मेरे कानों के लोल़िये तोड़े तो तोड़ लेना

जब-जब सत्ता मदांध हुई तब-तब जन सामान्य पर अत्याचारों का कहर टूटा है। राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास के गर्द में ऐसी अनेक घटनाएं दबी पड़ी है जिनका उल्लेख इतिहास ग्रंथों व ख्यातों के पन्नों से ओझल है परंतु लोकमानस ने उन घटनाओं का विवरण अपने कंठाग्र रखा तथा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करता रहा है। यही कारण है कि उक्त घटनाएं लोकजीव्हा पर आसीन रहकर भूत से वर्तमान तक की सहज यात्रा करती रही है।
हालांकि बीकानेर के शासकों के अपनी जनता के साथ मधुर संबंध रहें थे लेकिन दो-तीन शासकों के समय में इन संबंधों में कड़वाहट तब आई जब कान के कच्चे शासकों ने कुटिल सलाहकारों की सलाह अनुसार आचरण किया। ऐसे में उस सलाह के भयावह परिणाम आए तथा शासक अपयश के भागी बने।
ऐसी ही एक घटना बीकानेर महाराजा रतनसिंहजी के समय सींथल गांव में घटी।
सींथल बीठू धरमैजी के पुत्र सांगड़/सांगटजी को जांगलू के सांखलों का प्रदत्त सांसण था। सांगटजी के पुत्र मूलराजजी की वंश परंपरा में नारायणसिंहजी हुए तथा उनकी वंश परंपरा में पदमजी बीठू के घर हड़वंतसिंहजी का जन्म हुआ।
मैं जो घटना लिख रहा हूं उसके नायक हड़वंतसिंहजी रोहड़िया हैं।
घटना यह है कि महाराजा रतनसिंहजी का कोई मुस्लिम मुलाजिम नूरदीन किसी कारण वश अपने आदमियों के साथ सींथल गया। वो अपने आदमियों के साथ बैठा था कि उसने देखा कि नाई रुघारामजी रछानी लेकर घर से निकले। जैसे ही नूरदीन रुघजी को देखा तो उसने अपने एक आदमी को उनके पास भेजकर बुलाया और अपनी हजामत बनाने के लिए कहा। उसका आदेश सुनकर रुघजी ने कहा कि-
“मैं इस रछानी से हजामत केवल अपने धणियों की बनाता हूं और दूसरी रछानी मेरे पास है नहीं ऐसे में मैं आपकी हजामत बना नहीं सकता।”
नाई का ऐसा चिट्टा जवाब सुनकर नूरदीन ने कहा कि-
“तुझे पता भी है कि तू किससे बात कर रहा है? मैं राज का आदमी हूं। राम और राज एक ही होते हैं। धणी हम ही हैं। अतः बिना किसी बहाने के मेरी हजामत बना।”
यह सुनकर पुनः रुघजी ने कहा कि-
“जा रे धणी री पूंछड़ी। यहां धणी केवल दादो लूणो है। बाकी तेरे जैसे धानिये-भगानिए तीन सौ तरेपन फिरते है।”
नाई की अकड़ और अपना अपमान देखकर नूरदीन को ताव आ गया। उसने पास ही पड़ा कोरड़ा उठाया और रुघजी. के दो-तीन फटकार दिए।
रुघजी स्वाभिमानी थे लेकिन थे गरीब। उन्हें अपना यह अपमान असह्य लगा। वो सीधे दो-तीन मौजीज बीठुओं के पास गए लेकिन राज भय से वे कुछ कर नहीं पाए। उन्होंने कहा कि “आप पाटवियों के पास जाओ”। रुघजी वहां से सीधे मूलों के बास गए। वहां उन्हें किशोरवय हड़वंतसिंहजी मिले। हड़वंतसिंहजी को उन्होंने बात बताना उचित नहीं समझ पास से उदासीनता का आवरण ओढ़े निकलने लगे तो हड़वंतसिंहजी ने ही बतलाया कि-
“अरे रुघाबाबा ! आज अबोला कियां? यह रीस किस पर है?”
इतना सुनते ही उनकी आंखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। उन्होंने बिना कुछ बोले अपनी पीठ उनके सामने करदी।
पीठ पर कोरड़ों के निसाण देखकर हड़वंतसिंहजी ने पूछा कि-
“यह क्या है? ऐसा क्रूर व्यवहार किसने किया?”
रुघजी ने कहा कि-
“यह बीठुओं के माजने में धूड़ है। जिनके धणी नहीं होते हैं उनके साथ ऐसा व्यवहार कोई भी कर सकता है।”
इतना सुनते हड़वंतसिंहजी ने कहा-
“हम मरे थोड़े ही हैं! अभी जिंदा है। यह निसाण आपकी पीठ पर नहीं अपितु मेरे मुख पर अंकित हो गए हैं। आप बताइए यह नीचता किसने की है?”
रुघजी ने पूरी बात बताई। सुनते ही हड़वंतसिंहजी सीधे वहां पहुंचे जहां नूरदीन बैठा अपने आदमियों से मालिश करवा रहा था। हड़वंतसिंहजी ने उसके पास से कोरड़ा उठाया और तबतक मारते रहे जबतक उसके आदमियों ने बीच बचाव नहीं किया।
हड़वंतसिंहजी ने कहा कि-
“हमारे ही गांव में हमारे ही आदमी का अपमान ! हम मर थोड़े ही गए हैं?”
मार और अपमान से तिलमिलाए नूरदीन ने कहा कि
” तू मुझे जानता नहीं कि मैं कौन हूं? जल्दी ही तुझे सबक नहीं सीखाया तो मेरा नाम बदल देना।”
हां ! हां! जा मेरे कानों के लोल़िये तोड़े तो तोड़ लेना। हड़वंतसिंहजी ने पुनः उसे प्रत्युत्तर दिया।
नूरदीन ने आनन-फानन में बीकानेर आदमी भेजा और संदेश करवाया कि “एक छोकरिये ने मेरा किस कद्र अपमान किया है !अतः उसे दंडित करने हेतु और आदमियों की दरकार है।”
दरबार से संदेशा आया कि-
“वहां गए ही क्यों थे? वो कोई खालसा थोड़े ही, वो तो सांसण है। अतः चलो आओ।”
जैसे ही संदेशवाहक आया वो अपना सा मुंह लेकर चला गया।
कालांतर में महाराजा रतनसिंह जी किसी बात पर देशनोक के चारणों पर रूठ गए। उनके सलाहकारों ने सलाह दी कि देशनोक धनाढ्य गांव है अतः लूट लिया जाए। महाराजा ने पूरा मानस बना लिया। जैसे ही आस-पास के चारणों को पता चला तो वे भी सब इकट्ठे होकर मढ में धरणै पर बैठ गए।
इस बात का पता जब हरसोलाव ठाकुर अजीतसिंहजी को चला तो वे भी धरणा स्थल पर नैतिक समर्थन में उपस्थित हुए। उस समय किसी चारण कवि ने कहा-
चांपावत नै चारणां, पैलै भव री प्रीत।
मो ऊभां नह मरण दूं, यों कह कमध अजीत।।
पूरी बात जब महाराजा को विदित हुई तो लोकअपयश के भय से उन्होंने विचार त्याग दिया। ऐसे में नूरदीन ने महाराजा को बहकाया कि-
“सींथलिये भी बदमाश लोग है। आसपास के गांवों में आतंक मचा रखा है। महाराजा की रति भर परवाह नहीं करते। क्यों नहीं ऐसे में उन्हें दंडित किया जाए।”
महाराजा ने आदेश दे दिया। नूरदीन के नेतृत्व में बीकानेर का एक दल वि. सं. 1893 की बैसाख सुदि 9 को सींथल लूटने पहुंचा।
चूंकि उस दिन सींथल के लगभग सभी व्यस्क सदस्य देशनोक उपस्थित थे। गांव में पांच-दस आदमियों के सिवाय कोई नहीं था लेकिन संयोग से हड़वंतसिंहजी वहीं थे।
नूरदीन ने गांव को घेरकर लाय लगा दी।
मूल़ों के बास स्थित ‘खेतसिंह की हवेली’ में मोर्चा संभाला, उस समय केवल एक नायक उनके साथ था। जो उन्हें बंदूकें भर-भरकर दे रहा था। दुर्भाग्यवश उस स्वामीभक्त नायक का नाम पूछने पर भी नहीं मिला।
बीकानेर दल की संख्या अधिक होने व गांव में नगण्य लोग होने पर विचारविमर्श हुआ कि ‘तेलिया’ व जमर किया जाए। लेकिन ऊहापोह की स्थिति बन गई क्योंकि मृत्यु को आमंत्रण कौन दें? जहां मृत्यु समक्ष हों तो भीरूता जाग्रत हो ही उठतीहै।
एक-दो कायर ने कहा कि-
“हड़ू को कहां जरूरत थी, राज के आदमियों से पंगा लेने की ? राज और राम से किसी की पार पड़ी भला? गलती एक ने की और भुक्त पूरा गांव रहा है।”
जब यह बात हड़वंतसिंहजी ने सुनी तो उन्होंने कहा कि-
“यह गांव हमारा है, हमारे ही गांव में आकर कोई अधम हमारे ही आदमी को पीटे और हम मूकदर्शक बनकर देखते रहें। लानत है हमारे चारण होने पर। क्या हमें हमारी प्रजा की रक्षा का अधिकार भी नहीं है? कोई लड़े या न लड़े लेकिन मेरी फुरणियों से जब तक श्वास प्रवाहित रहा है तब तक मैं कायरता नहीं ला सकता क्योंकि-
घाटी चढ हेलो कियो, हेले पाड़ी हल्ल।
लाज कहे मर जीवड़ा, वेह कहै घर हल्ल।।”
जब यह बात प्रभुदानजी मूल़ा की पत्नी चतरू माजी लालस को पता चली तो उन्होंने कहा कि-
“अभी चारणाचार मरा नहीं है। हड़ू अकेला नहीं है। मैं उसकी काकी हूं अर्थात बडी मा या मा न सही लेकिन छोटी मा तो हूं ही। अतः उसे अकेला नहीं मरने दूंगी। रुघोजी केवल उसके ही नाई नहीं थे अपितु हम सबके थे तो वो अकेला क्यों जूंझे। मैं जमर करूंगी।”
इतना कहकर उन्होंने अबोट वस्त्र धारण किए और करनीजी के मंदिर के आगे जोत प्रज्ज्वलित कर चिरजाएं गाने लगी। इधर इस बात का पता नगाणियों के बास के रायभाणजी की पत्नी गरवा माजी (दुर्भाग्यवश इनका नाम नहीं मिला) को पता चली तो उन्होंने भी निश्चय कर लिया कि-
“मैं भी जमर करूंगी।” वो भी पिंपल़िया गवाड़ में जमर करने आ गई।
अब प्रश्न उठा कि जमर की रक्षा कौन करेगा? गरवा माजी के जमर की रक्षा का जिम्मा खूमजी नगाणी ने लिया तो चतरू माजी के जमर का जिम्मा स्वयं हड़ूवंतसिंहजी ने लिया।
गरवा माजी के जमर की रक्षा करते हुए खूमजी के गोली लगी। वो वीरगति को प्राप्त हुए। इससे आतताइयों ने उस जमर को भ्रष्ट कर दिया। इधर हड़ूवंतसिंहजी बंदूकों से गोलियां चला रहे थे। आखिर में सोर खत्म हो गया। हड़ूवंतसिंहजी ने बंदूक का गोला दाबा लेकिन बंदूक ने जवाब दे दिया। इधर चतरू माजी ने जमर की तैयारी की। नवलख लोवड़याल़ी के जयकारे के साथ चतरू माजी जमर की ज्वालाओं में प्रविष्ट हुई। लाल़स माजी की रैयत हितैष्णा व जातीय गौरव को अभिमंडित करने को इंगित करते हुए किसी समकालीन कवि ने लिखा है–
चतरू चेल़ो चारणां, अंतस तोसूं काज।
मरण कियो झल़ मंगल़ां, लाल़स व्रन री लाज।।
यह घटना बैसाख सुदि 9वि. सं. 1893 की है। हड़ूवंतसिंहजी ने कटारी से छून छूनकर अपने शरीर के मांस की आहूतियां चतरू माजी के जमर में देनी शुरू की। जब वे निष्चेष्ट होने लगे तो मा चतरू ने कहा-
“बेटा ! आ मेरे खोल़े में बैठ। इन दुष्ठों को दंडित मा करनी करेगी।” हड़ूवंतसिंहजी ने भी अपनी काकी की गोद में बैठ जमर की ज्वालाओं में अपना शरीर होम कोम की कीर्ति पताका दिग्दिगन्त में फहराई। जसजी बीठू लिखते हैं–
पाय परमोद सुत गोद में पैठियो,
बैठियो जल़ेबा साथ बेटो।
साथ सखियात उण रात सप्रस हुयो,
खटक कर कमध सूं करण खेटो।।
हड़ूवंतसिंहजी के इस दुर्धर्ष साहस की कई समकालीन कवियों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। रुघजी रतनू दासोड़ी ने लिखा है-
हड़मंतै हड़मंत ज्यूं, बडहथ आंकै वार।
दुनिया सारी दाखवै, जाझा रंग जूंझार।।
रावल़ रांणां राजवी, अमलां वार अभंग।
पदमावत सारी प्रिथी, (तनै) रहै हड़ूता रंग।।
तो किसी अज्ञात कवि ने लिखा है-
राव रतनसा कोपियो, त्यार किया तुरकाण।
मन साचै मिलियो मतै, (तनै) रंग हो रोहड़ रांण।।
गांव में विरानी छा गई। जमर की ज्वालाओं से डरकर बीकानेरी टुकड़ी भाग छूटी। गाढवाला से निकलते ही नूरदीन घोड़े से गिरा और गिरते ही मर गया। उसकी लाश रिड़मलसर पहुंची।
जमर के पूरे समाचार बीकानेर पहुंचे तो डर के मारे रनिवास में शोक छा गया क्योंकि रतनसिंहजी के राज में निर्दोष चारणों पर जघन्यतम अपराध हुआ था। कहते हैं कि उसी रात रतनसिंहजी दो बार अपनी चारपाई से गिर पड़े थे तथा पेट में असहनीय दर्द रहने लगा। यह सिलसिला हर रात्रि को होने लगा। आखिर में महाराजा ने कर्मकांडी ब्राह्मणों से पूछा तो उन्होंने कहा कि-
“किसी स्वगोतीय के हाथों हड़ूवंतसिंहजी व उनकी चाची के पिंड गयाजी जाकर विधी विधान से प्रवाहित करवा दिए जाए।”
महाराजा ने सींथल़ से मूल़ों के बास के ही एक बीठू को गांव का लालच देकर बुलाया और पिंड प्रवाहित करने की बात की। उस कृतघ्नी ने लोभ में यह शर्त मानली तथा पिंड लेकर गयाजी चला गया। कहते हैं कि मार्ग में उसे बार-बार आवाज आती रही कि-
“काका पिंड मत सरा!” लेकिन उस कुलघाती ने लोभवश एक आवाज नहीं सुनी और गयाजी जाकर उसने पिंड प्रवाहित कर चारणाचार के विपरीत कार्य कर अपयश का भागी बना। उसे महाराजा ने एक गांव दिया। जहां उसके वंशज आज भी विद्यमान है।
सींथल के करनीजी मंदिर के आगे मा चतरां व हड़ूवंतसिंहजी का जमर स्थल तथा उनकी पाषाण पुतलिया उस अत्याचार के अध्याय के पटाक्षेप की गवाह है तो गरवा माजी की मूर्ति पींपल़िया गवाड़ में आज भी इस बात की साक्षीधर खड़ी है।
यह सभी मूर्तियां इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि किस कद्र उन हुतात्माओं ने अपने नाई रुघजी के स्वाभिमान की रक्षार्थ चार चारणों व पांच-छ भील वीरों ने अपने प्राणों की आहुतियां देकर इतिहास के उज्ज्वल पक्षों में अपना नाम सदैव के लिए अंकित करवा लिया-
रतनेस वरी अपकीरत राजन,
वीरत रोहड़ तैंज वरी।
सच तीरथ रूप हुवो धर सींथल,
कीरत खाटण बात करी।
रतनू कर जोड़ रचै कव रूपक,
कांन करै गिरधारि कयो।
पुरखां तण वाट बुवो पदमावत,
लाट हणूं जस नांम लियो।।
—
।।सींथल़-जमर रा दूहा।।
कमध जदै धर कोपिया, बीजां उपन्यो बीह।
प्रगट हरावल पदम सुत, आयो हड़ू अबीह।।1
गणणाई सिंधू गहर, रीस भूप रतनेस।
सूहड़ाई राखी सधर, पूत हड़ू पदमेस।।2
पेख मूल़ै परभेस रै, लाडी लाल़स लेख।
चतरां राखी चारणी, तण कुल़ री धुर टेक।।3
चतरां कीधो चारणी, जमर उजाल़ण जात।
जिणरो अजलग जोयलो, अमर नाम अखियात।।4
जुड़ी भीर जेठूत रै, जामण समवड़ जोय।
झल़ झाल़ां में झूलबा, हली हरावल़ होय।।5
करनी मढ आगै कियो, जम्मर अम्मर जोय।
पत राखी सत पाट री, पुहप कीरत पोय।।6
अंजसै बीठू आप सूं, अंजसै लाल़स आज।
चतरां हरी चितारनै, कियो वरन रो काज।।7
सींथल़ ऊजल़ सासरो, पीहर ऊजल़ पेख।
जय चतरां हे जामणी! तैं राखी घर टेक।।8
तवां अठारै तैणवैं, सुज बैसाख नवम्म।
चतरां राखी चारणी, सांसण तणी शरम्म।।9
जागो जम्मर दूसरो, बास नगाण्यां बेख।
गरवी माजी गुमर सूं, दुरस कियो कज देख।।10
पींपलियै नामां पुणां, गरवो उठै गवाड़।
रचियो जम्मर रतनवण, वैर्यां करण बिगाड़।।11
झाल़ां उपड़ी जम्मर री, दिसा उभै में देख।
छतो पगां बल़ छोडियो, अरियण भगा अनेक।।12
निसचै दुसटी नूरियै, निलज कियो कज नीच।
पापी उण ही पाप सूं, मारग पामी मीच।।13
कमधज भय सूं कांपतो, रात अखी रतनेस।
नयणां नींदन नावती, हिरदै ताप हमेस।।14
द्विजां सकल़ इक मन दखी, रतन दिसा इम राय।
गया पिंड घालण करो, अवरन नको उपाय।।15
पात तेड़ो इम पिंड रो, पिंड सरावण पेख।
उबरण चावो आप तो, ओ’ज उपायज एक।।16
सीथल़ रो इक सिटल़ियो, कमधज तेड़ कुपात।
पिंड हड़ू रा पाण ले, विटल़ बिगाड़ी बात।।18
अधपत ली अपकीरती, वीरत रोहड़ वेश।
झल़ झाल़ां रै जोर सूं, निज धज फरकी नेस।।19
गरवी लाल़स गढवियां, तवां बधायो तौर।
दाट्या दुसमी डकर दे, जस हद खाट्यो जोर।।20
सांसण सींथल़ साबतै, आई ईहगां आंच।
भील अगै जुप भांणवां, पूगा सुरगां पांच।।21
बसुधा सींथल़ बाजियो, मही सांसणां मोड़।
अड़ियो सदा अन्याय सूं, अणभै आय अरोड़।।22
~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”