पांडव यशेन्दु चन्द्रिका – द्वितीय मयूख

द्वितीय मयूख

छंद प्रकरण

दोहा
ना गायो जग-मीत कौं, साहित जुत संगीत।
श्रूपदास जिनके न द्वै, पूंछ रु स्रंग पुनीत।।१।।
जगत-बंधु (जगत का भला करने वाले) भगवान का साहित्य एवं संगीत युक्त जिसने गुणगान नहीं किया, उनके लिए कवि स्वरूपदास कहता है कि ऐसे मनुष्य, बिना पूंछ और स्रंग के नर-पशु हैं। ऐसे लोगों से तो पूंछधारी प्राणी उत्तम हैं (यह पुनीत शब्द कहने का अभिप्राय है)

छंद अलंकृत रसन को, करौं सूचिका पत्र।
बहु व्यापक सामान्य पख, आदिहि वर्नन अत्र।।२।।
कवि कहता है कि मैं छंद, और रसों का मात्र सूचीपत्र रच रहा हूँ। कारण कि छंद-अलंकारादि अन्य ग्रंथों में अत्यन्त सुन्दर ढंग से प्रयुक्त हुए हैं, मैं तो आरंभ में सामान्य रूप से (मुख्य-मुख्य) वर्णन कर रहा हूँ।

प्रथम छंद सूची
दोहा
एक बरन कौं आदि लै, छब्बिस वर्ण प्रयंत।
षष्ट विंश वृत भेद के, प्रथमहि नाम कहंत।।३।।
एक अक्षर से छब्बीस अक्षरों तक के छब्बीस प्रकार के छन्दों के नाम पहले कहता हूँ।

यथा छन्द-भेद नाम
पद्धरी-छंद
उक्ता अत्युका यह प्रमान, मध्या रू प्रतिष्ठा कहि सुजान।
सुप्रतिष्ठा अरू गायत्रि कीन, उष्णिक रू अनुष्टुप कह प्रवीन।।४।।

वृहती अरू पंक्ति मान लेहु, त्रिष्टुप जगती अति जगति तेहु।
सक्करी अति सक्करी होत, अष्टी, अत्यष्टी ध्रति उद्योत।।५।।

अतिधृति कृत्ती प्रकृति अरेह, आकृती अरू विकृति जाति एह।
संस्कृती अभीकृति चवत शेष, अकृती विंश षट नाम लेख।।६।।
नागपिंगल नामक छन्द-शास्त्र के प्रणेता शेष नाग ने छब्बीस जाति के छंदों को गिनाया है – यथा

(१) उक्ता (२) अत्युक्ता (३) मध्या (४) प्रतिष्ठा (५) सुप्रतिष्ठा (६) गायत्री (७) उष्णिक (८) अनुष्टुप् (९) वृहती (१०) पंक्ति (११) त्रिष्टुप (१२) जगती (१३) अति जगती (१४) सक्करी(१५) अति सक्करी (१६) अष्टि (१७) अत्यष्टि (१८) धृति (१९) अतिधृति (२०) कृति (२१) प्रकृति (२२) आकृति (२३) विकृति (२४) संस्कृति (२५) अभिकृति (२६) उत्कृति।

वर्ण संख्या
दोहा
छंद वरण प्रस्तार के, तेरह कोटि फनीश।
ब्याली लख सतरा सहस, सात्शत अट्ठाईस।।७।।
वर्ण-छंद के प्रस्तार के १३४२१७७२८ तेरह करोड़ बयालीस लाख सत्रह हजार सात सौ अट्ठाईस (रूप संख्या) भेद पिंगल में गुरुड़ को शेष नाग ने गिन कर बताये हैं। वर्ण संख्या के लिए आगे उदाहरण कोष्ठक देखें-

वर्ण छन्द-क्रम भेद-कथन
दोहा
वरण छंद कल छंद में, भेद कछू न लखाय।
तातैं वरणहि के करम, आठौं कहौं बनाय।।८।।
अक्षर मैत्री (मेळ) छन्द में और मात्रा मेळ (मैत्री) छंद में संख्या प्रस्तारादि का कम- भेद नहीं लगता। इससे अक्षर की संख्या-प्रस्तारादि की आठों प्रक्रियाओं को रच कर कहता हूँ।

वर्णाष्ट कर्म
दोहा
संख्या अरू प्रस्तार है, सुची उदिष्ट रु नष्ट।
मेरु पताका मर्कटी, येहि कर्म हैं अष्ट।।९।।
(१) संख्या (२) प्रस्तार (३) सूची (४) नष्ट (५) उदिष्ट (६) मेरु (७) पताका और (८) मर्कटी इन नामों वाली ये आठ क्रियाएं अक्षर मेळ छंदों की हैं।

(वार्ता) कोई पूछे एते वर्ण के रूप केते तब संख्या करें।
यदि कोई पूछे कि इतने अक्षरों के कितने रूप बनते हैं तब संख्या-भेद करना चाहिए।

संख्या- भेद
दोहा
प्रथम वरण पर दोइ को, मेलहु अंक विचारि।
संख्या दुगुनहि तैं दुगुन, प्रस्तारहि लौं धारि।।१०।।
पहले (एक) अक्षर पर (दो) अंक रख कर विचार-पूर्वक अनुक्रम में जितने अक्षरों के रूप जानने हों, उतने अक्षर के अंक पर दुगुनी से दुगुनी संख्या प्रस्तार के अनुरूप धरने से, इतने अक्षर के इतने रूप हुए यह उजागर होता है।
जैसे कि एक (१) को दुगुना करने से दो (२) हो जाते हैं इस प्रकार एक अक्षर के दो रूप हुए इसी प्रकार संख्या को दुगुना करने पर दो अक्षरों के चार रूप हुए, तीन अक्षरों के आठ रूप, चार के सोलह होते हैं, इस तरह क्रम से बढते अक्षरों की उत्तरोत्तर संख्या दुगुनी करते जाना है।

(वार्ता) रूप केते अरू कैसे? प्रस्तार करें

अमुक अक्षरों के रूप कितने और कैसे हैं? यह जानने को प्रस्तार करें।

प्रस्तार भेद
दोहा
लघु की सूधी रेख कर, गुरु की बांकी रेख।
आदी गुरु सब लघु तलक, यों प्रस्तारहि लेख।।११।।
लघु अक्षर (अ) की सीधी (।) रेखा बनाना, और गुरु अक्षर (आ) की बांकी (ऽ) रेखा बनाना, इस तरह प्रथम सभी गुरु के चिन्ह बना कर बाद में सभी लघु बने तब तक प्रस्तार किये जाना है।

आदि गुरु तर धरि लघु, अग्र सु आगे छेल।
घटै वरन प्रस्तार तैं, गुरु करि पाछे मेल।।१२।।
जितने अक्षरों का प्रस्तार करना हो उतने अक्षरों के चिन्ह बना कर, पहले चिन्ह से नीचे लघु का चिन्ह बनाएं। आगे के चिन्ह ऊपर दर्शायानुसार बनाएं। ऐसे करते हुए अन्त में जितने अक्षर घटें उतने गुरु के चिन्ह पीछे की तरफ बनाएं।

(वार्ता) पूछे गुरु आदि के रस कितने? औ लघु आदि के कितने? तथा लघ्वाद्यंत कितने? औ गुर्वाद्यंत कितने? तब सूची करें।
यदि कोई पूछे कि अमुक अक्षर के प्रस्तार में आदि गुरु के रूप कितने? और आदि लघु के कितने? तथा आद्यंत गुरु के कितने? और आद्यंत लघु के कितने? (अंत गुरु के कितने? और अंत लघु के कितने ?) तो यह जानने के लिए सूची बनानी चाहिए।

सूची भेद
दोहा
संख्या के पूर्णाक तैं, प्रथम अंक जो पंत।
ते गुरु आदि रु अंत है, ते लघु आदि रु अंत।।१३।।
पंक्ति में अक्षर की संख्या का यदि अन्तिम अंक हो तो उससे पहले के अंक जितने आदि गुरु और अंत गुरु के रूप होगें तथा आदि लघु के और अंत लघु के रूप भी उतने ही होंगे।

पुनर्यथा
दोहा
पूर्ण अंक तें तीसरे, होवें अंक जितेक।
गुरु आद्यंत तिते कहै, लघु आद्यंत तितेक।।१४।।
अक्षर की संख्या का जो अन्तिम अंक हो उससे पहले का तीसरा अंक जितना हो उतने ही रूप आद्यंत गुरु के तथा आद्यंत लघु के होते हैं। (और उतने ही लघु आदि एवं गुरु अंत के तथा गुरु आदि और लघु अंत के बनते हैं। अन्त की ये दो रूपाकृतियां मूल पाठ में नहीं बताई गई हैं)

जैसे कि छ: अक्षरों के चौंसठ रूप होते हैं। इस चौसठवें अंक के पहले का अंक बत्तीस है। इस तरह आदि गुरु के बत्तीस रूप होते हैं और अंत लघु के बत्तीस रूप होते हैं, इसके बाद चौसठवें अंक के पहले का तीसरा अंक सोलह है। इस तरह आद्यंत गुरु के सोलह और आद्यंत् लघु के सोलह रूप होते हैं।

जैसे छ: अक्षर की सूची छ: रूपाकृतियां
आदि गुरु के ३२ रूप                 आद्यंत गुरु के ३२ रूप
अंत गुरु के ३२ रूप                  आद्यंत लघु के ३२ रूप
आदि लघु के ३२ रूप                   अंत लघु के ३२ रूप

(वार्ता) रूप लिख पूछे यो रूप कितरमों तब उद्दिष्ट कीजै।
कोई अमुक वर्ण का एक रूप लिख कर पूछे कि यह रूप कितने में से है तो यह जानने के लिए उद्दिष्ट भेद करना चाहिए।

यथा उद्दिष्ट भेद
दोहा
वरनन पर अंक आदि तैं, यक तैं दुगन धरिष्ट।
लघु ऊपर के अंक में, वक धरि देख उद्दिष्ट।।१५।।
प्रश्न का जो रूप हो, उनके अक्षरों पर अंक इस प्रकार लिखें कि प्रथम चिन्ह पर एक का अंक लिख कर उसके बाद के अंक उत्तरोत्तर दुगुने लिखते जाएं, फिर लघु वर्णो पर के अंक जोड़ कर एक मिलावें। जितनी संख्या आए उतनवां रूप जाने। उदाहरण स्वरूप जैसे कि छ वर्ण के प्रस्तार में से कोई लिख पूछे यह रूप कौन सी संख्या वाला है (कितनवा है)?

यथा उदाहरण

१६ ३२

ऊपर के लघु चिह्न के १+ ४+ १६ = २१ इस २१ योग में एक जोड़ देने से बना २२। इस प्रकार यह बाईसवां रूप है ऐसा जानें।

(वार्ता) पूछे अतरमो रूप किसो छे? तब नष्ट कीजै।
कोई पूछे इस अक्षर का अमुक रूप कैसा है? तो यह जानने के लिए नष्ट भेद करना चाहिए।

यथा नष्ट भेद
दोहा
बेकी व्है तो लघु लिखी, एकी गुरू लखि लेहु।
एकी में यक मेलिये, बहुरि अरध करि देहु।।१६।।
प्रश्नांक बेकी (सम) होय तो लघु लिखना, और ऐकी (विषम) होय तो गुरु लिखना, फिर उसका आधा करना। यदि विषम अंक हो और उसका आधा न होता हो तो एक जोड़ कर होने वाले योग का आधा करें।

पुनर्यथा
दोहा
यौं ही सम अरू विषम को, लघु गुरु लिखते जाहु।
प्रस्तारहि के वरण लौं, अरध करत ठहराहु।।१७।।
इस प्रकार उत्तरोत्तर अर्द्ध भाग करते जाते हुए यदि बेकी (सम) आवे तो लघु का चिन्ह लिखें और यदि ऐकी (विषम) अंक तो गुरु का चिन्ह लिखें। जैसे कोई पूछे के छः अक्षर का छठा रूप कैसा होगा? इसका उदाहरण – प्रश्नांक छ: बेकी (सम) है इसलिए प्रथम लघु का चिन्ह (।) लिखें छः का आधा हुआ तीन यह विषम अंक है इसके लिए गुरु का चिह्न (ऽ) लिखें; तीन का आधा नहीं हो सकता अब इसमें एक जोड़ें हुए चार। आगे चार के आधे हुए दो, यह बेकी (सम) हुआ इसके लिए लघु का चिह्न (।) लिखें। अब दो का आधा एक, यह विषम अंक है इसके लिए गुरु का चिह्न (ऽ) लिखें। इस प्रकार छ: अक्षर के प्रश्न में चार चिन्ह(। ऽ। ऽ) आए और भागाकार पूरा हुआ, परन्तु दो अक्षरों के चिन्ह बाकी रह गए। चूंकि अन्त में गुरु का चिह्न (ऽ) आया इसलिए शेष रहे दो गुरु के चिन्ह और लगायें। इस प्रकार करने से छ अक्षर का छठा रूप (। ऽ। ऽ ऽ ऽ) यह हुआ। इसी तरह चार अक्षर का तेरहवां रूप का आकार नीचे मुजब होगा –
ऽ     ऽ     ।     ।
१३     ७     ४     २
[१३ + १ = १४ / २ = ७, +१ = ८ / २ = ४ / २ = २]

(वार्ता) पूछे अतरा गुरु का कतरा रूप, अतरा लघु का कतरा रूप? तब मेरु कीजै।
कोई पूछे कि अमुक अक्षर के प्रस्तार में इतने गुरु के रूप कितने? और इतने लघु के रूप कितने? तो यह जानने के लिए मेरु भेद करना चाहिए।

मेरु भेद
चौपाई
आदि दोय त्रय चतुर पंच थिर, वर्ण संख्य कोटा क्रम तैं कर।
मेरु प्रमाण यों कोठा कीजै, आद्यंत यक को अंक भरीजै।।१८।।
मेरु के बाहर बांई ओर एक, दो, तीन, चार, पांच इस प्रकार जितनवे अक्षर का मेरु करना हो उतने अंक एक के नीचे दूसरा इस क्रम से लिखें। और दांईं ओर क्रम से कोठे से बाहर अक्षर संख्या दो, चार, आठ, सोलह, बत्तीस इस तरह एक के नीचे दूसरी संख्या क्रम से लिखी जाए, मेरु (पर्वत) की तरह कोठे बनाएं, जिसमें आद्यंत (बांई और दांईं ओर के कोठों में) सारे एक साथ भरना।

ऊपर के द्वै अंक मिलावो, दुय कोष्ठन तर कोष्ठ भरावो।
वर्ण मेरु ऐसे भर भाई, जो तैं पिंगल की मति पाई।।१९।।
पहले (ऊँ का शिखर बना कर उसके नीचे के) दो कोठी मे दो अंक हों उनकी जोड़ नीचे के कोठे में लिखो। उसी प्रकार ऊपर के दो कोठों का योग उसके नीचे वाले कोठे में क्रम से उत्तरोत्तर भरते जाओ। यदि तुमने पिंगल के नियमों का ज्ञान किया हो तो भाई! अक्षर मेरु इस तरह से भरो।

इस मेरु के बाहर की बांईं ओर जो अंक लिखे हैं, ये अक्षरों के हैं और दांईं ओर उन अक्षरों के रूपों की संख्या लिखी है। यह बताती है कि इतने रूप संभव हैं। मेरु के नीचे शून्य से नव तक लिखे अंक हैं, इससे यह समझा जा सकता है कि नो अक्षर के छंद में शून्य गुरु अर्थात् नो लघु का एक रूप बनता है। एक गुरु के नो नो रूप बनते हैं, दो गुरु के छत्तीस रूप बनते हैं। तीन गुरु के चोरासी रूप और चार गुरु के एक सौ छब्बीस रूप बनते हैं, सात गुरु छत्तीस रूप, आठ गुरु के नो रूप और नो गुरु का एक अर्थात् सभी गुरु का एक रूप बनता है।

(वार्ता) पूछै कतरमा कतरमा रूपाँ में कतरा कतरा गुरु है?तो पताका कीजै।
कोई पूछे कि इतने अक्षर के कितने-कितने (कितनवे कितनवे) रूप में कितने-कितने गुरु आते हैं तो यह जानने के लिए पताका बनाएं।

पताका भेद
चौपाई
वरनन तैं यक अधिक कोष्ट करि, यक तैं दुगनै प्रथम ताहि भरि।
आदि अंत के अंक देहु तर, पंकति छोड़ि और उलटी भर।।२०।।
जितने अक्षरों की पताका बनानी हो उससे एक अधिक कोठा बनाएं फिर खड़े कोठे में एक से दुगुने करते हुए आदि से अंत तक के अंक भर दें, फिर खड़ी पंक्ति छोड़ कर उससे नीचे की आड़ी पंक्तियाँ भरनी है। वह इस तरह कि : –

पूर्ण अंक तैं पिछले अंक, घटत बचै सो भरहु निशंक।।
लिखियो अंक फेरि मति लेखहु, ऐसे वर्ण पताका देखहु।।२१।।
पूर्णांक में से उसके बाद का अंक बाकी निकालने पर बचे उसे क्रम से आड़ी पंक्ति जितनी हो, उतनी में निशंक रूप से अंक भरते जाएं, परन्तु इतना ध्यान में अवश्य रखें कि एक बार लिखा हुआ अंक दुबारा न लिखें। इस प्रकार अक्षर पताका बना कर देखें।

यथा चतुराक्षर पताका चित्र

१, २, ४ ८, १६ इन अंकों के पांच खड़े कोठे चार अक्षरों के हैं। इसके बाद ८ के पास की आड़ी पंक्ति तीन कोठों की है, इसके बाद ४ के पास की पंक्ति पाँच कोठों वाली है, इसके बाद २ के पास की पंक्ति तीन कोठों की है। ऊपर के १६ में से ८ के बाद वाले ४ को बाकी निकालने पर रहे १२ ये पहली आड़ी पंक्ति में है। इस के बाद १६ में से २ बाकी निकालने पर रहे १४, ये पहली आड़ी पंक्ति के दूसरे कोठे में हैं। अब दूसरी संख्या ८, इसमें से ४ छोड़ कर २ बाकी निकालने पर शेष रहे ६, यह संख्या दूसरी आड़ी पंक्ति के पहले कोठे में है। इसके बाद ८ में से १ बाकी निकालने पर शेष रहे ७, यह संख्या दूसरी आड़ी पंक्ति के दूसरे कोठे में है। इसके बाद प्रथम आड़ी पंक्ति के १२ में से २ बाकी निकालने पर बचे १०, यह संख्या दूसरी आड़ी पंक्ति वाले तीसरे कोठे में है।

इसी प्रकार १२ में से १ बाकी निकालने पर रहे ११, और प्रथम पंक्ति के तीसरे कोठे की संख्या १५ में से २ बाकी निकालने पर शेष रहे १३ ये संख्याएं दूसरी आड़ी पंक्ति के चौथे और पाँचवे कोठे में है। इसके बाद तीसरी पंक्ति के खड़े कोठे वाले ४ में से १ बाकी निकालने पर शेष रहे ३, इसे तीसरी आड़ी पंक्ति के पहले कोठे में रखा है। इसके बाद आड़ी पंक्ति में ६ में से १ बाकी निकालने पर शेष रहे ५ और १० में से १ निकालने पर बचे ९, इन्हें तीसरी आड़ी पंक्ति के दूसरे एवं तीसरे कोठे में रखा है। इससे यह समझने का है कि शून्य गुरु के अर्थात् सर्व लघु का रूप सोहलवां है। इसके बाद आठवां, बारहवां, चौदहवां एवं पंद्रहवां रूप एक गुरु के हैं। इसी तरह चौथा, छठा, सातवां, दसवां, ग्यारहवां एवं तेरहवां रूप दो गुरु के है। तीसरे गुरु के रूप हैं दूसरा, तीसरा, पांचवा और नोवां इसके बाद चार गुरु के अर्थात् सर्व गुरु का रूप पहला है। इस प्रकार इससे अधिक अक्षरों की पताका भी बन सकती है।

(वार्ता) पूछै अतरमी वृत्य के भेद मात्रा वर्ण लघु दीर्घ कितने हैं? तब मर्कटी कीजै।
कोई पूछे कि इतने अक्षरों के छंद में छंद संख्या, मात्रा, वर्ण, लघु तथा गुरु कितने? तो यह जानने के लिए मर्कटी बनाएं।

यथा मर्कटी भेद
चौपाई
वृत्त भेद मात्रा अरु वरणा, गुरु लघु उभा कोठा करणा।
फिर प्रस्तार वरण के माफक, आडे कोठे करहु षट ही तक।।२२।।
अक्षरों के, छंद (रूप) के, मात्राओं के, कुल अक्षरों के, कुल लघु के, कुल गुरु के, इस तरह पहले छ खड़े कोठे बनाएं, उसके बाद अक्षरों के प्रस्तार के जितने आड़े कोठे, इन्हें ६ कोठों तक करें।

प्रथमहि वृत्त पंक्ति की भरिये, यक तैं अंक क्रमहि तैं करिये।
दूजी पंक्ति भेद संख्या धरि, दोनों गुनी चौथी पंगति भरि।।२३।।
पहले छंद के अक्षरों की पंक्ति १ – २ – ३ -४ इस प्रकार कम से जितने अक्षरों की मर्कटी बनानी हो उतने आड़े भरना। दूसरी पंक्ति संख्या भेद के अंकों से भरें। फिर पहली और दूसरी पंक्ति का गुणाकार चौथी पंक्ति में भरना।

चौथी पंगति अर्ध-अर्ध करि, पंगति लघु गुरु पंच छठी भरि।
चौथी पांचमि अंक मिलावो, त्रीजी मात्रा पंक्ति भरावो।।२४।।
इसके बाद चौथी पंक्ति के अंकों को आधा-आधा कर लघु एवं गुरु की पांचवीं तथा छठी पंक्ति भरो, इसके बाद चौथी तथा पांचवीं पंक्ति के अंकों का योग 
कर तीसरी पंक्ति मात्रा की हो उसे भरो।

सप्ताक्षर – मर्कटि कोष्टक

(इति वर्णाष्ट-कर्म)

अथ छंद जाति भेद

दोहा
पुरुष त्रिया अरु खंड हैं, तीन जाति के छंद।

वर्ण मात्र मात्रा वरण, क्रम तैं गिनहु कविंद।।२५।।
पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग, ये तीन जाति के छन्द हैं। इनमें अक्षर मेळ पुल्लिंग है, मात्रा मेळ स्त्रीलिंग है और अक्षर तथा मात्रा मेंळ मिश्रित छन्द नपुंसक लिंग इस अनुक्रम से कविश्वरों ने कहा है।

पुरुष छन्द सूची – गण नाम
दोहा
भगन जगन अरु सगन के, आदि मध्य गुरू अंत।
यगन रगन पुनि तगन के, क्रम तैं लघु ही कहंत।।२६।।
आद्य गुरु भगण (ऽ।।) मध्य गुरु जगण (। ऽ।) और अंत गुरु सगण (।।ऽ) इसी तरह आद्य लघु यगण (। ऽ ऽ) मध्य लघु रगण (ऽ। ऽ) और अंत लघु तगण (ऽ ऽ।)।

मगन नगन के तीन ही, गुरु लघु करिके जान।
गन तैं सुच्छिम छंद गति, कहत स्वरूप बखान।।२७।।
तीन गुरु अथवा सर्व गुरु मगण (ऽऽऽ) और तीन लघु अथवा सर्व लघु नगण (।।।)। इस प्रकार आठ गणों द्वारा छंदों की गति का सूक्ष्म वर्णन कवि स्वरूपदास बखान कर कहता है।

लघु गुरु वर्णन
दोहा
गैल लगे कौं करत गुरु, निज लघु रहत निदान।
वरण संजोगी देत है, आप बड़ाई जान।।२८।।
जोड़ाक्षर (संयुक्त व्यंजन) स्वयं लघुत्व धारण करते हैं और पीछे रहे लघु अक्षर को स्वयं की बड़ाई रूप गुरुत्व देते हैं।

सुख मुखोच्चारणार्थ, गुरु देव लघुत्व माप्नोति।
लघु के बाद मुख से सुख पूर्वक उच्चारण करने के लिए गुरु अक्षर के होते हुए भी उसे लघुत्व देना पड़ता है अर्थात् त्वरा से बोले जाते गुरु को लघु गिना जाता है।

एक मगण तैं नारी छन्द
गोपीशं ।। जै ईशं ।। श्री शेषं ।। विश्वेशं ।।२९।।
हे गोपीवल्लभ (कृष्ण) प्रभु! हे विश्वेश्वर! लक्ष्मी तथा शेष (बलभद्र) युक्त आपकी जय हो।

एक नगण तैं कमल छन्द
निरत ।। करत ।। सरित ।। फिरत ।।३०।।
(श्री बाल कृष्ण यमुना) नदी के किनारे फिरते हैं और नृत्य करते हैं।

एक भगण तैं मंदरा छन्द
माधव ।। जादव ।। मारत ।। तारत ।।३१।।
लक्ष्मीपति यादव (श्रीकृष्ण) (दैत्यों को) मारते हैं और उनका उद्धार करते हैं।

एक यगण तैं शशि छन्द
सुघोषं।।अदोषं।।निवासी।।विलासी।।३२।।
(श्री बाल कृष्ण ग्वाला रूप में) निर्दोष गायों की गोठ में रहने वाले हैं और आनन्द करने वाले हैं।

एक सगण तैं रमन छन्द
जमुनं ।। गमनं ।। नचबो।। रुचबो ।।३३।।
(श्री बाल कृष्ण को) यमुना नदी के किनारे जाना और नृत्य करना अच्छा लगता है।

एक तगण तैं पंचालिका छन्द
राधेश ।। जोगेश ।। आराधि ।। गौ साधि ।।३४।।
योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान का आराधन कर अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हैं।

एक जगण तैं गजेन्द्र छन्द
अरूप ।। अनूप ।। अमाप ।। अपाप ।।३५।।
निराकार परमात्मा रूप रहित और उपमा रहित हैं और जिसका माप न हो सके इतने निष्पाप हैं।

एक रगण तैं प्रिया छन्द
श्याम ते ।। राम ते ।। एक है ।। नाम द्वै ।।३६।।
श्री कृष्ण और श्री राम ये दो नाम जुदा हैं परन्तु प्रभुत्व में दोनों एक ही हैं।

दोय मगण तैं सेखा छन्द
राधेजी गावे है। प्यारे कौं भावे है।
वंशी में बोले है। तानों कौं तोले है।।३७।।
श्री राधाजी गाती हैं वह कृष्ण को अच्छा लगता है पर स्वयं वे राग को बांसुरी में ताल के अनुरूप तोलते हैं और बोलते हैं।

दोय नगण तैं मदनक छन्द
मदन बदन। दनुज कदन।
रूचिर रदन। सुव्रत सदन।।३८।।
कामदेव जैसी मुखाकृति वाले, सुन्दर दांतों वाले और श्रेष्ठ व्रत का धाम श्री कृष्ण दैत्यों का नाश करने वाले हैं।

दोय भगण तैं अमंद छन्द
श्रीधर पावन। घोष बचावन।
कंस निपातन। कौरव घातन।।३९।।
लक्ष्मी पति (श्रीकृष्ण) पवित्र हैं। गायों के गोठ को बचाने वाले हैं, कंस को मारने वाले हैं और कौरवों का नाश करने वाले हैं।

दोय यगण तैं शंख नारी छन्द
विधाता फनीशं। धरे पाव शीशं।
रटै लोक तीनं। सुगोपी अधीनं।।४०।।
जिनके चरणों में ब्रह्मा और शेष नाग मस्तक नवाते हैं और जिनका स्वर्गलोक, मृत्यु लोक तथा पाताल लोक ये तीनों लोक नाम रटते हैं, वही श्री कृष्ण भगवान गोपियों के वश में हैं।

दोय सगण तैं तिलका छन्द
जननी जमना। अघ की समना।
हरि प्रीति प्रदा। सुख रूप सदा।।४१।।
श्री यमुना (कालिंद्री) माता पाप का नाश करने वाली है, श्री हरि में प्रीति देने वाली है तथा नित्य सुख स्वरूपा है।

दोय तगण तैं मंथना छन्द
राकापती जोत। बंसी रवं होत।
चाली सबै वाम। सोहै जितै श्याम।।४२।।
पूर्ण चन्द्र की चान्दनी खिल रही है और बांसुरी का रव गूंज रहा है। श्री बाल कृष्ण प्रभु (बंशी वट नीचे) है वहाँ सभी गोपियां चली।

दोय जगण तैं मालती छन्द
त्रिलोक नरिंद। गुपाल गुविंद।
निकंदन कंश। विभाकर वंश।।४३।।
त्रिलोक के स्वामी, गायों के पालनहार, इन्द्रियों के स्वामी, कंस का नाश करने वाले (श्री कृष्ण) यदुवंश के सूर्य-स्वरूप हैं।

दोय रगण तैं विमोहा छन्द
दास धी दायकं। राधिका नायकं।
गोप गो पालनं। दास भो टालनं।।४४।।
सेवकों को बुद्धि प्रदान करने वाले राधा वल्लभ, गोपजनों तथा गायों के पालनहार हैं, वे सेवकों के भय को हरने वाले हैं।

चार मगण तैं मोटक छन्द
गोपालां की साथां खेल्यो राधे प्यारो।
जाकौं गावो मेटो साधो म्हारो थारो।।
गीताजी में भाख्यो सोही नीको तत्वं।
भक्ति जोगं ज्ञानानंदं मुक्ति मत्वं।।४५।।
ग्वालों के साथ खेले उन राधा वल्लभ के गुण गाओ और सज्जनों, ‘मेरा-तेरा’ इस द्वंद्व भाव का त्याग करो। भक्ति, योग ज्ञानानंद रूप मोक्ष का मत जो गीता में कहा है वह श्रेष्ठ तत्व है।

चार नगण तैं तरल-नयन छन्द
हरि बिनु सब अघ टरत न।
वर तन मिल कर नर तन।।
भजि तजि भ्रम कम सुनि मन।
दिल सुध सुखप्रद दिन दिन।।४६।।
हरि के बिन अर्थात् हरि के भजन बिना पाप नहीं धुल सकते, हे मन! सुन, यह नर देह जो उत्तम शरीर है उसे पा कर भ्रांति का नाश कर और त्यागी बन, अर्थात् तत्फल की इच्छा रहित होजा। हमेशा शुद्ध मन आनन्ददायक होता है।

चार भगण तैं मोदक छन्द
केशव जादव माधव श्रीधर।
गोकुल में नचना रचना कर।।
जो दुखहा सुखदा अरि घातक।
नाम रटे कटि हैं सब पातक।।४७।।
केशव, माधव और श्रीधर इस नाम वाले यादव श्री कृष्ण भगवान, गोकुल में रास रमने की रचना करने वाले, दुखों को हरने वाले, सुखों के देने वाले और शत्रुओं का नाश करने वाले हैं। उनका नाम रटने से सारे पाप कट जाते हैं।

चार यगण तैं भुजंगी छन्द
भजो भक्तिदाता मुकुंद मुरारी।
जरासंध कैसादि के नाशकारी।।
अभै दान दाता नहीं कोय ऐसो।
जगन्नाथ स्वामी चिदानंद जैसो।।४८।।
वे जो जरासंध और कंसादि का नाश करने वाले मुकुंद, मुरारि नाम वाले श्री कृष्ण हैं। जो अपने भक्तों को भक्ति देने वाले हैं, उनको भजो। सत् चित् आनन्द के स्वामी श्री जगन्नाथ प्रभु जैसा और कोई अभयदान देने वाला नहीं है।

चार सगण तैं तोटक (त्रोटक) छन्द
जगदीश हरी मन तुं जज रे।
त्रिषना मुख में वसि ना तज रे।।
जब दास स्वरूप मिलै हरिजी।
हम सांच कह्यो फिर जो मरजी।।४९।।
कवि स्वरूपदास कहता है कि हे मन, तू जगदीश भगवान का पूजन- आराधन कर, तृष्णा के मुख में बस कर, श्री हरि का_ भजन करना मत छोड़, इसी से तुझे हरि की प्राप्ति होगी। मैं तो सच-सच कहता हूँ फिर जैसी तेरी इच्छा हो वह करना।

चार तगन तैं अदृष्टी छंद
रामा रमानाथ राजा त्रिहूं लोक।
संसार के त्रासहंता जुतं शोक।।
मायापती मोक्षदाता सदानंद।
धाता पिता राम आनंद के कंद।।५०।।
सौन्दर्यवान लक्ष्मी और उनके पति श्री राम चन्द्र तीनों लोकों के स्वामी हैं। शोक युक्त संसार के त्रास का नाश करने वाले हैं। सत् चित् आनन्द स्वरूप मोक्ष देने वाले हैं, माया के अधिपति हैं। जगत के कर्त्ता एवं जगत पिता श्री राम आनन्द कन्द हैं।

चार जगन तैं मोतीदाम छंद
अकाम अबाध्य अनादि अनूप।
सबैं जग व्यापक एक स्वरूप।।
अभै पद दायक देव उदार।
विभू अन खंड बिनास बिकार।।५१।।
प्रभु सर्वकामनाओं से रहित हैं, उपमा रहित अनुपम हैं, वे स्वतंत्र हैं, जिनका न कोई आदि है न अन्त। जो अपने एक ही रूप में सर्वव्यापक हैं। वे अभय पद (मोक्ष) के देने वाले परम उदार देव, विकारों का नाश करने में अत्यन्त समर्थ हैं।

चार रगन तैं स्वर्गवेणी छंद
देहदं प्राणदं सत्वदं भुक्तिदं।
मानदं बोधदं लोकयं मुक्तिदं।।
सेवकं पोषदं कंद आनंद के।
चंद राका जथा नंद हैं नंद के।।५२।।
पूर्णिमा के चन्द्रमा समान सम्पूर्ण कलाओं से युक्त, आनन्द कन्द श्री कृष्ण भगवान प्राण और देह को पोषण देने वाले और सत्वगुण अर्थात् शक्ति देने वाले हैं। विविध प्रकार के लोगों को नानाविध भोग और सम्मान के देने वाले हैं। ज्ञान के दाता हैं। नन्द के बेटे, लोगों को मुक्ति देने वाले हैं।

दोहा
अष्ट मगन अरु नगन तैं, छंद न पावत रूप।
तातैं वर्णन ना कियो, समुझि लेहु कविभूप।।५३।।
आठ मगण गण तथा आठ नगण गण से छन्द अपना यथार्थ स्वरूप नहीं पाता, यही सोच कर मैंने वर्णन नहीं किया। अतः आप कविश्वर इस बात को समझ लेना।

आठ भगन तैं किरीट छंद
आज प्रभा नट नागर की वृखभान सुता टक एक निहारत।
मोर पखा कच मेचक कीरिट कुंडल के ढिग नैन न टारत।।
गुंजन की बनमाल गलै पट पीत को ध्यान न नैंक बिसारत।
चातुरता मति आतुरता जुत बाल सँजोग उद्योग बिचारत।।५४।।
आज श्री कृष्ण की शोभा को वृषभान-पुत्री राधा एक टक निहार रही है। शिर के काले केशों से, मोर पंख के मुकुट से और कानों के कुण्डलों से उसकी नजर हटाये नहीं हटती। गले में पहनी हुई वनमाल और पीतांबर से उसका ध्यान नहीं हटता। वह बाला तो बुद्धि-चातुर्य युक्त उतावली सी मिलन की युक्ति सोच रही है।

आठ यगन तैं माधुर्य छंद
जदूनाथ गोविंद विश्वेश धाता, चिदानंद रूपी सदानंद कारी।।
कर्यो नाश कंसादि को वंश हंसं, विभू श्याम वृंदावनं भू बिहारी।।
तजै काम क्रोधं भजै लाइ बोधं, हरै ताप तीनों करै आप जैसो।।
कहै श्रूपदासं कटै काल पासं, तिहूं लोक बासी न को पूज्य ऐसो।।५५।।
यदुपति, गोविन्द, विश्वेश्वर, जगत्ध्रत और सत् चित् आनन्द स्वरूप जिन्होंने कंसादि असुरों का नाश किया है। यदुवंश में सूर्य रूप, प्रभु श्याम-सुन्दर वृन्दावन भूमि में विचरण करने वाले हैं। काम क्रोध तज कर बुद्धि पूर्वक जिन्हें भजने से वे तीनों तापों को मिटा कर भक्त को अपने जैसा कर देते हैं। कवि स्वरूपदास कहता है कि मृत्यु के पाश को काटने वाले त्रिलोकी नाथ जैसा पूजने योग्य और कोई नहीं।

अष्ट सगन तैं दुर्मिला छंद
मन को मिलबो जबही तैं भयो, भयो तिक्ष कटाक्षन को घलबो।।
सुख सागर जानि सनेह कियो, नट नागर आगि बिना जलबो।।
तन को मिलबो तो रह्यो अति दूर, रह्यौ कुल-मारग को चलबो।।
न रह्यौ अब बैनन को मिलबौ, न बनै अब नैनन को मिलबो।।५६।।
नायिका अपनी सखी के माध्यम से परोक्ष कथन द्वारा नायक के प्रति कहलवाती है कि हे चतुर नट! जब से तुम्हारे मन से मेरे मन का मिलाप हुआ है तब से तुम्हारे तीक्षण कटाक्षों का हृदय में पेसना आरंभ हो गया है। तुम्हें सुख का सागर जान कर जब से मैंने तुमसे स्नेह-सम्बन्ध बनाया तब से ही बिना अग्नि के जलने जैसा अनुभव करती हूं। देह का मिलन तो अब दूर की बात रह गई, रहा तो मात्र कुल-मर्यादा के मार्ग पर चलना। संवाद यदि संभव नहीं तो कोई बात नहीं पर अब तो नैनन का मिलना भी दुभर हो गया है।

दोहा
अंतरंग सखि तैं कहौ, जाय सुनावो गाय।
नीके राग मलार में, प्राकृट काल लखाय।।५७।।
स्त्री ने अपनी अंतरंग सखी से कहा कि हे सखी! तू नायक के पास जा और ऊपर लिखा सवैया अच्छी तरह मल्हार राग में गा कर उसे सुना, जिससे वर्षा ऋतु का आगमन हो और मेरे प्रियतम का आगमन संभव हो। उससे मिलने का संयोग सध सके।

[उसी सवैया पर स्वामी जी की स्वयं की टीका है जो निम्न प्रकार है वह जस की तस प्रस्तुत है]

या सवैया की टीका

परलोक साधन उपदेशक षट् शास्त्र- १ सांख्य, २ न्याय ३ पातांजल ४ वैशेषिक ५ मीमांसा ६ वेदान्त

यह लोक साधक षट् उप शास्त्र- १ व्याकरन २ कोश ३ तर्क ४ साहित्य ५ संगीत ६ नाटक

जिनमें ते साहित्य है या सवैया विषै, साहित्य के षट् अंग, प्रथम छंद, वृत्त में छइसधा, द्वितीय नायका चतुर्धा तृतीय, अलंकार एक शत अष्टधा, चतुर्थ रस द्वाद्वशधा, पंचम रीति चतुर्धा षष्टी ध्वन्यादि त्रिधा, ए षट ही अंग या सवैया विषै जाहर किया जायगा।

वाणी दोय, देववाणी संस्कृत, लोक वाणी भाषा, संस्कृत विषै सात विभक्ति जाहर होत हैं, समासांत भी होय, भाषा में विभक्ति समास तैं होय संस्कृत, विषे एकवचन, द्विवचन, बहुवचन हैं,

भाषा में एकवचन बहुवचन हैं, द्विवचन नाहीं, संस्कृत विषे स्त्रीलिंग-पुल्लिंग-नपुंसकलिंग हैं, भाषा विषे स्त्रीलिंग-पुल्लिंग हैं, नपुंसकलिंग नाहीं, भूत-भविष्य-वर्तमान-परोक्ष-प्रत्यक्ष संस्कृत और भाषा दोनों विषे होय, संस्कृत विषे पांच अनुप्रास होय, अन्त्यानुप्रास होय नहीं, भाषा में होय, जाको तुकान्त मौहारो भेटि कहत है, फारसी में काफिया कहत है?

संस्कृत में लघु को गुरु तीन ठौर होइ, संजोगी की आदि को, विसर्गादि, तुकान्तः भाषा में संजोगादि गुरु होइ, विसर्ग तुकान्त तैं नहीं, संस्कृत विषे संधी स्वर तैं विसर्ग तैं, ह्रस्व तैं, अनुस्वर तैं, भाषा की संधी, भव को भौ, जब को जौ, विभव को विभौ, भय को भै, लय को लै, ऐसो होय, सर्व शब्द को सब-स्रब-सरब भी होय, ऐसे पार्थ को पाथ-पारथ होय, संस्कृत विषे क्षकार-णकार-यकार को भाषा में छकार-नकार-जकार हैं, संस्कृत विषे दंती-तालवी-मूध्री स-श-ष होय, भाषा में सकार दंती होय, संस्कृत में लघु-दीर्घ-ह्रस्व चार भेद, भाषा में लघु दीर्घ दोय, जामें भाषा के छंद होय।

छंद दो प्रकार के, मात्रा और वर्ण, जामें उक्तादि वर्ष छंद की छाइस वृत्ति, जामें चौबीस वर्ष की संस्कृति वृत्ति जामें प्रस्तार के प्रमाण तैं एक क्रोड सड़सट लाख सत्योत्तर हजार दोय सो सोला छंद होय, तामें एकोतर लाख नेउ हजार दोय सो छतीसमा स्थान को रूप अष्ट सगन तें दुर्मिला छंद है, कहूंक लघु की ठाहर गुरु होइ, उच्चार में लघु बोले तो दोष नहीं, सुख मुखोच्चार।

रस बार जामें सात गौन, पांच अचल, आलंबन विभाव विषे, रौद्र १ करुण २ वीभत्स ३ वीर ४ हास्य ५ भयानक ६ अद्भुत ७ इन सातन में अंतर विकार स्थाई संचारी आदि, अंग विकार सात्त्विक अनुभाविक स्थिरीभूत नाहीं, श्रंगार १ शान्त २ वात्सल्य ३ दास्य ४ सख्य ५ इन पांचन में मन विकार संचारी ३३ स्वनिमित्तेन परनेमित्तेन द्विगुणे ६६ प्रकार भये।

शब्द स्पर्श रूप रस गंधेभ्यः पंच गुनित ३३० तीन सौ तीस भये, ऐसे ही तन विकार सात्विक दसधा गुने किये ३३०० तीन सहस तीन सौ भजे, सात्विक आदि और अनेक भाव सो तो स्थिर होत ही नाहीं परंतु अतंर विकार स्थाई रति १ निर्वेद २ ममत्व ३ विनय ४ रहस्य ५ ए स्थाई और बाह्य विकार द्विधा विभाव आलंबन और उद्दीपन, इन पांच हू में जाहर स्थिरीभूत दरसे हैं, इन पांच मुख्य रसन में श्रंगार रस है या दुर्मिला विषे रति स्थाई तो हैई, आलंबन विभाव नायका, और उद्दीपन विभाव पंचधा शब्द स्पर्श रूप रस गंध, जिनमें रूप, तीखे कटाक्ष, स्मरण, अंतरंग सखी आदि विवरण सात्विक सोई अनुभाव है आग बिना जलबो या शब्द तैं जान्यो जात है, वचन भी अनुभाव हैं, चिंता दैन्यादिक संचारी है ही, इन पांच भाव तैं रस पुष्ट है।

श्रंगार द्विधा, संजोग और वियोग, जामें वियोग षटधा, प्रथम प्रवास द्विधा, भूत भविष्यता, दूजो मान चतुर्धा, लघु-मध्यम गुरु-प्रणय, त्रीजो करुणा त्रिधा, दैहिक-दैविक-भौतिक, चोथो पूर्वानुराग त्रिधा, लोकमर्याद-वेदमर्याद-कुलमर्याद, पांचमो क्रियाजन्य द्विधा, देव और मनुष्य छठ्ठो प्रयोजनोद्भव त्रिधा, देश-काल-वस्तु, ऐसे सर्व वियोग सप्त दशधा भये, जिनमे पूर्वानुराग है।

संजोग में १० दश हाव को कोई कवि कहत है, वियोग में दस दशा, अभिलाषा १ चिंता २ गुनकथन ३ स्मरण ४ उद्वेग ५ प्रलय ६ जड़ता ७ उन्माद ८ व्याधि १ मरण १० जिनमें उद्वेग है, सुखद वस्तु दुखद होय, ध्वनि तैं अभिलाषा भी है, अंतरंग सखी कों नायका ने कह्यो मलार में गायकै सुनाइयौ।

अलंकार द्वै प्रकार के एक तो सामान्य, जाके तो अनेकधा भेद, विशिष्ट सें एक सो आठधा, विशिष्ट के अग विषे विषम, व्याघात। शब्दालंकार विषे षट अनुप्रास, वृत्या १ छेका २ लाटा ३ जमका ४ श्रुत्या ५ अंत्या ६ जिनमें छेका – लाटा – अंत्यानुप्रास हैं।

नायका चार प्रकार की, प्रथम अंग भेद चतुर्धा, दूजी प्रकृतिभेद त्रिधा, त्रीजी वही क्रम भेद षटधा, चौथी काल भेद पंचदशधा, जिसमें प्रथम प्रकृति भेद त्रिधा कही सो, स्वकीया १ परकीया २ सामान्या ३, जिसमें परकीया छ प्रकार की, १ विदग्धा द्विधा २ लक्षिता एक प्रकार, ३ अनुसयना चतुर्धा, ४ गुप्ता त्रिधा, ५ मुदिता
एक प्रकार की, ६ कुलटा एक, जिनमें शुद्ध (स्पष्ट) परकीया तथा लक्षिता हैं।

दर्शन चतुर्धा, श्रवण १ स्वप्न २ चित्र ३ साक्षात ४ जिनमें साक्षात दर्शन है। प्रकृति त्रिधा, सात्विकी १ राजसी २ तामसी ३ जिनमें राजसी प्रकृति है पांच हू कोष विषे अभिव्यापक व्हैके वचन निकस्यौ है, १ अन्नमय २ प्राणमय ३ मनोमय ४ विज्ञानमय ५ आनंदमय, ध्वनि तैं काकोत्ति अलंकार, काल ध्वनि भी होत है।

मेघ की भार्या मल्लार रागनी में गावै है सम्पूर्ण याकी जात है, आरोही अवरोही विषे ष १ री २ ग ३ म ४ प ५ ध ६ नि ७ सात ही सुर बोले जाते, ताल जलद तैं, ताल्लो मल्लार रागनी तैं, काल ध्वनि तैं बरषा रितु जिताई, वरषा की सामग्री सो भी सुखदाई है। परन्तु दुखदाई व्हैके अत्यंत विरह बढ़ावे है, मयूर विद्युत चातकादि। इतना प्रश्नोतर साहित्य के कवित्त छंद श्लोक दोहा सर्व विषे विचारबो, कोई साहित्य कुशल होय जाको पूछना, कोई पूछे जाको उत्तर करना सोई कवि है, आगे के कवित्तन में ऐसो ही विचारबो, ज्युं एक कण तैं सब अन्न की पक्कता जानिये।

[ स्वामी स्वरूपदास जी ने इस एक सवैया की टीका के बहाने संस्कृत एवं देशज भाषा के व्याकरण, अनुप्रास, छंदों, रसों, भाव-निभाव, अलंकार और नायिका भेद इत्यादि विषयों का संक्षेप में पर गहन तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। इनमें से एक भी विषय ऐसा नहीं कि उसे छोड़ दिया जाए पर विषयान्तर की दृष्टि से नहीं, विस्तार-भय की दीठ से इसकी टीका नहीं की गई है। एक दूसरा कारण यह भी है कि इस सामग्री की भाषा इतनी क्लिष्ट भी नहीं। छन्द शास्त्र के जानकार ये सभी बातें सुगमता से समझ सकते हैं। कुछ पाठकों को अवश्य थोड़ा दुरूह प्रतीत हो सकता है पर इसकी व्याख्या से ‘छंद जाति भेद’ नामक इस मयूख में, छन्दों के प्रकारों की गणों के आधार की निरन्तरता की लय भंग होने का अन्देशा था। पाठक कवि की मेधा से वंचित भी न रहे यह सोच कर ‘मूल’ यहाँ दे दिया गया है। (संपादक) ]

आठ तगन तैं करेड़ छंद
बाधा हरो नाध राधापती दास की श्याम कामारि के इष्ट आधार।।
एकाग्रता मोर तो पांव के ध्यान की राखिये देव देवाधि दातार।।
बोलैं सबै वेद पावें नहीं भेद तो और का जीव जानैं महाराज।।
गावैं कहा पीव पावैं कहा तो गती आपकी जोर माया मिल्यो आज ।।५८।।
है राधापति श्याम सुन्दर! है श्री शंकर के आधार रूप ईष्ट देव! है नाथ! आप सेवक की पीड़ा हरी! है देवाधिपति दातार देव! आपके चरणों में मेरे ध्यान की एकाग्रता बनाए रखें। सारे वेद आपका बखान करते हैं कि आपका पार नहीं पा 
सकते, फिर हे महाराज! दूसरे जीव आपको भला कैसे जान सकते हैं। हे नाथ! इस कलि काल में जो आपकी फैलाई माया में लिप्त हैं वे भला आपका कैसे गुणगान करे? और आपकी गति की भला वे क्या थाह पा सकते हैं?

आठ जगन तैं जीवक छंद
अपार अज्ञान मिल्यो इह जीव करो सुदया तब पावत पार।।
अनाथ कुजीव सनाथ करो इल धारन पालन देव उदार।।
कृपानिधि कारन के तुम कारन वेद उधारन पाप विदार।।
सदा कर जोर पुकारत श्रीवर बोध मिलै जुत भक्ति विचार।।५९।।
यह जीव अपार अज्ञान के भंवर में फँसा है इस पर यदि आप कृपा करें तो निश्चय ही यह भव-सागर को पार कर सकता है। है पृथ्वी की धारणा कर जगत का पालन पोषण करने वाले प्रभु! आप मुझ अनाथ और कुजीव को सनाथ और सुजीव करें। है कृपानिधि! आप कारण के भी कारण रूप हो, पाप का नाश करने वाले हो। है लक्ष्मीपति (श्रीवर)! मैं प्रतिदिन आपको हाथ-जोड़ कर अपनी आर्त्त पुकार से पुकारता हूँ कि मुझे आपकी कृपा से भक्ति सहित ज्ञान मिले।

आठ रगन तैं बोधक छंद
राम राजीव नाभी धर्यो इंड कौं पिंड बैराट सारे रचे एकदा।।
ब्रह्म कौं दै प्रजाधीश ऐसो पदं शेषशाई रहे आप न्यारे सदा।।
अंश कौं डारिकै विश्व कौं धारिकै दुष्ट को मारिकै टारि तापं हरी।।
दास कौं तारिके कीर्ति विस्तारकै पार कीने भ्रतं ग्राह तैं ज्यौं करी।।६०।।
है राम! (शेषशायी विष्णु भगवान) आप ने नाभि कमल से अंडाकृति को धारण कर विराट सृष्टि को सृजित किया है। सारे प्राणियों को अपनी ओर से आपने एक साथ रचा है। और इसका निमित्त ब्रह्माजी को बना कर, उन्हें प्रजापति का पद दे कर, आप स्वयं उससे अलग रहते हैं। है शेषशायी भगवान! आप इस विराट ब्रह्माण्ड में स्वयं का अंश रख उसे धारण करते हैं। यही नहीं, आप सृष्टि में रहने वाली दुष्टात्माओं अर्थात् असुरों का संहार कर श्री हरि! आप देवताओं के कष्टों का निवारण करते हैं। जिस प्रकार आपने पाश ग्राह से अपने दास गजेन्द्र को छुड़ा 
कर उसे मोक्ष प्रदान कर, अपनी कीर्ति का विस्तार किया, उसी प्रकार मुझ सेवक का भी उद्धार करें।

वार्ता – मात्रा छंद, त्रीस मात्रा एक दल की, अठारा पर विश्राम, चौपाया छंद मात्रा छाबीस, चवदा पर विश्राम, वैताल छंद इत्यादि त्रिया छंद जानिये जामें गुरु लघु वर्ण को प्रमाण नांही। जिसके एक चरण (तुक) की तीस मात्रा होती हैं, और अठारह मात्रा के बाद विराम आता है इसे चौपाया छंद कहते हैं। जिसमें छब्बीस मात्रा हो और चौदह मात्रा के बाद विराम आए उसे बैताल छंद कहते हैं। इन्हें बिना मात्रा मेल के कारण स्त्री जाति का छंद जाना जाता है। जिन में गुरू लघु वर्णो का प्रमाण नहीं।

नपुंसक छंद
दोहा
तेरह ग्यारह मात्र फिर, तेरह ग्यारह जोय।
सौ दोहा विपरीत तैं, होइ सोरठा सोय।।६१।।
दोहा के एक चरण में पहले तेरह मात्रा और बाद में ग्यारह मात्रा होती है जो मिल कर चौबीस मात्रा बनती है। इस प्रकार दोनों चरणों में सब मिला कर अड़तालीस मात्रा होती हैं। इससे विपरीत अर्थात् एक चरण में पहले ग्यारह और बाद में तेरह मात्रा हो और दोनों चरणों की सब मिला कर अड़तालीस मात्रा हो उसे सोरठा कहते हैं।

वार्ता – मोहरा पर जगन के तगन होय, बिना मोहरा तुकान्त नगन रगन सगन तैं होय तातैं षंड, सोल मात्रा अंत जगन सो पद्धरी छंद। सोला मात्रा अंत्याक्षर गुरु सो पादाकुल, पद में एक त्रीश अक्षर, सोला पनरा पर विश्राम, अंत्याक्षर गुरु, मनहर छंद जाकौं पिंगल में कवित्त कहत है, पद विषे बत्तीस अक्षर होय, सोला सोला पर विश्राम होय, अंत अक्षर लघु होय सो घनाक्षरी, छंदन में गुरू लघु वर्ण को नेम है अरु नहीं है। जातें नपुंसक कहिये, ऐसे ही थोरे कहे बहोत समझ लेनो।

दोहा के मोहरे पर जगण (। ऽ।) अथवा तगण (ऽऽ।) होते हैं। बिना मोहरे के अन्त में नगण (।।।), रगण (ऽ। ऽ) अथवा सगण (।।ऽ) हो तो इससे दोहा षंढ कहलाता है। एक पद जिस की सोलह मात्रा के अन्त में जगण (। ऽ।) हो तो ऐसे चार पदों को पद्धरी छन्द कहते हैं। यदि एक पद की सोलह मात्रा का अंत्याक्षर गुरु हो तो ऐसे चार पदों को पादाकुल (पाया कुल अथवा-चरणा कुल भी) छंद कहते हैं। यदि एक पद में इकत्तीस वर्ण हों और इसमें सोलहवें तथा पंद्रहवें अक्षर पर विराम आवे और अंत्याक्षर गुरु हो तो ऐसे चार पदों को मनहर छंद कहते हैं। इसे पिंगल में कवित्त भी कहते हैं। एक पद में बत्तीस अक्षर हों और सोलहवें अक्षर पर विराम आए साथ ही अंत में लघु अक्षर हो, उसे घनाक्षरी छन्द कहते हैं। छन्दों में गुरु लघु वर्णों का नियम है और जिनमें यह नियम नहीं, वे नपुंसक छन्द कहलाते हैं। इस प्रकार मेरे थोडे से वर्णन को विस्तार से समझ लें।

।।इति द्वितीय मयूख।।

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