पांडव यशेन्दु चन्द्रिका – षष्टम मयूख

षष्ठम मयूख

वन पर्व

जन्मेजय उवाच
दोहा

कैसे वन में गमन किय, धर्मराज युत भ्रात।
कैसे निकरे विपत दिन, गुप्त रहे कस तात।।१।।
राजा जन्मेजय पूछते हैं कि हे वैशंपायन मुनि! भाइयों सहित धर्मराज ने वन गमन कैसे किया? इस विपत्ति के कठिन दिन कैसे काटे? और वे अज्ञातवास में गुप्त रीति से कैसे रहे? यह पूरा वृतान्त सुनाइये।

वैशंपायन उवाच
पद्धरी छंद
कुरु राज बिपिन दिशि गमन कीन, उठि चले गैल पुरजन अधीन।
सबको करि धर्म जु समाधान, वोहोराय दिये कहि बिबिध बान।।२।।
रिषि रहे गैल छांडे न संग, नृप भयो सचिंता दुखित अंग।
क्यों बनै सबन को भरन काज, रहिबो बन धन बिन भष्ट राज।।३।।
ऋषि वैशंपायन कहने लगे कि हे जन्मेजय! युधिष्ठिर ने जिस समय वन को प्रस्थान किया उस समय अपने प्रिय राजा के स्नेह की मारी, राजधानी की सारी प्रजा उसके पीछे चल पड़ी, यह देख कर धर्मराज ने उन्हें अच्छी तरह समझा-बूझा कर वापस राजधानी लौटने का कहा पर ऋषि-मुनि तो साथ ही रहे। उन्हें इस प्रकार साथ आते देख युधिष्ठिर चिंतामग्न हो गए और सोचने लगे कि बिना धन-वित के राज्यच्युत हो कर, वन में इन सभी का भरण-पोषण क्यों कर होगा?

धौम्य का सूर्यमंत्र देना
दिय धौम्य पुरोहित सूर्यमंत्र, त्रय दिवस भूप साध्यो सु तंत्र।
उर स्थाल मान बिच नीर आप, इक पाय रही ठाढ़ो अपाप।।४।।
दिय दिनमनि थाली अखय देव, सब ही की यातैं बनै सेव।
धर्मराज को इस प्रकार चिंताग्रस्त देख कर धौम्य नामक राजपुरोहित ने उन्हें सूर्य मंत्र दिया, उसे युधिष्ठिर ने तीन दिन तक एकाग्र चित्त से साधा। वह भी इस प्रकार कि स्वयं छाती तक गहरे पानी में एक पाँव के आधार पर खड़े हो कर तीन दिन तक अविचल, अविकल रह कर साधना की। धर्मराज की इस साधना से प्रसन्न हो कर सूर्यदेव ने एक अक्षय पात्र दिया जिससे सभी का पोषण भली भांति हो सके।

सूर्यवचन
दोहा
जौ लौं द्रुपदकुमारि नहिं, भोजन करै सुभाय।
तौ लौं इक यह पात्र में, लाखन देहु जिमाय।।५।।
इस अक्षय पात्र का यह प्रभाव है कि जब तक स्वाभाविक रूप से द्रौपदी भोजन न करे तब तक इस पात्र से आप असंख्य लोगों को भोजन खिला सकेंगे। खाना खत्म नहीं होगा।

पांडवों का द्वैतवन में गमन
अखैपात्र बरदान लै, चल्यो द्वैतबन भूप।
दिन दिन नूतन होत हैं, बास बिहार अनूप।।६।।
बिनु अनुचर अनुचर सदृश, चहुँधा तरू हरिधाम।
शाखायित खग राव मिष, पढ़त नृपत उत नाम।।७।।
सूर्यदेव द्वारा प्रदत अक्षय पात्र ले धर्मराज ने द्वैत वन की ओर प्रस्थान किया। उन्हें प्रतिदिन नये अनुभव होने लगे, नये रास्ते, नये निवास। अपने सेवकों से रहित राजा की वन के सभी पेड़ सेवा करते हैं जैसे कि अब वे ही अनुचर हों, और उन वृक्षों की शाखाओं पर बसेरा करते पक्षी अपनी चहचहाट में राजा का नाम उच्चारते हैं अर्थात् उनकी स्तुति में मग्न होते हैं।

राजा धर्म का आश्रम निवास
छंद पद्धरी
नृप आश्रम रिषि के रहत वृंद, अति होत कथा गाइक अनंद।
चहुँ भात सु बिचरत दिशा चार, द्विज पोष काज आखेट कार।।८।।
लखि दुष्ट जंतु कौं दंड देत, भख जोग मारि रथ डारि लेत।
किय भीम केउक राकस विनास, यों रहत विपिनवासी उदास।।९।।
धर्मराज के आश्रम में जो ऋषियों का समूह रहता है वह अपने अनेक प्रकार के कथा वाचन और आख्यानों से सभी को आनन्द प्रदान करता है। चारों दिशाओं में चारों भाई मृगया को जाते और आखेट कर आश्रमवासियों के लिए हिरन आदि मार कर अपने रथ में डाल कर लाते। यही नहीं वन के हिंसक जन्तुओं को दण्ड भी देते। यहाँ रहते हुए भीमसेनु ने अनेक राक्षसों का संहार किया। इस प्रकार के सभी आश्रमवासी (हर्ष शोक से रहित) निष्काम भाव से अपने दिन बिता रहे थे।

श्रीकृष्णागमन
पचि आमिष तंदुल अखैपात्र, रिखि पति जिमाय पांचालि रात्र।
पुनि करी आप भोजन सप्रीत, रहि विपन कछुक दिन यहै रीत।।१०।।
सुनि कुरु द्युतक्रीड़ा सुभाय, वह बिपन बीच श्रीकृष्ण आय।
बिश्वास दै रु बिपदा बटाय, पुनि चले धर्म आदेश पाय।।११।।
अक्षय पात्र में मांस और चावल रांध कर अपने पतियों और ऋषियों को खिला कर देर रात को द्रौपदी स्वयं भोजन करती थी। इस तरह दिन आराम से व्यतीत हो रहे थे कि कौरवों ने किस प्रकार छल कपट से द्युतक्रीड़ा में पाण्डवों को जीत कर वनवास भेज दिया, यह सुन कर श्री कृष्ण जहाँ पाण्डव रहते थे वहाँ वन में हाल-चाल जानने को आए। उसके बाद यह कह कर कि इस विपत्ति की अधिक चिन्ता न की जाए श्री कृष्ण वापस अपनी वाटिका को सिधाए।

दुर्वासा का कपटयुक्त आगमन
दुर्वासा प्रेर्यो श्राप दैन, लखि समय सुयोधन धर्म लैन।
अठयासि सहस रिषि जुक्त आय, भोजन बिन जाच्यो द्वेष भाय।।१२।।
द्रौपदी किये भोजन सुदेश, वह पात्र धर्यो साहित असेस।
द्रौपदी स्मरन किय कृष्ण केर, हरि आये संकट समय हेर।।१३।।
इस शाक पत्र तिहिं पात्र लीन, करि भक्ष कृष्ण उडकार कीन।
तिहुँ लोक तृप्त भये समय ताहि, चकि रहे परस्पर विप्र चाहि।।१४।।
पाण्डव अभी कष्ट में हैं उन्हें और तंग किया जाए तो अच्छा, यह सोच कर दुर्योधन ने धर्मराज के धर्म को भ्रष्ट करने की नीयत से दुर्वासा ऋषि को शाप देने के लिए प्रेरित कर वन में भेजा। इस समय दुर्वासा ऋषि के साथ अठयासी हजार ऋषि थे। सभी वन में पाण्डवों के स्थान पर आकर भोजन करने का आग्रह करने लगे। उस वक्त द्रौपदी ने भोजन कर लिया था और अक्षय पात्र खाली था। अब अचानक आए इस संकट से उबारने के लिए द्रौपदी ने श्री कृष्ण का स्मरण किया। तुरन्त ही श्री हरि सहायता को आए और अक्षय पात्र अपने हाथ में ले, पात्र में शेष बचे शाक पत्र को खा कर डकार ली। इससे तीनों लोक तृप्त हो गए और दुर्वासा अपने शिष्यों सहित चकित रह गए।

कपट प्रकाश
दोहा
नकुल बुलावहु विप्र सब, कहि हरि भोजन काज।
नटे विप्र आशीष दै, प्रगट कियो सब व्याज।।१५।।
फिर श्री कृष्ण ने नकुल से कहा कि सारे ऋषियों को भोजन करने के लिए आमंत्रित करो।-नकुल के बुलाने पर दुर्वासा की पूरी शिष्य मंडली ने भोजन करने से मना किया कि उन्हें भूख नहीं हैं। इसके बाद सारे मुनियों ने पाण्डवों को आशीष दी और पूरा भेद बताया कि उनके इस तरह आने का प्रयोजन क्या था।

ऋषि उवाच
धर्मपुत्र तेरो धरम, सदा अखंड स्वरूप।
खंडन किय चाहत जु खल, ताको घटिहै भूप।।१६।।
ऋषि दुर्वासा ने कहा कि हे धर्मपुत्र! तुम्हारा धर्म हमेशा इसी प्रकार अखण्ड बना रहे पर जिन्होंने तुम्हारे धर्म को खंडित करवाने के लिए छल से यह उपाय सोचा है उन्हीं के धर्म का नाश होगा।

कहि रिषि पीछो गमन किय, हरि भये अन्तर्धान।
रह्यो भूप निज रिषिन जुत, सुखमय बंधु समान।।१७।।
ये आशीर्वाद देकर सारे ऋषि-मुनियों ने वहाँ से प्रस्थान किया और श्री हरि अंतर्द्धान हो गए। इसके बाद धर्मराज अपने बन्धुओं सहित पूरे आदर के साथ वहाँ रहने लगे।

अर्जुन का तप
छंद पद्धरी
षट वर्ष भये यों बन बितीत, विजय तैं युधिष्ठिर कहि सप्रीत।
तप करहु पुत्र अब अस्त्र काज, बिन युद्ध दुष्ट नहिं दैहिं राज।।१८।।
कहि तथा अस्तु नर गमन कीन, इक पाइ वर्ष रहि तप अधीन।
इन्द्रादि देव बर दैन आइ, सब तैं जु अस्त्र लीने सुभाइ।।१९।।
इन्द्रादि अस्त्र दै गये थान, नर रह्यो गंधमादन सज्ञान।
इस प्रकार वनवास के छः वर्ष व्यतीत हो गए। एक दिन धर्मराज ने प्रीतिपूर्वक अर्जुन से कहा कि हे वत्स! तू अब शस्त्रों के लिए तप कर, क्योंकि युद्ध किए बिना कौरव हमें वापस राज्य देने वाले नहीं है। धर्मराज की आज्ञा पाकर अर्जुन तप करने निकला। उसने एक वर्ष तक एक पाँव पर खड़े रह कर तपस्या की। इस पर इन्द्रादि देव प्रसन हो कर वरदान देने आए और सभी देवों ने अर्जुन को शस्त्र दिये। तत्‌पश्चात देव अपने लोक को सिधारे और पार्थ गंधमादन पर्वत पर रहा।

भील वेष में रुद्रागमन
इक दिवस रुद्र धरि सबर रूप, त्रिय वृंद जुक्त आये अनूप।
शिव कियो एक घायल वराह, नर बान चलायों निकट चाह।।२०।।
तिहि कपट भिल्ल वरज्यो सु तत्र, इह प्रथम ग्रास मम क्रोड अत्र।
नहि गन्यो कह्यो नर सहित क्रोध, बढि पर्यो परस्पर जुध विरोध।।२१।।
एक दिन महादेव सबर (भील) का रूप धर कर, अनुपम स्त्रियों सहित गंधमादन पर्वत पर आए। महादेव ने आखेट में एक सुअर को घायल कर दिया और अर्जुन ने उसे नजदीक जान कर बाण चलाने की इच्छा की, कि तभी भील के छद्‌म रूप में उपस्थित महादेव ने मना किया कि यह सुअर मेरा शिकार है, मैंने इसे पहले घायल किया है। इसे अनसुना कर अर्जुन ने कुपित हो कर कहा कि मैं नहीं मानता। बात ही बात में परस्पर बोलचाल बढ़ गई और दोनों एक दूसरे के सामने युद्ध को सन्नद्ध हो गए।

छद्‌म भील से अर्जुन का युद्ध
क्षय भये उभय अक्षय निखंग, असि धारि चल्यो शिव पै उमंग।
तिल तिल हि छेदि हर खड्‌ग ताहि, चकि रह्यो किरीटी बदन चाहि।।२२।।
जुरि पर्यो भुजन तैं द्वंद युद्ध, कछु चांप्यो हर उर धरि अक्रुद्ध।
मुर्छित सु गिर्यो तब भूमि माहिं, नर कर्यो सु उद्यम फुर्यो नाहिं।।२३।।
युद्ध में अर्जुन के दोनों तरकश अक्षय और शत्रुजीत खाली हो गए तब अर्जुन धनुष छोड़, तलवार ले कर महादेव पर झपटा, भील के छद्‌म-वेश धारी शिव ने तलवार को तिल-तिल जितनी जगह से छेद डाला। आश्चर्य से जब अर्जुन ने भील योद्धा के मुँह की ओर देखा तो चकित हो गया। तलवार के नष्ट हो जाने पर अर्जुन ने उसे द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। महादेव ने कुपित हो उसकी छाती पर कुछ फेंका जिससे मूर्च्छित होकर अर्जुन भूमि पर गिर पड़ा। इस प्रकार अर्जुन की एक न चली।

अर्जुन का शिवपूजन
चित भयो गई मूर्छा सचेत, हर मूर्ति रेतमय करि सहेत।
नर पुष्प चढावै तोरि तोरि, वह भिल्ल शीष दरसै बहोरि।।२४।।
पहिचानि रुद्र तब पर्यो पाय, लीनो कपर्दि तिहि उर लगाय।
पाशूपत्यास्त्र दीनो सप्रीत, भये अखय तून पुनि शत्रुजीत।।२५।।
अर्जुन को जब होश आया तो उसने मिट्टी से महादेव की मूरत बनाई और आस-पास से फूल तोड़ कर उस पर चढ़ाने लगा। अर्चना करते हुए जब उसने वैसे ही पुष्प पास खड़े भील के सिर पर देखे तो अर्जुन तुरन्त पहचान गया कि ये महादेव हैं। वह शिव के पेरों में गिर पड़ा तब महादेव ने उसे उठा कर अपने सीने से लगाया और प्रेमपूर्वक पाशुपति नामक अस्त्र प्रदान किया और उसके दोनों तरकश अक्षय और शत्रुजीत फिर से भर उठे। इसके बाद भील के छद्‌म रूप में उपस्थित महादेव अन्तर्द्धान हो गए।

अर्जुन का इन्द्रलोक में जाना
पठवाय इन्द्र नर लैंन काज, मातुली जुक्त रथ हरित बाज।
परिक्रमन युक्त करि रथ प्रवेश, सुरलोक जाइ भेट्यो सुरेश।।२६।।
अर्धासन लै बैठो सु इन्द्र, मन बिस्मय भो लोमस मुनिंद्र।
नरदेह जानि नर भ्रमहु नाहिं, मम अंश विष्णु अवतार माहिं।।२७।।
इन्द्र ने अपने सारथी मातुली को श्यामकर्ण घोड़ों (हरित बाज) से युक्त रथ दे कर कहा कि अर्जुन को इन्द्रलोक में ले कर आओ। रथ के गंधमादन पर्वत पर पहुँचने पर अर्जुन ने रथ की परिक्रमा की और रथारूढ़ हुआ। रथ उसे ले कर देवलोक को गया। वहाँ इन्द्र ने पार्थ को अपना आधा आसन देकर उसे प्रेम से बैठाया। यह देख कर इन्द्रसभा में आए लोमश ऋषि ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि यह क्या? इस पर इन्द्र ने कहा कि हे मुनि! यह नर देह में अर्जुन है, इसे पहचानों, यह विष्णु अवतार में मेरा अंश है।

मृतलोक धर्म सुत पै महंत, विजय के कुशल कहियो बृतंत।
बंधुन जुत चिंतातुर विशेष, अर्जुन बियोग व्हे है अदेश।।२८।।
कहि इन्द्र इतौ रिषि बिदा कीन, उत रह्यो किरीटी पितु अधीन।
हे मुनिवर! आप मृत्युलोक में जा कर धर्मपुत्र युधिष्ठिर को अर्जुन के कुशल समाचार कहना, क्योंकि धर्मराज को अपने अनुज का वियोग असह्य है। वे चिंता कर रहे होंगे कि अर्जुन कहाँ गया? यह कह कर इन्द्र ने मुनि को विदा किया और अर्जुन अपने पिता इन्द्र के यहाँ रह गया।

अर्जुन का चित्रकेतु से सखापन
निज मुख सुरेश चित्रकेतु नाम, गंधर्वहि प्रेर्यो सुगुन ग्राम।।२९।।
अर्जुनहि शिखाबहु जुत अनंद, विधि गान नृत्य जुत वाद्य वृंद।
कहि तथा अस्तु रहि विजय पास, हित बढ्यो सखापन जुत हुलास।।३०।।
सीखत जु अस्त्रविद्या सँगीत, प्रति दिवस बढ़त सुत पिता प्रीत।
फिर महाराज इन्द्र ने सद्‌गुणों के आगार चित्रकेतु नाम के गंधर्व को सम्बोधित करते हुए कहा कि हे चित्रकेतु! तुम अर्जुन को वाद्ययंत्र के साथ गायन और नृत्य विद्या सिखाओ। चित्रकेतु तथास्तु कह कर अर्जुन के साथ रहा। दोनों में परस्पर स्नेह बढ़ा और गाढी मित्रता हुई। यहाँ इन्द्रलोक में अर्जुन गायन और शस्त्रचालन का विद्याभ्यास करते हुए अपने पिता के सान्निध्य में रहा जिससे पिता-पुत्र दोनों के सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आई और प्रीति संवर्धित हुई।

अर्जुन को इन्द्र की आज्ञा
इक दिवस दई आज्ञा सुरेश, बिच सिंधु बसत सुररिपु विशेष।।३१।।
बिधि बर तैं सुर तैं अजित आहि, तूं मनुज रूप करि नाश ताहि।
मातुलि जुत ह्वै मम रथारूढ, निर्शत्रु करहु सुरलोक गूढ।।३२।।
एक दिन इन्द्र ने अर्जुन को आज्ञा दी कि समुद्र में देवताओं के बहुत से शत्रु रहते है जो कि ब्रह्मा के वरदान के कारण देवताओं से जीते नहीं जाते इसलिए हे अर्जुन! तू मनुष्य रूप में है अतः उनका नाश कर! सारथी मातुली सहित तू मेरे रथ में बैठ कर गुप्त रूप से वहाँ जाकर देवताओं को शत्रु रहित कर।

हिरन्यपुर जाकर अर्जुन का असुरों को मारना
दोहा
लै आज्ञा सुरराज की, चल्यो विजय शिर नाय।
कवच निवात रु कालखँज, इक दिन दिये मिटाय।।३३।।
इन्द्र की आज्ञा ले, अर्जुन ने सिर नवा कर प्रस्थान किया और समुद्र में बसी हुई हिरण्यनगरी में जा कर कवच, निवात और कालखंज को एक ही दिन में मार गिराया।

किय निष्कंटक अमरपुर, करि हिरन्यपुर नाश।
नर भुज पूजे इन्द्र त्रिय, पुर तिहुं सुजश प्रकाश।।३४।।
हिरण्यपुरी को विनष्ट कर अर्जुन ने देवलोक को शत्रुरहित किया इस पर स्वर्ग की अप्सराओं ने अर्जुन की पराक्रमी बाहुओं की पूजा की। तीनों लोकों में अर्जुन की कीर्ति का उजास फैला।

अर्जुन को इंद्र का अपना किरीट देना
रत्नजटित निज शीष को, दियो किरीट सुरेश।
नाम किरीटी ताहि तैं, भयो विख्यात विशेष।।३५।।
देवताओं के शत्रुओं का नाश कर जब अर्जुन वापस स्वर्गलोक को लौटा तो इन्द्र ने स्वयं के मस्तक पर धारण करने का रत्नजटित किरीट (मुकुट) दिया, इसी से अर्जुन आगे चल कर किरीटी के नाम से प्रख्यात हुआ।

अर्जुन पै उर्वसी का भेजना
नरहि अस्त्र बरदान जब, दैन गयो सुरभूप।
गंधमादन सुर रमनि को, नाटक भयो अनूप।।३६।।
गंधमादन पर्वत पर जब सुरराज इन्द्र अर्जुन को अस्त्रों का वरदान देने गया था तब वहाँ अप्सराओं के अनुपम नृत्य का एक आयोजन हुआ था।

देखी थी जब इंद्र ने, अर्जुन की उनमेष।
दृष्टि उर्वसी रूप में, जानी प्रीति विशेष।।३७।।
इस आयोजन में उर्वशी को अर्जुन द्वारा निर्निमेष दृष्टि (टकटकी लगा कर देखना) से देखते हुए इन्द्र ने देखा तो वह तुरन्त लख गया कि उर्वशी के रूप-सौन्दर्य पर अर्जुन मुग्ध है।

किय आज्ञा चित्रकेतु की, अर्जुन के प्रिय काज।
अति श्रंगार जुत उर्वसी, वापै पठवहु आज।।३८।।
इन्द्र ने यह देख कर चित्रकेतु को बुला भेजा और अपने प्रिय अर्जुन के लिए चित्रकेतु को आज्ञा दी कि उर्वशी को पूरा श्रंगार करवा कर अर्जुन के पास भेजो।

कह्यो इन्द्र तैसे हि कियो, सब उरवसी शृँगार।
चली देखि मोहित भई, नर कहँ सुरपुर नार।।३९।।
इन्द्र के आदेशानुसार उर्वशी ने सोलह श्रंगार सजाए और अर्जुन के पास गई। अर्जुन को देखकर वह स्वर्ग की अप्सरा मोहासक्त हो गई।

सुनत हि आगम उरवसी, नर सनसुख नियराय।
कह्यो हुकम कीजे कछू, मम कुंताधिक माय।।४०।।
उर्वशी को आते देख अर्जुन ने अगुवाई करते हुए कहा-कि हे माता! आप मेरी माँ कुंती के समकक्ष हैं, मेरे लिए आपकी क्या आज्ञा है, कहें।

उरवसी उवाच
देख्यो तूं मेरी तरफ, लोभ दृष्ट गिरि पृष्ट।
इन्द्र प्रेरि आई इहां, देव भाव करि नष्ट।।४१।।
नर कौं हम सेवैं कहा, दिव्य रूप सुर देह।
किहि कारन माता कही, नटै तो श्राप हि लेह।।४२।।
उर्वशी ने कहा कि हे अर्जुन! तुमने गंधमादन पर्वत पर मेरी ओर लोभ दृष्टि से देखा था, इसे इन्द्र ने देख लिया और उन्हीं की भेजी हुई मैं तुम्हारे पास आई हूँ। वरना हम मनुष्य योनि के पुरुष की सुश्रुषा करेंगी क्या? क्योंकि हम अप्सराएँ देव कोटि की हैं। पर तुमने मुझे माता शब्द से क्यों सम्बोधित किया? ऐसा कह कर तुम जो मेरी इच्छा का अनादर कर रहे हो अतः शाप के लिए तैयार हो-जाओ।

अर्जुन उवाच
रही पुरुरवा गेह तुं, कियो प्रगट मम वंश।

फिर परिचर्या इन्द्र की, करत सु मैं तिहि अंश।।४३।।
तातैं मैं तुहि लखत हो, और भाव नहि कोय।
इतने ही पै श्राप दै, शिर धरि लैहौं सोय।।४४।।
अर्जुन बोला कि हे उर्वशी! पूर्व में तुम राजा पुरुरवा के यहाँ रही हो और वहाँ तुमने मेरे पूर्वज को जन्म दिया। दूसरा कारण यह है कि तुम इन्द्र की सेवा करने वाली मुख्य सेविका हो और मैं इन्द्र का अंश हूं। यही सब सोच कर मैंने तुम्हें निहारा था। तुम्हें देखने में मेरा कोई अन्य भाव नहीं था। इस पर भी यदि तुम मुझे शाप देने को आमादा हो तो तुम्हारा शाप शिरोधार्य है।

उरवसी उवाच
तेजस्वी को दोष कछु, लगत न सुरपुर बीच।
मान भंग कीनो जु मम, होहु नपुंसक नीच।।४५।।
उर्वशी ने कहा कि इस स्वर्गलोक में तेजस्वी को कोई दोष नहीं लगता पर चूंकि तुमने मेरा मान भंग किया है, इससे तुम नपुंसक हो जाओ, यह शाप देती हूं।

कवि कथन
कवित्त
पठाई सुरेन्द्र उरवसी कौं नरेन्द्र पास,
कीनो सतकार दीनो ज्वाब बड़ी रीत सौं।
इन्द्र त्रिया तातैं मैया वंश की करैया मेरे,
कुंता तैं अधिक बातैं दोनों की प्रतीत सौं।
जाके काज भूपति पुरुरवा भयो निलाज,
वस्त्र त्याज को न ज्ञान दोर्यो गेल प्रीत सौं।
ताहि तैं हर्यो न मन अर्जुन कर्यो न संग,
व्रत तैं टर्यो न त्यों डर्यो न श्राप भीत सौं।।४६।।
कवि कहता है कि जब इन्द्र ने उर्वशी अप्सरा को अर्जुन के पास भेजा तो उसने सत्कार कर यह कहा कि हे अप्सरा! तुम इन्द्र की स्त्री हो इसलिए मेरी माता और मेरे पूर्वज को उत्पन्न करने वाली हो इसलिए मेरे लिए पूज्य हो। कवि कहता है कि जिस उर्वशी के लिए राजा पुरुरवा अपने वस्त्रों (नहीं पहने हुए का) का भान भूल कर पीछे दौड़ा, ऐसी सुन्दरी भी जिसका मन न लुभा सकी, न उसका संग पा सकी। वह अर्जुन अपने व्रत से नहीं टला और नहीं शाप से डरा। वह अर्जुन धन्य है।

अर्जुन की बात जान कर कै इंद्र का प्रसन्न होना
दोहा
चित्रकेतु कहै इंद्र तैं, निशि बीती ज्यों बात।
उर लगाय नर कौं कह्यो, भली भई यह बात।।४७।।
जब चित्रकेतु ने इन्द्र से अर्जुन और उर्वशी की गई रात की पूरी बात बताई तो इन्द्र ने अर्जुन को गले लगा कर कहा-सुन्दर, यह बात अच्छी हुई। अर्थात् ऐसे ही आचरण की तुमसे आशा थी।

वर्ष एक जौ लौं गुपत, भोगहु श्राप सधीर।
तब दुराव यह स्वांग बिन, बनतो मुश्कल वीर।।४८।।
अब तुम्हें एक वर्ष तक गुप्त रूप से रहना पड़ेगा, इतने समय तक तुम इस शाप को धैर्य के साथ भोग लेना। ऐसे नपुंसक स्वांग के बिना तुम्हारा गुप्त रहना अत्यन्त कठिन है।

अग्निद्योत भूषन बसन, दिये कुटुंब के काज।
पहुंचायो रथ जुक्त नर, जहां धर्म कुरुराज।।४९।।
ऐसा कह कर इन्द्र ने कुटुम्ब वालों के लिए, उसे अग्नि की तरह चमकते हुए आभूषण और वस्त्र दिये और जहाँ कुरुराज युधिष्ठिर थे वहाँ तक रथ भेज कर पहुँचाया।

पांच दिवस नर सुरन के, रह्यो इंद्र आधीन।
पांच बरष जौ लौं धरम, सब तीर्थाटन कीन।।५०।।
देवलोक में पाँच दिनों तक अर्जुन वहाँ इन्द्र के साथ रहा, तब तक यहाँ मृत्युलोक में पाँच वर्षो का समय निकल गया और इस अवधि में युधिष्ठिर ने सारे तीर्थों की यात्रा की।

अस्त्रयुत अर्जुन कों देखिकै धर्म का हर्षित होना
देखि अनुज अस्त्रन जुकत, बहु हरष्यो कुरुवीर।
भूप किरीटी तैं कह्यो, अस्त्र दिखावहु धीर।।५१।।
छोटे भाई को इस प्रकार अस्त्र-शस्त्र सहित आया देख कर धर्मराज सकुटुम्ब हर्षित हुआ और उसने अर्जुन से कहा कि हे धैर्यवान वीर! मुझे अपनी अस्त्र विद्या दिखाओ।

अस्त्र याद कीने विजय, होन लगे उतपात।
धरा धूजि उलका परत, नभ सुरयान दिखात।।५२।।
युधिष्ठिर के वचन सुन कर अर्जुन ने अपने अस्त्रों का स्मरण किया इससे उत्पात होने लगा, पृथ्वी कांपने लगी, उल्कापात होने लगा और आकाशमार्ग में देवताओं के विमान दिखने लगे।

नभबानी भइ सुरन की, इह मत करहु उपाव।
बनिहै जुध तब देखिहै, तूं सब अस्त्र प्रभाव।।५३।।
इसी समय आकाशवाणी हुई। देवों ने कहा कि हे राजा युधिष्ठिर! अभी इनकी परीक्षा के लिए जिद न करें जब युद्ध हो तब आप इन सारे अस्त्रों का प्रभाव देखना।

दुर्योधन का कुमंत्र
कोउ दिन बीते कुबुधि करि, नृपति सुयोधन नीच।
मंत्र कियो चहुं दुष्ट मिलि, चलो विपिन के बीच।।५४।।
थोड़े दिन बीत जाने पर दुष्ट दुर्योधन राजा ने अपने कुबुद्धि सलाहकारों (दुःशासन, कर्ण, शकुनि सहित) से मंत्रणा की और विचार किया कि हमें वन में चलना चाहिए।

करि मिष यात्रा घोष को, लै पितु तैं आदेश।
चल्यो त्रियन युत कुटिल मति, सैन्या लई विशेष।।५५।।
ऐसा निश्चय कर उसने घोष (गायों और बछड़ों के बांधने की ठौर) यात्रा का बहाना बना कर पिता ( धृतराष्ट्र) की आज्ञा ली और स्त्रियों सहित उल्टी बुद्धि वाला दुर्योधन विशेष सैन्य दल लेकर वन को चला।

पांच भ्रात कौं मारिकै, करैं निकंटक राज।
ना तौ देखि दिखाइहौं, इहै कपट मन साज।।५६।।
उसने अपने मन में कपट जाल इस प्रकार गूंथा कि पाँचो भाइयों को मार कर शत्रुरहित हो मैं राज्य करूंगा। यदि यह संभव न हो पाया तो कम से कम उन वनवासियों के समक्ष अपने वैभव का प्रदर्शन कर उनका जी तो जलाएंगे।

दुर्योधन पै चित्रकेतु का जाना
प्रेर्यो इन्द्र शिखाइ कै, चित्रकेतु गंधर्व।
करहु क्षेम सुत धर्म के, हरहु सुयोधन गर्व।।५७।।
दुर्योधन के कपट को लख कर, इन्द्र ने चित्रकेतु नाम के गंधर्व को बुलाया और उसे अच्छी तरह समझा कर दुर्योधन के सामने भेजा इस निर्देश के साथ कि युधिष्ठिर की कुशलता का प्रबन्ध करे और दुर्योधन के गर्व को चूर करने की व्यवस्था करे।

कवि कथन
कवित्त
घोष यात्रा व्याज तैं चंडाल चोकरी को दल,
आयो है युधिष्ठिर कौं विभव दिखावे कौं।
दाव लगै पांचौ मारि निष्कंटक राज करैं,
ना तौ चलौ जरै पर लौन सो लगावे कौं।
इन्द्र को पठायो चित्रकेतु तातैं भई भेट,
कर्न जैसे सूर मतो कीनो भाग जावे को।
भुजा पीठि बांधि द्वै सुयोधन कौं लेकै चल्यो,
भ्राता जानि किरीटी को इन्द्र तैं मिलावे कौं।।५८।।
घोष यात्रा का बहाना बना कर चांडाल-चौकड़ी अपने दल-बल सहित युधिष्ठिर को अपना वैभव दिखाने को आया। यह सोच कर कि मौका पाकर पाँचों भाइयों को मार डालना है। यदि इसमें सफल न हो सके तो अपने वैभव प्रदर्शन से जले पर नमक लगाना ही हुआ। उन्हें पीड़ा देने का मनोरथ जो सफल होगा। इतने में इन्द्र द्वारा भेजे गए चित्रकेतु से उनकी भेंट हुई। इस पर कर्ण जैसे शूरवीर ने तो वहाँ से भाग जाने का इरादा किया, पर चित्रकेतु ने दुर्योधन को पकड़ कर उसके हाथ पीठ पीछे बांध दिये, फिर अर्जुन का भाई मान कर उसे इन्द्र से मिलाने के लिए देवलोक में लाया।

युधिष्ठिर का दूतों से दुर्योधन का हाल जानना
दोहा
भगे दूत कुरुसैन्य के, कही युधिष्ठिर पास।
बांधि लियो त्रिय युत सुरन, सुत धृतराष्ट्र निरास।।५९।।
यह देखते ही कौरवों के सैन्य दल के दूत युधिष्ठिर के पास भागे और वहाँ जाकर उन्होंने कहा कि स्वर्ग से आए देवगणों ने दुर्योधन को बांध दिया है। राजा के साथ स्त्रियाँ भी है और यह देखकर धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन एकदम हताश हो गए हैं।

कवित्त
युधिष्ठिर कहै चारौं भ्रातन तैं दौरो बेग,
सुयोधन बांध्यो देखि देव त्री हसैं ही गी।
चित्रकेतू छोरै ताहि विधि सों छुराय लावो,
तुझे देखि देवन की बाहनी त्रसै ही गी।
त्यौं ही कह्यो द्रोपदी द्युरानी औ जिठानी काज,
जुद्ध तैं छुराय लाये कुंता हुलसै ही गी।
औगुन पै गुन कौं सुयोधन न मानै तोहू,
सुर पांडुनंदन की कीर्ति ना नसै ही गी।।६०।।
यह सुन कर युधिष्ठिर ने तत्काल अपने चारों भाइयों से कहा कि शीघ्र पीछा करो, दुर्योधन को बंधा हुआ देख कर देवताओं की स्त्रियां हंसेगी। चित्रकेतु जैसे कैसे भी छोड़े दुर्योधन को छुड़ा लाओ, क्योंकि तुम महावीरों को देख कर देवताओं की सेना भी डरती हैं। इतने में द्रौपदी ने कहा कि मेरी देवरानियों और जेठानियों के शुभ के लिए यह कार्य तुरन्त करो, इससे माता कुंती भी प्रसन्न होंगी चाहे अवगुणों से भरा कृतप्न दुर्योधन यदि हमारा गुण न भी माने तो क्या, इससे पाण्डु पुत्रों की कीर्ति अवश्य बढ़ेगी।

कवि कथन
दोहा
तथा युधिष्ठिर की क्षमा, यथा बनौला खेत।
ताकौं सब दुख देत हैं, सो सबकौं सुख देत।।६१।।
कवि कहता है कि जैसा कपास का खेत होता है, वैसा ही युधिष्ठिर का स्वभाव है। कपास मनुष्य मात्र के अंग ढक कर सभी तरह से सुख देता है, लोग चाहे उसे तोड़े, धुनें, कातें और ताने-बाने में खींचें। नाना-विध कष्ट पा कर भी जिस प्रकार कपास अपना गुण नहीं छोड़ता उसी प्रकार की यह युधिष्ठिर की क्षमा है।

भीम कथन
कवित्त
चहै भुजबंध मणि जटित अमोल जहां,
तहां रसरी के बंध देखो हौनहार कों।
चढ़त सुगंध तैल तहां लपटानी धूरि,
राज को अधार देखो भयो निराधार को।
कहै भीम सहै क्यों सुयोधन असह दुख,
गहै कैसे कंज फूल भूधर के भार कौं।
दुहृद गंधर्व ताके महा नीतिवान राजा,
कीनो बस ऐसो जोग्य नाहीं करतार कौं।।६२।।
भीमसेन बोला कि हे भाई! भविष्य में होने वाली घटना का आकलन कौन कर सकता है, देखो दुर्योधन के जिन हाथों में मणिजटित आभूषण बंधते थे उन्हीं हाथों पर आज रस्सी बंधी है। जिस बदन पर सुगन्ध युक्त इत्र-फुलेल लगता था उसी पर आज धूल जमी हुई है। देखो जो राज्य का आधार था, वह स्वयं निराधार है। जरा सोचो कमल का फूल भला पर्वत का भार कैसे उठा सकता है? उसी प्रकार दुर्योधन दुःखों का यह पहाड़ कैसे उठायेगा। कठोर हृदय वाले चित्रकेतु ने महानीतिज्ञ राजा को कैसे वश किया है? ऐसी रचना जगतनियंता को शोभा नहीं देती।
(इस कवित्त के प्रथम पद में द्वितीय असंगति अलंकार का प्रयोग है, तीसरे पद में दृष्टांतालंकार और चौथे पद में वक्रोक्ति अलंकार का प्रयोग है।-सं.)

दुर्योधन का मुक्त होना
दोहा
बंध छोरि छुटकाय दिय, आयो करन समीप।
कर्न कहै गंधर्व तैं, जीत्यो प्रबल महीप।।६३।।
पाण्डव जब दुर्योधन को छुड़ाने को चित्रकेतु के पास गए तब तक गंधर्व ने दुर्योधन के पास काट कर उसे छोड़ दिया। छूट कर दुर्योधन जब वापस कर्ण के पास आया तब कर्ण ने पूछा कि हे राजा! आप कितने बलवान हैं कि गंधर्व को जीत कर आ गए।

जो मोपै बीती बिपत, तुम नहिं जानत तात।
और कहै तो प्राण लउँ, जानत सन यह बात।।६४।।
दुर्योधन ने कहा कि हे तात! मुझ पर जो विपत्ति गुजरी है उसे तुम नहीं जान सकते और जानते हुए भी यह बात कोई और कहे तो उसके प्राण ले लूँ।

जिनकी देखि दिखाइबे, आयो बिपन बिहार।
तिनहि छुरायो जीव दै, क्यों सहिहौं उपकार।।६५।।
जिन्हें अपना वैभव दिखलाने को मैं वन में आया था उन्होंने ही मुझे जीवन दान दे कर छुड़ाया है। उन का यह उपकार मुझ से क्यों कर सहन होगा?

दूशासन कौं राज्य दै, गजपुर करहु निवास।
तजिहौं प्रान यों कहि लियो, अनसन ब्रत संन्यास।।६६।।
हे कर्ण! तुम दुःशासन को राज्य दे कर स्वयं हस्तिनापुर में ही निवास करना, मेरा तो मन करता है कि अब प्राण त्याग दूं। यह कह कर दुर्योधन ने खान-पान छोड़ कर सन्यास व्रत लिया।

दैत्यन मेल्यो कर्न बिच, नरकासुर को जोर।
द्वेष रीति समुझाइ तिन्ह, प्रेर्यो गजपुर ओर।।६७।।
दैत्यों ने (दुर्योधन के प्राणत्याग के निश्चय की बात सुन कर स्वयं का पक्ष सबल रखने को) कर्ण की देह में नरकासुर का बल रखा। फिर दुर्योधन ने उसे द्वेष रीति समझा कर हस्तिनापुर रवाना किया।

करन की सहायता से दुर्योधन का यज्ञ करना
भीमादिक चहुँ भ्रात ने, जीती दिशा जु चार।
कर्न अकेले जीति सोइ, कियो जग्य प्रस्तार।।६८।।
देवलोक से आ कर भीमसेन आदि चारों भाइयों ने चारों दिशाओं को जीता था पर कर्ण ने अकेले ही जीत कर यज्ञ के लिए सामग्री तैयार की।

का विचित्र सुत अंध के, शुभ होय करन सहाय।
फटत अन्य पय लौन तैं, अर्क फटत रहि जाय।।६९।।
इसमें भला क्या आश्चर्य कि अंधे के पुत्र (दुर्योधन) का प्रयोजन सफल करने में कर्ण सहायक बने क्योंकि दूसरे दूध में नमक डालने से वह फट जाता है पर आक के दूध में डालने से नहीं फटता। यहाँ यह उक्ति है दुर्योधन का कर्तव्य आक का दूध है और कर्ण नमक हो कर सहायता रूप है।

यज्ञ निमंत्रण
पठये दूत जु नृपन पै, करत सुयोधन जग्य।
आवहु क्षत्रिय बिप्र सब, कहा अग्य कहा तग्य।।७०।।
कर्ण ने सभी ओर राजाओं के पास दूत भेज कर कहलवाया कि राजा दुर्योधन यज्ञ कर रहे हैं, अतः आप सभी क्षत्रिय और विप्र आमंत्रित हैं। इसमें तत्वज्ञ और अजान सभी को आमंत्रण है।

पठय दुसासन भीम तैं, दूत कहै समुझाय।
जग्य करत कुरुराज तित, तुमकौं पठय बुलाय।।७१।।
और दुःशासन ने एक राज सेवक को भीमसेन के पास भेजा। दूत ने वहाँ जा कर अच्छी तरह समझा कर, विस्तृत रूप से बताया कि दुर्योधन यज्ञ कर रहे हैं और उन्होंने मुझे आप सभी को बुलाने भेजा है।

भीम का प्रत्युत्तर
कुंड होह कुरुखेत जब, ह्वैहैं पशु तव भ्रात।
सरवा ह्वै ही मम गदा, तब आवैंगे तात।।७२।।
भीमसेन ने कहा कि हे दूत! तू तात दुःशासन से जा कर कहना कि जब कुरुक्षेत्र रूपी अग्निकुंड होगा और तुम्हारे सभी भाई यज्ञ के बलि रूप पशु होंगे और मेरी गदा हवन में आहुति देने के लिए सरवा बनेगी, हम ऐसे यज्ञ आयोजन में ही आएंगे। (अभी इस यज्ञ में नहीं)

कियो सुयोधन जग्य बहु, दिये बिबिध बिध दान।
नीति युधिष्ठिर तैं अधिक, द्वादशाब्द भये जान।।७३।।
इसके बाद दुर्योधन ने (विष्णु याग) यज्ञ किया और विप्रों को अनेक प्रकार का दान और दक्षिणा दी। पाण्डवों को वन में गए अब तक चार वर्ष की अवधि पूरी हुई जान कर दुर्योधन ने युधिष्ठिर की बहुत सारी नीतियों को स्वयं में धारी अर्थात् लोकप्रिय होने के लिए धर्मराज की नीतियों का अनुसरण करना आरंभ किया।

बड़े लोक धर्मज्ञ तें, बिरुध भये सब रीति।
होन जुधिष्ठिर तैं अधिक, धरी सुयोधन नीति।।७४।।
उस समय के धर्मज्ञ लोग जो युधिष्ठिर की नीतियों के पक्षधर थे वे दुर्योधन के इस नये आचरण के विरुद्ध हुए पर दुर्योधन ने उनके विरोध की तनिक भी परवाह न करते हुए जनप्रिय होने कि लिए युधिष्ठिर से भी अधिक उदार नीतियों का अनुसरण करना प्रारंभ किया।

जयद्रथ का अपकृत्य
पद्धरी छंद
गये बंधु पंच कहुँ विपन बीच, नृप सिंधु आय तिहि समय नीच।
द्रौपदी हरन कीनो जु दुष्ट, पांच हू बीर सुनि लगे पृष्ट।।७५।।
वनवास की अवधि में एक दिन जब पांडव किसी दूसरे वन में गए हुए थे और पीछे आश्रम में द्रौपदी अकेली थी। उसी समय सिंध का दुष्ट राजा जयद्रथ वहाँ आया और मौका पाकर द्रौपदी को हर ले गया। इस बात का पता चलते ही पांचों भाइयों ने उसका पीछा किया।

नर हते अश्व रथ दूर जात, भजि चलो पयादो विमद गात।
लिय पकरि भीम दिय पृष्ट बंध, मार्यो न दुशीला के सँबंध।।७६।।
थोड़ी दूर जाने पर अर्जुन को जयद्रथ का रथ और उसके घोड़े नजर आए। उसने अपने बाणों से उनका नाश किया। यह देख रथ को छोड़ जयद्रथ पैदल ही भाग निकला। उसे भीमसेन ने पकड़ कर बांध लिया। वह उस दुष्ट को मार ही डालता पर अपनी बहिन दुःशला के सम्बन्ध से बहनोई होने के नाते नहीं मारा।

करि अर्ध मुँडन छुटकाइ दीन, हर हेत भयो तप उग्र लीन।
भव कह्यो माग वरदान भूप, जयद्रथ जु कहत कारन अनूप।।७७।।
उसके बाद आधा सिर मूंड कर जयद्रथ को छोड़ दिया। जयद्रथ ने अपने इस अपमान से तिलमिला कर महादेव को प्रसन्न करने के लिए कठिन तपस्या की। उसकी इस तपस्या को देख कर महादेव बोले कि हे राजा! वरदान मांग। इस पर जयद्रथ ने अपने कार्य को साधने के लिए अनुपम वर मांगा।

दोहा
पांच हु पांडव एक मैं, जीतौं यह वर देहु।
अर्जुन देवन तैं अजय, चारि जीति जश लेहु।।७८।।
हे शिव! पांचों पाण्डवों ने मेरा अपमान किया है, अतः मैं अकेला उन पाँचों को जीत सकूं यह वर प्रदान करें। इस पर महादेव बोले कि अर्जुन तो देवताओं द्वारा भी नहीं जीता जा सके ऐसा है, इसलिए उसको छोड़कर शेष चारों को तुम जीत कर अवश्य यश अर्जित कर सकोगे।

अर्जुन बिन इक दिवस तूं जीत हि गो चहुँ भ्रात।
तथा अस्तु कहि गृह गयो, करि ऐसो उतपात।।७९।।
महादेव ने आगे कहा कि हे जयद्रथ! तुम एक दिन अर्जुन के अतिरिक्त चारों भाइयों को जीत लोगे। महादेव का यह वचन सुन जयद्रथ ने शीघ्रता से कहा-‘आपका वचन सत्य हो’ इसके बाद उत्पाती जयद्रथ अपने गृह राज्य को गया।

यक्ष वेष के धर्मराज से धर्म को वरदान प्राप्ति
पद्धरी छंद
इक दिवस युधिष्ठिर बन बिहार, कोउ करी विप्र आतुर पुकार।
मृग अरनि हरन जो कर्यो मोहि, ताकौं फिर ल्यावन जुक्त तोहि।।८०।।
एक दिन राजा युधिष्ठिर वन में विहार को गए और पीछे से आश्रम में आकर एक ब्राह्मण ने आर्त्त पुकार की, कि हे धर्मराज! मेरे यज्ञ की अरनि काष्ट (यज्ञ में अग्नि प्रज्वलित करने की विशेष लकड़ी) को एक मृग ले गया है, उसे वापस लाने योग्य मुझे आपके अतिरिक्त कोई नहीं दिखता।

गइ अटकि खुजावत शृंग बीच, निज भ्रात सहित मृग हतहु नीच।
पांच हू बंधु कीनो प्रयान, मृग खोज न पायो भ्रमत मान।।८१।।
मृग अरनि से अपना सिर खुजा रहा था कि वह लकड़ी उसके सींगों के बीच अटक गई। अब आप से अनुरोध है कि आप पाँचों भाई उसके पीछे जा कर, अधम मृग का आखेट कर मुझे मेरी लकड़ी पुनः उपलब्ध करावें। ब्राह्मण की पुकार सुन पाँचों भाई मृग की खोज में निकले पर वह कहीं मिला नहीं।

भये श्रमित इषातुर पंच भ्रात, जल काज भये यक येक जात।
पीछे न फिरे नृप गयो आप, चहुँ मृतक देखि उपन्यो सँताप।।८२।।
रास्ते में पाँचों भाई थक कर प्यास के मारे व्याकुल हो गए और पानी की तलाश में एक-एक कर जाने लगे पर कोई लौट कर वापस नहीं आया। यह देख कर स्वयं धर्मराज आए तो क्या देखते हैं कि चारों भाई मृत पड़े हैं। यह देख कर उन्हे मर्मांतक संताप हुआ।

यक लख्यो जक्ष ठाढो अनूप, तिन कह्यो पान जल न कर भूप।
मम प्रश्न उत्तर बिन करहि पान, सुनि ह्वैहै चहुँ बंधुन समान।।८३।।
नृप कह्यो करहु कछु प्रश्न आप, प्रति उत्तर करिहौं गुरु प्रताप।
इतने में उनकी दृष्टि एक अनुपम यक्ष पर पड़ी जो पानी के किनारे खड़ा था। राजा अत्यधिक प्यासा होने के कारण पानी पीने को बढ़ा ही था कि तभी उस यक्ष ने मना करते हुए कहा कि हे राजा! यदि तुमने मेरे प्रश्न का उत्तर दिये बिना पानी पिया तो अपने भाइयों जैसी तेरी भी गति होगी। यह सुन कर युधिष्ठिर ने कहा-पूछो, मैं अपनी गुरु-कृपा के आधार पर उत्तर देने का प्रयास करूंगा।

यक्ष उवाच चार प्रश्न
दोहा
कौन मोदयुत जगत में? का आचर्ज लखाय।
कौन पंथ? वार्ता कहा? कहि पुनि बंधु जिवाय।।८४।।
यक्ष ने पूछा कि हे राजा! इस जगत में आनन्दयुक्त कौन है? क्या आश्चर्य दिखता है? पंथ कौन सा उत्तम है? और वार्ता कैसी? इन चार प्रश्नों के सही उत्तर देकर तुम अपने चारों भाइयों को फिर से जीवित पा सकते हो।

धर्म उवाच प्रथमोत्तर
पंचम दिन अथवा छठै, शाक पकत निज गेह।
बिन प्रयास बिन करज जग, मोदजुक्त नरदेह।।८५।।
युधिष्ठिर ने कहा कि हे यक्षराज! पांचवे अथवा छट्ठे दिन जिनके घर में सब्जी बनती हो, बाकी सारे दिन लूखा-सूखा भोजन उपलब्ध होता हो, यदि उनके घर में बिना कर्ज और प्रयास के अच्छा भोजन उपलब्ध हो जाए तो मनुष्य देह जगत में आनन्दयुक्त कहलाती है।

द्वितीयोत्तर
दिन-दिन प्रानी मात्र जे, जम के आलय जात।
थिरता चाहत पाछले, फिर का अचरज तात?।।८६।।
इस जगत के प्राणी-मात्र दिन प्रतिदिन यमराज के घर जाते हैं अर्थात् मृत्यु को प्राप्त होते हैं पर शेष जीवित प्राणी स्वयं की स्थिरता चाहते हैं, इससे बढ कर हे तात! क्या आश्चर्य हो सकता है?

तृतीयोत्तर
वेद त्रिधा षटधा स्मृती, मुनि मत भये अनेक।
धर्मतत्त्व अति गुप्त है, पथ सत पुरुष विवेक।।८७।।
तीनो वेद और छः स्मृति ग्रंथो में ऋषियों के अनेक मत हैं पर धर्म का रहस्य फिर भी अत्यन्त गुप्त है, सत्यपुरुषों के विवेक का अनुसरण ही श्रेष्ठ पंथ है।

चतुर्थोत्तर
मोह कटाह रु अग्नि रवि, निशिदिन इंधन जानि।
काल पचावत भूत सब, यहै बारता मानि।।८८।।
मोह रूपी कड़ाव है और सूर्य रूपी अग्नि जिसमें रात-दिन रूपी इंधन जल रहा है उसमें काल सभी प्राणियों को पका रहा है। इसे वार्ता मानें।
(उपरोक्त दोहे में देश विवर्त सावयव रूपकालंकार है)

परस्पर वचन
पद्धरी छंद
तें दये उतर सब जुक्त तात, तू कहै सोइ इक जिये भ्रात।
युधिष्ठिर कह्यो नकुलहि जिवाय, जो माद्रि वंश नहिं नष्ट जाय।।८९।।
कहि जक्ष भीम अर्जुन बिसारि, नकुल कौं जिवावत कुमति धारि।
जिहिको प्रभाव तिहुं पुर प्रसिद्ध, जुरि करहिं पराजय शत्रु जुद्ध।।९०।।
इन दोउ विषे कोउ जाचि एक, करिहै जु राज हति शत्रु केक।
धर्मराज युधिष्ठिर के उत्तर सुन कर यक्ष ने प्रसन होते हुए कहा कि हे तात! आपने सभी उत्तर अच्छे दिये। इसके बदले में आप जिस एक भाई को जीवित करना चाहते हैं उसका नाम बताएं। यह सुन कर युधिष्ठिर बोला कि नकुल को जीवित करो, जिससे माद्री का वंश नष्ट न हो। यक्ष ने कहा कि अर्जुन और भीम को बिसार कर आप नकुल को जीवित करने का कहते हैं, एक बार पुनः विचार कर लें। जिनका प्रभाव तीनों लोकों में व्याप्त हैं और जो युद्ध में शत्रुओं का नाश करने में सक्षम हैं, ऐसे दोनों भाइयों में से एक को जीवित करने की मांग करते तो संभव है आप शत्रु रहित राज्य कर सकते थे।

धर्म उवाच
दोहा
पृथा वंश में हौं प्रगट, चहिये माद्री वंश।
धर्म विरोधक बात कौं, कहत न महत प्रशंस।।९१।।
धर्मराज ने कहा कि हे यक्ष! कुंती के वंश में तो मैं प्रकट हूं (जीवित हूं) पर माद्री के वंश का कोई न बचे, यह धर्म विरुद्ध बात है। इस निर्णय को कोई बुद्धिमान व्यक्ति नहीं सराहेगा।

यक्ष उवाच
जक्ष कह्यो मैं तव पिता, धर्मराज मोहि जानि।
होय हिरन अरनी हरी, परख काज तोहि मानि।।९२।।
पुत्र लेहु वरदान अब, तूं अति धर्म सधीर।
अरनी ले चहुँ भ्रात जुत, गमन करहु बर वीर।।९३।।
राजा युधिष्ठिर की इस धर्मपरायणता को देख कर यक्ष ने कहा कि हे धर्म! मैं तुम्हारा पिता हूं मुझे धर्मराज समझ। तेरी परीक्षा लेने के लिए, मैंने ही हिरण बन कर उस ब्राह्मण के यज्ञ की अरनि काष्ठ का हरण किया था।
इसलिए हे पुत्र! अब तू वरदान मांग क्योंकि तू धर्म आचरण में अव्वल और धैर्यवान है। हे श्रेष्ठ वीर! अब तू यह अरनि काष्ठ ले कर अपने चारों भाइयों सहित अपने गृहस्थान को जा।

धर्म उवाच
दीजैं पितु बरदान मोहि, कठिन वर्ष यह आहि।
प्रगट न ह्वैं त्रिय बंधु जुत, तथा अस्तु कहि ताहि।।९४।।
युधिष्ठिर ने कहा कि हे पिता! हमारे-अज्ञातवास का यह तेरहवां वर्ष गुप्त रहने की शर्त वाला अत्यन्त कठिन है, इसलिए आप मुझे यह वरदान दें कि द्रौपदी सहित हम पांचों भाई अज्ञातवास के वर्ष में अज्ञात बने रह सकें। इस पर धर्मराज ने ‘तथास्तु’ कहा।

।।इति षष्टम मयूख।।

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