मेरे वचनों की आबरू

पश्चिमी राजस्थान में गौधन की रक्षार्थ जितने प्राण इस धरा के सपूतों ने दिए हैं, उतने उदाहरण शायद अन्यत्र सुनने या पढ़ने में नहीं आए। बांठै-बांठै के पास अड़ीखंभ खड़ी पाषाण मूर्तियों के निर्जीव उणियारों पर स्वाभिमान व जनहितैष्णा-पूर्ति की आभा आज भी आलोकित होती हुई दिखाई देती है।

इस इलाके की अगर हम सांस्कृतिक यात्रा करें तो हमें ऐसे-ऐसे नर-नारियों के निर्मल चरित्र को सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता है जिनका नामोल्लेख किताबों में नहीं मिलता।

गौधन की रक्षा में प्राण न्यौछावर करने वालों में क्षत्रिय सपूत अग्रगामी रहे तभी तो उनके लिए कहा गया है-

छत्री मरै धेन रज छायां।
वरै अपछरा करै वडायां।।

लेकिन यहां यह भी उल्लेख्य है कि चारण नर-नारियों ने भी गौधन को लूटेरों व आतताइयों से बचाने हेतु या तो वीरगति वरी या फिर जमर की ज्वालाओं में अपना शरीर समर्पित कर अपनी उज्ज्वल परंपरा का निर्वहन किया।

ऐसी ही एक अल्पज्ञात कहानी है ऊजल़ां की हरखां माऊ की।

ऊजल़ां, सिंढायच लोलोजी नोखावत को गोविंद नरावत ने दिया था। नैणसी लिखते हैं-
“दत्त रावल़ गोईंद नरावत सूजो जोधावत रो चारण लोलो नोखावत जात सिंढायच नुं।”

यहां यह उल्लेख करना समीचीन रहेगा कि बीकानेर जिले का गांव नोखड़ा (केलणों वाला) लोलोजी के पिता नोखाजी ने ही बसाया था। इससे पहले नोखाजी के पूर्वज गोपालजी बलाल़ोत मोगड़ा में रहते थे। मोगड़ा सिंढायचों का माथासरा है। इतिहास व साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान कैलाशदानजी उज्ज्वल लिखते हैं-

प्रौल़पात कर दिया पुनी, गढपत बारै गांम।
मांन कुरब कर मोगड़ो, दरख तुरंग गज दांम।।

गोपाल़जी के तीन पुत्र हुए रानायजी, सोढलजी, और ऊदलजी। इन तीनों भाइयों का मोगड़ा में भोमियों से झगड़ा हुआ जिससे दो-तीन भोमिये रणखेत रहे। आगे अशांति की आशंका से तीनों भाई अपने परिवार सहित पोकरण के इलाके में आ गए। यहां उन्होंने वर्तमान अखेसर के पश्चिम में माड़वा में अपना निवास स्थान बनाया। कालांतर में वहां कोई अप्रिय घटना घटी जिससे ऊदलजी के वंशज वर्तमान ऊजल़ा की जगह बस गए। ऊदलजी की परंपरा में ऊजल़जी हुए और इनके पुत्र नोखाजी। नोखड़ा (वर्तमान में केलणों वाला) नोखाजी सिंढायच का ही बसाया हुआ गांव है। फिर लोलोजी को नरावतों ने ऊजल़ां की जगह सांसण इनायत किया तो उन्होंने अपने प्रतापी पूर्वज ऊजल़जी के नाम से इस गांव का नामकरण ऊजल़ां रखा।

दिग्गज साहित्य मनीषी कैलाशदानजी उज्ज्वल अपनी कविता ‘ओल़खाण’ में इस बात की ताईद करते हुए लिखते हैं-

नवी धरा शुभ दिन नखत, ऊजल़ वंशज आय।
दादै रो नांमो दियो, बस्ती नवी बसाय।।

इन्हीं ऊजल़जी की वंश परंपरा में धरमोजी हुए। जिनके वंशज धरमाणी कहलाते हैं। इन्हीं धरमाणियों के धड़े की कुलवधू थी हरखां माऊ।

अफसोस इस बात का है कि काफी कोशिश के बाद भी उनके पति का नाम विदित नहीं हो सका।

हरखां माऊ का पीहर ‘सांवलों की ढाणी’ था इनके पिता का नाम सांवल पबजी (पाबूदानजी) था। पाबूदानजी के सात पुत्र व एक हरखां पुत्री थी।

एक समय ऊजल़ां में अकाल पड़ा। दूर-दूर तक घास का त्रण तक नहीं बचा ऐसे में हरखां माऊ अपने किशोरवय पुत्र (दुर्भाग्य से उनका भी नाम नहीं मिलता) के साथ गायें टोर हरियाल़ी और पानी के बावड़ ले बाड़मेर की तरफ रवाना हुई। कमसाली का समय था। विरान पड़ी धरती। कहीं ‘पीया’ तो कहीं ‘तासा’ करती हुई हरखां माऊ बड़े जीवट के साथ अपने लांठ को लिए हुए मृगतृष्णा में धरती धूंसती व परड़ों के फण किचरती चली जा रही थी।

आखिर कानोड़ गांव की रोही में हरियाल़ी देख हरखां के शुष्क अंतस में हर्ष की हिलोरें उठी। उन्होंने वहीं अपना गोल़ जमा लिया।

कानोड़ राव तीडाजी के पुत्र वानरजी के वंशजों का गांव था। वानरजी की संतति राठौड़ों में बांदर अथवा वानर कहलाती है। कानोड़ में वानरजी के पुत्र वेलोजी की संतति बसती है।

पांच-दस दिन हरखां माऊ के बड़े आनंद से बीते। एक दिन भरी दोपहर में हरखां माऊ किसी वृक्ष की छाया में तावड़ा टाल रही थी और उनका पुत्र अपनी गायों के मनमते कभी पीछे चलता तो कभी डांग खाक में देकर मस्ती से खड़ा रह जाता। तभी उस किशोर चारण को चार-पांच आदमी सियारों की मानिंद गायों में घुसते दिखाई दिए। वो कुछ समझता अथवा कुछ कहता उससे पहले ही उन लोगों ने गायों को जबरन हांकना शुरु कर दिया।

जब अपनी गायों को सूनी गायों की मानिंद अपरिचित लोगों को हांकते देखा तो उनका स्वाभिमान जाग उठा। उन्होंने मन में कहा कि-‘धन धणी, नीं तो विकन खिणी’ यानी धन रखना है तो धणी बनके रखो अन्यथा बेच डालो। वो खोले टांगकर उनके आडफेट देते हुए बोला-
“कौन हो रे! गादड़ों? ये गायें मेरी है ! मेरी! मैं चारण हूं। जब तक जींदा हूं तब तक तुम जैसे कायर गायों को तो क्या इनके पोटों को भी छू नहीं सकते। छोड़ो मेरी गायें और जिस मार्ग आए हो उसी मार्ग चले जाओ!”

यह सुनकर उनमेंसे एक बोला कि-
“अच्छा आप बाजी हैं! तो बाजी ! आपने यहां किसको पूछके गोल़ जचाया? यह धरती हमारी है। हमारा ही खड़ (घास) खैंरूं कर रहे हो और हमारे ऊपर ही धसल़े! गनीमत समझो कि अभी तक हमने तुम्हें कुछ नहीं कहा। जीवित रहना चाहते हो तो हट जाओ हमारे सामने से।”

इतना सुनते ही उस किशोर ने कहा-
“अरे ! जा रे धरा रा धणी। गांव के गौरवें खड़ा है तब आभा टोपसी जितनाक दिखाई देता है वरन इस धरती में बडाबडी है। हम तो बैंतीयाण (राहगीर) और गोल़वी हैं। यह धरती तेरी है तो रख। हम आगे चले जाएंगे। बाकी गायों की तरफ देखने की हिम्मत ही मत करना।”

ऐसा सुनकर उनमेंसे किसी ने कहा कि-
“टोरो नीं गायें क्या छोकरिये का मुंह ताक रहे हो। छाछे मुख का छोकरियो हमारा क्या बिगाड़ सकता है। हमारी डांगे देख इसकी टांगे धूज रही है। यह तो ऐसे ही मूंछ वाला चावल कर रहा है। टोरो गायें!”

लेकिन उस किशोर ने गायें पाधरियां में टोरने नहीं दी। वो अपनी गायों की रक्षार्थ उनसे भिड़ पड़ा।

उधर एक अकेला चारण किशोर व इधर अपने काम में माहिर व शातिर चार-पांच कुक्षत्रिय। मुकाबला हुआ और वो किशोर उसी भांति रणखेत रहा जिस प्रकार महाभारत के युद्ध में अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हुआ। जिस प्रकार मरणासन्न अभिमन्यु ने अपने पिता महारथी अर्जुन को आर्तनाद की उसी प्रकार उस किशोर ने जोर से अपनी मा को पुकारा-
“हें र ! मावड़ी ए।” उसीके साथ वो स्वर्गारोहण कर गया। इधर “हें र ! मावड़ी” की करुण पुकार सुन धूप और छाया के अर्द्ध रूप में धर शय्या पर आडटेल़ कर रही हरखां माऊ झिझककर उठी और हड़बडाहट में उसी दिशा में दौड़ी जिस दिशा में उनकी गायें उछरी और यह आवाज आई थी।

आगे उन्होंने अपने मृत किशोर पुत्र को देखा तो दूर जाती गायों की तांबाड़ने की आवाजें और उडती गोधूली देखी तो उनके होश उड़ गए। रोही का वास। अकेली लुगाई जात। पास में न मा न मा जायो। एकाएक पुत्र ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। उन्होंने गायों की परवाह छोड़ लकड़ियां इकट्ठी की। पुत्र के पार्थिव शरीर को उठाकर चिता पर रखा और स्वयं ही चिता में प्रविष्ट होते हुए बोली-
“हे जोगमाया! हे सूर्यनारायण ! हे धरती माता! अगर आप में सत्य का वास है तो मेरे वचनों की आबरू रखना। जो दुष्ट मेरी गायें लेकर गए हैं उनका और मेरा बारिया (द्वादशा) एक ही दिन हो। जिस दुष्ट ने मेरे निर्दोष पुत्र को पहले घाव घाला है वो घर पहुंचने से पहले ही मर जाए। उन सबके घर की काल़ी करना।

इतना कहकर हरखां माऊ जमर ज्योति में विलीन हो गई।

किंवदंती है कि जैसा हरखां माऊ ने कहा वैसा ही हुआ। उस समय का एक दोहा इस बात की पुष्टि करता है लेकिन दुर्भाग्य से उसकी एक ही पंक्ति मिली-

—पूगी, हरखां हथोहत्थ।

यह बात लगभग 250वर्ष पूर्व की है। जो वानर हरखां माऊ की गायें लेकर गए। उनमेंसे एक तो घर पहुंचने से पहले ही मर गया और बाकी उसी रात्रि में मृत्यु के मुंह में समा गए।

आज भी ऊजल़ां के वासी कानोड़ के वानरों का पानी नहीं पीते अर्थात अपिया रखते हैं।

ऊजल़ कीधो ऊजल़ां, सांवलयांणी सुज्ज।
काल़ी की घर केवियां, भांमी हरखां भुज्ज।।
ऊ तैं सांवल ऊजल़ा, साचा किया सरब्ब।
खूब जगत जस खाटियो, पिता तिहारै पब्ब।।
कुटल़ कमध कानोड़ रा, अड़िया तो सूं आंण।
बे वानर पूगा विटल़, जग जोतां जमरांण।।
हरखां रो सुत हेकलो, गढव भिड़्यो कज गाय।
वीदग पांमी वीरगत, वीरत भोम बताय।।
सकव सुणी इम सांपरत, बसुधा जाहर बात।
पूगी तूं घर पीसणां, हरखां हाथोहाथ।।
प्रसिद्ध धर पिछमांण री, सगत सती नै सूर।
प्रगट कोम पावन करी, मही मुलक मसहूर।।

~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी
कथा संकेत-जेदू चारण ऊजल़ां, अर्जुनसिंहजी ऊजल़ां

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