परित्यक्ता / पुनर्मिलन – कवियत्री छैल चारण “हरि प्रिया”


।।परित्यक्ता।।
उर में अति अनुराग सखी,
विरह की मीठी आग सखी!!
नयन भटकते दूर दूर जब
आँगन बोले काग सखी !!
अपनी ही सांसों में दो रुत,
लख कर जाती जाग सखी!!
दिन में चुभते तीर प्रणय के,
डसते रात में नाग सखी!!
सूखा मन सावन में रहता,
फीका फीका फाग सखी!!
गुलशन गुलशन भौंरे गूंजे,
मेरा सूना बाग सखी!!
दुल्हन सा श्रृंगार किए हूँ,
अनब्याही सा भाग सखी!!

।।पुनर्मिलन।।
मन में है मनुहार सखी री
और प्रीतम का प्यार सखी री
निजर बिछाकर पथ पर लूंगी
पलकन पंथ बुहार सखी री
नेह जल भरकर दीप जलाऊं
रखूं ह्रदय के द्वार सखी री
रोम रोम अब लगे थिरकने
सांसें है सुर तार सखी री
भर लूंगी उर में आलोड़न
छलका के सब खार सखी री
अब तक जो भी छुपा रही थी
कर लूंगी स्वीकार सखी री
सागर सागर सब हो जाए
सहरा सहरा थार सखी री
सींच सींच कर प्रीत के पावस
बन जाऊं रसधार सखी री
लांघूं देहरी आज क्षितिज की
कर लूं सब कुछ पार सखी री!!
©कवियत्री – छैल चारण “हरि प्रिया”