि पर कच्ची मिट्टी बनाई जाने वाली छोटी कुंड्डी) बनाकर पानी का समुचित रूप से सदुपयोग करते थे।

एकबार ग्रीष्म का समय था। चारों तरफ आंधियां चल रही थी। आकाश में बादलों का नामोनिशान तक नहीं था। ऐसे में लूंभाजी की बेटी सभाई अपनी भैंसों को पानी पिलाने वहां गई। जैसे-तैसे ही तालाब से पानी अल़ीचकर विरड़ी भरी ही थी कि दूर से घोड़ों के टापों की आवाज सुनाई दी। सभाई ने आवाज की तरफ ध्यान दिया तो उन्हें लगा कि घोड़े पवन गति से सीधे तालाब पर ही आ रहे हैं। उन्होंने भैंसों को पानीं पिलाने हेतु नामों से पुकारना शुरु किया ही था कि भैंसें तो नहीं आई लेकिन घुड़सवारों ने अपने घोड़ों को उनकी विरड़ी से पानी पिलाना शुरु कर दिया।

अपरिचित घुड़सवारों को असभ्यता से अश्वों को बड़ी कठिनाई से इकट्ठा किया पानी पिलाते देख सभाई ने कहा-
“दुष्टों ! घर वालों ने कुछ संस्कार दिए है कि नहीं?माना आप आगुंतक हैं, दूर से आए हैं। आपके घोड़े प्यासे हैं। लेकिन जिसने यह विरड़ी भरी है, पानी पिलाने से पूर्व उसे पूछना तो चाहिए कि नहीं?पहनावे से तो राजपूत लग रहे हो और कर्म अधमों जैसे कर रहो हो।”

इतना सुनकर उनमेंसे एक आदमी ने अपने आदमियों को आदेशित किया कि-
“अरे! सुन क्या रहे हों। इस छोकरी को अपने संस्कार बताओ।”

इतना सुनते ही दो-चार आदमी घोड़ों से उतरे और विरड़ी को बिखेर दिया।

विरड़ी बिखरती देख सभाई बिरड़ (अत्यधिक क्रोधित) गई। उन्होंने कहा-
“अरे!नीचों पानी पिला दिया कोई बात नहीं लेकिन मेरी विरड़ी बिखेर दी!अब मैं अपनी मवेशी को पानी कैसे पिलाऊंगी। तुम्हें कहीं हैं तो मेरी मा आवड़ पहुंचे।”

यह सुनकर घुड़सवारों के मुख्या ने जोर से अट्टहास की और बोला-
“अरे छोकरड़ी! तू नहीं जानती कि मैं कौन हूं। अगर तूं जानती तो ऐसा नहीं कहती। मैं भेमड़िया हूं!भेमड़िया। मेरे नाम से बड़े-बड़े राजा कांपते हैं। तुम्हारी मा आवड़ मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती।”

इतना सुनते ही तरुणबाला सभाई का क्रोध और भड़क गया। उन्होंने कहा कि-
“अच्छा तूं भेमड़िया है! दीन-हीन और पथिको को लूटने वाला। अरे नीच चल जा तेरा भक्षण मा मामड़याई छः माह में कर लेगी।”

यह सुनते ही भेमड़िया फिर जोर से हंसा और बोला-
“अरे पगली! जब यमराज ही मेरे से कांपता है तो तेरी आवड़ क्या करेगी? मारता जिसको मैं ही मारता हूं मुझे कौन मार सकता है? तूं अभी नादान है इसलिए मेरी शक्ति के बारे में जानती नहीं है। अगर जानती होती तो ऐसा हरगिज नहीं कहती।”

भेमड़िया की यह थोथी गर्वोक्ति सुनकर सभाई का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। वो बोली-
“तो नीच सुन! कल का सूर्योदय तूं नहीं देख पाएगा। अगर मेरी मा आवड़ है तो कल तेरी छाती थरा-जामपुरा के बापू जामाजी बाघेला का भाला चीरेगा।”

भेमड़िया यह सुनकर फिर हंसा और अपने घोड़े को ऐड़ लगाकर दौड़ा दिया।

सभाई की मवेशी प्यासी रही। वो उदास और दुखी मनसे घर आई और अपने घर पर ही जोगमाया के आल़े के सामने अन्नजल त्यागकर धरने पर बैठ गई। सभाई ने आई से चाड करनी शुरू की कि-

महण झूलंतां माय, जांमण देती जाबतो।
सो पीधी सुरराय, अधरन भीनो आवड़ा।।
बाई बेली बेख, डूबण काज डरावता।
अंजल़ भरांणी एक, अधरन भीनो आवड़ा।।
आई आखाड़ाह, तूं बावन जीती तिकै।
गढपत गढवाड़ाह, मांनै मांमड़ियासधू।।
आवड़ दीधी आंण, लाजाल़ू लोपी नहीं।
भल़ै न भरियो भांण, कदम्म कासपरावउत।।

बेटी को इस तरह सायल़े करती देख लूंभाजी ने कहा-
“बेटी! अब सत्य का समय नहीं रहा। यह बातें पहले की थी। तब जोगमाया हाथ की हाजिर थी। तू रोटी जीम और यह हट्ठ छोड़दें।”

यह सुनकर सभाई ने कहा-
“बापू! रोटी तो मैं अब भेमड़िया की मृत्यु के समाचार सुनकर ही जीमूंगी।”

बातों-बातों में रात पड़ गई। लूंभाजी भी बेटी के हट्ठ के आगे हारकर सो गए लेकिन सभाई वहीं बैठी चाड करती रही। इधर थरा-जामपुरा के बापू जामाजी को रात्रि में एक कुकुमवर्णी बाला ने स्वप्न में आवाज दी कि- “जामा बापू ! निद्रा में हैं जागृत। अगर जागृत हैं तो सुन! तुझे कल सूर्योदय से पहले भेमड़िया को मारकर यश प्राप्त करना है।”

स्वप्न की बात सुनकर जामा बापू जाग पड़े। फिर सो गए। सोते ही वो ही आवाज वो ही रूप।
“अभी उठ और घोड़ों जीण कस। यह आई का आदेश है। किसी ऊहापोह की स्थिति में मत रह। विजय तेरी प्रतीक्षा कर रही है। अगर विश्वास न हों तो गढ़ से निकलते ही देख लेना। शगुन के रूप में गढ़ से बाहर कदम रखते ही गाय के दर्शन होंगे। फिर घोड़ों को दक्षिण दिशा में बड़गड़ाना। तेरे भाले की नोक पर शगुन चिड़ी बैठेगी। जो तेरी विजय की घोषणा है। उठ और चल।”

बापू भच उठे और अपने आदमियों को आवाज लगाई कि-
उठो रे! घोड़ों पर जीण कसो। सभी सवार भाई-बंधु एक आवाज के साथ हाजिर हुए। आगे घोड़ा बापू का निकला। बाहर गाय के शगुन हुए। गाय के दर्शन होते ही बापू का आत्मविश्वास जाग पड़ा। जैसे ही जयकारे के साथ घोड़े को ऐड़ लगाई की अंधेरे में ही एक चिड़िया आसमान से मंडराते हुए उतरी और बापू के भाले की नोक पर बैठ गई।

घोड़े बड़गड़ां-बड़गड़ां वो ही जा वो ही जा। सूर्योदय में थोड़ा समय बाकी था तब घोड़े सरवाल गांव के बोहीसर तालाब के पास पहुंचे कि चिड़िया भाले से उड़कर वहीं चकारे लगाने लगी। बापू समझ गए कि गंतव्य स्थान यही है। हमारा दुश्मन यहीं है। उन्होंने अपने घुड़सवारों को तालाब की पाल चढ़ने का आदेश दिया और कहा कि हमारे दुश्मन यहीं हैं।

जैसे ही इधर से घोड़े पाल चढ़े कि उधर से भेमड़िया के घोड़ों ने हींसना शुरू किया। घोड़ों की हणहणाट से भेमड़िया की नींद में खलल पड़ा। उसने जोर से भद्दी गाली दी। तबतक बापू उसके सिर पर जा खड़े हुए और ठोकर मारकर कहा-
“उठ! तेरी मोत आ गई है।”

उसने नींद और मद के नशे में फिर गाली दी और उठा। जैसे ही वो उठा कि बापू ने उसे जोर से लात मारी। उससे भेमड़िया पुनः गिर पड़ा। वो अपनी तलवार निकालता तबतक बापू के भाले ने उसका वक्ष छेदन कर दिया। भेमड़िया और उसके साथी सूर्योदय से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हुए।

इधर वो चिड़िया भेमड़िया के रक्त में अपनी चोंच डुबोकर उड़ी, उधर लूंभाजी ने अपनी बेटी से कहा कि-
“बेटी! देख सूर्योदय की लालिमा। उस दुष्ट भेमड़िया को कोई नहीं मार सकता। तुमने रात को भी कुछ खाया-पीया नहीं है। तेरी मा ने दूहारी करली है। अतः तूं जिद्द छोड़ और दूध पी।”

यह सुनकर सभाई ने कहा कि-
“बापू! मुझे मा आवड़ पर विश्वास है-

अरक पिछम दिस ऊगवै,
सुणै न आवड़ साद।

मैं प्राण त्याग दूंगी लेकिन अब वचनहार नहीं होऊंगी।”

इतने में तो एक चिड़िया सभाई के दाहिने हाथ पर अकस्मात आकर बैठी। सभाई ने आश्चर्य से उस चिड़िया की तरफ देखा तो सभाई का विश्वास दृढ़तर हो गया। सभाई ने देखा कि चिड़िया की चोंच रक्त से भरी हुई है।

सभाई ने अपने पिता से कहा कि-
“बापू ! अभी सूर्योदय नहीं हुआ है। यह देखो चिड़िया की चोंच रक्त से भरी हुई है। अतः दुष्ट भेमड़िया मारा गया। मेरी लाज लोवड़याल़ ने रखली।”

इस संबंध में डिंगल कवि जीवाभाई गोविंदभाई फूनड़ा ‘सभाई ना छंद’ में लिखते हैं।

अहरांण भेमड़ियो अडग जे, मलक बाधै मालतो।
डरताय भूपत तैण निसदन, चाल अधरम चालतो।
दैतांण आख्यो देस देवी, भोमका राकू भणी।
अवतार चांपल रूप अंबे, मात दैतां मारणी।।
विकराल़ रूपे वेश लीनो, शकतियूं सणगार जे।
खणणाक चूड़ी मात खणके, हाथ कंकण हार हे।
त्रिशूल़ चक्कर खपर तुंही, कर धरे क्रोधारणी।
अवतार चांपल रूप अंबे, मात दैतां मारणी।।

लूंभाजी ने बेटी का मन रखने हेतु कहा कि अब तो चल दूध पी। !
“नहीं! अब तो मैं अन्नजल़ कतई ग्रहण नहीं करूंगी। मैंने क्षणिक क्रोध में एक मिनख को मृत्यु का अभिशाप दे दिया। जिससे वो मर गया। मुझे इसका पाप लगा। अब मैं यह देह नहीं रखूंगी।”

कहकर सभाई ने कहा कि-
“बापू मैं जमर करूंगी। जमर की तैयारी कराइए।”

तब लूंभाजी ने कहा-
” बेटी! इसमें तेरा कोई दोष नहीं है। इसमें दोष उस नराधम का था। जिसने अपनी करनी का फल पाया। तूं जमर मत कर। मैं तुम्हें जमर नहीं करने दूंगा।”

यह सुनकर सभाई ने कहा कि-
“मेरे पास अब पश्चाताप का एक यही उपाय है। जमर तो मैं करूंगी। मुझे रोककर आप किसी संकट को निमंत्रण न दें।”

यह सुनकर लाभूजी ने बेटी के चेहरे की तरफ देखा तो लगा कि-
सभाई के चेहरे पर आलोकित तेज दमक रहा है। लूंभाजी की आगे कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं हुई।

गांव ने मनमारकर जमर की तैयारी की। कहते हैं कि सभाई ने अपने पैर के अंगूठे की तरफ देखा और अग्नि प्रज्ज्वलित हो गई। उस समय उन्होंने कहा कि जब आकाश से लाल चूंदड़ी, उसमें लिपटा श्रीफल और एक वींटी आए तो मान लेना कि मैं नवलाख के समूह में सम्मिलित हो चुकी हूं अन्यथा मान लेना कि मेरा जमर व्यर्थ गया।

घड़ी में घड़ियाल हो गया। पूरा गांव दहकती अग्नि को देखता रहा। जैसे ही जमर की अग्नि पूर्णतया मंद पड़ी कि आकाश पथ से तीनों चीजें उतरी। उनकी सौरभ से पूरा गांव महक उठा।

इधर दोपहर को घोड़ों की हणहणाट के साथ कुछ घुड़सवार राकू में आए। उनमें से एक आदमी ने राकू वासियो से पूछा कि-
“आज इस गांव में कुछ विशेष हुआ है क्या?”

तभी सभी ने कहा कि-
“आज इस तरह हमारे लूंभाभाई गढवी की दीकरी सभाई जमर कर गई।”

तब उस आदमी ने कहा कि- “हमारे थरा-जामपुरा के बापू जामाजी, लूंभाभाई से मिलने आए हैं।”

एकबार तो गांव वाले किसी अदृश्य भय से आशंकित हुए लेकिन फिर उन्होंने कुछ सोचकर कहा कि-
“बापू आए हैं! यह हमारा सौभाग्य है।”

उन्होंने बापू का यथोचित सत्कार किया। थोड़ी देर सभा में उदासी रही। फिर बापू ने खड़े होकर कहा कि-
“सभाई ! आई का अवतार थी। उन्होंने जहां जमर किया है। अगर आपकी सहमति हो तो मैं उस पवित्र स्थान पर एक मंदिर बनाना चाहता हूं।”

यह सुनकर गांववासियों ने कहा कि-
“बापू हम सहमति-असहमति देने वाले कौन होते हैं। आपको तो आई ने अज्ञा दी है। बनाइए मंदिर।”

जामाजी बाघेला ने राकू में उसी स्थान पर मंदिर बनाया। आज भी आई सभाई के प्रति वढियार इलाके के लोगों की अथाह आस्था है।

।।सभाई रा दूहा।।
गरबीली गुजरात में, व्हाली धर बढियार।
राकु गांम इक रेणवां, चावो है चक च्यार।।1
बसै लूभ उथ विदगवर, वंश फूनड़़ां बेख।
वित्त राखै रजवट बहै, निज कज करणो नेक।।2
जिणघर जलमी जाहरां, सभ्भाई सुरराय।
चारणवट निरमल़ चरित, महि पाल़ै महमाय।।3
सभ्भाई लूभा सदन, इधक भवन आचार।
दीप्ति मुख दुणियर समो, विमल़ं रखै विचार।।4
तोडो उथियै तोय रो, ऊपर भल़ै उनाल़।
गायां धांमण लेय घट्ट, पूगी सरवर पाल़।।5
तपतै तावड़ में तदन, सूखो सरवर साव।
अइयो नीर अल़ींच नै, देख पाय सह धाव।।6
धर भेमड़ियो धाड़वी, आयो उठै अचांण।।
पाय नीर पाधर किया, हाथां विरड़ी हांण।।7
सभ्भाई बोली सगत, की ओ करियो कांम।
रंच न गुण रजपूत रा, है नीं हेक हरांम।।8
भेमड़ियो विभरै गयो, पापी भुज निज पांण।
बाई नै खल़ बोलियो, कुबुद्धि वचन कुबांण।।9
सठ भेमड़िया सांभल़ै, महि उगंत मिहिरांण।
जुध बाघेला जाम हथ, जासी थूं जमरांण।।10
मदछकियै मांनी नहीं, जड़ न लखी मुख जोत।
पाई उण जद पापियै, मिहिर उगंतां मोत।।11
जा सपनै में जोगणी, जदै जगायो जांम।
भेमड़िया सूं भिड़ण कज, करवाल़ां ले कांम।।12
सपनै में दरसी सुभट्ट, सगती रूप सतेज।
आयल यूं आदेसियो, जांम करै मत जेज।।13
सपनै में कहियो सगत, सुणजै जांम सधीर,
पग पग ऊपर हूं प्रतख, भड़ तो रहसूं भीर।।14
सगत सँदेशो सपन रो, वीर सुण्यो बाघेल।
पील़ोड़ी परभात पह, ठीक दिया अस ठेल।।15
आई रो आदेश मन, जुड़ियो खागां जांम।
भेमड़ियो उण भूटकै, कुबुद्धि आयो कांम।।16
भेमड़ियै नै समर भू, आई दीनी आंच।
रण में जिणरो रगत पी, चिड़ी उडी भर चांच।।17
पूगो सूरज गगन पथ, तज बाल़ापो वेश।
सुज पुल़ सगती सांभल़्यो, सभ्भाई संदेश।।18
चिड़ी रगत भर चांच में, राकू आयल रूप।
जांम मेल्यो जमरांण में, भेमड़ियै नै भूप।।19
जद ममता तज जगत री, लँबहथ करुणा लाय।
आग अंगूठै ऊपड़ी, सुज सँपड़ी सुरराय।।20
जांम उणी दिन जातरा, हिव कर पावन होय।
दुरस चिणायो देवरो, जांमण थारो जोय।।21
दरस परस जो देवरै, उरां हरस जो आय।
पापी कूड़ा प्राजल़ै, सतधरियां री साय।।22

~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी
कथासूत्र- हेमुदान हरदानजी गढवी राकू

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