मुलक सूं पलकियो काढ माता!! – विरधदानजी बारठ

वैसे तो हम सुनते और पढ़तें आएं है कि “ठेल सकै वो मोत नै, सुण्यो न मंत्र एक!” परंतु श्रद्धालु लोगों से ऐसे पावन प्रसंग भी सुनतें हैं जिनके श्रवण से एक अदृश्य शक्ति के प्रति भक्ति की ज्योति मानस में जागृत हो ही जाती है।

मेरे विद्यार्थी काल के बीकानेर में स्थानीय संरक्षक आदरणीय शेरजी बारठ (नाथूसर) जो स्वयं को कहते और लिखते तो कॉमरेड शेरदानसिंह बारठ थे मगर हकीकत में बहुत भक्त और सहृदय व्यक्ति थे। चूंकी उन दिनों वे कंवारे ही थे। इसका कारण मैं कुछ भाईसैणों की लापरवाही और कुछ उनकी खुद की नादरशाही ही मानता हूं!! (बाद में उन्होंने नींद बेचकर ओझका ले ही लिया!!) लेकिन इसका हमें (मेरे कुछ मित्र भी शामिल) यह फायदा था कि उनके कमरे में चौबीसों घंटों राम रसोड़ा चलता ही रहता था। उन्हें साहित्य की अच्छी जानकारी थी और मुझे शौक। हमारी घनिष्ठता प्रबल हो गई और उनका घर हमारे लिए चूकी चोट ऐरण झाले की माफिक पक्का रोटी का सराजाम। वे बाहर जाते तो कूंची कहां रखकर जाते हैं! यह हमें पूछने की आवश्यकता नहीं थी।

उन दिनों उनसे एक प्रसंग सुना था। वो आज नौरात्रि के पावन अवसर पर आपसे साझा कर रहा हूं।

उनके गांव में एक विरधदानजी बारठ हुए थे। जो उच्चकोटि के कवि और विद्वान मनीषी थे। जिनकी रचनाएं इंद्रबाईसा रो छंद, चामुंडा रा छंद आदि लोकप्रिय और प्रसिद्ध है।

वि.सं.1975 में पलकिया रोग आया। पलकिया यानि महामारी, जिसमें घर-घर के पलक में मर पूरे हुए। इस रोग की चपेट में विरधदानजी के एकाएक पुत्र गोविंद दानजी भी आ गए। घरमें कोहराम मच गया।

मृत गोविंद दानजी की देह को लोग ले जाने लगे तो उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि एक बार मुझे कुल़देवी को मेरी व्यथा सुनाने दो। वो नहीं सुनेगी तो मिट्टी को तो मिट्टी में मिलाना ही है, इसमें इतनी जल्दबाजी क्यों?

लोगों ने कहा कि यह तो होता आया है। आप हमें हमारा काम करने दें। इन्होंने दृढ़ता से मना कर दिया और अपनी कुल़देवी चामुंडा के मंदिर में एक चडाऊ गीत पढ़ा।

जैसे ही वो गीत पूर्ण हुआ तो लोगों ने देखा कि गोविंद दानजी उठ खड़े हुए। बाद में वर्षों जीवित रहे। गोविंददानजी भी डिंगल़ के अच्छे कवि थे और इनके पुत्र मेघजी भी श्रेण्य कवि हुए।

आपकी सेवा में उस गीत का अविकल पाठ दे रहा हूं-

।।गीत।।
उरड़ अणतार बिच वार करती इधक,
बीसहथ लारली कार बगती।
आंकड़ै अखूं आधार इक आपरो,
सांकड़ै सहायक धार सगती।।

त्रिमागल़ रोड़ती थकी आजै तुरत,
आभ नै मोड़ती मती अटकै।
रसातल़ फोड़ती थकी मत रहीजै,
गोड़ती समुंदरां असुर गटकै।।

भूडंडां भार मत रहीजै भुजाल़ी,
खंडां पार मत रहिजै खिजणी।
डंडां आकास ब्रह्मांड बिच डोलती,
बाघ पर चढाल़ी सवार बजणी।।

कांन रो मोड़ घट्ट भांगियो कड़ड़ड़,
बड़ड पतसाह नै जकड़ बैठी।
जड़ड़ असुरांण गिट गई तूं जोगणी,
पी गई हाकड़ो सड़ड़ पैठी।।

चेलकां सहायक सिंघां पर चढाल़ी,
गढाल़ी आव त्रहुंलोक गंजणी।
मढाल़ी मिहारो वचन सत मांनजै,
भोम पर डाढाल़ी विपत भंजणी।।

ताप हर चारणां विरध आखै तनै,
सारणां अनेकां कांम सदल़ै।
मारणां रोग कई जमपुर मेलदे,
वीदगां चारणां तनू बदल़ै।।

घाव कर मात चामुंड सत्रु घलकियो,
ईहगां भलकियो बेग आतां।
खल़कियो रोग प्रिथी मिनख खावणो।
मुलक सूं पलकियो काढ माता।।

~~प्रेषित: गिरधरदान रतनू दासोड़ी

Loading

Leave a Reply

Your email address will not be published.