पांडव यशेन्दु चन्द्रिका – सप्तम मयूख

सप्तम मयूख

विराट पर्व

कृपापात्र इंद्रसेन से युधिष्ठिर उवाच
दोहा
जित पूछे तित कहहु तुम, गये सु विपिन विहार।
पांच हु द्रुपदकुमारि जुत, बहुरि न पाई सार।।१।।
वैशंपायन ऋषि कहते हैं कि हे राजा जन्मेजय! पाण्डवों को जब वनवास में बारह वर्ष पूरे हो गए तो उन्होंने गुप्तवास (अज्ञात वास) में जाने का विचार कर अपने कृपापात्र (सारथी) इन्द्रसेन को अश्व-रथादि के साथ द्वारिका की ओर रवाना किया और कहने लगे कि हे इन्द्रसेन! यदि तुम्हें राह में अथवा कहीं भी कोई हमारे लिए पूछे तो यही कहना कि द्रौपदी सहित पांचों भाई बन विहार को गए थे और उसके बाद लौट कर नहीं आये, न उनका कोई समाचार ही आया।

पांडवों का विराट नगर में आना
छंद पद्धरी
करि बिदा इंद्रसेनादि साथ, चहुँ भ्रात द्रौपदी जुक्त पाथ।
धौम्य कौं सौंपि निज अग्निहोत्र, किय गमन भूप छिपवाय गोत्र।।२।।
मछदेश आय वैराट तीर, द्रुपदाहि निभावत चले बीर।
बिच समी सबन के अस्त्र बांधि, मृतदेह जुक्त धरि रज्जु सांधि।।३।।
इस प्रकार इन्द्रसेन और उन सभी साथियों, परिजनों को (जो पाण्डवों के साथ आश्रम में थे) विदा दे कर द्रौपदी और अर्जुन सहित धर्मराज आदि चारों भाई स्वयं का अग्निहोत्र साधन अपने पुरोहित धौम्य को सोंप कर, अपनी नामादिक पहिचान छुपा कर सभी चलते हुए मच्छदेश के विराटनगर के पास पहुँचे। सभी ने अपने अस्त्र एक शव के साथ बांध कर नगर के बाहर ही एक खेजड़ी के वृक्ष में छुपा कर रख दिये।

राज्यगृह में प्रवेश करना
बनि भीम सूद भट कंक भूप, श्राप तैं बिजय वृहनटा श्रूप।
साल्होत्रि नकुल सहदेव गोप, सैरंध्रि द्रौपदी रहित कोप।।४।।
अनक्रमहि कियो नृप पै प्रवेस, बित आदर जुत राखे विशेष।
सौंपी अर्जुन कौं नृत्यशाल, बहु दासिन जुत निज सुता बाल।।५।।
उतराहि शिखावत नित सँगीत, बाजिंत्र गान जुत नाट्य रीत।
तदुपरांत सभी ने छद्म पहिचान और नाम रखे। धर्मराज ने ब्राह्मण बन कर अपना नाम ‘कंक भट’ रखा। भीमसेन ने रसोइया बन कर अपना नाम ‘वल्हव’ किया तो अर्जुन ने अपने शाप के कारण व्यंढण हो कर अपना नाम (वृहन्नटा) रखा। नकुल ने शालिहोत्री (घोड़ों का कार्य करने वाला) बन कर ‘ग्रंथीकार’ नाम अपनाया। सहदेव ने ग्वाला बन कर अपना नाम ‘तंत्रीपाल’ स्वीकार किया और द्रौपदी ने शिल्पज्ञी बन कर अपना नाम ‘सैरंध्री’ कर लिया। इस प्रकार सभी ने अपनी-अपनी अलग पहिचान और नाम रख कर, एक-एक कर नगर में प्रवेश किया। राजा ने उन सभी को अपने यहाँ नोकर रख लिया और सभी को यथानुरूप कार्य सोंपे। इसमें अर्जुन को बहुत सारी दासियों के साथ अपनी राजकुमारी को नृत्य सिखाने का कार्य और नृत्यशाला सोंपी। यहाँ अर्जुन राजकुमारी को वाद्ययंत्र, संगीत और नृत्य सिखाने लगा।

भीम का जीमूत मल्ल को मारना
कछु दिवस गये यक विप्र गेह, उपवीत महोत्सव भो अछेह।
तहँ नाट्यकार मल्लादि केक, अति देशन तैं आये अनेक।।६।।
सब जीते यक जीमूत मल्ल, इत भीम जुर्यो तिन तैं अचल्ल।
सोइ भीम पटकि मार्यो सक्रुद्ध, जग कौं भो बिस्मय देखि जुद्ध।।७।।
पाण्डवों को यहाँ रहते काफी दिन हो गए कि एक दिन नगरी में एक ब्राह्मण ने अपने घर उपवीत (यज्ञोपवीत) महोत्सव का आयोजन किया। इस आयोजन में कई देशों के नाट्यकार और मल्लयोद्धा आए। कई प्रतियोगिताएं आयोजित हुईं। जीमूत मल्ल ने सभी को मल्लयुद्ध (कुश्ती) में हरा दिया। उसे भीमसेन ने कुश्ती के लिए ललकारा, दोनों में कुश्ती हुई और भीमसेन ने उसे उठा कर पटक दिया और परास्त कर दिया। यह देख कर नगरवासियों को बहुत आश्चर्य हुआ।

कामान्ध कीचक
दोहा
सालभद्र नृप मच्छ को, कीचक मुख्य प्रधान।
सैरंध्री को रूप लखि, भो कामांध अयान।।८।।
विराटनगर में पाण्डवों को रहते दस माह बीते थे कि एक दिन मच्छराज का साला कीचक जो राज्य का प्रधान था, सैरन्ध्री का रूप देख कर कामान्ध हो गया।

रति जाची केउ बार तिहि, कह्यो द्रौपदी ताहि।
मैं गरीब विपदा सहित, करत दुष्टता काहि।।९।।
उसने अपनी विषय-वासना को मिटाने के लिए कई बार द्रौपदी के समक्ष प्रस्ताव रखे पर द्रौपदी ने अपने आप को बचाते हुए कहा कि मुझ जैसी दुःखी औरत के साथ दुष्टता करना अच्छा नहीं। यह तुम्हें शोभा नहीं देता।

फिर मेरे भरतार हैं, पांच प्रबल गंधर्व।
गुप्त रहे ते जानिहैं, हतहिं बंश तव सर्व।।१०।।
फिर मेरे प्रबल गंधर्व रूप पांच पति हैं जो अभी कहीं गुप्त रूप से रह रहे हैं यदि उन्हें पता चल गया तो तुम्हारे सहित तुम्हारे पूरे वंश को समाप्त कर देंगे।

कीचक वचन
दश हजार गज बल सहित, ते कहा करिहैं मोर।
पूर्व त्रिया मेरी सकल, करिहौं दासी तोर।।११।।
द्रौपदी की बात सुन कर कामुक कीचक गर्व से कहने लगा कि मैं दस हजार हाथियों के बराबर बल वाला हूं। मेरा वे (पांचों पति) क्या बिगाड़ सकते हैं? फिर यदि तू मेरे प्रस्ताव को मान ले तो मैं अपनी विद्यमान सारी पत्नियों को तेरी दासियां बना दूंगा।

कियो अनादर द्रौपदी, गयी सुदेष्णा गेह।
भगनी प्रति अति नीचमति, कारन प्रगट्यो एह।।१२।।
कोउ कारन सैरंध्रि कौं, पठवहु मेरे पास।
इन्ह तन बिन प्रापत भये, मम तन ह्वैहै नाश।।१३।।
कीचक के इस गन्दे प्रस्ताव को ठुकरा कर द्रौपदी चली गई तो कीचक अपनी सुदेष्णा नामक बहिन के घर आया और सैरन्ध्री को पाने में सहायता करने के लिए अपनी बहिन से याचना की। कीचक ने कहा कि हे बहिन! कोई बहाना बना कर अपनी सेविका सैरन्ध्री को मेरे पास भेज। यदि उसकी देह मुझे प्राप्त नहीं हुई तो मेरी देह नष्ट हो जाएगी।

सुदेष्णा वचन
कहै सुदेष्णा भ्रात तैं, करहु गोठ तुम प्रात।
मदिरा लैवे मेलिहौं, सैरंध्री कौं तात।।१४।।
यह सुन कर सुदेष्णा ने अपने भाई से कहा कि हे भाई! तुम कल प्रातः गोठ (भोज) का आयोजन करो, उसमें मैं सैरन्ध्री को मदिरा लाने के बहाने भेज दूंगी।

तथा अस्तु कहि गोठ को, कियो सीघ्र सामान।
प्रात भये सैरंध्रि प्रति, राज्ञी कहत बखान।।१५।।
बहिन से पूरी योजना सुन कर कीचक अपने घर आया और गोठ की सारी सामग्री एकत्रित कर, प्रातः गोठ में आने के लिए उसने सभी को निमंत्रण भेजे। यह जान कर सुदेष्णा प्रातःकाल से ही सैरंध्री के सामने अपने भाई की प्रशंसा करने लगी।

सैरंध्री वचन
मम हित मदिरा लैन कौं, जाहु भ्रात मम गेह।
बहु दासी पठवहु अवर, मोहि उपजत संदेह।।१६।।
और बातों ही बातों में सुदेष्णा ने अपनी सेविका से कहा कि हे सैरन्ध्री! मेरे लिए मदिरा लाने को तुम मेरे भाई के यहाँ जाओ। यह सुन कर द्रौपदी ने प्रत्युत्तर दिया कि महारानी, और बहुत सारी दासियां हैं, उनमें से आप किसी को भेज दें, मुझे आपके भाई के यहाँ जाना सन्देहप्रद लगता है।

पुन: द्रौपदी वचन
तोर भात अति दुष्टमति, करहि मोर अपमान।
करत समुझि कुल को कदन, यह धौं कवन सयान।।१७।।
वह आगे कहने लगी कि आपका भाई नीच बुद्धिवाला है, स्वभाव से अत्यन्त दुष्ट है, वह निश्चय ही मेरा अपमान करेगा। आप समझदार हो कर अपने भाई के वंश-नाश को क्यों तत्पर हैं? यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है।

सुदेष्णा की आज्ञा से सैरंध्री का मदिरा लेने को जाना
छंद पद्धरी
नहि करहि तोर अपमान भ्रात, मैं पठवहु यह कारन विख्यात।
द्रौपदी चली लै सुरापात्र, करि अर्ज सूर्य तैं ध्यान मात्र।।१८।।
द्रौपदी की बात सुन कर रानी ने कहा कि हे सैरन्ध्री! मेरी बात पर विश्वास कर चूंकि मैं तुझे भेज रही हूं इसलिए वह तेरा कोई अपमान नहीं करेगा। कवि कहता है कि रानी की आज्ञा के अधीन होने से अवश होकर मन ही मन सूर्यदेव का स्मरण कर, स्वयं के हाथ में सुरापात्र ले कर सैरन्ध्री कीचक के घर जाने को रवाना हुई।

विभाकर दियो राकस पठाय, रह्यो गुप्त द्रौपदी हित सहाय।
कीचक पै जाची सुरा जाय, वह कह्यो देखि गृह बीच आय।।१९।।
तव काज रत्न विध विध तयार, मोहि दास जानि कर अंगिकार।
धरि सुरापात्र फिरि चली वाम, कुटिल भो गैल चित विकल काम।।२०।।
द्रौपदी की प्रार्थना सुन कर सूर्यदेव ने सहायता के लिए एक राक्षस को भेजा जो बराबर अदृश्य रूप से उसके साथ रहा। जब सैरंध्री ने कीचक के पास जा कर मदिरा मांगी। उसे देख कर कीचक कहने लगा कि सैरन्ध्री घर में चली आओ तुम्हारे लिए विविध प्रकार के आभूषण, रत्न आदि तैयार हैं और मुझे अपना दास जान कर अंगिकार करो। कीचक के कुदृष्टियुक्त आशय को समझ कर सैरंध्री सुरापात्र को वहीं रख कर चल दी। इस पर विषय वांछना में व्याकुल कुटिल कीचक उसके पीछे दौड़ा।

द्रौपदी के दुख से भीम का कुपित होना
वस्त्र कौं हाथ डार्यो कुचार, सो फट्यो गिर्यो भजि चली नार।
भट कंक जुक्त जहँ मच्छ भूप, करि रहे अक्षक्रीड़ा अनूप।।२१।।
तिन्ह लखत लात को करि प्रहार, चाल्यो फिर घर कौं दुराचार।
भीम कौ लख्यो प्रलयाग्नि रूप, अग्रज अंगुष्ठ चांप्यो अनूप।।२२।।
दुराचारी ने दौड़ कर द्रौपदी के वस्त्रों पर झपट्टा मारा ही था कि वस्त्र के फटने से वह नीचे गिर पड़ा। द्रौपदी बेतहाशा भागी और जहाँ इस समय विराटराज, कंक भट के साथ अक्षक्रीड़ा (चौपड़ की रम्मत) कर रहे थे, वहाँ आई। वहाँ सभी के देखते दुष्ट कीचक ने द्रौपदी को लात मारी और अपने आवास का रुख किया। इस समय किसी कारण से भीमसेन भी युधिष्ठिर (कंक भट) के पास था, वह आगबबूला हो गया पर युधिष्ठिर ने उसका अंगूठा दबा कर शान्त रहने का संकेत किया।

राजा मच्छ से द्रौपदी का नेष्ट वचन
अब रही मास इक अवधि और, थिर रहहु पराक्रम नहिंन तौर।
नृप मच्छ तैं द्रौपदि कहत नेष्ठ, तव राज बीच त्रियराज श्रेष्ठ।।२३।।
बिपदा दिन बितवत निरपराध, तुहि लखत लात मारी असाध।
मम रक्षक पांचहु पती मूढ, गांधर्व रहै क्यों होइ गूढ।।२४।।
फिर दबे सुर में धीरे से कहा कि भीम! अब तो मात्र एक माह शेष है, अपने अज्ञातवास की अवधि समाप्त होने में, और यह पराक्रम दिखाने का स्थल नहीं। इतने में द्रौपदी मत्स्य राज से नेष्ट (असह्य) वचन कहती है कि हे राजा! आपके राज्य में स्त्री (सुदेष्णा) का राज्य अधिक प्रबल है। मैं निर्दोष और गरीब स्त्री अपने दुःख के दिन काट रही हूं पर आपके साले ने स्वयं की बहिन की सहायता से आपके देखते मुझे लात मारी और मेरी रक्षा करने वाले मेरे पांचों पति मूढ बन गये हैं, अन्यथा ऐसे समय में वे छुप कर गुप्त बैठते क्या?

कंक भट कथन
भट कंक कहो कर अक्ष डार, त्रिय करत है अन्तःपुर पुकार।
रक्षकन कहत दुर्वाद न्याय, करिहैं तव रक्षा समय पाय।।२५।।
द्रौपदी के वचन सुन कर कंक भट ने अपने हाथ के पासे फेंकते हुए कहा कि स्त्री-जाति के दुःख की पुकार अन्तःपुर की पुकार है और यह स्त्री जो रक्षकों को कुवाक्य कह रही है वह न्यायसंगत है, पर मन में विश्वास रख, वे समय देख कर तुम्हारी रक्षा करेंगे। मन में विश्वास रख।

महानिशि में द्रौपदी का भीम के पास जाना
बिन खानपान सोड़ दिन विहाय, पुनि उठी अर्ध निशि बखत पाय।
रसोइ थान चलि ढरत नैन, दुख करन प्रगट ढिग भीमसेन।।२६।।
कंक भट (युधिष्ठिर) के वचन सुन कर द्रौपदी मन मानकर अंतःपुर में चली गई और वहाँ जाकर उसने बिना खान-पान के भूखे-प्यासे ही कष्टमय दिन गुजारा। फिर मौका देख कर अर्ध रात्रि में उठ कर डबडबाये नेत्रों से पाकशाला में सोये भीमसेन के पास अपना दुःख प्रकट करने गई।

दोहा
बीच महानिशि निंद बिन, भीमसेन जुत क्रोध।
मनहुँ गुफालय सिंह कौं, सिंहनि करत प्रबोध।।२७।।
आधी रात को निद्राविहीन भीमसेन कीचक के दुष्कृत्य को देख कर क्रोधायमान था कि तभी द्रौपदी आकर भीमसेन को संबोधन कर कहने लगी, मानों गुफा ( थेह में) में बैठी हुई सिंहनी, सिंह का प्रबोधन कर रही हो (सिंह पर गुर्रा रही हो)। (इसमें उत्प्रेक्षा अलंकार है – सं.)

कहि भीम अर्ध निशि कवन काज, आई तूं निद्रा समय आज।
कहि त्रिया युधिष्ठिर पती पाय, क्यों सुवै होइ निरशोच काय।।२८।।
सब राज तज्यो तिहि कुमति चाल, मदमस्त करी ज्यों फूलमाल।
भीमसेन ने द्रौपदी से पूछा कि आधी रात को इस समय निद्रा त्याग कर यहाँ कैसे आई? यह सुन कर द्रौपदी ने कहा कि युधिष्ठिर जैसे पति को पा कर कोई स्त्री निश्चिंत कैसे सो सकती है? जो स्वयं की कुबुद्धि का प्रयोग कर अर्थात् न खेलने योग्य जुए का खेल भी खेल कर अपना राज्य तज दे, जैसे मदोन्मत हाथी फूलों की माला को मसल कर फेंक देता हैं। इसी कारण से हमारी यह दुर्दशा है।

द्रौपदी वचन
कवित्त
सहस्त्र अठासी स्वर्णपात्र में जिमावत सो,
युधिष्ठिर और के अधीन अन्न पावे है।
अर्जुन त्रिलोक को जितैया वेष बनिता के,
नाटक सदन बीच बनिता नचावे है।
राजा तूं बकासुर हिडंब को करैया वध,
पाचिक विराट को ह्वै रसोई पचावे है।
माद्री के सुजशकार दोनों ही स्वरूप मनि,
एक अश्वशाल एक गोधन में धावे है।।२९।।
द्रौपदी कुटुम्ब की दुर्दशा का वर्णन करते हुए भीमसेन से कहती है कि जो युधिष्ठिर स्वयं राज्य के वैभव-काल में अठयासी हजार ऋषियों को स्वर्ण पात्रों में भोजन खिलाता था, वही अब स्वयं पराधीन की तरह अन्न पाता हैं। तीनों लोकों को जीतने वाला अर्जुन, स्त्री-वेश में नाट्यशाला में नृत्य सिखाते हुए स्वयं नाचता है। और हे राजा! बकासुर और हिडिंबासुर जैसे राक्षसों का वध करने वाला स्वयं विराटराज का रसोइया बना, पाकशाला में रसोई पकाता है। यही नहीं, सुयश उत्पन्न करने वाले माद्री के मणिस्वरूप पुत्र अश्वशाला में रहते हैं और गायों के ग्वाले बने पशुओं के पीछे दौड़ते हैं।
(इस कवित्त में व्याघातालकार है सं)

जाके शीष सोहत हो इन्द्र को किरीट तापै,
गुही बैनी जारै ही पचाऊं दुख कौन सो।
गांजिव की मुरवी तें अंकित जे पूंचे भये,
चूरिन तैं ढंकित कुभा तैं भानु भौन सो।
जुद्ध रंगभूमि बीच देत हो अरीन शिक्षा,
नृत्य रंगभूमि मैं शिखावै दासि जौन सो।
आसमुद्र पृथ्वीश की पाटरानी दासी हौं मैं,
तापै दुख कीचक को दाधै पर लौन सो।।३०।।
जिस अर्जुन के सिर पर इन्द्र द्वारा प्रदत्त किरीट शोभा देता था, उसी अर्जुन के सिर पर आज वेणी गुंथी हुई है, मेरा जी जानता है कि मैं इस असह्य दुःख को कैसे सहन करती हूं? जिसके पहुँचे की छाप गांडीव धनुष की प्रत्यंचा पर अंकित है वही पहुँचा (अर्जुन का) आज चूड़ियों से ढका हुआ ऐसा प्रतीत होता है जैसे पृथ्वी की छाया से सूर्य ग्रह ढका हो। जो युद्ध की रंगभूमि में शत्रुओं को सबक सिखाता था वह आज नाट्यशाला में दासियों को नृत्य का सबक सिखा रहा है। और मैं जो आसमुद्र फैले साम्राज्य के पृथ्वीपति की पटरानी थी वह आज दासी बनी बैठी हूं, तिस पर भी जले पर नमक की तरह कीचक का दुःख और लग गया है। (इस कवित्त में असंगति अलंकार है – सं.)

कवच की ठाहर पै कंचुकी कसी है देखि,
तलत्रान ठाहर पै चूरिन को वृंद है।
कृपा कोप पुंज को निवास दोउ नैनन में,
कजरा भरानो ऐसा महा शोक फंद है।
शिरत्रान तहां शीषफूल दोउ हाथन में,
गांजिव को घोष ना मृदंगन के छंद हैं।
कौन देश कौन काल कौन दुख कापै कहौं,
कैसे निद्रा लगै मोकौं कौनसो अनंद है।।३१।।

इसके अतिरिक्त अर्जुन के बख्तर की जगह कंचुकी की कसें बंधी हुई दिखती है, पहुँचे पर बांधे जाने वाले बख्तर की ठौर चूड़ियों का समूह है। जिसके एक नेत्र में क्रोधपुंज और दूसरे नेत्र में कृपा भरी रहती थी उन्हीं आखों में काजल भरा हुआ मुझे महाशोक के फंदे जैसा दिखता है। जिस सिर पर शिरस्त्राण होना चाहिए वहाँ सिर-फूल (स्त्री का एक आभूषण) दिखाई देता है। जिन हाथों से गांडीव की टंकार बजती थी, उन हाथों को मृदंग की झंकार निकालते देखती हूं। द्रौपदी कहती है कि हे भीमसेन! यह कैसा देश है? कैसा काल है? ऐसे में, मैं अपने दुःख को काटने के लिए किससे पुकार करूं। इन सारी परिस्थितियों को देखते हुए मेरी आंखों में नींद आये तो भला कैसे?

द्रौपदी अश्रुपात
ऐसी राजरानी मेरी चाहती कृपा की दीठ,
ताकी कृपा-दीठ काज दासी ह्वै रह्यो करौं।
चंदन घिसत फाले फूटिकै कठोर कर,
भये ऐसे देखि दुख मन में दह्यो करौं।
एते ही पै कीचक लग्यो है मेरी गैल ताकी,
लात को प्रहार सभा देखत सह्यो करौं।
रोय लपटाय गरे द्रौपदी पुकार करै,
कष्ट भीम कृष्ण विना कौन पै कह्यो करौं।।३२।।
द्रौपदी आगे कहने लगी कि हे भीमसेन! आज देश काल और परिस्थितियों के अधीन होकर यह दिन देखना पड़ा कि सुदेष्णा जैसी रानी को, जहाँ मेरी कृपादृष्टि की इच्छा करनी चाहिए, वहीं मैं दासी हो कर उसकी कृपादृष्टि चाहती हूं। चन्दन घिसने से फाले (छाले) पड़े हुए अपने हाथों को निरख कर मन ही मन जलती रहती हूं। इतने दुःखों के अतिरिक्त कीचक मेरे पीछे पड़ा है, जिसकी लात का प्रहार और वह भी विराटराज की सभा के देखते, मुझे सहना पड़ा है। कवि कहता है कि द्रौपदी भीमसेन के गले से लिपटती हुई रो-रो कर कहती है कि अब तुम ही बताओ कि मैं अपना दुःख तुम्हें और कृष्ण के अलावा किससे कहूँ?

भीम की प्रतिज्ञा
दोहा
निज पट द्रौपदि अंशु मलि, निज अंशुन कौ रोक।
त्रियहि बृकोदर लाय उर, करत नियम जुत शोक।।३३।।
द्रौपदी के आंसू अपने पहने हुए वस्त्र से पोंछ कर और अपनी आंख में आते आंसुओं को रोक कर, वृकोदर (जिसके पेट में वृक नाम की जठराग्नि हो, जैसे कि भीमसेन) द्रौपदी को छू कर प्रतिज्ञा करने लगा।

सवैया
मेरो तो कोप समुद्र असाध्य, अगस्त युधिष्ठिर को पन पी गयो।
वाडव कोप पै भ्रात को नेम, सरस्वति कुंड लता तैं दबी गयो।
दाह विराट में कोप पै कौल, गोपाल तै ज्वाल को पुंज पची गयो।
काहि तैं प्रात लौं जीहै सबांधव, जाहि तैं आज लौं कीचक जी गयो।।३४।।
हे द्रौपदी! मेरा क्रोध दुर्लंघ्य समुद्र जैसा है पर उसे युधिष्ठिर रूपी अगस्त्य का विरुद पी गया है। मेरी क्रोधाग्नि वाडवाग्नि रूप है पर मेरे बड़े भाई के नियम रूपी सरस्वती के घेरे से दब गई है। फिर मेरा कोप विराट को (ब्रह्माण्ड को) जलाने वाला दावाग्नि रूप है पर मेरे भाई के वचन रूपी कृष्ण ने उसे पी डाला है, उसे पचा डाला है। इसी से अब तक कीचक जी रहा है पर अब कल के सूर्योदय पश्चात् कीचक अपने बान्धवों सहित कैसे जी पाएगा? अर्थात् नहीं जी पाएगा।

दोहा
कहहु प्राप्त वा दुष्ट कौं, करि नृतशाल सँकेत।
मैं बैठिहौं ता भवन में, प्रथमहि मारन हेत।।३५।।
वह आगे बोला कि हे द्रौपदी! कल प्रातःकाल उस दुष्ट (कीचक) को संकेत से कहना कि अगली रात को नृत्यशाला में आ जाए। मैं पहले से ही नृत्यशाला में उसे मारने के लिए दुबका होऊंगा।

कीचक के विनाश रूप संकेत निमंत्रण
कह्यो भीम त्यों ही कह्यो, प्रात द्रौपदी ताहि।
निशि ऐहूँ नृतगृह गुपत, देखत थी तब चाहि।।३६।।
द्रौपदी ने वैसा ही किया जैसा भीमसेन ने कहा। उसने प्रातः कीचक से कहा कि आज रात को नृत्यगृह में आना। अब तक तो मैं तुम्हारी चाहत की परख कर रही थी।

सुनि हुलस्यो नृप मच्छ को, कीचक दुष्ट प्रधान।
नव नव पट भूषन सजत, दिन भो वरष समान।।३७।।
द्रौपदी के वचन सुन कर मत्स्यराज का प्रधान दुष्टमति कीचक बहुत हर्षित हुआ और नये-नये वस्त्राभूषणों से सजते-सजते उसे दिन अत्यधिक लम्बा (वर्ष के बराबर) प्रतीत हुआ।

सैरंध्री के लोभ निशि, नृतगृह गयो सहेट।
पूरब कर्म प्रभाव तैं, भई भीम की भेट।।३८।।
रात को कीचक, सैरन्ध्री से एकान्त में मिलने के लोभ वश पूर्व निर्धारित स्थल नाट्यशाला में आया वहाँ उसकी भेंट पूर्व-कर्म के प्रभाव में भीमसेन से हुई। (इसमें विषादालंकार है – सं.)

भीम का कीचक को मारना
सवैया
भूषन अंबर तैं भयो भूषित, शांति की बेर ज्यौं दीपक कि द्युति।
चाहत हो जिन अंगन तें जु, अलिंगन ते वपु भार दिये अति।
आध लौं थंभन बीच अधोमुख, भीम की भेट तें ऐसि बनी रति।
बीर कि बाम कौं दुष्ट कटाक्ष तें, देखियो देखिकै कीचक की गति।।३९।।
कीचक द्रौपदी से मिलने के इरादे से वस्त्राभूषणों से सजधज कर आया वह बंद होते दीपक की लौ जैसा जगमग दिखता था। जिन अंगों से द्रौपदी के आलिंगन की इच्छा ले कर आया था उन पर अचानक भीमसेन के भारी-भरकम शरीर का भार आ पड़ा। कहाँ तो वह दो टांगों को भोगने की इच्छा कर आया था और कहाँ भीमसेन ने उसका सिर जेवड़े (एक लकड़ी से बना उपकरण, जो अंगेजी के Y के आकार का होता है) में फंसा दिया। इस प्रकार द्रौपदी से तो उसकी भेंट नहीं हुई और जिससे हुई (अर्थात् भीमसेन से हुई), उसने उसकी विषय वांछना (विपरीत परिणाम में) को इस प्रकार खत्म किया। कवि कहता है कि वीर पुरुष की स्त्री पर आशक्ति में विषय वांछना करने की किसी की इच्छा हो, तो कीचक की दशा देख कर वीर की स्त्री की ओर देखना।

दोहा
भीम उठाइ पछारि भुव, कियो गांठ मचकाय।
कीचक कौं लागे कठिन, भूषन दूषन भाय।।४०।।
भीमसेन ने कीचक को उठा कर पृथ्वी पर पछाड़ कर मार डाला, उसके बाद उसे दबा कर गठरी में बांध दिया। कीचक को इस प्रकार घायल अवस्था में गठरी में बंधना कठिन लगा, यहाँ तक कि उसके अपने आभूषेण भी उसे चुभ कर पीड़ा देने लगे।

इन्द्र दशानन बालि गृह, भयो नहीं कछु क्षेम।
सद्य फल्यो कीचक सदन, परदारा को प्रेम।।४१।।
परदारा (पराई स्त्री) के प्रेम में इन्द्र को (अहिल्या से), बालि को (सुग्रीव की स्त्री से) और रावण को (सीता से) अपने-अपने कुकर्म का फल मिला। उनके घर में कोई कुशल न रहा। हाँ, इसमें थोड़ा समय अवश्य लगा पर कीचक को तो पर दारा प्रेम का फल तुरन्त ही मिल गया।

शत पंच कैयक संहार
पद्धरी छंद
भयो प्रात एक शत पंच ओर, कीचक के बांधव अति कठोर।
मृत भ्रात देखि द्रुपदकुमार, लइ पकरि जरावहु भ्रात लारि।।४२।।
अपने भाई को मरा हुआ देख कर प्रातःकाल कीचक के दूसरे एक सौ पांच भाइयों ने जो अत्यन्त कठोर हृदय वाले थे, द्रौपदी को पकड़ लिया और ‘इस स्त्री को भी कीचक के साथ जला डालो’ ऐसा कहने लगे।

द्रौपदी करी करुणा पुकार, सुनि भीम रसोई के अगार।
प्राकार ढहावत चल्यो धीर, बिनु पंथ गुप्त काज के बीर।।४३।।
सब कीचक को करि कुल सँहार, द्रुपदा छुड़ाय आयो उदार।
अपने पर आई आपदा को देख कर द्रौपदी ने सहायतार्थ करुण पुकार की जिसे भीमसेन ने रसोईघर में सुना। सुन कर महाधैर्यवान वीर ने रसोईघर के दरवाजे को ढांपने का भारी पत्थर उठाया और उस पत्थर से नाट्यशाला से बाहर निकलने के द्वार को ढक दिया। उसके बाद एक-एक कर पूरे कीचक के कुल का संहार कर, वह उदार भीमसेन द्रौपदी को छुड़ा लाया।

इहि बात न जानी पुरुष और, गंधर्व हि जाने प्रबल घोर।
द्रौपदी कहूँ जो परै दीठ, दै रहै पुरुष जे प्रगट पीठ।।४४।।
इस पूरी घटना की (बात की) किसी को भनक नहीं पड़ी कि इसे किसने घटित किया है। सभी यही समझते रहे कि द्रौपदी की रक्षा करने वाले महाप्रतापी गंधर्व ही होंगे, पर इस घटना का आतंक इतना बैठ गया कि द्रौपदी को देखते ही लोग पीठ घुमा कर खड़े होने लगे।

दुर्योधन के दूतों द्वारा पांडवों का पता न पाना
दोहा
प्रेरि सुयोधन दूत केउ, प्रगट करन सुत धर्म।
दश दिशि तैं पीछे फिरे, कहूँ न पायो मर्म।।४५।।
पाण्डवों के वनवास को तेरह वर्ष पूरे होने में थोड़े ही दिनों का समय शेष था कि दुर्योधन ने उनकी अग्रिम खोज के लिए अपने कई दूत चारों ओर भेजे। दसों दिशाओं में खोजने पर भी दूतों को युधिष्ठिर का कहीं पता न चला तो वे वापस लौट आए।

पांडवों के लिये भीष्मजी का अनुमान
सभा बीच भये एकठे, सुनि दूतन के बैन।
गंगासुत कहि सबन तैं, तर्क बांधि यह सैन।।४६।।
‘पाण्डवों का कहीं पता न चला’ दूतों से यह समाचार जान कर तमाम कौरव राजसभा में एकत्रित हुए। वहाँ पितामह भीष्म तर्क सहित अपने अनुमान से बताने लगे।

छप्पय छंद
जहां युधिष्ठिर होइ, तहां दुर्भिक्ष न पावे,
जहां युधिष्ठिर होइ, सप्त ईती न लखावै।
जहां युधिष्ठिर होइ, वरन चहुं परम धर्म पर,
जहां युधिष्ठिर होइ, सु तरु खट रितू फूल फर।
ति होइ युधिष्ठिर नृपति तित, जग्य महोत्सव होत नित।
कहि भीष्म लच्छ बरतत सकल, मच्छदेश वैराट जित।।४७।।
भीष्म कहने लगे कि जहाँ धर्मराज युधिष्ठिर होंगे वहाँ कभी दुष्काल (अकाल) नहीं पड़ सकता। जहाँ युधिष्ठिर होंगे वहाँ सातों अतियां (यथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि, चूहे, टिड्डी दल, कातरा (फसल का एक कीड़ा), स्वयं के राज्य का भय और पराये राज्य का भय देखने को भी नहीं मिलेंगी। जहाँ युधिष्ठिर होंगे वहाँ चारों वर्ण अपने-अपने धर्म पर अडिग होंगे। जहाँ युधिष्ठिर होंगे वहाँ छओं ऋतुओं में वृक्ष और लताएं फल-फलों से आच्छादित होंगी। जहाँ युधिष्ठिर होंगे वहाँ प्रतिदिन यज्ञ – महोत्सव भी होंगे। ये सारे लक्षण मत्स्य देश के विराटनगर में दिखाई देते हैं।

दोहा
दश सहस्त्र गज बल प्रबल, कीचक मच्छ प्रधान।
मल्ल जीमूतादिक हतक, भीम बिना को आन।।४८।।
इसके आगे कहने लगे कि दस हजार हाथियों के बराबर बल वाला महाप्रबल कीचक, जो मच्छ राज का प्रधान था तथा जीमूत मल्ल को भला भीमसेन के अलावा कोई मार सकता है?

करण उवाच
देश सुशर्मा को लियो, कीचक छीन त्रिगर्त।
चलहु करैं गो ग्रहण तित, सजहु सैन्य अब त्वर्त।।४९।।
यह सुन कर कर्ण बोला कि हे दुर्योधन! सुशर्मा राज के त्रिगर्त देश को कीचक ने छीन लिया था। चलो, इस बहाने से ही चलते हैं। तुरन्त सेना को सजने का आदेश दो। हम वहाँ जा कर गोधन का हरण करेंगे।

अर्जन सुनि गो ग्रहण कौं, पौरुष करहि प्रकाश।
मानि सुयोधन कर्ण मत, चलियो सहित हुलास।।५०।।
गायों का बलपूर्वक हरण सुन कर अर्जुन स्वयं का पराक्रम दिखाएगा ही (और तब वह प्रकट हो जाएगा)। इस प्रकार कर्ण के मत को मान दुर्योधन सेना सहित खुशी-खुशी रवाना हुआ।

सुशर्मा का गो ग्रहण करना
छंद पद्धरी
सप्तमी प्रथम सजि सैन्य क्रूर, गो ग्रहण सुशर्मा कियो सूर।
सुनि कूक चढ्यो वैराटभूप, युधिष्ठिर भ्रात त्रय जुत अनूप।।५१।।
भो उभय सैन्य संग्राम घोर, जीत्यो जु सुशर्मा प्रबल जोर।
मच्छ कौं पकरिकै चल्यो मूढ़, भीम तैं युधीष्ठिर कह्यो गूढ।।५२।।
माह की प्रथम सप्तमी के दिन क्रूर सुशर्मा ने सेना सहित मत्स्य राज की गायों को आ घेरा। पर कूकना सुन कर (भीम, नकुल, सहदेव) तीन भाइयों सहित अनुपम युधिष्ठिर को साथ ले विराटनगर का राजा वहार (रक्षार्थ चढ़ाई करना) चढ़ा। दोनों सेनाओं के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। इसमें महाबलवान सुशर्मा की जीत हुई। यही नहीं मूढ़ राजा सुशर्मा ने विराटराज को पकड़ कर बन्दी बना लिया और उसे साथ ले कर अपने राज्य को जाने लगा, यह देख कर युधिष्ठिर ने भीमसेन को गुप्त रूपसे कहा –

सुशर्मा का भीम द्वारा पकड़ा जाना
विपती निकारि जाके निवास, ताकौं छुड़ाहु करि शत्रु नाश।
जो भई प्रथम नृप मच्छ रीत, ज्यों करी भीम जामातु जीत।।५३।।
शिर काटन लाग्यो भीमसेन, निवार्यो युधिष्ठिर सदय नैंन।
लखि जीव दान को सुजश लेहु, दासोस्मि कहत छुटकाय देहु।।५४।।
चित कुरु कुल को जामातु चाहि, तजि दिय किय मुंडन अर्ध ताहि।
किय विजय कियो उतही मुकाम, अति देहि मच्छ भीमहि इनाम।।५५।।
है भीमसेन! जिस के राजगृह में रह कर हमने अपनी विपत्ति के दिन काटे हैं उस राजा के शत्रुओं का नाश कर उसे तुरन्त छुड़ा। बड़े भाई की आज्ञा मान कर जिस प्रकार सुशर्मा ने मच्छराज को पकड़ कर बांधा था, उसी प्रकार भीमसेन ने दुर्योधन के जामाता सुशर्मा को पकड़ कर बांध दिया। उसके बाद भीमसेन सुशर्मा का सिर काटने ही वाला था कि युधिष्ठिर ने दया पूर्ण दृष्टि से भीमसेन की ओर देखते हुए, उसे रोका और बोले कि हे भीमसेन! अब इसकी याचना को देखते हुए इसे जीवन दान देने का यश ले। जो तुझ से कह रहा है कि ‘मैं आपका दास हूं’ अब इसे मुक्त कर दे। इसके बाद युधिष्ठिर ने सुशर्मा से कहा कि ‘मैं आपका दास हूं’ यह सुन कर और कौरव वंश का जामाता जान कर, मात्र तेरा आधा सिर मुंडवा कर जीवित छोड़ा है। विजय के बाद उस दिन वहीं मुकाम किया और मत्स्य राज ने भीमसेन को बहुत सारा धन पुरस्कार स्वरूप दिया।

दूसरे दिन दुर्योधन का गो ग्रहण करना
अष्टमी सुयोध भूप आप, पुनि कियो उतर गो ग्रहण पाप।
पुर बीच करी ग्वालन पुकार, कटु वचन कहे उत्तरकुमार।।५६।।
मोकौं का अर्जुन गिन्यो मूढ, धन हरै सुयोधन रथारूढ।
का करौं सारथी मोर नाहिं, मरि गयो प्रथम सोई जुद्ध माहिं।।५७।।
दूसरे दिन अष्टमी को राजा दुर्योधन ने उत्तर दिशा की ओर से गोधन का हरण करने का पाप कर्म किया। इस पर ग्वालाओं ने नगर में आकर सहायतार्थ पुकार की। यह सुन कर उत्तरकुमार कहने लगा कि मुर्ख दुर्योधन ने मुझे क्या अर्जुन समझा कि वह रथ में बैठ कर गोधन का हरण कर लेगा? मेरा सारथी नहीं, क्योंकि वह इससे पहले वाले युद्ध में मारा गया। अब मैं क्या करूं?

यह बचन द्रौपदी सुनि अकाज, कुँवर तैं कह्यो बृहनटां काज।
यह होय सारथी तोर आज, रन कुरु कहा जीतहि देवराज।।५८।।
यह सारथि युत अर्जुन उदार, इंद्रादि समर जीते अपार।
उत्तरकुमार के ऐसे व्यर्थ वचन सुन कर द्रौपदी ने कहा कि आज से (वृहन्नटा) तुम्हारा सारथी होगा। फिर युद्ध में कौरवों का तो क्या देवराज इन्द्र का जीतना भी सहज नहीं होगा। आज इस सारथी बने वृहन्नटा ने इन्द्र आदि कई योद्धाओं को जीत कर दिखाया है।

वृहन्नटा (अर्जुन) का सारथी होना
दोहा
कुँवर कहै सुन वृहनटा, तूं रथ हांकहि मोहि।
ऎहुँ शत्रुन जीति अब, देहुँ बहुत धन तोहि।।५९।।
द्रौपदी के वचन सुन कर उत्तर कुमार बोला कि हे बृहन्नटा! यदि तुम मेरा रथ हांको तो मैं अभी शत्रुओं को जीत लूंगा और तुझे मैं बख्शिश में बहुत सारा धन दूंगा।

रथारूढ ह्वै के, कवच कसे दोउ वीर।
समी जाय भाथा अखय, धनु गांडिव लिय धीर।।६०।।
अर्जुन ने रथ हांकना स्वीकार किया और दोनों शूरवीरों ने कवच कस युद्ध में प्रयाण किया। इसके बाद अर्जुन ने खेजड़ी के वृक्ष में छुपाये अस्त्रों में से अपना गांडीव और अक्षय तूणीर लिये।

लखि आवस सामीप रथ, कहत परस्पर चाहि।
आज सुयोधन सैन्य पै, एकरथी कोउ आहि।।६१।।
योद्धा सामने से शूरवीरों का रथ पास में आते निरख परस्पर बात करने लगे कि आज दुर्योधन की सेना पर चढ़ाई करने यह एक रथी कौन आ रहा है?

शकुनि उवाच
कालि सुशर्मा धन हर्यो, अपन हर्यो धन आज।
भय संयुत नृप मच्छ ने, कन्या दई नृप काज।।६२।।
शकुनि कहने लगा कि कल सुशर्मा ने गोधन का हरण किया और आज हम गोधन का हरण कर रहे हैं, इससे डर कर मच्छराज ने कदाचित अपनी राजकुमारी को दुर्योधन के लिए भेजा लगता है।

द्रौण उवाच
कवित्त
मामा तेरो कहै कन्या भेजी है विराट भेट,
ता विवाह हू के गारी गीत जे सुनो ही गे।
रोवैं अश्व ध्वजा गिरै शस्त्र जे खिसल परै,
बोये बीज ताके फल मिलिकै लुनो ही गे।
त्रिया ना किरीटी ह्वैहै धूजत निहारो धरा,
कपी की गरज सुनि शिर कौ धुनो ही गे।
मानत न बात चारों दिशा उतपात होत,
जातवेद गांजिव तैं गात कौं भूनो ही गे।।६३।।
इस पर द्रोण बोले कि हे दुर्योधन! यह तुम्हारा मामा कहता है कि मच्छराज ने भेंट में कन्या भेजी है तो फिर विवाह के गीत-गाली भी तुम सुनोगे ही। देखो तो सही! तुम्हारे रथ के अश्व रो रहे हैं, रथ की ध्वजा पड़ रही है, और शस्त्र भी फिसल रहे हैं। इसलिए अपने बोये बीज की फसल भी लोगे ही। और देखो! यह स्त्री नहीं, अर्जुन है क्योंकि उसके रथ के पहियों की धमक से पृथ्वी कांप रही है, उसके ध्वज पर आरूढ़ वानर राज की गर्जना सुन कर तो अब अपना सिर धुनोगे ही। मेरी बात पर तुम्हें विश्वास नहीं! चारों ओर उत्पात मचा है, कोलाहल है इससे लगता है गांडीव रूपी अग्नि में तुम अपना देह जलाओगे ही।

पुनर्यथा
कहै द्रौण आवत ही देखिके अकेलो रथ,
उर्ध्व ध्वजदंड ताको तेज अदभूत है।
चिक्करत वाहन चलाकी चित चूर भई,
चारू भट चारू सुत अपने कुसूत हैं।
धुक्कत है धरनी औ धूंधरो दिखात नभ,
होत अनमित्त धीर त्यागै रिनधूत हैं।
गांजिब सरासन धर्यो है शत्रु नाशन कौं,
त्रास न तनक पाकसासन को पूत है।।६४।।
द्रोण ने अकेला रथ आते हुए देख कर कहा कि हे दुर्योधन! उस (रथ) का ध्वज दंड ऊंचा है और तेज भी अजीब है। अपने वाहन घोड़े आदि) चिक्कार कर रहे हैं। अपने चित्त की चालाकी का भी चूरा हो गया। यह तो योद्धा भी उत्तम लगता है और सारथी भी, जब कि अपने सारथी (कुसारथी) हिम्मत पस्त हैं। पृथ्वी कांप रही है और आकाश रंजी से आच्छादित, धुंधले वर्ण का है। अपशकुन हो रहे हैं। रण में निर्भय रहने वाले भी ऐसी स्थिति में धैर्य तज देते हैं। लगता है जैसे हाथ में गांडीव उठा रखा हो और जिसे तनिक भी भय नहीं, ऐसा तो सिर्फ इन्द्र पुत्र अर्जुन ही हो सकता है।

कर्ण उवाच
सवैया
का उतपात बतावत हो हम एक हु बात न जीव पै आनत।
द्रौण तैं कर्ण कहै करि कोप ज्यों विंद कौं जीमत बीर बखानत।
एक कहा कपिकेतु अनेक पितामह सैन्य कौं का न पिछानत।
जो हमतैं दुरजो धन तैं नहिं षोडस भाग पराक्रम जानत।।६५।।
कवि कहता है कि द्रोणाचार्य के प्रति कुपित हो कर कर्ण कहने लगा कि द्रोणाचार्य! आप हमें किस उत्पात का डर दिखा रहे हैं? हम इनमें से एक भी बात मन में नहीं लाते, यों तो दुल्हे के भोजन करते समय गीत गाती स्त्रियां सभी को वीर कह कर बखानती रहती हैं। एक अर्जुन तो क्या और अनेक हों तो क्या? क्या आप भीष्म पितामह की सेना का रण-कौशल नहीं जानते? आप जिस अर्जुन को बखान रहे हैं, उसमें मेरे एवं दुर्योधन के पराक्रम का सोलहवां हिस्सा भी नहीं है।

का कुषमांड को बालक है फल तर्जनि देखत ही गिरि जैहै।
ज्यों जुजुवा कौ दिखाय डरावत बाल कौं यों कहा सैन त्रसै है।
नाम सुनायके पारथ को तुम देत हो क्लीवता कोउ न पैहै।
द्रौन वा एक किरीटी के गौन तैं कौन जो पीठ बताय पलै है।।६६।।
हे द्रोणाचार्य! फिर यह (दुर्योधन) कुष्मांड का फूल है क्या, कि तर्जनी देख कर खिर पड़ेगा? जैसे कोई बच्चा हौआ का डर दिखाने से डर जाता है, वैसे क्या कोई वीर इस तरह डरेगा? तुम बार-बार अर्जुन का नाम ले कर कायरता का संचार करना चाहते हो, इससे कोई कायर नहीं होगा। यहाँ भला कौरव दल में ऐसा कौन है जो अर्जुन को पीठ दिखा कर भाग खड़ा हो?

अश्वत्थामा उवाच
दौण को पुत्र कहै सुनि सूत का पावत गाल बजाय बड़ाई।
एक गांजीव तैं इंद्र कौ रुद्र कौं तोषि लिये जग कीरति गाई।
कालखंजादिक वर्म निवात रु गंधर्व जापै अजै तुम पाई।
द्रौपदि प्रापत देखि है आपने एकले को न बिजै उपजाई।।६७।।
अश्वत्थामा कहने लगा कि हे कर्ण! सुन, तू गाल बजा कर (बड़े बोल बोल कर) बड़प्पन क्या ले रहा है? जिसने एक गांडीव के आसरे इन्द्र और महादेव को संतोष करा दिया, जिसकी ख्याति जगत में विख्यात है। जिसने वर्म, निवात और कालखंज जैसों को मार गिराया और आप तो (चित्रकेतु) गंधर्व से भी पराजित हो गए, जिसे उसने हराया। फिर क्या द्रौपदी के स्वयंवर में आपने उसका कौशल नहीं देखा? उस अकेले अर्जुन ने कहाँ विजय नहीं प्राप्त की?
(इसमें स्वर से वक्रोक्ति अलंकार है – सं.)

बाहु तैं क्षत्रिय सूर सबै द्विज वाक्य तैं सूर सदैव लखावत।
भीम महाबल तैं धनु तैं कपिकेतु कि सूरता देखहु गावत।
है छलसूर यहै सकुनी रु सुयोधन कौं हठसूर बतावत।
नीति तैं सूर युधिष्ठिर है तुम कर्न मनोरथसूर कहावत।।६८।।
बाहुओं से सभी क्षत्रिय शूरवीर हैं, ब्राह्मण हमेशा वाक्यशूर (बोलने में वीर) दिखाई देते हैं। भीमसेन की शूरवीरता स्वयं के महाबल से और अर्जुन का पराक्रम धनुष की प्रत्यंचा पर गाया जाता है। यह शकुनि कपटशूर (दगा करने में वीर) है और दुर्योधन हठ करने में अवश्य शूरवीर है पर युधिष्ठिर नीति में शूरवीर है और है कर्ण! तुम मनोरथ शूर (इच्छा घड़ने में वीर) कहलाते हो। (इसमें आवृति दीपकालंकार है मं.)

कविकथन
कवित्त
उत्तर गो ग्रहण पुकार सुनि ग्वालन तैं,
उत्तर कुँवर बोल्यो कोप बेशुमार मैं।
मैं हौं का किरीटी राज खोसिकै निकार दीनो,
सारथी जो होय तो दिखाऊंगो प्रहार मैं।
देखि व्योम चुंबित ध्वजा हू करु वंशन की,
स्वेद कंप अंशु से भये हैं ताहि बार में।
सबकौं दिखानो तहां पद जो निपुंसक को,
स्वांग मात्र अर्जुन में लक्ष तें कुमार में।।६९।।
कवि कहता है कि उत्तर दिशा के दरवाजे पर गायों के हरण की पुकार वालों के मुँह से सुन, अतिशय कुपित होकर, उत्तरकुमार ने पहले यह अवश्य कहा था कि मैं कोई अर्जुन नहीं हूं कि उसका राज्य खोस कर बाहर निकाल दिया जाऊं? यदि कोई अच्छा सारथी मिल गया तो मैं घाव करना बताऊंगा पर अभी कौरवों के रथों की आकाश चुंबी ध्वजाओं को फहरते देख कर उत्तरकुमार का शरीर कांपने लगा, पसीना आ गया और आँखो में पानी भर आया। इस तरह इन लक्षणों से सभी को नपुंसकता उत्तरकुमार में नजर आई वहीं अर्जुन में तो नपुंसक होने का स्वांग भर दिखा।

देखि चमू भाग्यो बाल पकर्यो विलोम दौरि,
कह्यो राजपुत्र मेरो प्रान उडि जावेगो।
जान देहु तोकौं रथ बाज करी द्रव्य देहुँ,
जुद्ध तूं करेगो मेरो जीव अकुलावेगो।
पार्थ कहै अर्जुन हौं गाढो रहि भाजै मति,
अद्भूत बनेगो जुद्ध सीघ्र बिजै पावेगो।
अर्जुन हो आप तो सुनावो दश नाम अर्थ,
यथा योग्य सुने तैं विश्वास दृढ आवेगो।।७०।।
कौरवों की सेना देख कर उत्तरकुमार भागने लगा तो अर्जुन ने पीछे दौड़ कर उसे पकड़ा। इस पर तो राजकुमार बोला हे वृहन्नटा! मुझे छोड़ दे नहीं तो मेरे प्राण निकल जाएंगे। मुझे जाने दे। मैं तुझे रथ, घोड़े, हाथी और द्रव्य सौंपता हूं क्योंकि युद्ध तू करेगा और जी मेरा अकुलाएगा। यह सुन कर अर्जुन ने कहा कि तू भाग मत, मैं स्वयं अर्जुन हूं। अद्‌भुत युद्ध होगा और शीघ्र ही हम जीतेंगे। अर्जुन के बोल सुन कर उत्तर कुमार ने पूछा आप यदि वास्तव में अर्जुन हैं तो अपने नाम के दस अर्थ बताओ, जिन्हें सुन कर मुझमें थोड़ी दृढ़ता आए।

अर्जुन उवाच
शत्रु जीतिबे विजै शुक्ल कृत्य अर्जुन मैं,
इंद्र दिया क्रीट तातैं किरीटी कहायो हौं।
फालगुन उत्तरा और पूरबा के मध्य जन्म,
कृष्ण पांडु कृपा जिष्णु वासव को जायो हौं।
जुद्ध मैं गिलान काम करौं ना विभत्सु तातें,
स्वेत अश्व ही तैं श्वेतवाह पद पायो हौं।
सव्यसाची वाम पानि है सहाय तातैं जानि,
धनंजै रसा को द्रव्य सबै जीति लायो हौं।।७१।।
सुनो राजकुमार! शत्रुओं को जीतने से मेरा नाम ‘विजय’ है और उज्जवल कार्यो से ‘अर्जुन’ कहलाता हूं। इन्द्र ने मुकुट दिया जिससे ‘किरीटी’ और पूर्वा फाल्गुन नक्षत्र में मेरा जन्म होने से ‘फाल्गुन’ मेरा नाम है। पाण्डु राज की कृपा से ‘कृष्ण’ सम्बोधन है और इन्द्र का अंश हूं जिससे जिष्णु नाम है। युद्ध के रथ में मेरे घोड़े श्वेत रंग के होने से ‘श्वेतवाहन’ गिना जाता हूं। फिर युद्ध में मेरा बांया हाथ भी वैसा ही दक्ष है जैसा दांया इसलिए ‘साव्यसाची’ की संज्ञा है मुझे और पृथ्वी का सारा धन जीत लाने के कारण ‘धनंजय’ कहलाया हूं। (इसमें प्रत्येक नाम साभिप्राय होने से परिकरांकुरालंकार है – सं.)

कुमार कथन
दोहा
अर्जुन हो तो भात चहुं, कित हैं द्रुपदकुमारि।
भूप युधिष्ठिर कंक भट, वल्लव भीम बिचारि।।७२।।
कुमार ने दसों नाम अर्थ सहित सुन कर पूछा – यदि तुम अर्जुन हो तो तुम्हारे दूसरे चारों भाई और द्रौपदी कहाँ है? प्रत्युत्तर में अर्जुन ने कहा जो कंक भट है वे युधिष्ठिर हैं और वल्लव रसोइया भीमसेन है। ऐसा जानों।

ग्रंथिकार हयबिद निकुल, तंत्रिपाल सहदेव।
है सैरंध्री द्रौपदी, तजि विषाद लहि भेव।।७३।।
घोड़ों की देखरेख करने वाला जो ग्रंथिकार कहलाता है वह नकुल है, तंत्रीपाल (गायों का ग्वाल) है वह सहदेव है। इसके अलावा सैरंध्री ही द्रौपदी है यह भेद जान कर, खेद तज दे।

होहु कुँवर मम सारथी, जुद्ध समय कौं लेखि।
जानि अतीरथि बृहनटा, वीर नाट्य अब देखि।।७४।।
हे उत्तर कुमार! यह बहस का नहीं युद्ध का समय है, इसे समझ कर तू मेरा सारथी हो जा और मुझ वृहन्नटा को अतिरथी जान कर वीरता का नाटक देख।

जानि वाद्य तलत्रान मम, पनच करहि पुनि गान।
नृत्य करहिं मम उभय कर, लेहि रीझि रिपु प्रान।।७५।।
मेरे हाथ के पहुंचे वाले बख्तर को वाद्ययंत्र गिन, धुनष की डोर से फिर गायन करूंगा। मेरे दोनों हाथ नृत्य करेंगे और पुरस्कार के रूप में शत्रुओं के प्राण लेंगे। (इसमें सावयवरूपकालंकार है सं.)

अर्जुन की तत्परता
छंद पद्धरी
करि समी परिक्रमा ग्रहण कीन, तेइ धनुष बान कर उभै लीन।
गो ध्वजा सिंघ लच्छन बिलाय, भो चिंतित बानर बिकट भाय।।७६।।
गंधर्व अश्वविद्या प्रभाव, स्वेताश्व भयो रथ मन स्वभाव।
करि कोप धनुष टंकार कीन, भो शब्द भूमि आकाश लीन।।७७।।
दिय बहुरि देवदत्तहि बजाय, किय हाक ध्वजा कपि महाकाय।
त्यों धड़धड़ाट रथ नेमि घोर, चकि रहे शत्रु नहिं सुनत ओर।।७८।।
यह रूप सैन्य परिक्रमा दीन, कहि शब्द भीष्म प्रति नियम कीन।
इसके पश्चात् अर्जुन ने खेजड़ी के वृक्ष की परिक्रमा कर उस पर रखे धनुष बाण को दौनो हाथों में उठाया। इससे रथ की ध्वजा पर जो सिंह का निशान था वह मिट गया और स्मरण मात्र से वानर का निशान प्रकट हो गया। फिर कुपित हो कर अर्जुन ने धनुष टंकार किया जिसकी आवाज पूरी पृथ्वी और आकाश तक फैल गई और विशाल कलेवर वाले वानर ने ध्वजा से प्रकट हो कर वीर हाक की। तभी रथ के पहियों की भयंकर घड़घड़ाहट होने से शत्रु चकित रह गए और वे कोई दूसरी आवाज नहीं सुन सके। अर्जुन ने पूरी सेना का चक्कर लगा कर भीष्म को सुना कर प्रतिज्ञा की।

अर्जुन उवाच
दोहा
क्षत्रिधर्म प्रतिकूल तुम, सानुकूल मैं तात।
मैं छुड़ात गो ग्रहण तुम, अकरम तैं न लजात।।७९।।
अर्जुन बोला कि हे पितामह! आप क्षत्रिय धर्म से विमुख हैं और मैं साथ हूं। मैं गायों को छुड़ा रहा हूं और आप गोधन हरण के कुकर्म में शामिल हो कर भी लज्जित नहीं हैं।

तातें ह्वैहै विजय मम, ह्वैहै अजय तुम्हार।
मैं अर्जुन मुख का कहौं, शकुन हि कहत पुकार।।८०।।
इससे मेरी जय होगी और आपकी पराजय। मैं (अर्जुन) अपने मुँह से क्या कहूँ? सारे शकुन पुकार-पुकार कर कह रहे हैं।

युद्धारंभ
पद्धरी छंद
कहि इतो जुद्ध आरंभ कीन, मिलि अमर व्योम देखत अधीन।
गांजीव बान धन अभ्र छाय, जिन बीच पवन नहिं गवन पाय।।८१।।
हनि प्रथम भूम रिपुतप अभीत, पुनि कर्न अनुज संग्रामजीत।
द्रोणी को काट्यो ध्वजादंड, पुनि धनुष कवच किय खंड-खंड।।८२।।
इतना कह कर अर्जुन ने युद्ध आरंभ किया। अर्जुन की वीरता को देखने देवगण आकाश में एकत्रित हो कर युद्ध देखने लगे। गांडीव धनुष से छूटे हुए बाणों से पूरा आकाश आच्छादित हो गया। बाणों के उन बादलों से (घने बाणों से) पवन भी नहीं गुजर पाता। सर्व प्रथम अर्जुन ने निर्भय हो कर शत्रुतप नामक राजा को मारा, फिर कर्ण के छोटे भाई संग्रामजीत (राधापुत्र) को मारा। अश्वत्थामा के ध्वजदंड को काट डाला फिर धनुष और बख्तर के टुकड़े-टुकड़े कर डाले।

गुरूपुत्र जानि नहिं करी घात, करनहि भगाय द्वै बेर तात।
भीष्म के भाल बिच मारि बान, मूर्छित करि दीनो असहमान।।८३।।
तिहुँलोक विजेता तरुण अंग, गांडीव धनुष अक्षय निखंग।
अर्जुन सोइ रोक्यो रिन अजेव, द्रौन के करत बाखान देव।।८४।।
सोइ द्रौन कृपाचारय सधीर, दोउ जीति छुड़ाई गाय बीर।
गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र जान कर अश्वत्थामा को अर्जुन ने टाल दिया, मारा नहीं, कर्ण को दो बार भगाया। भीष्म पितामह के कपाल में तीर मार असह्य पीड़ा दे कर, उन्हें मूर्च्छित कर डाला। गांडीव धनुष और अक्षय तूणीर से तीनों लोकों को जीतने वाले, तरुणवय वाले अर्जुन को जब द्रोणाचार्य ने युद्ध में आगे बढ़ने से रोक दिया तो देवगण द्रोणाचार्य के पराक्रम का बखान करने लगे। ऐसे धैर्यवान द्रोणाचार्य एवं कृपाचार्य के रहते युद्ध जीत कर अर्जुन ने गायों को छुड़ा लिया।

दुर्योधन कौं इक बान मारि, दिय छत्र रु उष्णिष भूमि डारि।।८५।।
कृप द्रौन करन अरु भीष्म बान, पाथ कौं लगे केउ भेदि त्रान।
इक चल्यो पाथ को मोह अस्त्र, सब गिरे बीर गिर परे शस्त्र।।८६।।
भीष्म की ध्वजा बिच रुधिर अंक, नर आप हाथ लेखे निशंक।
लै जात सबन की छीनि लाज, करि तजे जियत मृत दया काज।।८७।।
अर्जुन ने दुर्योधन को एक बाण मार कर उसके छत्र-मुकुट जमीन पर गिरा दिये। कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, कर्ण और भीष्म पितामह को बहुत सारे बाण मार कर उनके बख्तरों को छेद डाला। इसके बाद अर्जुन ने एक मोहास्त्र शत्रुओं पर चलाया, जिसकी मार से सभी योद्धा भूमि पर गिर पड़े और उनके शस्त्र भी गिर पड़े। तदुपरांत अर्जुन ने वहाँ आ कर भीष्म पितामह के रथ की ध्वजा पर स्वयं रक्त से यह इबारत लिखी कि ‘मुझे दया आ गई इसलिए मैंने आपको जान से नहीं मारा बस मृतक जान कर छोड़ दिया है और अब आप सभी की लज्जा का हरण कर ले जा रहा हूं।’

नगर में उत्तरकुमार का विजय सुनाना
पुर पठय दूत गौवन छुडाय, सब कुँवर विजय कहियो सुनाय।
नृप हू निज पुर तिहि दिवस आय, सुनि पुत्र विजय चौसर रचाय।।८८।।
भट कंक ताहि प्रतिषेध कीन, नल भयो दुखित यह व्यसन लीन।
कुरु भूप युधिष्ठिर द्यूत काज, कित गयो न जानै भ्रष्ट राज।।८९।।
मंगल के समय न रमहु आप, गर्विष्ठ भूप दुहुँ जय प्रताप।
नहिं गन्यो बचन खेल्यो निशंक, क्रीड़त हि कह्यो भट सुनहु कंक।।९०।।
सारी गायों को छुड़ा कर अर्जुन ने ग्वालाओं को नगर में भेजा कि तुम सभी वहाँ जा कर उत्तरकुमार की विजय हुई यह बात कहना। राजा भी उसी दिन नगर में आए थे। जब उन्होंने अपने पुत्र के विजय की खबर सुनी तो उन्होंने खुशी से चोसर के खेल की बाजी बिछवाई पर कंक भट ने खेलने से मना किया और राजा से कहा कि यह जुआ खेलना अच्छी आदत नहीं। इसी में डूब कर राजा नल दुःखी हुआ, फिर युवराज युधिष्ठिर को इसी के कारण राजपाट से हाथ धोना पड़ा और फिर वह कहाँ गये आज तक कोई नहीं जानता। इसलिए हे राजा! आप इस शुभ अवसर पर जुआ न खेलें पर राजा ने एक न सुनी और विजय की खुशी में अधिक उत्साहित होकर निसंक खेला। उल्टे राजा बाजी खेलते कहने लगा कि हे कंक भट सुनो –

दोहा
कहि विराट भट कंक तैं, अहो उतर समराथ।
जीत्यो देवन तैं अजय, कुरुबंशन को साथ।।९१।।
अहो! उत्तरकुमार मेरा पुत्र कितना समर्थ है कि जो देवताओं से नहीं जीते जायें ऐसे कौरवों को उसने जीत लिया।

कंक कहै नृप वृहनटा, जाके सारथि होय।
सो जीतै सुरराज कौं, तउ का अचरज सोय।।९२।।
यह सुन कर कंक भट कहने लगा कि हे राजा! जिसका सारथी बृहन्नटा हो वह योद्धा यदि इन्द्र को भी जीत ले तो इसमें क्या आश्चर्य की बात है?

सुनत स्तुती मम पुत्र की, रोधत है हठ ठानि।
करत स्तुती वा षंढकी रे द्विज तूं अज्ञानि।।९३।।
मच्छराज ने कहा कि हे ब्राह्मण! तू मूर्ख है क्योंकि तू हठ करके मुझे मेरे पुत्र की वीरता का बखान करने से रोक रहा है और राजकुमार के बदले उस वृहन्नटा का बखान कर रहा है।

कवित्त
भीष्म द्रोण कर्ण द्रोणी कुरूराज दुशासन,
जिनको विशेष तेज देवन तैं मान्यो है।
उनके प्रताप ही तें पांडव बिलाय गये,
इंद्रादिक अंशन तैं जनम बखान्यो है।
तेउ जीति एकरथी गाय जे छुराय लायो,
उत्तर को पौरष मैं आज दिन जान्यो है।
धन्य माता पिता देश वंश और सुपुत्र ऐसा,
बाल वय हू मैं अदभूत जश आन्यो है।।९४।।
इसके बाद राजा कहने लगा कि हे कंक भट! भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा, दुर्योधन और दुःशासन जैसे वीरों का तेज देवताओं ने भी माना है। और जिनका जन्म इन्द्र जैसे देवताओं के अंश से हुआ ऐसे पाण्डवों को भी जिन्होंने परास्त कर दिया हो। ऐसे वीरों को मेरा अकेला पुत्र हरा कर गायें छुड़ा लाया। ऐसे उत्तरकुमार का पराक्रम तो मैंने भी आज ही जाना, जो बालक-वय में ही ऐसा अद्‌भुत यश कमा कर आया। मेरा ऐसा सुपुत्र, उसकी जननी, उसका देश और उसका वंश धन्य।

कंक उवाच
दोहा
जाके ऐसे सारथी, सो क्यौं बालक मित्र।
तीन लोक हू जीति ले, तो पुनि कहा विचित्र।।९५।।
कंक भट ने फिर अपनी बात दुहराई कि जिसका ऐसा सारथी (बृहन्नटा) है वह भला बालक कैसे कहला सकता है? वह तो तीनों लोकों को जीत ले तब भी कम है।

सुनत रीस करी शीष पै, पासो कर्यो प्रहार।
चली युधिष्ठिर भाल तैं, सीघ्र रुधिर की धार।।९६।।
कंक भट की बात सुनते ही राजा को क्रोध आ गया और हाथ का पाँसा उसके सिर पर दे मारा। जिससे युधिष्ठिर के ललाट से रक्त की धार बह निकली।

स्वर्णपात्र में द्रौपदी, झेलि लियो रत सोइ।
मति भीमार्जुन देखि ले, जिन तैं बचै न कोई।।९७।।
यह देखते ही द्रौपदी ने लपक कर कंक भट के कपाल से बहते रक्त को शीघ्र ही स्वर्ण पात्र में ले लिया। मन में यह सोचते हुए कि कहीं ऐसा न हो कि कहीं भीम और अर्जुन यह घाव देख लें तो राजा के वंश में कोई नहीं बचेगा।

कुमार आगमन
छंद पद्धरी
नृप कन्या सैन्य वेश्या पठाय, लाये सु उतर कुँवरहि बधाय।
कहि प्रथम हि नर तिहि कुँवर काज, पांडवन प्रगट मत करहु आज।
प्रतिहार कह्यो आवत कुमार, भट कंक गुप्त बरज्यो सँभार।।९८।।
उत्तरकुमार के आगमन का सुन कर राजा ने कन्याओं, सेना और वेश्याओं को भेजा। सभी राजकुमार को बधा कर (स्वागत कर) लाये। अर्जुन ने पहले ही राजकुमार को कह दिया था कि वह पाण्डवों का भेद प्रकट न करे। फिर राजा को द्वारपाल ने सूचना दी कि राजकुमार पधार रहे हैं। कंक भट ने द्वारपाल से गुप्त रीति से कहलवा दिया कि अर्जुन को यहाँ न लावें।

दोहा
मिल्यो आय पितु तैं कुंवर, लख्यो युधिष्ठिर भाल।
कह्यो मच्छ तैं किन कियो, ऐसो कर्म चँडाल।।९९।।
राजकुमार आ कर अपने पिता से मिला और युधिष्ठिर के ललाट का घाव देख कर बोला कि हे पिता! यह हेय कर्म किसने किया है?

मच्छ उवाच
करत प्रशंसा तोर सुत, षंढ प्रशंसत मूढ।
तातैं अक्ष प्रहार मैं, कियो सीघ्र हठ रूढ।।१००।।
मच्छराज ने कहा कि हे पुत्र! मैं जब तेरी वीरता का बखान कर रहा था तब यह (कंक भट) मूर्ख पहले वृहन्नटा का बखान करने लगा तो मुझ से आवेश में पाँसे का प्रहार हो गया और यह घाव लग गया।

कुमार उवाच
द्विज पै घात अनर्थ यह, क्षमा करावहु याहि।
देवदूत जीत्यो समर, प्रात दिखैहौँ ताहि।।१०१।।
राजकुमार ने कहा कि हे पिता! ब्राह्मण पर वार करना पाप है, आपको इस अनर्थ के लिए इन से क्षमा मांगनी चाहिए। रही बात युद्ध की तो उसे एक देवदूत ने जीता है, मैं उसे आपको प्रातःकाल में बताऊंगा।

कुमार-परिषद
प्रात सभा कीनी कुँवर, पांडव भूषित आय।
श्रेष्टासन पै धर्मसुत, प्रथम हि बैठो जाय।।१०२।।
फिर सवेरे उत्तरकुमार ने सभा का आयोजन किया जिसमें सारे पाण्डव उपस्थित हुए। सभा के उत्तम आसन पर सर्व प्रथम युधिष्ठिर बैठे (को बिठाया)।

देखि दूर तैं मच्छ नृप, कह्यो कंक भट मूढ।
मुँह लाग्यो तातैं भयो, मम आसन आरूढ।।१०३।।
इसे दूर से देख कर मच्छराज ने कहा कि हे मूर्ख कंक भट! तुझे अधिक मुँह लगा लिया, क्या इसी से तू मेरे आसन पर आरूढ़ हो गया?

अर्जुन उवाच
याके अनुचर हैं सदा, इंद्रासन अनुरूप।
तेरो तुच्छासन कहा, यहै युधिष्ठिर भूप।।१०४।।
मच्छराज के उलाहने को सुन कर अर्जुन बोला कि हे राजा! ध्यान से बोल, इन के तो सेवक भी इन्द्रासन के योग्य हैं फिर तेरे इस तुच्छासन की तो औकात ही क्या है? जानता नहीं, ये राजा युधिष्ठिर हैं।

कही सकल उत्तर कुँवर, जिन पितु तैं समुझाइ।
गुप्त रहे जब तैं कथा, जुध परजंत जिताइ।।१०५।।
इसके बाद उत्तरकुमार ने अपने पिता को सारी बात समझाई कि ये पाण्डव अज्ञातवास में गुप्त रूप से यहां है, इनकी कृपा से ही युद्ध में विजय हुई है।

विराट उवाच
मोर सुता अति गुनन जुत, करै ग्रहन सुत इंद्र।
तब उरून होहूं कछुक, तुम तैं धर्म नरेंद्र।।१०६।।
पूरी बात समझ कर राजा विराट ने कहा कि हे धर्मराज! मेरी पुत्री अत्यन्त गुणवान है उसे आप अर्जुन के लिए ग्रहण करें। यदि अर्जुन स्वीकार करे तो मैं भी कुछ आपके ऋण से उरिण हो जाऊ।

अर्जुन उवाच
मेरे तो यह पुत्रि सम, गुरु करि जानत मोहि।
कलँक लगे मिश्रित कहै, जो ऐसी गति होहि।।१०७।।
राजा के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए अर्जुन ने कहा कि हे राजा! मेरी तो वह पुत्री के समान है क्योंकि वह मुझे गुरु मानती है। यदि मैं उससे विवाह करूं तो कलंक लगेगा और लोग मुझे वर्णशंकर कहेंगे।

कह्यो युधिष्टिर विजय को, पुत्र सुभद्रानंद।
अभिमन कौं दीजै सुता, करहु ब्याह सुखकंद।।१०८।।
तब युधिष्टिर ने कहा कि हे विराट राज! आप अर्जुन की अपेक्षा अर्जुन के पुत्र सुभद्रानंदन अभिमन्यू को अपनी पुत्री दें और विधि-विधान से उसका विवाह सम्पन करें, यह अधिक उपयुक्त रहेगा।

तथा अस्तु कहि न्यूतबै, दूतन दिये पठाय।
संबंधी दोउ नृपन के, मिले कृष्ण लौं आय।।१०९।।
विराटराज ने प्रसन हो कर ‘तथास्तु’ कहा और निमंत्रण के लिए अपने दूतों को सभी राज्यों में भेजा। इससे दोनों राजाओं के सगे-सम्बन्धी, श्री कृष्ण सहित आ गए।

भयो ब्याह आनंद तैं, दिये करी रथ बाज।
पठय सुयोधन दूत इत, किये प्रगट तिहि काज।।११०।।
इसके बाद उत्तरा एवं अभिमन्यू का विवाह आनन्दपूर्वक सम्पन्न हुआ जिसमें विराटराज ने हाथी, घोड़े, और रथ दहेज में दिये। इतने में दुर्योधन ने अपना दूत भेज कर पांडवों से कहलवाया कि हमने तुम्हें ज्ञात कर लिया है (खोज निकाला है)।

गये सप्त दश अधिक दिन, अधिक मास तैं आज।
त्यों ही भीष्म द्रौन कहि, ना मानी कुरुराज।।१११।।
पाण्डवों ने वापस दूत के साथ कहला भेजा कि अवधि सम्पूर्ण ही नहीं हुई बल्कि अधिक मासों के हिसाब से सत्तर दिन अधिक हो गए हैं। ऐसा ही भीष्म और द्रोणाचार्य ने भी कहा पर दुर्योधन ने नहीं माना।

।।इति सप्तम मयूख।।

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