पांडव यशेन्दु चन्द्रिका – तृतीय मयूख
तृतीय मयूख
अलंकार तथा रस प्रकरण
अलंकार-सूची
दोहा
वसु अयन विधु सर्व हैं, भेद गिनै बहु होय।
अति व्याप्ति के दोष तैं, चौरासी मुख जोय।।१।।
वसु-आठ, अयन-दो, विधु-एक इन अंकों से बनने वाली संख्या को उलटने पर बनी (१२८) । एक सौ अठाईस अलंकार होते हैं फिर आगे प्रत्येक भेद गिनने से यह संख्या बढ़ जाती है। अति व्याप्तता दोष से बचते हुए कहें तो (८४) चोरासी अलंकार होते हैं (अति-व्याप्ति का खुलासा आगे देखें)
जाने जात जु शब्द तैं, काम परै बहु ठौर।
अलंकार मुखि कहत हौं, ग्रंथ बढ़ै विधि और।।२।।
जो शब्दोच्चार से जाने जाते हैं, और बहुत जगह जिनकी जरूरत पड़ती है, उन-उन अलंकारों का वर्णन करता हूं बाकी सभी प्रकार के अलंकारों का वर्णन करने से ग्रंथ का विस्तार बढ़ जाएगा।
उपमा सूची-पूर्णोपमा
दोहा
धर्म और उपमेय है, उपमा वाचक आन।
कोमल हरि पद कंज से, कम तैं उपमा ज्ञान।।३।।
वाचक, धर्म, उपमान और उपपेय इन चार पदों को क्रम से लाने पर उपमा (पूर्णोपमा) जानी जा सकती है, जैसे कि श्री हरि के चरण, कमल जैसे कोमल हैं। इसमें समता वाचक (से) पद, कोमलता का धर्म, कमल उपमान और श्री हरि के चरण उपमेय, इस प्रकार चारों पदार्थ होने से यह पूर्णोपमा अलंकार हुआ।
अष्ट लुप्तोपमा
दोहा
चंद्र वदन शीतल सदा, लखद्दु मीन से नैन।
राधाजी के पद कमल, सुच्छिम हरि कटि ऐन।।४।।
देखो, श्री राधाजी का मुख चन्द्रमा (जैसा) सदा शीतल है, नैत्र मीन की तरह (चपल) हैं, चरण कमल (जैसे कोमल) हैं और सुन्दर कटि-प्रदेश सिंह की (कमर जैसा) पतला हैं।
इस दोहे के प्रथम चरण में चन्द्रमा उपमान है, मुख उपमेय है और शीतल रूप गुणधर्म है पर समता वाचक पद नहीं, इसलिए ‘वाचक लुप्तोपमा’ अलंकार है।
दूसरे चरण में मीन उपमान है, नैत्र उपमेय है और (से) समता वाचक पद है पर चपलता रूप गुणधर्म कहा नहीं, इससे यह ‘धर्म लुप्तोपमा’ अलंकार हुआ।
तीसरे चरण में चरण उपमेय है और कमल उपमान हैं पर समता वाचक पद और कोमलता रूप गुणधर्म कहा नहीं, इससे यह ‘वाचक धर्म लुप्तोपमा’ अलंकार है।
दोहे के चौथे चरण में कटि उपमेय है और सूक्ष्मता का धर्म है परन्तु सिंह की कटि उपमान और समता वाचक पद मूल में कहा नहीं। इससे यह ‘वाचक-उपमान लुप्तोपमा’ अलंकार हुआ।
दोहा
रमा सदस लावन्य है, पिक सी मीठी बानि।
हे हरि! दाड़िम से रदन, हंस गमनि करि जानि।।५।।
लक्ष्मी समान सौन्दर्य है, कोमल जैसी मधुर वाणी है। हे हरि! (श्री राधाजी के) दांत दाड़िम जैसे हैं, उसे हंस-गामिनी हाथी (जैसी) जानो।
इस दोहे के प्रथम चरण में लक्ष्मी उपमान है। समता वाचक पद है और लावन्यता रूपी गुणधर्म है परन्तु उपमेय ‘राधा’ नाम कहीं नहीं आया इससे यह ‘उपमान लुप्तोपमा’ अलंकार हुआ।
दूसरे चरण में (सी) समता वाचक पद है, मीठास रूप गुण धर्म है, और वाणी उपमा है परन्तु उपमान ‘कोयल की वाणी है’ यह कहा नहीं, इससे वह ‘उपमान लुप्तोपमा’ अलंकार है।
तीसरे चरण में (से) समता वाचक पद है, अंत उपमेय है परन्तु दाड़िम के दाने उपमान और वर्णाकृति गुण धर्म का वर्णन नहीं है। इससे यह ‘धर्मोपमान लुप्तोपमा’ अलंकार है।
चौथे चरण में ‘चाल’ उपमेय कथन है परन्तु हाथी की चाल उपमान, समता वाचक पद, और मंदत्व रूप गुणधर्म इस प्रकार तीन पदार्थो का वर्णन नहीं इससे ‘वाचक धर्मोपमा लुप्तोपमा’ अलंकार है।
उपमा पदार्थ
दोहा
पद आदिक उपमेय हैं, कंजादिक उपमान।
द्विविध धर्म सामान्य अरु, कहत विशेष बखान।।६।।
चरण आदि उपमेय पदार्थ है, कमल वगैरह उपमान पदार्थ है और सामान्य एवं विशेष इस तरह दो प्रकार के गुणधर्म पदार्थ हैं। जो बखान कर कहने में आते हैं।
सी से सो ज्यौं लौं इवै, सम तुल्य सदृश समान।
मनों आदि वाचक जहां, श्रोती उपमा जान।।७।।
सी (जैसी) से (जैसा) , ज्यों (जिस तरह) लौं (इस प्रकार) , इव (ऐसे) , सम, तुल्य सदृश्य, समान, मनों आदि समता-वाचक पदार्थ हैं और जहाँ शाब्दी उपमा हों वहाँ भी समता वाचक पदार्थ जानें। जैसे कि ‘पीक कंठी’ इसका आशय है कोयल के कंठ यह शाब्दी उपमा हैं। ‘मनों’ शब्द का कल्पना वाचक समता में समावेश होता है, जैसे ‘मुख मनों कमल होय’ मुख कमल जैसा होता नहीं है पर कल्पना में (मनों) ऐसा जानो।
धर्मोपमा
दोहा
भँवर धनुष अरु बाण भ्रुव, वर्णाकृति गुण मानि।
धर्म सु तीन प्रकार के, समुझहु सैन सुजान।।८।।
भ्रकुटि भ्रमर, धनुष और बाण अर्थात् भ्रमर की पांखों के वर्ण जैसी श्याम है, धनुष की आकृति जैसी वक्र है और बाण जैसी तीक्ष्ण है। इस प्रकार रंग, आकृति और गुण के माध्यम से दी गई धर्मोपमा तीन प्रकार की है। हे सुजान पाठको! संकेत में समझ लो।
वर्णधर्म
दोहा
सित मेचक पीरे हरित, धूसर अभ्राकार।
लोहित मिश्रित आदि ये, धर्म वर्ण करि धार।।९।।
सफेद, काला, पीला, नीला, धूसर, बादल के रंग का, लाल और दूसरे मिश्रित रंग आदि ये वर्णधर्म जान लो।
आकृतिधर्म
दोहा
लघु दीरघ सुच्छिम पुषट, वक्र अवक्र बखान।।
संपूरन आवर्त पुनि, सुव्रत त्रिकोण सुजान।।१०।।
(१) अल्प (२) विशाल (३) पतला (४) पुष्ट, मोटा (५) टेढ़ा (६) सीधा, (७) सम्पूर्ण (८) चक्राकार (चक्र जैसा गोल) (९) गेंद जैसा गोल और (१०) त्रिकोण जान लो।
गुरु तीक्षण मंडल सहित, आकृति धर्म सु आहि।
कहु कहु गुन आकृति दुहूं, अर्थन बीच सराहि।।११।।
(११) मोटा (१२) तीक्ष्ण और (१३) कुंडलाकार ये सारे आकृति धर्म है। इसमें भी कोई-कोई गुण तथा आकृति दोनों अर्थो में बखाने जाते हैं, जैसे कि पत्थर में गुरुत्व अर्थात् भारीपन और आकार ये दोनों धर्म होते हैं। बाण के फाल (अग्रिम भाग) में तीक्ष्णता और आकार ये दोनों धर्म एक साथ होते हैं, आदि।
गणधर्म
दोहा
मृदु कठोर चंचल अचल, सुखद दुखद गतिमंद।।
अबल बली सत असत मति, अगति सदागति कंद।।१२।।
(१४) नर्म अर्थात् सुकोमल (१५) कठिन (१६) चपल (१७) अडिग (१८) सुखदायक (१९) दुखदायक (२०) धीमे चलने वाला (२१) निर्बल (२२) बलवान (२३) सत्य (२४) झूठ, असत्य (२५) बुद्धि (२६) बिना गति के गतिहीन (२७) निरन्तर गतिशील।
हरिबो भारी क्रूर स्वर, सुस्वर मधुर दत रूप।
सीत तपत जुत कहत है, गुण सु धर्म कविभूप।।१३।।
(२८) हल्का (२९) वजनदार, भारी (३०) कर्कश (३१) मधुर आवाज (३२) मीठास वाला (३३) दान (३४) रूप (३५) ठंडा (३६) गर्म इन गुणों वाले गुणधर्म कहे गए है। हे कविश्वरो! आपकी जानकारी के लिए कहता हूं। दोहा
उदाहरन इन सबन के, कीने केशवदास।
कछुयक मैं हूँ कहत हौं, समुझहु बुद्धि निवास।।१४।।
कवि स्वरूपदास कहता है कि इन सभी के उदाहरण कवि केशवदास ने बताए हैं पर थोड़े से उदाहरण मैं भी आपके समक्ष रख रहा है सो विद्वजनो!, आप समझ लें।
वर्णधर्मोदाहरण
दोहा
स्वेत कृष्ण अरुण जुत, पीतहि रंग बिचारि।
चारहु को अब करत हौं, उदाहरण उच्चार।।१५।।
सफेद, काला, लाल और पीला इन चार रंगों को सोच कर, चारों रंगों के अलग अलग उदाहरण दे रहा हूं।
श्वेतोदाहरण
घनाक्षरी
बल बक हीरा कुंद पुंडरिक कांस भस्म,
कांचु अहि खांड हाड करिका कपास गनि।
चंदन चँवर हंस सत्ययुग दुग्ध शंख,
उड्गन फीटक सीप चूनो शशि शेष भनि।
गंगोदक शुक्र सुधा शारदा शरद सिंधु,
सतोगुन शंकर सुदर्शन फटिक मनि।
शान्त हास्य उच्चीश्रवा नारद रु पारद तैं,
ऊजरे अधिक मन ऐसे हरिदास धनि।।१६।।
बलभद्र, बगुला, हीरा, मोगरा, कमल, कांसा, विभूति, सर्प की कंचुकी, शक्कर, हड्डियां, बर्फ, कपास, चंदन, चँवर, हँस, सतयुग, दूध, शंख, तारे, फिटकरी, सीप, चूना, चन्द्रमा, शेषनाग, गंगाजल, वीर्य, अमृत, सरस्वती, शरद ऋतु, क्षीर-सागर, सतोगुण, महादेव, सुदर्शन चक्र, स्फटिक मणि, शान्त रस, हास्य, उच्चीश्रवा घोड़ा, नारद और पारा आदि से भी श्री हरि के सेवकों के हृदय अत्यन्त उज्जवल है, इसलिए वे धन्य है।
कृष्णोदाहरण
कली काक कोकिल कच कीच काच केकी क्रोध,
करि काली कृत्या कोल कज्जल कलंक मानि।
कृष्ण काम कलह कुसंग कालकूट सुरा,
कुजस करवाल तम पाप पुंज लौं बखानि।
विंध्याचल तालवृक्ष व्यास बन व्याल व्योम,
द्रौपदी जलद जांबू जमना अनृत बानि।
मृगमद शंगार रस निर्य नील तेल हू तैं,
कारे हैं अधिक हरि-विमुखों के ह्रदै जानि।।१७।।
कलियुग, कौआ, कोयल, केश, कीचड़, काच, मोर, क्रोध, हाथी, कालिका, कृत्या (कर्कशा) वाराह, काजल, कलंक, कृष्ण, कामदेव, क्लेश, कुसंग, विष, शराब (कलंकित करने वाला है इसलिए काला कहा) अपयश, तलवार, अन्धेरा, पाप का ढेर, विंध्याचल, ताड़-वृक्ष, व्यास मुनि, वन, सांप, आकाश, द्रौपदी, बादल (मेघ) , जामुन, यमुना नदी, झूठी वांणी, कस्तूरी, श्रंगार-रस, नर्क, नीलपशु (कट्ठियार) और तेल से भी अधिक काले हृदय वाले वे हैं, जो श्री हरि से हमेशा विमुख रहते हैं।
रक्तोदाहरण
कवित्त
रसना अधर पल किंदुरी पकी द्रगंत,
तक्षक सिंदूर और हिंगरू बखानि हैं।
दाडम पलास काशमीरी औ जसूस फूल,
सारस औ कुर्कुट की सीखा अनुमानि हैं।
मानक खद्योत इन्द्र गोप कुज पावक हैं,
किसलै मजीठ रक्त चंदन पिछानि हैं।
रौद्ररस महावर गेरू औ रुधिर संध्या,
रजोगुन विषयी को ऐसो मन जानि हैं।।१८।।
जीभ, होठ, मांस, पका हुआ एक जंगली फल, नेत्रों के कोने, तक्षक नाग, सिंदूर, कुमकुम (हिंगलू) , दाड़िम के दाने, पलाश के फूल, केसर, जसूद का फूल, सारस पक्षी, मुर्गे की कलंगी, माणक, जुगनु, इन्द्रगाय, मंगल ग्रह, अग्नि, पेड़ की कोंपल, मजीठ, रक्त चन्दन, रौद्र रस, महावर, गेरु मिट्टी, रक्त, संध्या, रजोगुण और विषयी मनुष्य के मन को ऐसा लाल जानें।
पीतोदाहरण
दोहा
वैननेय वानर विधाता और वासव जे,
हर्द हरताल रंग हाटक सुहायो सो।
चक्रवाक चंपक है चपला चमेली सोन,
गोरोचन गायमूत्र द्वापर बतायो सो।
पीतर पराग मेरू गंधक कमल-कोश,
केशर को रंग सो कविसुरन गायो सो।
वासुदेव पीत वास कंस काज कटी कस्यो,
इन तैं विशेष सुन्यो वीररस छायो सो।।१९।।
पक्षिराज गरूड़, केसरी जाति का वानर, ब्रह्मा, इन्द्र, हलधर, हरताल का रंग, सोना, चक्रवाक पक्षी, चम्पा पुष्प, बिजली, सोनजूही, गोरोचन, गोमूत्र, द्वापर युग, पीतल, पुष्परज, सुमेरु पर्वत, गंधक? कमल के अन्दर का भाग, केसरिया रंग जिसे कवियों ने बखाना है और कंस को मारने के लिए श्री कृष्ण ने पीले वस्त्र से कमर कसी थी पर ग्रंथकार कहता है इन सभी से अधिक पीला वह वीर रस सुना है जो उस समय श्री कृष्ण पर छा गया था।
आकृति पदार्थ कथन
चौपाई
त्रिय की निंदर कोप अहार, दगपूतरि अणु लघु उच्चार।।
वामनदंड मेरु दातामन, आतम वित्त दृष्टी दीरघ गन।।२०।।
स्त्री की नींद, कोप और आहार, आंख की कीकी और रजकण (अणु) इन्हें लघु (थोड़ा छोटा) कहा है। वामन भगवान का दंड, सुमेरु पर्वत, दाता का मन तथा आत्मज्ञान की दृष्टि ये सभी विशाल माने गए हैं।
त्रियचिंता केहरि कटि केश, सुच्छिम माया ब्रह्म विशेष।।
त्रिय नितंब कुच करि कुंभस्थल, पुष्ट किये जे बर्नत कवि भल।।२१।।
स्त्री की चिन्ता, सिंह की कमर, केश और विशेषकर ब्रह्म और उसकी माया से सभी सूक्ष्म माने जाते हैं। स्त्री के नितंब, कुच और हाथी का कुंभस्थल इन को श्रेष्ठ कवियों ने पुष्ट माना है और बखाना है।
भौंह कटाक्ष अलक धनु अहिगति, वक्र कोलरद कुटिलन की मति।।
तोमर बाण दीप स्थिर नासा, सरल मती जे हरि के दासा।।२२।।
भ्रकुटि, कटाक्ष, बालों की लट, धनुष, सर्प की चाल, वाराह की दंतुली, दुर्जनों की बुद्धि ये सारे बांके (वक्र) कहे गए हैं जब कि भाला, बाण, स्थिर दीपक की लौ, नासिका और श्री हरि के भक्तों की बुद्धि ये सारी चीजें सीधी हैं।
आनन अंबुज प्रेम प्रकाश, संपूरन आदर्श अकाश।।
चकरी चक्र अलातचक गनि, फिर आवर्त कुलालचक्र भनि।।२३।।
मुख, कमल, प्रेम का प्रकाश, दर्पण और आकाश ये सभी सम्पूर्ण कहे गए हैं, और चकरी, चक्र, लकड़ी का एक सिरा जला कर उसे फिराने पर दिखने वाला ज्वाल चक्र और कुम्हार का चाक ये सभी गोल गिने गए हैं।
कुच किंदुक बिल्वादिक इंडा, सुव्रत और कहिये ब्रह्मंडा।।
महि त्रिकोण अरु वज्र सिंघारे, पांच तत्त्व लजा गुरु धारे।।२४।।
स्तन, गेंद, बिल्वफल, अंडा और ब्रह्मांड इन सभी को सुव्रत (गोलाकार) जानें। पृथ्वी, वज्र और सिंघाड़े को तिकोना गिने। पांच तत्व (पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु-आकाश) और लज्जा को बड़ा अर्थात् विस्तीर्ण मानें।
नैन बान नख तोमर तीच्छन, मँडल मुद्रिका कुंडल कंकन।।
आकृति वस्तु कही सो जानहु, अब बरनौं गुन वस्तु पिछानहु।।२५।।
नयन, बाण, नाखून और भाला ये सभी तीक्ष्ण माने गए हैं अंगुठी, कुण्डल और कंगन ये मंडलाकार हैं। ग्रंथकर्ता कहता है कि ये आकृति-पदार्थ कहें हैं सो जाने और अब गुण-पदार्थ कहता हूँ।
गुण पदार्थ कथन
चौपाई
किसलय कुसुम हरिजन को मन, बालक कवि बानी म्रदुता गन।।
उपल अस्ति कूरम की पीठ, वज्र कठिन दुर्जन की दीठ।।२६।।
वृक्ष की कोंपल, फूल, हरि भक्त का मन, बालक और कवि की वाणी ये सभी सुकोमल गिने गए हैं। जब कि पत्थर, हड्डियां, कछुए की पीठ, वज्र और दुर्जन की दृष्टि इस सभी पदार्थो का गुण कठोर है।
मीन मधुप मर्कट मन माया, छल सुपनो जोबन घनछाया।।
विद्युत मारुत चलदल के दल, ध्वजपट तियचख आदिकचंचल।।२७।।
मछली, भंवरा, वानर, मन, माया, छल, स्वप्न, यौवन, बादलों की छांह, बिजली, पवन, पीपल का पान, ध्वजा का वस्त्र और स्त्री के नयन इन सारे पदार्थो को चपल जानें।
अचल मेरु ध्रुव संतन को चित, सुथल सुपूत सुतीय सुखद मित।।
कुअत कुवाम कुबुद्धि कुस्वामी, वृषा प्रवासादिक दुखगामी।।२८।।
सुमेरू पर्वत, ध्रुव-तारा, सन्तों का चित्त इन सभी को अचल माना गया है। अच्छी जगह (स्थल) , सपूत, अच्छी स्त्री और मित्र ये सभी सुखकारी हैं जब कि कुदास, कुभार्या, कुबुद्धि, कुस्वामी और, वर्षा काल में प्रवास ये सभी दुखकारी हैं।
कुल त्रिय हास मंद हँस त्रिय गत, अबल पंगु अरु गुंग रोगयुत।।
अंध क्षुधातुर तिय अरु बालक, बधिर अनाथ तिनाह हरि पालक।।२९।।
कुलशील स्त्री का हँसना, हँस की चाल और स्त्री की चाल मंथर होती है। इसी प्रकार पंगु (विकलांग) , रोगी, मूक, बधिर, अंधा, अति भूखा, स्त्री, बालक और अनाथ ये सभी अबल कहलाते हैं जिनकी रक्षा करने वाले केवल श्री हरि हैं।
बली भीम हनु पवन काल जम, सत्य ब्रह्म सब जगत जूठ भ्रम।।
जीव हिरंब गिरा विधि की मति, ध्रुव नभ थावर सबही अन गति।।३०।।
भीमसेन, हनुमान, पवन, समय और यमराज ये सभी बलवान हैं। ब्रह्म सत्य है और तमाम जगत भ्रम रूप असत्य है। बृहस्पति, गणपति, सरस्वती और ब्रह्मा ये सारे मतिवंत (बुद्धिशाली) हैं और ध्रुव तारा, आकाश, वृक्षादि सारे गतिविहीन हैं।
जल प्रवाह मन मस्त सदागति, फूल तूल त्रन फैन फोर अति।।
हाटक पारद सीसो पर्वत, इनकी कवि भारी करि बर्नत।।३१।।
जल प्रवाह (बहाव) , मन और पवन ये सतत चलायमान है, इसी प्रकार फूल, रूई, तिनका और झाग ये सभी हल्के जबकि सोना, पारा, सीसा और पर्वत इन सभी को कवियों ने भारी मान कर बखाना है।
काक उलूक कोल महिषी खर, शिवा करम अहि आदि क्रूर स्वर।।
कोकिल शिखी वीण शुक सारौ, सुस्वर मीष्ट उखादिक धारौ।।३२।।
कौआ, उल्लू, सूअर, भैंस, गधा, गीदड़, ऊंट और सांप इत्यादि के स्वर कर्कश होते हैं जबकि कोयल, मयूर, वीणा यंत्र, तोता और मैना इन सभी के स्वर ईख के रस की तरह मीठे ही होते हैं।
गौरि गनेश गिरीश गिरा को, रवि दोउ राम दान कहि ताको।।
नल दमयंती सीता राम, रूप अश्वनिसुत रति अरु काम।।३३।।
पार्वती, गणपति, महादेव, सरस्वती, सूर्य, रामचन्द्र और परशुराम इन के दान की महिमा बखानी जाती है। नल-दमयंती, सीता-राम, अश्विनी कुमार, रति और कामदेव ये सभी अपने सुन्दर रूप के लिए जाने जाते हैं।
चंदन चंद्र कपूर साधु सँग, तुहिन पवन को है शीतल अँग।।
दिनमनि चित्रभानु तप रोग, और तपत प्रियतम को शोग।।३४।।
चन्दन, चन्द्रमा, कपूर, सज्जन का संग, बर्फ और पवन इनके शीतल अंग हैं जबकि सूर्य, अग्नि, ताप, रोग और प्रियजन का वियोग ये सभी गर्म गिने जाते हैं।
आकृति धर्मोदाहरण
सवैया
लधु क्रोध अणूं मन दीरघ मेरू, हरी कटि कुंभ करी कुच है तन।
जुग भौंह धनु थिर दीपक नासिका, कंज मुखी चकरी हरि को मन।।
कुच कंचन किंदुक लाल सिंघारे, महागुरु लाज है वाण से लोयन।
कर कंकण मुद्रिका कुंडल राधे के, मंडल ओपमा आकृति ए गन।।३५।।
राधा का क्रोध अणुमात्र (आंशिक थोड़ी देर का) है, मन सुमेरू जैसा विशाल, कमर सिंह के जैसी सूक्ष्म, शरीर हाथी का और उसके स्तन कुंभस्थल की तरह पुष्ट है। दोनों भ्रकुटियां धनुष की मानिन्द वक्र हैं, नासिका स्थिर दीपक की लौ जैसी सीधी है। कमल जैसा मुख सम्पूर्ण है, उनकी ओर श्री कृष्ण का मन आवृत रूप चकरी की तरह घूमता है। स्तन सुवर्त रूप सोने की गेंद जैसे हैं। नासिका की बाली में सिंघाड़े जैसा त्रिकोण लाल रत्न शोभा दे रहा है। उनकी लज्जा बड़ी है पर नेत्र बाण की तरह तीक्ष्ण हैं। हाथ के कंगन, अंगुलियों में अंगूठियां और कानों में कुण्डल मंडलाकार हैं। इस प्रकार कवि आकृति-धर्म को राधा के उदाहरण रूप समझा रहा है।
गुणधर्मोदाहरण
पंकज से पद हीर कनी रद, मीन से नैन हैं संतन सो चित।
पीव पतिव्रत आधिन व्याधि न, हंस गती अबलानि में भूषित।।
काल हू पै बल ब्रह्म मनोवत, माया को फैल विरंचि हु पै मति।
व्योम बिना गति श्रेष्ठ सदागति, फूल तैं फोरि हैं भारि गिरी गति।।३६।।
उदाहरण रूप समझाने के क्रम में कवि राधिका वर्णन में कहता है कि उनके चरण कमलवत कोमल, दंत हीरे की कनी जैसे कठिन हैं। नयन मछली की तरह चपल पर चित्त सज्जन के चित्त की तरह अचल है। पतिव्रता स्त्री की तरह पति के वश में हो कर सुखदायक है दुखदायक नहीं। उनकी चाल हंस की तरह मंदगति है। वे अबलाओं (स्त्री को अबला माना है इस अर्थ में) के मध्य शोभायमान हो रही हैं। (ये अबला नहीं) काल से भी प्रबल जिनका बल है, उनकी मनोवृति ब्रह्म के समान सत्य है और असत्य रूप माया का प्रसार भी उनमें है। ब्रह्मा से बढ कर जिनकी बुद्धि है वे आकाश की तरह स्थिर भी हैं, और नित्य गति में पवन की तरह हैं। राधा फूल से भी हल्की है और पर्वत से अधिक भारी भी।
पुनर्यथा
सवैया
काक सो ना सुर कोयल सो सुर, दाख सी बानि महेश्वर सो दत।
गौरि सो रूप है सीत तुहीन सी ताप दिनेश सो राधिका राजत।
जा क्रम दोहन बीच है ता क्रम, बीच सवैयन शोधि महामति।
दास स्वरूप बिचारिकै देखियौ, आकृति और सुभाव हू कि गति।।३७।।
उनका स्वर कौए की तरह कर्कश नहीं बल्कि कोयल जैसा मधुर है, दाख की तरह मीठी वाणी है। महादेव जैसा उनका दान है और पार्वती जैसा रूप। हिम जैसी शीतल राधिका जी का प्रताप सूर्य की तरह है। जो क्रम पीछे के दोहा संख्या दस से तेरह तक वर्णित है, यही क्रम सुविज्ञो! आपको इन तीन सवैयों में मिल जाएगा। कवि स्वरूपदास कहते हैं कि इस प्रकार आकृति और शील गुणों की गति विचार कर देखें, आप उन्हें इन सवैयों में पाएंगे।
(छतीस गुणधर्म इन तीन सवैयों में कवि ने वर्णित कर दिखाये हैं, सं.)
वार्ता-उपमेय को उपमा नहीं होय तहाँ अनन्वय अलंकार।
जहाँ उपमेय की उपमा नहीं हो अर्थात् उपमेय ही उपमान रूप हो वहाँ अनन्वयालंकार होता है।
यथा उदाहरण
दोहा
का उपमा दैं आपकौं, भो कश्यप सुत भान।
उपमा लगै सु आपकौं, आप सदृश्य को आन।।३८।।
हे कश्यप के पुत्र सूर्य! आपको जगत में किसकी उपमा दी जा सकती है? ऐसी भला कौन सी उपमा है जो आप पर लागू हो, क्योंकि सूर्य जैसा तो एक सूर्य ही है। यह अनन्वयालंकार हुआ।
वार्ता-दोष को गुन मान लेनो सो अनुज्ञा अलंकार, एक भाव कों दबावत दूजो भाव प्रगटे सो भावसाबल्य कहिये, दोउ को एकत्र उदाहरण-
दोष को गुण मान लेना यह अनुज्ञा अलंकार है, जहाँ एक भाव को दबा कर दूसरा भाव प्रकट हो, वह भाव सावल्यालंकार कहलाता है। इन दोनों का एकत्र उदाहरण निम्न प्रकार है-
दोहा
मीच दुखद जानो मती, महा गुरु है मीच।
स्रूपदास सो सुमरतां, नरहरि सुमरे नीच।।३९।।
मृत्यु को दुखदायक मत जानो, मृत्यु तो महागुरु है। कवि स्वरूपदास कहता है कि मृत्यु का ध्यान आते ही नीच मनुष्य भी ईश्वर को याद करने लगता है।
इसमें मृत्यु-रूप दोष को भी गुण माना है इसलिए यह अनुज्ञा अलंकार हुआ, और मृत्यु होने की चिन्ता रूप भाव को ईश्वर स्मरण रूप शान्त भाव ने दबाया इससे भाव साबल्य अलंकार हुआ।
वार्ता-एक ठौर एक वस्तु मैं गुन औगुन माने सो लेश अलंकार, हरष विषाद विरूद्ध भाव की संधी को उदाहरण-
एक ही जगह एक वस्तु में गुण-अवगुण दोनों का समावेश हो, उसे लेशालंकार कहते हैं तथा जहाँ हर्ष-विषाद रूप विरुद्ध भावों की संधि हो, वहाँ भाव-संधि अलंकार हुआ। इन दोनों अलंकारों के उदाहरण इस प्रकार हैं-
दोहा
छिन छिन ऊमरघटत लखी, भयो हरष अरु शोक।
धुनि तैं वक्ता अवसता, लखि हैं बुधजन लोक।।४०।।
क्षण प्रतिक्षण आयुष्य घटती है, यह देख कर (जान कर) हर्ष और शोक १ दोनों हुए। इन बोलों (ध्वनि से) के माध्यम से गुणी विद्वान इसके अर्थ का लेखा-जोखा कर लेंगे।
इसमें किसी दुखग्रस्त, व्यथित मनुष्य की उक्ति के माध्यम से प्राण शीघ्र छूट जाने से दुःख से मुक्ति मिलने का हर्ष हुआ, पर कोई सुकृत्य न बन पड़ा इसके पश्चाताप रूप शोक हुआ। इस प्रकार उम्र घटने की एक ही बात में हर्ष एवं शोक होने से, गुण-अवगुण की मान्यता का वर्णन होने से लेशालंकार और हर्ष-शोक रूप विरुद्ध भावों की संधि होने से भाव संधि अलंकार हुआ।
वार्ता-आकृति वर्णन चेष्टा तें स्वभावोक्ति, आदि को पद आदि, अंत को पद अंत यथायोग्य उदाहरण तें यथासंख्या, और विषाद, भावोदय चार हू को एकत्र उदाहरण-
आकृति वर्णन एवं चेष्टा वर्णन के द्वारा स्वभावोक्ति अलंकार होता है। आगे का पद आगे और पीछे का पद पीछे इस क्रम से यथायोग्य उदाहरण हो वहाँ यथासंख्या अलंकार होता है। इसके अतिरिक्त विषाद तथा भावोदय इन चारों अलंकारों का एक इकट्ठा उदाहरण इस प्रकार है-
दोहा
क्यौं सिंगार सौंधो पहरि, किय तिय राग उचार।
अँधरो पीनस जुत बधिर, है पिय परखण हार।।४१।।
सखी नायिका के प्रति कहती है कि हे सखी! तू ने शृंगार युक्त सजधज कर, देह पर सुंगधित आलेप लगा कर, रागिनी का स्वर उच्चारित क्यों किया? कारण कि तेरी सजधज को निरखने वाला तेरा पति तो अंधा, नाक के रोग वाला और बहरा है।
इसमें शृंगार करना रूपाकृति तथा सुगंध लगा कर राग अलापना इस प्रकार चेष्टा वर्णन द्वारा स्वभावोक्ति अलंकार हुआ, और अंधा होने के कारण शृंगार को नहीं निरख सकना, पीनस रोग वाला होने से सुगंध का न ले सकना और बहरा होने से राग का न सुन सकना, ये भावों का क्रम से प्रथम का प्रथम पद और अंत का अंतिम पद में आने से यथासंख्या अलंकार हुआ। पति को रिझाने की इच्छा पूरी न होने से विषादालंकार हुआ। शृंगार में प्रीति, इस स्थाई भाव में पति के अंधत्व दोष द्वारा खेद होना रूप भाव दोनों प्रकट है इससे भावोदयालंकार हुआ।
वार्ता-निंदा में स्तुति सो व्याजस्तुति अलंकार, तथा चिंता भाव शान्ति।
जहाँ निंदा वर्णन में से स्तुति का भाव निकले वहाँ व्याजस्तुति अलंकार होता है और चिन्ता भाव की शान्ति से समाहित अलंकार होता है।
यथा उदाहरण
दोहा
हरि कठोर दासनि करत, निर्धन अरु निहकाम।
दास भूप बकसत दुयनि, धर्म्यन दुर्लभ धाम।।४२।।
कवि स्वरूपदास कहता है कि श्री हरि कठिन हृदय वाले हैं। ये अपने भक्तों को निर्धन और निकम्मे बनाते हैं परन्तु धर्म एवं मोक्ष दोनों अलभ्य लाभ उन्हें प्रदान करते हैं।
इसमे कठोरत्व रूप निंदा वर्णन में भी ओघड़ दानी रूप स्तुति वर्णन है इससे व्याजस्तुति अलंकार हुआ और निर्धनत्व रूप चिंता भाव की अलभ्य लाभ रूप आनन्द भाव से भाव-शान्ति हुई इससे समाहिता अलंकार हुआ।
वार्ता-स्तुति में निंदा होय सो ब्याज निंदा अलंकार।
जहाँ स्तुति में निंदा हो वहाँ ब्याजनिंदा अलंकार होता है।
यथा उदाहरण
दोहा
गेह पधारो सास कह, अहो बहूजी आप।
द्वार देहरी क्यौं खरी, एरी सकुल अपाप।।४३।।
बहु के प्रति सास कहती है कि ओ निर्दोष कुलीन बहुजी! आप घर में पधारें, डेहली (देहरी) पर क्यों खड़ी हैं?
इस स्तुति में निंदा है अर्थात् निर्दोष है पर दोषी भी इससे ब्याजनिंदा अलंकार हुआ। [ राजस्थान के गांवों में बहु का इस प्रकार दरवाजे के बाहर खड़ा होना अशुभ गिना जाता है। सं.]
वार्ता-याको विपरीत लक्षणा भी कहत है, बहुवाची।
इसमें एक वाक्य का दूसरे में बदला हुआ रूप होने से इसे बहुवाची या विपरीत लक्षणा भी कहते हैं।
वार्ता-अति सर्वार्थ कारण के लिये पद फेरफेर ग्रहण होइ सो एकावली अलंकार।
बहुत सारे अर्थों के कारण जिसमें शब्द बार-बार प्रयुक्त होते हों, उसे एकावली अलंकार कहते हैं।
यथा उदाहरण
दोहा
पदपद नूतन नुतन तरु, तरु तरु कोकिल खंड।
खंड खंड प्रति मधुर सुर, सुर सुर मदन प्रचंड।।४४।।
किसी गर्वोन्मत स्त्री के प्रति सखी की उक्ति है कि हे सखी! कदम कदम पर आम ही आम के वृक्ष हैं और वृक्ष-वृक्ष पर कोयलों के समूह हैं। समूह-समूह से मधुर स्वर निकल रहे हैं और स्वर-स्वर से कामदेव जागृत हो रहा है। इसमें शब्दों के बार-बार प्रयुक्त होने से एकावली अलंकार है।
वार्ता-यामें पद मुक्त ग्रहन मुक्त ग्रहन होइ, पद फेर फेर ग्रहण तो विप्सा में भी होत है, कारनमाला में भी होय।
एकावली अलंकार में पद ग्रहण, मुक्त ग्रहण, मुक्त होते हैं और बार-बार पद ग्रहण तो विप्सा अलंकार में भी होते हैं और कारणमाला में भी।
विप्सा लक्षण
दोहा
आदर और विषाद में, दैन्य क्रोध बिच मानि।
एक हि पद द्वै त्रय बखत, सो है विप्सा जानि।।४५।।
सत्कार में, विषाद में, दीनता में और कोप में एक ही शब्द एकाधिक बार बोला जाता है (प्रयुक्त होता है) यह विप्सा अलंकार है और कारणमाला में तो कारण-कार्य की परम्परा होती है। इसलिए विप्सा और कारणमाला से एकावली अलंकार अलग है।
विप्सा उदाहरण
दोहा
धन्य धन्य तुम धन्य तुम, रघुवर दशरथ-नंद।
तिष्ट तिष्ठ निशिचर समर, कहि सब किये निकंद।।४६।।
हे दशरथ के पुत्र श्री रामचन्द्र! आप धन्य है, धन्य हैं, धन्य हैं। आपने युद्ध में राक्षसों को ठहरो, ठहरो कह कर उन तमाम असुरों का संहार किया।
इसमें ‘धन्य’ पद की आवृति तीन बार और ‘ठहरो’ शब्द की दो बार आवृति हुई, यह विप्सा अलंकार है।
वार्ता-कर्त्ता साधक और, भोक्ता सिद्ध और, ते सुसिद्ध अलंकार।
पदार्थ को साधने वाला कर्त्ता पुरुष कोई और हो और उस पदार्थ को भोगने वाला सिद्ध पुरुष कोई दूसरा हो तो यह सुसिद्ध अलंकार हुआ।
यथा उदाहरण
दोहा
राग बाग तिय पट अतर, खट रस नव रस सोय।
कर्त्ता साधे कष्ट तैं, भुक्ता और हि होय।।४७।।
राग-रागिनी, बाग-बगीचा, स्त्री (कन्या) , वस्त्र, इत्र-फुलेल, छ रस (मधुर-कटु-तिक्त-कषाय-लवण-आम्ल) भोजन और नो रस (स्रंगार, वीर-करुण-अद्भुत-हास्य-भयानक-विभत्स-रौद्र-शांत) काव्य, इन सभी को कर्त्ता पुरुष कष्ट उठा कर साधता है पर इनको भोगने वाले अन्य पुरुष ही होते हैं।
वार्ता-गुण दोष को कर्ता एक, और भोक्ता अनेक सो प्रसिद्ध अलंकार।
जहाँ यदि गुण अथवा दोष का कर्त्ता पुरुष एक ही हो पर उसके भोगने वाले अनेक हों तो ऐसी जगह प्रसिद्ध अलंकार होता है।
यथा उदाहरण
दोहा
सत हरिचँद राजान के, पुर किय स्वर्ग पयान।
तस्करता रावन करी, गये कुटुम के प्रान।।४८।।
राजा हरिशचन्द्र की सत्य-साधना द्वारा अयोध्यापुरी के सभी निवासियों को सदेह स्वर्ग में ठौर मिली जबकि एक रावण द्वारा सीता को चुरा ले जाने के कारण पूरे वंश का नाश हुआ।
इसमें गुण रूप सत्य प्रभाव उत्पन्न करने वाले हरिश्चन्द्र हैं और उस गुण से स्वर्गगति प्राप्त करने वाले, फल भोक्ता अनेक, पुरजन हैं। दोष रूप चोरी करने वाला रावण एक ही है पर उस दोष के परिणाम रूप प्राण खोने वाले अनेक कुटुंबी हैं। यह दोनों प्रकार से प्रसिद्धालंकार हुआ।
काव्यार्थापत्ति अलंकार उदाहरण
दोहा
बहे जात गजराज जित, कित चींटी कौं थाह।
दरसै अघहर गंगजल, परसै अद्भुत राह।।४९।।
बाढ के जिस प्रबल प्रवाह में हाथी बह जाए, वहाँ चींटी की थाह कहाँ से हो? श्री गंगा जी के दर्शन मात्र से जहाँ पापों का नाश हो जाता है फिर उस जलस्पर्श से अदभुत गति प्राप्त हो जाए इसमें क्या अनहोनी बात।
इसमें ‘कैमुत्य न्याय’ से अर्थ की सिद्धि वर्णित हुई, इससे काव्यार्थापति अलंकार हुआ।
मिथ्याध्यवसिति अलंकार उदाहरण
दोहा
निर्जल थल बोये अरक, अंब चढै जो हाथ।
ज्ञान भक्ति बैराग बिन, तब हरि मिलै सुनाथ।।५०।।
मरुस्थल में जहाँ पानी की इफरात नहीं होती वहाँ यदि आक बोने से आम का पेड़ मिल जाए तो कदाचित ज्ञान, भक्ति और वैराग्य बिना श्रेष्ठ स्वामी श्री हरि की प्राप्ति हो सकती है।
इसमें ज्ञानादि बिना श्री हरि की प्राप्ति रूप मिथ्यात्व को सिद्ध करने को कवि ने आक बो कर आम मिलने जैसा मिथ्या वर्णन किया है, इससे यह मिथ्याध्यवसिति अलंकार हुआ।
वार्ता-जा पदार्थ के जतन कों ढूंढे सोई पदार्थ मिले, तहां तीसरो प्रहर्षणालंकार होय।
जिस पदार्थ की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हुए यदि उसी पदार्थ की प्राप्ति हो जाय तो यहाँ तीसरा प्रहर्षणालंकार हुआ।
यथा उदाहरण
दोहा
ढूंढत जा कारन गुरु, पाये हरि महाराज।
चार पदारथ आदि दै, भये सकल सिध काज।।५१।।
जिस के लिए हम गुरु को ढूंढ रहे थे, उसी परमात्मा ने हमें ढूंढ लिया। इससे सर्वप्रथम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पदार्थों की प्राप्ति हमें हो गई जिससे हमारे सारे मनोरथ सिद्ध हो गए।
इसमें श्री हरि को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करते हुए श्री हरि स्वयं मिल गए इससे तीसरे प्रकार का प्रहर्षणालंकार हुआ।
वार्ता-प्रश्र उत्तर होई सो प्रश्नोत्तरालंकार।
जिसमें पूछे गए प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो वह प्रश्नोत्तरालंकार कहलाता है।
यथा उदाहरण
दोहा
हे गुरु कब पावै सुहरि, दासन कौं कलिकाल।
भक्ति सदय वैराग मन, ज्ञान निरापख चाल।।५२।।
शिष्य गुरु से पूछ रहा है, हे गुरुजी! इस कलिकाल में श्री हरि के सेवकों को श्री हरि कब प्राप्त होते हैं? गुरुजी कह रहे हैं, कि जब मन दया युक्त, भक्ति, ज्ञान और वैराग्यमय हो कर पक्षपात रहित बर्ताव करे तब श्री हरि प्रास होते हैं।
इसमें प्रश्र का उत्तर होने से प्रश्नोत्तरालंकार हुआ।
वार्ता-विरुद्ध कारण तैं कारज की प्रगटता, सो पंचम विभावना अलंकार।
विलोम कारण द्वारा कार्य की उत्पत्ति हो उस जगह पंचम विभावना अलंकार होता है।
यथा उदाहरण
दोहा
नई लगन लखि जोर चख, गई अंगुष्ठ बताय।
मुद्रा जो नटबे मई, भई बयाने भाव।।५३।।
प्रेमी अपने मित्र से कह रहा है कि हे मित्र! वह स्त्री मेरी नई मग्नमुद्रा देख, दीठ मिला कर, अंगूठा दिखा गई। उसकी इस मुद्रा में मर्म चेष्टा रूप अंगुष्ठ प्रदर्शन जो अस्वीकार सूचक है अर्थात् ना देने के अर्थ में है पर भाव प्रीतिदर्शक है।
इसमें अस्वीकारसूचक अंगूठा दिखाने में विलोम संकेत है पर इस मुद्रा द्वारा प्रेम प्रदर्शन के कार्य की उत्पति हुई, इससे पंचम विभावना अलंकार हुआ।
वार्ता-साटे में थोरो देके बहुत ले सो परिध्रत्ति अलंकार।
जहाँ थोड़ा दे कर उसके बदले में अधिक लेना हो वहाँ परिवृत्ति अलंकार हुआ।
यथा उदाहरण
दोहा
दै कटाछ हरि तनक सी, लीने मन धन प्रान।
बुध विचार सुख दैं चुकी, सब कुल मान सयान।।५४।।
ब्रज तघु अपनी सखी से कहती है कि हे सखी! श्री कृष्ण ने हल्का सा कटाक्ष दे कर, मन और प्राण रूपी धन छीन लिया है। यही नहीं मैं बुद्धि, विचार, सुख, कुल का गौरव और अपना सयानापन सभी कुछ उन्हें सौंप चुकी हूँ।
इसमें हल्के से कटाक्ष दे कर उसके बदले में श्री कृष्ण का मन प्राणादि सर्वस्व लेने का वर्णन होने से यह परिवृति अलंकार हुआ।
तद्गुन-अतद्गुन लक्षण
दोहा
निज गुन तजि गुन संग को, गहै सु तदगुन जानि।
संगति तैं गुन ना लगै, ताहि अतदगुन मानि।।५५।।
जहाँ स्वयं के गुण तज कर कोई संगत (सोहबत) का गुण ग्रहण करे वहाँ तद्गुणालंकार हुआ और संगत का गुण न लगे वहाँ अतद्गुणालंकार हुआ।
यथा उदाहरण
दोहा
साध ह्वै साध की, संगति करि पल आध।
दुष्ट संग करि सदय दिल, होत न साध असाध।।५६।।
दुर्जन व्यक्ति आधे पल के लिए सज्जन की संगत करे और खुद सज्जन हो जाए पर जिसका मन दयालु है ऐसा सज्जन, दुर्जन का संग करने पर भी स्वयं दुर्जन नहीं हो पाता।
इसके पहले पद में संगत का गुण ग्रहण करने का वर्णन है इसलिए यह तद्गुणालंकार हुआ और दूसरे पद में संगत का गुण नहीं लगने से यह अतद्गुन अलंकार हुआ।
वार्ता-संग तैं पूर्व गुन बुद्धि पावै सो अनुगुन अलंकार।
संगत द्वारा स्वयं के पूर्व गुण में वृद्धि हो तो यह अनुगुणालंकार है।
यथा उदाहरण
दोहा
आगे हि हनू अगाध बल, पाय राम सिरदार।
छिन मैं कुल निशिचरन को, क्यौं न करै संहार।।५७।।
हनुमान जी तो पहले ही अगाध बलवान थे उस पर श्री रामचन्द्र स्वामी मिल गए अब वे क्षण भर में ही राक्षसों के समूह का संहार क्यों न करें? अर्थात् करेंगे ही।
इसमें श्री राम के स्वामी रूप संग द्वारा हनुमान के पराक्रम रूप पहले से विद्यमान बल में अभिवृद्धि हुई, इससे यह अनुगुणालंकार हुआ।
उत्प्रेक्षा तथा भेदकातिशयोक्ति लक्षण
दोहा
उत्प्रेक्षा जनु मनु शबद, वस्तु हेतु फल होय।
औरे औरे शबद जहँ, भेदकाति है सोय।।५८।।
‘जनु, मनु’ (मानों, जैसे) इन कल्पना वाचक शब्दों के द्वारा वस्तु, हेतु और फल इन तीनों प्रकारों से उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। ‘औरे औरे’ (भिन्नत्व दर्शक) पद द्वारा भेदकातिशयोक्ति अलंकार होता है।
यथा उदाहरण
दोहा
हरि पद मानों कंज है, सिय मुख है जनु चंद।
कवि मुख की बानीन कौं, ओरे पढ़त अनंद।।५९।।
श्री हरि के चरण मानो कमल हों और सीताजी का मुँह जैसे चन्द्रमा हो, पर कवि के मुख की वाणी को पढ़ने से कुछ और ही आनन्द की प्राप्ति होती है। इसके प्रथम पद में श्री हरि के चरण वस्तु में जैसे कल्पनावाचक पद द्वारा कमल वस्तु की कल्पना की गई इससे वस्तुत्प्रेक्षा अलंकार हुआ। मुख और चन्द्रमा भी इसी प्रकार पदार्थ हैं इससे यह भी वस्तुत्प्रेक्षा है और कवि मुख की वाणी में भिन्नत्व दर्शक पद द्वारा भेदकातिशयोक्ति अलंकार होता है।
अपह्नुति तथा संदेह लक्षण
दोहा
यह नहि यह सो अप्ह्नुति, दूजौ रूपक जानि।
किधौं शब्द की शब्द तहँ, संशय कहत बखानि।।६०।।
यह वस्तु अमुक नहीं वरन् अमुक है ऐसा वर्णन हो, वहाँ अपह्नुति अलंकार होता है और दूसरी तरह से रूपक भी होता है जैसे कि चरण कमल अर्थात् चरण हैं कि कमल और यह वस्तु अमुक है, कि अमुक है? ऐसा वर्णन हो जहाँ ‘किधौं ‘ (कि) के प्रयोग द्वारा संदेहालंकार होता है।
यथा उदाहरण
दोहा
बदरा नहिं ये काम के, तने वितान विशाल।
बाल किधौं हाटकलता, किधौं केतकी माल।।६१।।
किसी स्त्री की सखी के प्रति उक्ति है कि हे सखी! ये आकाश में बादल नहीं छाए हैं ये तो कामदेव का तना हुआ वितान (तंबू) है। और यह स्त्री है कि स्वर्ण लता है? अथवा केतकी की माला है?
इसमें बादलों को बादल के रूप में नहीं बल्कि कामदेव के वितान की तरह वर्णित किया है-यह अपह्नुति अलंकार हुआ। और स्त्री को संदेह वाचक ‘कीधौं’ (कि) के प्रयोग द्वारा सोने की लता तथा केतकी की माला कह कर वर्णन किया है इससे यह संदेहालंकार है।
उल्लेखालंकार लक्षणोदाहरण
दोहा
है उलेख सोइ एक कौं, बहु समुझहि बहु भाय।
त्रियनि काम हरि संत हितु, कंसहि काल लखाय।।६२।।
जिस उक्ति में एक ही व्यक्ति अथवा वस्तु को बहुत से लोग बहुत से अलग-अलग भावों से समझें उसे उल्लेखालंकार कहते हैं। श्री हरि को ब्रज की गोपिकाओं ने कामदेव समझा, सज्जनों ने हितकारी जाना और कंस को काल-रूप प्रतीत हुए।
इसमें एक श्री हरि को ब्रज नारियों आदि बहुत से मनुष्यों ने बहुत तरह से जाना इससे उल्लेखालंकार हुआ।
वार्ता-काहू को गुण दोष काहू पै परै सो विधिकरणोक्ति, तामें अंतर्भूत प्रथम को असंगति कारण कारज कहूं, दृष्टांत तीनों का एकत्र उदाहरण-
किसी एक का गुण अथवा दोष किसी दूसरे पर पड़े तो विधिकरणोक्ति अलंकार कहलाए इसमें अंतर्भूत कारण-कार्य के स्थल भिन्नत्व द्वारा असंगति अलंकार का प्रथम भेद और बिंब-प्रतिबिंबमय उभय वाक्य द्वारा दृष्टांतालंकार होता है। इन तीनों का इकट्ठा एक उदाहरण-
यथा उदाहरण
दोहा
दूतपनो लोयन करै, मन पावत है ताव।
खोड़ भई पद ऊंट के, दीजै खर के डाव।।६३।।
एक स्त्री अपनी सखी से कहती है, हे सखी! हलकारे का कार्य नेत्र करते हैं पर संताप मन पाता है जैसे कि ऊँट के पांव में खराबी हो (लंगड़ेपन की) और उपचार स्वरूप गधे के पाँव को दागा जाए।
इसमें नेत्रों का दोष मन पर पड़ा इससे विधिकरणोक्ति अलंकार और इसमें कारण-कार्य की स्थल-भिन्नता से अन्तर्भूत असंगति अलंकार है। साथ ही बिंब-प्रतिबिंब भाव से इसमें दृष्टांतालंकार भी है।
वार्ता-एक क्रियापद कों तथा देहरी दीपवत पद कों बहु बेर अर्थ कर्ता ग्रहण करै सो एकानेक अलंकार।
एक ही क्रियापद को तथा देहरी-दीपवत (दरवाजे का एक दीपक ही सारे घर में प्रकाश देता है इस प्रकार) पद को अर्थ कर्त्ता बार-बार ग्रहण करे तो ऐसे स्थल पर एकानेक अलंकार होता है।
यथा उदाहरण
दोहा
हरि सुदया नहिं बिसर ही, अदया त्रिया सदीव।
साधु जगतपति श्याम कौं, जीविका हि कौं जीव।।६४।।
श्री हरि अपने भक्त सेवक पर दया दिखाना बिसरते नही, और स्त्री, चरित्र हीन पर कभी निर्दयता करना नहीं भूलती, सज्जन जगतपति श्याम सुन्दर को भूलते नहीं और जीव स्वयं की आजीविका को बिसारता नहीं।
इसमें ‘नहीं भूलता’ यह क्रियापद अर्थकर्ता बार-बार ग्रहण करता है इससे ऐकानेक अलंकार हुआ।
वार्ता-ककार तैं नास्ति, ककार नकार तैं आस्ति, अर्थ धुनि तैं आवै तो काकोक्ति अलंकार।
किसी पद में यदि ककार द्वारा एक अर्थ का नाश हो और एक ककार नकार रूप होते ही अर्थ फिर से अस्तित्व में आ जाए पर वह अर्थ ध्वनि द्वारा उत्पन्न हो वहाँ काकोक्ति अलंकार होता हें।
यथा उदाहरण
दोहा
अग्नि कि त्रप्ती काष्ट तैं, सिंधु कि सरिता पाय।
काल कि भक्षण भूत के, नर तें तिय कि अघाय।।६५।।
अग्नि की तृप्ति काठ से, समुद्र की तृप्ति नदी से, काल की तृप्ति प्राणियों के भक्षण से और स्त्री की तृप्ति पुरुष से होती है।
यहाँ अर्थ ‘की’ (ककार) खरा अस्तित्व नहीं देता इसलिए ध्वनि से अस्तित्व मिलता है। वह इस प्रकार कि-अग्नि कौन से काठ से तृप्त होती है? समुद्र कौन सी नदियों से तृप्त होता है? काल कौन से प्राणियों के भक्षण से त्रप्त होता है? और स्त्री कौन से पुरुष से तृप्त होती है? अर्थात् इन चारों की तृप्ति नहीं होती, परन्तु यह अर्थ ध्वनि से उत्पन्न हुआ।
इसमें ‘की’ यही ककार के नकार रूप में परिवर्तित होने से खरा (सही) अर्थ प्रत्यक्ष हुआ इससे इसमें काकोक्ति और वक्रोक्ति अलंकार दोनों हैं।
वार्ता-एक भाग सहे तैं शेष भाग जान्यो जाय सो शेष भाग ज्ञापकालंकार।
एक अंश (भाग) के ग्रहण करने से बाकी रहा भाग भी समझ में आए तो ऐसी जगह पर शेष भाग को ज्ञापकालंकार कहते हैं।
दोहा
एक भाव के ग्रहण तें, अन्य भाव व्है त्याग।
होय कि ग्रहिबो त्याग तैं, एक ग्रहै बहु भाग।।६६।।
एक भाग को ग्रहण करने पर यदि दूसरे भाग को छोड़ना पड़े और एक भाग के त्याग से यदि दूसरे भाग का ग्रहण हो तो इन दोनों प्रकारों से रहा शेष भाग ज्ञापकालंकार के नाम से जाना जाता है।
यथा उदाहरण
दोहा
या परिषद में एक ही, यहै विदुष करि जानि।
वा परिषद के बीच में, मोहि अज्ञ तु मानि।।६७।।
किसी श्रोता के प्रति वक्ता की उक्ति है-हे महाशय! इस सभा में एक ही पंडित है और उस सभा में केवल मुझे ही मूर्ख जानना।
प्रथम पद में, सभा में एक ही विद्वान का ग्रहण होने से दूसरे सभी का अज्ञता द्वारा छोड़ना हुआ और दूसरे पद में एक अज्ञ (मूर्ख) का त्याग होने से दूसरे सभी विज्ञजनों का ग्रहण हुआ, इस तरह दोनों प्रकार से शेष भाग ज्ञापकालंकार हुआ।
पुनर्यथा उदाहरण
दोहा
सुरतरु आदिक बनसपति, बाग सु नंदन मांहि।
विनय आदि शुभ गुण सकल, होय अधम में नांहि।।६८।।
कल्पवृक्ष आदि वनस्पति नन्दन वन में ही है और विनम्रता आदि सभी शुभ गुण दुर्जन लोगों में नहीं होते।
इसमें कल्पवृक्षादि के लिए नन्दनवन को ग्रहण करने से शेष सभी उपवनों का त्याग हुआ और विनयादि शुभ गुणों के लिए दुर्जनों का त्याग करने से सज्जनों का ग्रहण करना हुआ, अतः इसमें दोनों प्रकार के शेष भाग ज्ञापकालंकार हुए।
वार्ता-एकानेक, तथा शेषभाग ज्ञापक, ये दोनों अलंकार नवीन हैं, ऐसे ही नवीन, भूत-भविष्य-वर्तमान-परोक्ष-प्रत्यक्ष-उत्तम-मध्यम-कनिष्ठ-कारण-कारज-आधार-आधेय-लोम-विलोम भेद तैं बोहोत भेद होत हैं बहुना किं?
एकानेक और शेषभाग ज्ञापक, ये दोनों अलंकार नये हैं। इसी तरह अन्य नये अलंकार, भूत-भविष्य-वर्तमान-परोक्ष-प्रत्यक्ष-उत्तम-मध्यम-कनिष्ठ-कारण-कार्य आधार-आधेय के लोम विलोम भेदों से बहुत तरह के होते हैं। इससे अधिक क्या कहना।
द्रव्य-गुणादि वर्णन
दोहा
द्रव्य और गुण कर्म है, पुनि सामान्य विशेष।
है समवाय अभाव लों, सप्त पदार्थ अशेष।।६९।।
द्रव्य नो प्रकार के और गुण चोबीस हैं। कर्म पांच हैं, सामान्य दो हैं। विशेष अनन्त है, समवाय एक है, अभाव चार हैं इस प्रकार समग्र सात पदार्थ हैं।
नव द्रव्य
दोहा
भू अप तेज रु वायु मन, दिशी काल आकाश।
आत्मादिक नव द्रव्य हैं, गुन को आश्रय भास।।७०।।
पृथ्वी (एक) पानी (दो) तेज, अग्नि (तीन) पवन (चार) मन (पांच) दिशा (छः) काल (सात) आकाश (आठ) आत्मा (नो) ये सारे नो द्रव्य कहलाते हैं कि जो गुणों के आधार पर जाने जाते हैं।
चतुर्विंश गुण वर्णन
कवित्त
रूप रस गंध स्पर्श संख्या परिमाण आदि,
पृथक संयोग औ विभाग गुन गानिये।।
परत्व अपर्त्व बुद्धि सुख दुःख इच्छा द्वेष,
प्रयत्न गुरुत्व औ द्रवत्व करि मानिये।।
सनेहत्व संसकार धर्म औ अधर्म शब्द,
चतुर्विंश संख्या मत न्याय तैं बखानिये।।
पंच कर्म द्वै सामान्य विशेष अनंत बिधि,
चार हैं अभाव ताहि टीका तैं पिछानिये।।७१।।
(१) रूप (२) रस (३) गंध (४) स्पर्श (५) संख्या (६) परिमाण (७) पृथक (८) संयुक्त (९) विभाग (१०) परत्व (११) अपरत्व (१२) बुद्धि (१३) सुख (१४) दुःख (१५) इच्छा (१६) द्वेष (१७) प्रयत्न (१८) गुरुत्व (१९) द्रवत्व (२०) स्नेहत्व (२१) संस्कार (२२) धर्म (२३) अधर्म और (२४) शब्द ये चोबीस गुण न्याय मत से कहे हैं। (द्रव्य और गुण के मिलने से कार्य होता है) कर्म पाँच बताये हैं। सामान्य के दो भेद हैं, विशेष अनन्त प्रकार है और अभाव चार हैं, उन्हें टिप्पणी अनुसार समझें।
वार्ता-उत्क्षेपण १ अपक्षेपण २ आकुंचन ३ प्रसारण ४ गमन ५ एतानि पंच करलें।
ऊंचा फेंकना, नीचे फेंकना, संकोच करना (सिकुड़ना) , प्रसारण, गमन (चलना) ये पांच कर्म हैं।
वार्ता-सत्ता रूपं पर सामान्य, जाति रूपं अपर सामान्य।
सामान्य के दो भेद है, एक पर सामान्य और दूसरा अपर सामान्य। सत्ता रूप जिसकी अधिक वृत्ति अर्थात् जिसकी सत्ता अधिक में (द्रव्य गुण कर्म में) दिखती हो वह पर-सामान्य, और जाति रूप जिसकी न्यून वृत्ति अर्थात् जिसकी सत्ता अल्प में द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों मैं से एक पदार्थ में दिखती हो तो वह अपर-सामान्य कहलाता है।
उपर्युक्त पांच कर्म सत्ता रूप में, द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों के ऊपर रहते हैं इससे वे ‘पर सामान्य जाति’ रूप कहलाते हैं और जिनमें ‘त्व’ (पन) प्रत्यय लगता है अर्थात् द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व, ये तीनों अपर सामान्य जाति रूप कहलाते हैं।
वार्ता-प्राग भाव १ प्रध्वंसाभाव २ अन्योन्याभाव ३ अत्यंताभाव ४ ए चारों अभाव सप्त पदार्थ विषे हैं।
अभाव चार हैं, प्रथम प्राकभाव (उत्पत्ति का पूर्व काल) , दूसरा प्रध्वंसाभाव (होकर नष्ट होता है वह) , तीसरा अन्योन्याभाव अर्थात् एक में दूसरे का अभाव (घट में पट का अभाव और पट में घट का अभाव) और चौथा अत्यंताभाव अर्थात् कभी हुआ ही न हो (वंध्या पुत्रवत्) । ये चारों अभाव अपर-सामान्य में से हैं इन्हें ऊपर कहे सात पदार्थो में जान लो।
वार्ता-द्रव्य गुण कर्म के समवाय एकता भये जाति भई सामान्यत्व तें, तामें व्यक्ति भई विशेषत्व तें, जाति गोत जाने नाम रूप जान्यो जाय, श्रंग पूंछ कंबल इहै रूप, गाय नाम व्यक्ति, विशेष ज्ञान काली-पीली-धोली-खांडी-बांडी-मींडी इत्यादि सर्व पर जाति नाम रूप लग्यो है, तातें शब्द वृत्ति पहिचानिये।
द्रव्य, गुण और कर्म का समवाय (ऐक्य अर्थात् संधान) होने से सामान्यपन से जाति बनी, और विशेषयन से व्यक्ति बना। जाति और गोत्र (वंश) जानने से नाम रूप जाना जाता है। जैसे कि सींग, पूंछ और गले के नीचे लटकती कंबल, ऐसे रूप से गाय की जाति अर्थात् गायपन जाना, और व्यक्ति इसके विशेष ज्ञान जैसे कि काली, सफेद, पीली, बांडी, खांडी, भींडी इत्यादि विशेष नाम से जाने वो व्यक्ति सबसे ऊपर जाति नाम रूप लगा हुआ है इससे शब्द वृत्ति, अभिधा बल (ईश्वरी शक्ति) से जान लो (जहाँ जाति हो वहाँ शब्द भी होता है)
वार्ता-आप्त वाक्यं शब्दं आप्त यथार्थ वक्ता को बचन, वाक्य पदन को समूह यथा, गामानय शुक्लां दंडे नेति, शक्तं पदं अस्मात पदादयमर्थो बोधव्यं इति ईश्वर शक्ति: घट कहे तैं घट जान्यो जाय, पट नहि जान्यो जाय यहे ईश्वरी शक्ति:।
हितेच्छु अथवा प्रामाणिक पुरुष अथवा सत्यवक्ता के वचन, इन्हें शब्द कहिये, और शब्द समूह को वाक्य कहिये। जैसे कि-‘लकड़ी लेकर सफेद गाय को ला’ इसमें पदों (शब्दों) का समूह है इसलिए वाक्य कहलाता है। अभिधावृत्ती से जो शब्द अर्थ देते हों इसे शब्द-शक्ति कहिये, अभिधावृत्ति ही ईश्वर की शक्ति, (शब्द-शक्ति, इस पद से यह अर्थ समझ में आता है) जैसे कि घट कहने से घड़े का ज्ञान होता है पट (वस्त्र) का ज्ञान नहीं होता, ऐसी जो शब्द में शक्ति है इसे ईश्वर की शक्ति जानिये।
वार्ता-आकांक्षा योग्यता सन्निधिश्च वाक्यार्थ ज्ञान हेतू: पदस्थ पदान्तर व्यतिरेक प्रयुक्तान्वया ननु भावकत्वमाकांक्षा, अर्थावाधो पदानाम् विलंबनोच्चारणं सन्निधि, आकांक्षादि रहित वाक्यं न प्रमाणं यथा गौरस्व: पुरुषो हस्तीति न प्रमाणं आकांक्षा विरहात् अग्निना सिंचेदिति न प्रमाणं योग्यता विरहात् प्रहरे प्रहरे सहोच्चारितानि गामानयेत्यादि पदानि न प्रमाणं सानिध्या भावत्।
(यहां न्यायशास्त्र के मत द्वारा शब्द समूह रूप वाक्यों के दोष टालने के लिए कहा जाता है) आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि ये तीन वाक्यार्थ जानने के कारण रूप हैं। एक पद के दूसरे पद से अलग वाले अन्वय (सम्बन्ध) को बताने वाले पद की इच्छा को आकांक्षा कहते हैं। जब कि आकांक्षित शब्द वक्ता के मुख से कहा न गया हो तब भी सुनने की इच्छा रहे और पूरी न हो वहाँ निर्कांक्षा दोष कहा जाता है।
जहाँ शब्द के अर्थ करने में दूसरे शब्दों के अर्थ में बाधा न आए वह योग्यता कहलाती है और बाधा उपस्थित हो तो अयोग्यता दोष कहलाता है।
वाक्य सम्बन्ध बराबर मिलते आएं और शब्दोच्चार में विलम्ब न हो इसे सन्निधि कहते हैं। और वाक्य सम्बन्ध न मिलें तथा शब्दोच्चार में विलंब हो तब यह असन्निधि दोष कहलाता है।
व्यतिरेक अर्थात् पद (शब्द) की अपेक्षा हो पर पद न हो और एक पद को दूसरे पद के अभाव में ले कर अननुभावकत्व अर्थात् सम्बन्ध के ज्ञान को उत्पन्न किया जाए तो इसे आकांक्षा कहते हैं। आकांक्षा रहित जो वाक्य हैं वे अप्रमाण हैं, जैसे कि :-‘गाय घोड़ा पुरुष हाथी’ यह अप्रमाण वाक्य है कैसे कि गाय आई, घोड़ा ला, पुरुष आया, हाथी गया। इनमें ‘आई’, ‘ला’, ‘आया’, ‘गया’ इन आकांक्षित पदों का अभाव है। इसलिए इनके अप्रमाण होने से, आकांक्षा के विरह से निर्कांक्षा दोष कहा जाता है।
‘अग्नि से सींचो’ इस वाक्य में अग्नि से सींचना असंभव है इससे अर्थ में बाधा आई, मतलब योग्यता के अभाव में यह वाक्य भी अप्रमाण है, इससे यह अयोग्यता दोष गिना जाता है।
जो वाक्य कहना हो उसका रुक-रुक कर उच्चारण करना, जैसे कि ‘गाय पकड़ ला’ इसमें गाय बोल कर बाद में बहुत विलंब से ‘पकड़’ कहना उसके बाद फिर काफी देर से ‘ला’ कहना, इस तरह यह वाक्य टुकड़ों-टुकड़ों में पूरा किया, यहाँ सन्निधि के अभाव में असन्निधि दोष हुआ, क्योंकि वाक्य में संबन्ध नहीं रहा।
वाक्य दोष त्याग वर्णन
दोहा
निर्कांक्षा रु अयोग्यता, असानिध्यता त्यागि।
होवै शब्द समूह में, आप्त वाक्य सुनि पागि।।७२।।
निर्कांक्षा, अयोग्यता और असानिध्यता इन ऊपर वर्णित दोषों का परित्याग करें, ये दोष वाक्य में होते हैं (शब्द में नहीं होते) । इसके लिए किसी प्रामाणिक पुरुष (सही उच्चारण वाले) के बोलों को सुन कर वाकिब हुआ जा सकता है।
लक्षण दोष वर्णन
दोहा
अव्याप्ति रु अतिव्याप्ति पुनि, दोष असंभव होय।
इन तीनहू कौं समुझि करि, शब्दवृति कौं जोय।।७३।।
अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव ये (लाक्षणिक) दोष हैं। इसलिए इन तीनों को समझ कर शब्द वृत्ति देखो, अर्थात् इन दोषों से बच कर वाक्य रचना शुरू करो।
(१) जिस वस्तु का लक्षण करना है, वह सभी जगह व्याप्त न हो अर्थात् कहीं व्याप्त हो और कहीं व्याप्त न हो, यह लक्षण अव्याप्ति दोष वाला गिना जाता है।
(२) जिस वस्तु का लक्षण किया जाए वह यदि अतिरिक्त में भी (दूसरे में) व्याप्त हो जाय, यह लक्षण अतिव्याप्ति दोष वाला कहलाता है।
(३) जिस वस्तु का लक्षण करना संभव ही न हो, यह लक्षण असंभव दोष वाला गिना जाता है।
यथा उदाहरण
दोहा
गो हय सिंचहु अग्नि करि, प्रहरांतर उच्चार।
गो कपिला गो श्रंग तें, गो इक खुर तें धार।।७४।।
गाय घोड़ा, इसमें निर्कांक्षा दोष है, अग्नि से सींचो इसमें अयोग्यता दोष है और प्रहरान्तरे उच्चारण करना इसमे असन्निधि दोष है। इसका विवेचन पहले हो चुका है। गाय को कपिला, ऐसा लक्षण कहिये तो गाय सफेद भी होती है। इसमें इस लक्षण की अव्याप्ति है जैसे कि ‘गाय के सींग हैं’ और गाय के अतिरिक्त बैल के भी सींग हैं, इसमें भी यह लक्षण व्याप्त होने से अतिव्याप्ति दोष वाला लक्षण गिना जाता है। ‘गाय एक खुर वाली’ ऐसा लक्षण कहिये तो यह लक्षण किसी भी गाय में नही होने से, यह लक्षण असंभव दोष वाला कहलाता है।
अंतर्भूत दोष वर्णन
दोहा
पद पदांश वाक्यार्थ जे, रस दूषण विधि पंच।
इनके अंतरभूत है, समझहु बहु सुनि रंच।।७५।।
पद दोष, पदांश दोष, वाक्य दोष, अर्थ दोष और रस दोष ये पाँच प्रकार के दोष हैं। ये सारे दोष ऊपर वर्णित दोषों के अन्तर्गत हैं इसलिए थोड़ा कहने पर भी विज्ञ पाठक पूरा समझ लेवें।
वार्ता-इन दोषन रहित शब्द वृत्ति कों विचारबो, शब्द वृत्ति तीन हैं, १ रूढि २ योगरूढि ३ योगिक, कट्या वृक्ष को ढूंठ जाकों दिष्ट कहिये, अर्थ रहित वाही ठूंठे में बरते सो रूढी, पंकज कमल, पयोद मेघ, पंक सों प्रगट होय, और हू तैं पंकज नांहि कहाय, जल के देनहार, और तैं पयोद नहिं कहाय, बिना मेघ सो जोगरूढ, जलज कमल कों भी कहिये, इंदु मुक्तादि कों भी कहिये, औरन विषे हू अर्थ बरते जातैं जोगक।
ऊपर वर्णित दोषों से रहित शब्दवृत्ति का विचार करें। शब्दवृत्ति तीन प्रकार की है (१) रूढ़ (२) योग रूढ़ (३) योगिक। कटे हुए पेड़ के ठूंठ को दिष्ट कहते हैं यह दिष्ट शब्द यदि दूसरे किसी अर्थ के बिना फकत ठूंठ में बरतते हैं क्योंकि इसकी कोई व्यत्पत्ति नहीं, तो यह रूढ़ शब्द कहलाता है। पंकज अर्थात् कमल, पयोध अर्थात् मेघ, कीचड़ (पंक) में उत्पन्न होने से पंकज कहलाता है पर दूसरी किसी चीज से उत्पन्न होने पर पंकज नहीं कहलाएगा। पानी का देने वाला होने से मेघ, पयोध कहलाता है। मेघ के अतिरिक्त दूसरे को पयोध नहीं कहते-इसलिए यह योग-रूढ शब्द कहलाता है अर्थात् कि व्युत्पत्ति तो हो साथ ही रूढ़ि भी कहलाए। जलज, कमल को कहते हैं, चन्द्रमा तथा मोती आदि को भी जलज कहते है, जिससे दूसरे अर्थो के संदर्भ में भी बरता जाता है-इसलिए योगिक शब्द कहलाता है।
वार्ता-मुख्यार्थ छोड़े तथा मुख्यार्थ लग्यो रहे, उपर तैं हू आवै सो लक्षणा, गंगायां घोष: गंगा शब्द अभिधान विषे अर्थ छोड़ तीर को अर्थ ग्रहण करै सो लक्षना, तटके विषे शीतलता पावनता आदि ध्वनि, अथ चतुविंधि रीति शब्दालंकार।
मुख्यार्थ छोड़े तथा मुख्यार्थ लगा रहे पर ऊपर से अर्थ आवे तो यह लक्षणा कहलाती है। जैसे कि-‘गंगा में घर’ गंगा शब्द में अभिधानपन का अर्थ तज कर तीर (किनारे का अर्थ ग्रहण करे, यह लक्षणा है। ‘गंगा में घर’ अर्थात् गंगा के बहाव में नहीं पर गंगा के किनारे का घर है ऐसा जानना। गंगा के किनारे में शीतलता, पवित्रता की ध्वनि भी है। अब चार प्रकार की रीति तथा शब्दालंकार का वर्णन किया जाएगा।
काव्यात्मा मत कथन
दोहा
ध्वनि है आत्मा काव्य को, कहत भरत मत-ग्रंथ।
कहत सु आत्मा रीति कौं, वामन मत को पंथ।।७६।।
भरताचार्य के मतावलंबियों ने अपने ग्रंथों में काव्य की आत्मा ध्वनि को कहा है और वामनाचार्य के मतावलंबियों ने रीति को काव्य की आत्मा बतलाया है।
कर्त्ता-सिद्धांत
वार्ता-काव्य को आत्मा रस है इति सिद्धांत।
इस ग्रंथकर्त्ता कवि स्वरूपदास का सम्पूर्ण सिद्धान्त यह है कि रस ही काव्य की आत्मा है।
रीति गुन कथन
दोहा
गौड़ी के बिच ओज गुन, लाटी गुन परसाद।
वैदर्भी पांचालि बिच, गुन माधूर्य सवाद।।७७।।
गौड़ी रीति में ओज गुण है, लाटी रीति में प्रसाद गुण है और वैदर्भी तथा पांचाली नाम की रीतियों में माधुर्य गण का स्वाद है।
गौड़ी लक्षण
दोहा
वर्ण सँयोगि टवर्गमय, रचना बंध सुछंद।
अर्थ जु बहुत समास तें, गौड़ी कहत कविंद।।७८।।
जिसमें ‘ट’ वर्ग वाले (ट, ठ, ड, ढ) ओर संयुक्ताक्षरों की रचना को बांधने वाला छंद हो और बहुत से समास द्वारा अर्थ प्रकट हो, उसे कवियों ने गौड़ी रीति कहा है।
समास लक्षण
दोहा
सो ते नें करि ओ अरथ, तैं को मैं न समात।
बाहिर सात विभक्ति को, अर्थ समास लिखात।।७९।।
ते, ने, ओ, करि, तैं, को, में, ये सात विभक्तियां जिसमें न हो और उनका अर्थ बाहर से लिया जाए-उसे समास कहा जाता है।
वचन जाति कथन
दोहा
भाषा में इक बहु वचन, नहि द्विय बचन कहाय।
है स्त्रीलिंग पुलिंग है, नपुँसक नाहिं लखाय।।८०।।
प्राकृत (हिन्दी) भाषा में एक वचन तथा बहुवचन है, द्विवचन नहीं, और स्त्रीलिंग, पुलिंग हैं पर नपुँसकलिंग नहीं।
गौड़ी को उदाहरण
दोहा
टेढी एंठन भौंह ढिग, दिलहि अमेठत दीठ।
डूब गई छवि मोर द्रग, करत ढिठाई ढीठ।।८१।।
नायक अपने सखा को कहता है कि उस स्त्री की भ्रकुटी देख, उसकी सीधी-बाँकी होती दृष्टि मेरे मन को व्यथित कर रही है। इस ध्रष्टा ने मेरे साथ ऐसी धृष्टता की है कि इसकी आकृति मेरे नेत्रों में डूब गई है अर्थात् लीन हो गई है। इसमें ट वर्ग वाले अक्षरों एवं बहुत से समासों का प्रयोग होने से यह गौड़ी रीति कहलाती है।
वैदर्भी लक्षण
दोहा
बिन समास कि समास कम, सानुस्वर बहु बर्न।
नहिं टवर्ग संजोग नहिं, वैदर्भी उच्चर्न।।८२।।
जिसमें समास न हों अथवा थोड़े समासों का प्रयोग हो, अनुस्वार युक्त अक्षर हों, ट वर्ग वाले और संयुक्ताक्षर न हों, उसे वैदर्भी रीति कहते हैं।
यथा उदाहरण
दोहा
फंद गयंद निकंद कर, जगत बंद ब्रजचंद।
मंद मंद मुसकत मधुर, नंदनंद सुखकंद।।८३।।
ग्राह द्वारा ग्रसित हाथी के दुःख का नाश करने वाले, जगत द्वारा पूजने योग्य, ब्रजभूमि के चन्द्रमा, सुख के कारण रूप श्री कृष्ण मन्द-मन्द मुस्कराते हैं।
इसमें अधिकतर शब्द अनुस्वार वाले है और समास कम है इससे वैदर्भी रीति है।
पांचाली लक्षण
दोहा
गौडी वैदर्भी मिलै, पांचाली सो जान।
बर्न सजुग अनुस्वार युत, सदमति करत बखान।।८४।।
गौड़ी एवं वैदर्भी दोनों रीतियाँ जिसमें मिली हुई हों और अनुस्वार युक्त संयुक्त अक्षर हों तो विद्वानों ने पांचाली रीति कहा है।
यथा उदाहरण
दोहा
चिंत मिंत अंतर लग्यौ, वृंद वृंद ब्रजबाल।
मंजत अटत न बीसरत, गंजन कंस गुपाल।।८५।।
जिनका चित्त मित्रों में रमा हो, ऐसे ब्रज बालकों का समूह यमुना में नहा रहा है, किनारे टहल रहा है परन्तु उनसे कंस का विध्वंस करने वाले श्री कृष्ण बिसराये नहीं जाते।
लाटी रीति लक्षण
दोहा
जामें कोमल पद भरे, लगत सवाद पढंत।
लाटी रीति सु कहत है, विदुष महा गुनवंत।।८६।।
जिसमें सुकोमल शब्द भरे हों, और जिन्हें पढते हुए स्वाद आए (रस आए) इसे महा गुणवंत विद्वानों ने लाटी रीति कहा है।
यथा उदाहरण
दोहा
गिरि गिरि तरु तरु सुघर हरि, बजत मधुर सुर बैनु।
ललित लाल लोयन लखन, ललचत ललकत नैनु।।८७।।
ब्रजवाला कहती है कि पर्वत-पर्वत और वृक्ष-वृक्ष पर सुजान श्री कृष्ण मीठी बांसुरी बजा रहे हैं, उस सुन्दर लाल के नेत्र देखने (दीठ-मिलाने) को मेरी आखें ललचाई सी दौड़ती है।
इसमें सभी शब्द सुकोमल हैं, इसे पढने में रस मिलता है ऐसी काव्य रचना है इसी कारण इसे लाटी रीति कहते हैं।
वार्ता-अथ षष्टानुप्रास, एक वरण की किंवा बहुत वर्ण की बहु बेर समता होइ सो वृत्यानुप्रास बहु वर्ण की बहु बेर समता।
अब छ. अनुप्रासों का वर्णन करते हैं, जहाँ एक अक्षर की अथवा अधिक अक्षरों की बार-बार (अधिक बार) आवृत्ति हो वहाँ वृत्यनुप्रास जानों। अंधिक अक्षरों की अधिक बार आवृत्ति का वर्णन-
यथा उदाहरण
दोहा
कंजन मद गंजन करै, अंजन मंजन ऐन।
खंजन छिव भंजन खतम, नित हरि रंजन नैन।।८८।।
एक सखी कहती है कि हे सखी! तेरे अंजन (आंजण) से मंजन (मंजे हुए) किये हुए सुन्दर नेत्र, कंजन (कमल समूह) के गौरव का भी गंजन (नाश) कर रहे हैं, खंजन पक्षी की छवि (शोभा) का भी पूरी तरह भंजन कर रहे हैं और यही नयन श्री कृष्ण को हमेशा खुश करने वाले हैं।
इसमें जकार और नकार की बार-बार आवृत्ति हो रही है और दोहे के चारों चरणों में आद्यंत वर्ण मैत्री होने से वृत्यनुप्रास है।
एक बर्न की बहु बेर समता
दोहा
गुन गन अरपन करि दिये, तन मन धन अरु प्रान।
जन सुख धन प्रद रामजी, सुनि मुनि भजै सयान।।८९।।
प्रभु रामचन्द्र के भक्त तन, मन, धन, प्राण और सारा गुण-समूह अर्पित कर देते हैं और श्री रामचन्द्र जी भी भक्तों को सुख-सम्पत्ति देते हैं। अर्थात् सच्चे सुख रूप मोक्षमय संपति देते हैं। यह सुन कर सुजान ऋषि-मुनि रामचन्द्रजी का भजन करते हैं।
इसमें एक नकार की बार-बार आवृत्ति हुई है इससे वृत्यनुप्रास है।
वार्ता-अर्थ सहित पद पलटे भाव में भिन्न होइ सो लाटानुप्रास।
अर्थ सहित पद पलटा खाये अर्थात् वही चरण दूसरी बार आए परन्तु उसका तात्पर्य अलग ही हो तो लाटानुप्रास है।
यथा उदाहरण
दोहा
तीरथ व्रत साधन कहा, जिन निशि दिन हरिगान।
तीरथ व्रत साधन कहा, बिन निशि दिन हरिगान।।९०।।
जो प्रतिदिन अनवरत हरि-भजन करते हैं उन्हें तीर्थ व्रत रूप साधनों से क्या काम? और प्रतिदिन हरिभजन बिना तीर्थ व्रत रूप साधन का क्या अर्थ है?
इसमें उसी चरण की पुनरावृत्ति से तात्पर्य अलग होने से लाटानुप्रास है।
वार्ता-अनेक वर्ण की एक बेर समता होय सो छेकानुप्रास।
अनेक अक्षरों की एक बार समता हो वह छेकानुप्रास होता है।
यथा उदाहरण
दोहा
राग बाग रचना रुचिर, पूर्ण चंद सुख कंद।
वाम कामप्रद हे विभू! यह मैं चहत अनंद।।९१।।
कोई कामासक्त पुरुष कहता है कि हे प्रभु! राग-रंग तथा बाग-बगीचे की सुन्दर रचना युक्त, सुख की मूल रूप, पूनम के चाँद जैसे मुख वाली, काम सुख को देने वाली स्त्री प्राप्त हो, (मैं ऐसा आनन्द चाहता हूँ) ऐसी मेरी इच्छा है।
इसमें गकार, रकार, चकार, मकार, दकार और हकार की एक-एक बार आवृत्ति हुई है, इससे छेकानुप्रास है।
वार्ता-शब्द एक ही बार बार आवै, अर्थ और होय ते यमकानुप्रास।
एक ही शब्द बार-बार आए अर्थात् शब्द का पुनरावर्तन हो परन्तु अर्थ अलग-अलग हो तो यमकानुप्रास है।
अव्ययेत सव्ययेत लक्षण
सोरठा
अच्छर पद बिच होय, नहिं ताको अव्ययेत गन।
सव्ययेत है सोय, अच्छर तैं पद भिन्नता।।९२।।
शब्द में अतिरिक्त अक्षर न हो अर्थात् सरीखे शब्द हों और अर्थ भिन्नता होती हो तो वह अव्ययेत यमकानुप्रास कहलाता है। यदि अतिरिक्त अक्षर हो और अर्थभिन्नता भी होती हो तो वह सव्ययेत यमकानुप्रास कहलाता है।
दोउ को उदाहरण
दोहा
समर समर दनुकुल तपन, गाय गाय द्विज पाल।
ताके पाय उपाय तजि, करत जु अकरत चाल।।९३।।
ग्रंथ कर्त्ता कहता है कि हे मन! युद्ध में दैत्यों के समूह का नाश करने वाले जो भगवान (विष्णु) हैं उनका स्मरण कर और गौ-ब्राह्मण की रक्षा करने वाले प्रभु का भजन कर। इस प्रकार प्रभु-कृपा प्राप्त कर दुष्कृत्य करने की चालबाजी के उपाय छोड़ दे।
(इस दोहे के पूर्वाद्ध में ‘ समर-समर ‘ तथा ‘ गाय गाय ‘ जैसे शब्दों में अतिरिक्त अक्षर नहीं और अर्थभिन्नता है इससे यह अध्ययेत यमकानुप्रास हुआ और दोहे के उतरार्द्ध में ‘ पाय उपाय ‘ इन शब्दों में उकार अक्षर अतिरिक्त है और अर्थभिन्नता भी है इससे सव्ययेत यमकानुप्रास हुआ।-सं.)
वार्ता-अंत्यानुप्रास सब छंदन में होत है, श्रुत्यानुप्रास एक वर्ग के बरण छंद चरण में बहोत सधे जाको साधारन लच्छन हू कहत है।
अंत्यानुप्रास अर्थात् तुकान्त मोहरामेल सारे छन्दों में होता है, जिसमें एक वर्ण के अधिक अक्षर छन्द के चरण में आते हैं उस श्रुत्यनुप्रास को सामान्य लक्षण कहा है।
यथा उदाहरण
दोहा
भानु भीम भगवत भवा, भारति पुत्र भवेश।
भगत काल त्रय त्रय भुवन, बकसहु मंगल बेश।।९४।।
हे सूर्य नारायण! हे महादेव! हे पार्वती! हे सरस्वती! हे गणपति! आप अपने भक्त को तीनों कालों में और तीनों भुवनों में कुशल मंगल रखने की कृपा करें।
इसमें प वर्ग वाले, व भ म अक्षर हैं इससे श्रुत्यनुप्रास है।
वार्ता-अथ रसन की सूचनिका, अथ शत्रु मित्र स्थाई स्वामी रंग।
अब रसों की सूचना प्रस्तुत है। रसों के शत्रु, मित्र, स्थाई, स्वामी और रंग आदि सभी का वर्णन करता हूँ।
शृंगार के शत्रु मित्र
दोहा
शत्रु विभछ अंगार को, करुणा शत्रु विचार।
भय रु शांत हू शत्रु है, हास्य हू मित्र निहार।।९५।।
शृंगार रस के विभत्स, करुण, भयानक और शांत रस शत्रु है तथा हास्य रस मित्र है।
हास्य और करुण के मित्र शत्रु
दोहा
मित्र विभत्स सु हास्य को, भय रस शत्रु समान।
मित्र रौद्र है करुण को, हास्य महा रिपु जान।।९६।।
हास्य रस का विभत्स रस मित्र हें और भयानक रस शत्रु है। करुण रस का मित्र रौद्र रस है और हास्य रस शत्रु गिना जाता है।
रौद्र और वीर के मित्र शत्रु
दोहा
भय रस है रिपु रौद्र को, वीर मित्र करि जान।
शांत करुन रिपु बीर को, अद्भुत मित्र बखान।।९७।।
रौद्र रस का शत्रु भयानक रस है और वीर रस मित्र है। वीर रस के शांत रस एवं करुण रस ये दो शत्रु है तथा अद्भुत रस मित्र है।
सब रसन को शत्रु
दोहा
उदै होत निर्वेद जल, दस रस थाई लौन।
तातैं रिपु सब रसन को, शांत मुख्य सब गौन।।९८।।
दसों रस का स्थाई लवण (नमक) रूप है जिसमें शान्त रस का स्थाई, निर्वेद रूप से पानी प्रकट कर सभी रसों के स्थाई को गला देता है। इससे शान्त रस सारे रसों का शत्रु गिना जाता है, शान्त रस के अतिरिक्त दूसरे रस शत्रु रूप में गौण हैं।
वार्ता-एकादस रस दास्य की स्थाई बिगरे सोइ, भक्ति जुक निर्वेद विषे ज्ञान निर्वेद विषे विनय हू को नास है, वेदांत मत तें अहं ब्रह्मास्मिति।
शान्त रस को पहले दस रसों का शत्रु गिना है पर ग्यारहवे रस हास्य रस का शत्रु नहीं माना है, इसका कारण यह है कि हास्य रस से भक्ति भाव प्रकट होता है। इसके अतिरिक्त शांत रस से भी भक्ति तथा ज्ञान भाव प्रकट होता है परन्तु ज्ञान से शान्त रस के हास्य भाव का विनयभाव रूप स्थाई बिगड़ता है कारण कि भक्ति और ज्ञान के निर्वेद भाव में वेदान्त मत के अनुसार ‘अहं ब्रह्मास्मि’ होने से विनय का नाश होता है।
रस स्थाई कथन
दोहा
रति तैं पुष्ट सिंगार है, हांसी हास्य विचार।
करुण पुष्ट है शोक तैं, रौद्र क्रोध तैं धार।।९९।।
रति-(प्रीति) से श्रंगार रस वृद्धि पाता है, हाँसी से हास्य रस बढ़ता है। शोक से करुण रस की वृद्धि होती है और क्रोध से रौद्र रस बढ़ता है।
वीर पुष्ट उत्साह तैं, भीती तैं भय जानि।
ग्लानी सहित बिभत्स है, विस्मय अद्भुत मानि।।१००।।
उत्साह से वीर रस पुष्ट होता है, भय से भयानक रस में वृद्धि होती है। इसी प्रकार विभत्स रस की स्थाई ग्लानि है और विस्मय से अद्भुत रस विकास पाता है।
शांत पुष्ट निर्वेद तैं, दास स्वरूप अनूप।
रस ना स्थाई भाव बिन, भनत सबै कविभूप।।१०१।।
निर्वेद से शान्त रस पुष्ट होता है। कवि स्वरूपदास कहता है कि स्थाई भाव के बिना अनुपम रस उत्पन्न नहीं होता ऐसा सारे कवियों ने माना है।
दास्य और सख्यत्व है, वत्सल रस करि जोय।
विनय रहस्य ममत्व है, स्थाई द्वादश होय।।१०२।।
दास्य रस का विनय स्थाई है और रहस्य सख्यरस का स्थाई भाव है ममत्व वात्सल्य रस का स्थाई हैं इस प्रकार बारहों रसों के बारह स्थाई भाव हें।
रसन के रंग और देवता कथन
दोहा
श्याम सिंगार रु काम पति, वामन पति सित हास।
करुणा धूसर जम पती, रौद्र लाल शिव तास।।१०३।।
श्रंगार रस श्याम वर्ण है और उसका स्वामी कामदेव, हास्य रस सफेद रंग का और उसके अधिपति वामन भगवान हैं। करुण रस धुंधले रंग का है और उसके देवता यमराज हैं। रौद्र रस का रंग लाल है और उसके अधिपति महादेव है।
वीर हेम रंग इंद्र पति, भय कालो पति काल।
हर्यो बिभछ महाकाल पति, शांत स्वेत हरि पाल।।१०४।।
वीर रस सोने के रंग जैसा है और इसके स्वामी इन्द्र देव हैं। भयानक रस काला है, इसके अधिपति काल देव (मृत्यु के देवता) हैं। विभत्स रस नीले रंग का है जिसके स्वामी महाकाल हैं। शांत रस का वर्ण सफेद और देवता विष्णु हैं।
अद्भुत पीत रु वीर्य पति, नव रस सोय स्वरूप।
चारि खानि बिच सुनि लिखे, कहै प्रगट कविभूप।।१०५।।
अद्भुत रस का रंग पीला और इसके देव वीर्य (प्रजापति) हैं। इस प्रकार नो रसों के रंग स्वरूप हैं। कवि स्वरूपदास कहता है कि जगत के सारे प्राणियों में कविश्वर यह प्रकट करते हुए कहते हैं, उन्हें सुन कर मैंने इसे लिखा है।
विषय पंचक में रसादि को प्रागट्य
दोहा
शब्द स्पर्श अरु रूप रस, गंध पंच विषयानि।
सात्विक थाई और रस, इन बिच प्रगटत आनि।।१०६।।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन पाँच विषयों में सात्विक भाव, स्थाई भाव और रस द्वारा प्रकट होता है।
पंच भाव कथन
दोहा
हैं विभाव अनुभाव जे, सात्विक संचारीन।
स्थाई आदिक समझियौ, रसन बीच परबीन।।१०७।।
विभाव (आलंबन और उद्दीपन) , अनुभाव, सात्विक, मंचरि। और स्थाई भाव ये पाँच भाव हैं जो सम्पूर्ण रस के उत्पन्न होने की सामग्री जुटाते हैं। अर्थात् प्रत्येक रस के भीतर ये पाँच भाव रहते हैं (होते हैं) ऐसा विद्वान कहते हैं।
अथ सात्विक भाव कथन
दोहा
आंसु प्रलय वैवरनता, स्तंभ कंप सुर-भंग।
स्वेद पुलिक ज्रंभा गिनो, तंद्रित जुत दस अंग।।१०८।।
(१) आंसू (२) प्रलय (अचेतावस्था) (३) विवर्णता (चेहरे का उतरना) (४) स्तंभ (स्तब्ध होना) (५) कंप (कांपना) (६) स्वर भंग (आवाज का टूटना) (७) स्वेद (पसीना आना) (८) पुलिक (रोंए खड़े होना) (९) ज्रंभा (जम्हाई लेना) (१०) तंद्रित (आलस्य होना) ये दस अंग सात्विक भाव के हैं (दूसरे रसग्रंथों ने आठ सात्विक भाव माने हैं, जम्हाई और आलस्य को सात्विक भाव नहीं माना है)
अथ संचारी भाव
छप्पय
है निर्वेद रु ग्लानि, शंक ग्रव चिंता कहिये।
मोह विषाद रु दैन्य, असूया आलस लहिये।।
मद संमृति उन्माद, हरष श्रम लाज चपल क्षति।
जड़ता भय आवेग, स्वप्न निद्रा औत्सुक्य मति।।
अवहित्थ क्रोधी अरु उग्रता, व्याधि विमर्ष वितर्क मृत्यु।
है अपसमार कौं आदि दै, संचारी तेतीस हितु।।१०९।।
१. निर्वेद-स्वशरीर और दूसरे को छोड़ने का भाव
२. ग्लानि,-रूप विकृति, सकुचाने का भाव
३. शंका-इष्टानिष्ट के विचार से शंकित होने का भाव
४. गर्व-मैं कुछ विशेष हूं ऐसा निश्चय होने का भाव
५. चिंता-अहितकर वस्तु पर चिंतन करना अथवा फिक्र होने का भाव
६. मोह-भ्रमवश विकल चित्त होने पर, अथवा माया या अविद्या का भाव
७. विषाद-इष्ट की हानि तथा अनिष्ट की प्राप्ति से दुःख हो उसका भाव
८. दैन्य-विपदादि से चित्त के नम्र होने का भाव
९. असूया-किसी की श्रेष्ठता न सहन होने का भाव
१०. आलस्य-कार्य सामर्थ्य में उत्साहहीन होने का भाव
११. मद-मादक पदार्थो से हर्षित होने का भाव
१२. स्मृत्ति-गत पदार्थ के स्मरण होने का भाव
१३. उन्माद-चित्त भ्रम होने का भाव
१४. हर्ष-चित्त की प्रसन्नता रूप आनन्द का भाव
१५. श्रम-कार्य परत्वे थकित होने का भाव
१६. लाज-कारण परत्वे शर्म आने का भाव
१७. चपलता-कार्य करने में अस्थिरता युक्त उतावली करने का भाव
१८. धृति-आपद काल में स्थिरता होने का भाव
१९. जड़ता-स्थिरीभूत पन अर्थात् निमग्नता होने का भाव
२०. भय-अहित पदार्थ की प्राप्ति से अचिंता डरने का भाव
२१. आवेग-इष्टानिष्ट प्राप्ति से अचिंती आतुरता होने का भाव
२२. स्वप्न-निद्रावस्था में हिता नाड़ी से जाग्रत जैसा दिखने का भाव २३. औत्सुक्य-कार्य तत्परता होने का भाव
२४. निद्रा-कार्य से थकने पर पूरी ऊंघ आने का भाव
२५. मति-यथार्थ ज्ञान की स्थिरता होने का भाव
२६. अवहित्थ-संकोचमय होकर शरीर की विक्रति छुपाने का भाव
२७. क्रोध-दूसरे की अहमन्यता की असहनीयतार्थ उर में अमर्ष आने का भाव
२८. उग्रता-कूरता से भयंकर चेहरा करने का भाव
२९. व्याधि-शारीरिक पीडा होने का भाव
३० विमर्ष-नींद खुलने पर विचार आने का भाव
३१ वितर्क-शंका समाधान रूप यथार्थ ज्ञान होने का भाव
३२. मृत्यु-देहपतन अथवा प्राणवायु के वियोग होने का भाव
३३ अपस्मार-वायु रोग के कारण मुंह से झाग आ कर मूर्च्छित होने का भाव। ये तेतीस संचारी भाव, रस में संचार करने वाले हैं, ऐसा ग्रंथकर्त्ता कहता है।
नवरसानुभाव प्रथम श्रंगार तैं
दोहा
नमन रु बदन प्रसन्नता, मंद हास्य मधु बैन।
ए श्रंगार अनुभाव हैं, मोदजुक्त चल नैन।।११०।।
नम्रता (विनय) , मुख की प्रसन्नता, हल्के-हल्के हँसना (मधुर-मधुर हंसना) मीठे वचन और आनन्दयुक्त चंचल नेत्र होना ये श्रंगार रस के अनुभाव है।
हास्य के अनुभाव
दोहा
आदि रूप तजि होय अन, वचन रु अंग विकार।
स्वरभंगादिक तैं प्रगट, व्है रस हास्य प्रकार।।१११।।
स्वयं का स्वरूप छोड़ कर दूसरे कायिक और वाचिक विकारों में स्वरभंगादि से हास्य रस के प्रकार प्रकट होते हैं। अर्थात् आकृति विकृति रूप अभिनय कला (चाळा करने की कला) के अनुभाव हास्य रस के हैं।
करुण के अनुभाव
दोहा
दीर्घ निसास रु रुदन तैं, मुर्छा दैन्य विलाप।
करुणा के अनुभाव हैं, भूमिपतन संताप।।११२।।
लम्बे निश्वास लेना, रोने से मूर्च्छा आना, दीनता का भाव आना, विलाप करना, भूमि पर पड़ जाना आदि संताप होना, ये करुणरस के अनुभाव हैं।
रौद्र के अनुभाव
दोहा
कर तैं पौंचे को मलन, अधर डसन अरु कंप।
शस्त्र तोलिबो रौद्र तैं, मुख चल बरन विलुंप।।११३।।
हाथ से पहुँचा (कलाई) मसलना, होंठ काटना, शरीर का कांपना, शस्त्र उठाना और आंख मुंह के रंग का बदल जाना, ये रौद्र रस के अनुभाव है।
वीर के अनुभाव
दोहा
शौर्य र्धेय प्रगलभ बचन, सात्विक रोमांचादि।
वदन प्रसन तैं वीर को, प्रगट कहत कवि आदि।।११४।।
शूरवीरपन, धीरजपन, प्रौढ़ वचन, रोंओ का खड़ा होना आदि सात्विक भाव और मुख पर प्रसन्नता ये वीर रस के अनुभाव कवियों ने बताए हैं।
भयानक के अनुभाव
दोहा
कंप चरन कर अंग शिर, चख चक्रित थिर ताय।
सुस्क अधर कँठ तालु भय, रस यह जान्यौ जाय।।११५।।
हाथ-पांव तथा सिर, इन अवयवों का कांपना, नेत्रों का चकित होना, स्तब्ध होना, होंठ और तालु का सूखना ये भयानक रस के अनुभाव हैं, अर्थात् इन अनुभावों से भयानक रस पहचाना जाता है।
वीभत्स के अनुभाव
दोहा
नासा आनन संकुरित, चख मुख छादन होय।
बारबार धूकत रहै, बिभछ प्रगट ता जोय।।११६।।
नाक-मुँह सिकोड़ना, नेत्र और मुँह का ढकना, बार-बार थूकना ये अनुभाव वीभत्स के माने गए हैं।
अद्भुत के अनुभाव
दोहा
वाह वाह हाहा तथा, गदगद बचन प्रभाव।
अहो चखन को फूलबो, अद्भुत रस अनुभाव।।११७।।
वाह-वाह कहना, आहाहा कहना, कंठ का भर आना, नेत्रों का प्रफुल्लित होना, अहो अति आश्चर्य! ये अद्भुत रस के अनुभाव हैं।
शांत के अनुभाव
दोहा
अधोदृष्ट उनमत्तबो, जग तैं वृत्ति उदास।
निज मुख निंदा आपकी, है रस शांत प्रकाश।।११८।।
नीचे देखते रहना, उन्माद का होना, जगत से राग-द्वेष रहित होना, और स्वयं का स्वयं ही अनादर करना, ये शांत रस के अनुभाव हैं, जानें।
शब्द तैं श्रंगार
दोहा
तान कान्ह के गान की, परी कान में आय।
जबही तैं वृखभानुजा, भयी चित्र के भाय।।११९।।
एक सखी दूसरी सखी से कहती है, हे सखी! जब से कृष्ण की बांसुरी की गान रूप तान इसके कानों में पड़ी है तब से राधा चित्रवत बन गई है। इसमें बांसुरी के गान रूप शब्द ज्ञान से श्रंगार रस बना है।
स्पर्श तैं श्रंगार
दोहा
दुलहनि कौं पहराय दी, मोहन तो उरमाल।
स्वेद कंप स्थंभन पुलक, लख्यो ताहि छिन लाल।।१२०।।
सखी कृष्ण से कह रही है, हे मोहन! तुमने तुम्हारे गले की माला जब से अपनी प्रिया को पहनाई है तभी से हे लाल, उसे शरीर का पसीना, कांपनी, स्तब्धपन और रोमांच हुआ, वह मैंने देखा। इसमें गले की माला पहनाने में स्पर्शज्ञान से श्रंगार रस हुआ।
रूप तैं श्रंगार
दोहा
जब देखी वृखभानुजा, हिय बिच ऊठी हूक।
बंशी ओठन पै रही, फेर लगी नहिं फूँक।।१२१।।
एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी! जब कृष्ण ने राधा को देखा तब उनके हृदय में ऐसी हूक उठी कि होंठों पर बांसुरी धरी की धरी रह गई। उनसे फूंक भी न दी गई। इसमें प्रत्यक्ष दर्शन रूप से श्रंगार रस की उत्पत्ति हुई।
रस तैं श्रंगार रस
दोहा
वा प्यारी के ओष्ट को, पान कियो रस पीव।
कहै सुनै न हलै डगै, जबको उकस्यो जीव।।१२२।।
एक सखी दूसरी सखी से कह रही है-इस प्रिया (स्त्री) के होठों को जब से इसके पति ने चूमा है (रस पान किया है) तभी से इसका जी उतेजित हो गया है। वह न किसी से बोलता है, न किसी का कहा सुनता है और हिलता डुलता भी नहीं। इसमें अधरपान करने रूप रस ज्ञान से श्रंगार रस हुआ।
गंध तैं श्रंगार रस
दोहा
प्यारी के अँगराग की, गंध लपट भो ज्ञान।
ध्यान लगे लोयन ढपे, कबके ठाढे कांन।।१२३।।
एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि देख! इस प्रिया के कस्तुरी लेपन की सुवास का भान होते ही श्री कृष्ण आखें मूंद कर, ध्यान लगा कर, कभी से खड़े हैं। इसमें कस्तुरी लेपन के सुगंध ज्ञान से श्रंगार रस उत्पन्न हुआ।
वार्ता-ऐसे ही पंचोद्दीपन सब रसन में जानिये, नवरस एकत्र।
इस प्रकार ज्ञानेंद्रिय पंचक के विषयों से पांचों उद्दीपन विभाव सभी रसों में जान लो। अब नो ही रसों का इकट्ठा उदाहरण-
नवरस एकत्र उदाहरण
छप्पय छंद
गिरिजा अंक सिंगार, कीर्तिमुख काज करुणमय।।
बिभछ रूंड की माल, भूत आभर्न उरग भय।।
असंभाव अदभूत, ज्वलन चख पंच सीस जल।।
रौद्र दक्ष क्रतु नास, भूति तन शांति रूप भल।।
गन बीरभद्र जुत बीरमय, हास नगन तन बिमल जश।।
उर स्वरूपदास धर ध्यान अब, राजत शिव तन नव हि रस।।१२४।।
अंक (गोदी में) में पार्वती है यह श्रंगार रस, सदकार्यो के कारण स्वयं की कीर्ति गानेवालों पर करुण रस। शूरवीरों के मुंडों की मुंडमाल धारण करन रूप विभत्स रस, भूतों और सांपों के धारण रूप भयानक रस। अग्नि के नेत्र, पंचमुख तथा मस्तक पर गंगा इस असंभव रूप में अद्भुत रस। दक्ष के यज्ञ का नाश करने के विचार में रौद्र रस, शरीर पर विभूति धारण की हुई है और उज्जवल स्वरूप है यह हुआ शांत रस। दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने वाले, वीरभद्र नाम के गण युक्त होने से वीर रस, और उनका शरीर नग्न है इस रूप में हास्य रस कि जो उन के उज्जवल यश जैसा शोभायमान है। कवि स्वरूपदास कहता है कि इस प्रकार श्री शंकर भगवान के शरीर पर नो ही रस शोभा दे रहे हैं, ऐसे स्वरूप का अपने हृदय में ध्यान कर।
अथ अंगहीन स्थाई
कवित्त
भीलनी में प्रीति द्विज कैद सिंह पै उछाह,
मोती मीत गये पाये विस्मय न मान तूं।।
पीकलीक अंगना के अंग पै गिलानि नाहिं,
मारिहौं जितेक स्याल क्रोध ना बखान तूं।।
भिक्षा काज गावत विराग निरवेद नाहिं,
कदली मरोरै गज करुना न जान तू।।
या बिधि स्वरूपदास और रस जिते आहि,
अंगहीन गिनि लेहू स्थाई जो सयान तूं।।१२५।।
भीलनी में ब्राह्मण की प्रीति इसमें श्रंगार रस नहीं हुआ, प्रीति रूप केवल भाव हुआ। बांधे हुए सिंह की शिकार का उत्साह इसमें वीर रस नहीं हुआ, उत्साह रूप केवल भाव हुआ। मोती और मित्र ये दोनों गये हुए वापस आ गए (प्राप्त हुए) इसमें अद्भुत रस नहीं विस्मय रूप केवल भाव हुआ! स्त्री की देह पर पान की पीक की लकीर इसमें वीभत्स रस नहीं हुआ, ग्लानि रूप केवल भाव हुआ। कोई कहे कि जितने सियार हैं उतने मार दूंगा इसमें रोद्र रस नहीं, क्रोध रूप केवल भाव हुआ। टुकड़े मांग कर खाने के लिए भिक्षा वृत्ति से वैराग्यमय गान करना, इसमें शान्त रस नहीं, निर्वेद रूप केवल भाव आया है। हाथी केले के पौधे को उखाड़े इसमे करुण रस नहीं, करुणा रूप केवल भाव हुआ। कवि स्वरूपदास कहता है कि इस प्रकार दूसरे जितने भी रस हैं उन सारे रसों में हे विज्ञजन! तू अंगहीन स्थाई भाव मान ले। इनमें इस तरह रस की सम्पूर्णता नहीं होने से ये अपूर्ण रस गिने जाते हैं। इनमें रस न होकर रसाभास है।
यथा रसाभास
दोहा
युद्ध पिता तें पुत्र को, अनुचित सो रस भास।
रमण अगम्या नारि तैं, गुरुजन सेंती हास।।१२६।।
पिता से पुत्र का लड़ना, अयोग्य स्त्री के साथ रमण करना, और गुरुजनों से परिहास करना ये सभी बातें अनुचित होने से इन में रस नहीं होता, मात्र रसाभास हुआ, ऐसा कहा जाता है।
।।इति तृतीय मयूख।।
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