प्रीत पुराणी नह पड़ै

हिंदी-राजस्थानी के युवा प्रखर कवि व लेखक डॉ.रेवंतदान ‘रेवंता’ की आदरणीय डॉ.आईदानसिंहजी भाटी पर सद्य संस्मरणात्मक प्रकाशित होने वाली पुस्तक के लिए ‘फूल सारू पांखड़ी’—-
मैं यह बात बिना किसी पूर्वाग्रह के कह रहा हूं कि राजस्थानी लिखने वाले तो ‘झाल’ भरलें उतने हैं परंतु नवपौध को सिखाने वालों की गणना करें तो विदित होगा कि ये संख्या अंगुलियों के पोरों पर भी कम पड़ जाए। या यों कहें तो भी कोई अनर्गल बात नहीं होगी कि राजस्थानी में उन लेखकों की संख्या पांच-दस में ही सिमट जाती हैं जिनसे नई पीढ़ी प्रेरित होकर उनका अनुसरण करें। कहने को तो सभी उसी प्रकार ही कहते हैं जिस प्रकार किसी व्यक्ति ने एक अपने परिचित से पूछा कि -“भइया तेरे गांव में मौजीज व समझदार कितने व्यक्ति हैं?” तो उसने प्रत्युत्तर दिया कि- “एक फलां दूसरा फलां और तीसरे के लिए जरा वहम मेरा भी करते हैं।” आज राजस्थानी में कमोबेश इस क्षेत्र में यही स्थिति है कि मान भले मत मान लेकिन मैं लाडे की बुआ!
हालांकि ऐसी बात नहीं है कि धरती ने सर्वथा बीज खो दिया हो! आज भी कतिपय ऐसे लोग हैं जो गुरु-शिष्य परंपरा के साकार स्वरूप हैं परंतु यह बात भी है कि वहां लागू होती है कि खोटे सिक्कों की खनक प्रभावित नहीं कर सकती। वहां तो यह बात ही मान्य है कि–
गहली जोबन ताल-जल़, हर कोई हर लेत।
बल़िहारी नृप कूप की, गुण बिन बूंद न देत।।
इस क्षेत्र में मैं अपने आपको जरा भाग्यशाली मानता हूं कि मुझे मेरी अग्रज पीढ़ी ने पढ़ना और लिखना दोनों सिखाया। मुझे ऐसे लोगों का सान्निध्य मिला जो वास्तव में ऋषि तुल्य थे जिनमें श्रद्धेय डॉ.मनोहरजी शर्मा, डॉ.किरणजी नाहटा व ओ.पी.चारण का नाम सर्वोपरि है।
जिन लोगों से मुझे सबसे ज्यादा सीखने को मिलता है उनमें डॉ.शक्तिदानजी कविया, डॉ.आईदानसिंहजी व मोहनसिंहजी रतनू का नाम अग्रगण्य है।
शक्तिदानजी से मेरा परिचय विद्यार्थी काल से है और मुझे सदैव मार्गदर्शन देते रहते हैं। इनकी लेखनी ही ऐसी है कि मेरे जैसा नादान गद्य व पद्य में इनकी बिना अकल नकल करने का उपक्रम करता ही रहता है। इन पर फिर कभी लिखूंगा।
मोहनसिंहजी रतनू तो मेरा इतना लाड रखतें हैं कि मेरे हमउम्र लोगों को इस बात पर मुझसे ईर्ष्या सी होने लगी है। इन पर भी फिर कभी।
फिलहाल आईजी की बात करूंगा। डॉ.आईदानसिंहजी भाटी के नाम से तो मैं विद्यार्थी जीवन से ही परिचित था लेकिन रूबरू 2012 में मिला। हालांकि कभी कभार साहित्यिक समारोहों में इन्हें देखा जरूर था लेकिन मिला नहीं और मिलने की कोशिश भी नहीं की। क्योंकि मेरे दो-तीन माड़-मारवाड़ के मित्रों ने मेरे मनोमस्तिष्क में यह भाव भर दिए थे कि भाटी साहब डिंगल़ काव्य के विरोधी तथा परंपरागत चली आ रही धारणाओं के प्रतिगामी स्वर रखने वाले हैं। चूंकि मैं परंपरागत काव्य का प्रेमी जो ठहरा तो मैंने भी धारणा बना ली कि शायद भाटी साहब, जैसा मित्र कह रहें हैं वैसे ही हो। अतः मैंने अदृश्य भय से एक दूरी बनाए रखीं।
2012 में राज.भा.सा.सं.अकादमी के आंशिक आर्थिक सहयोग से मेरा निबंध संग्रह- ‘जल़ ऊंडा थल़ ऊजल़ा’ छपने वाला था। उसी दरम्यान मेरे परम मित्र महेंद्रसिंहजी खिड़िया ने पूछा कि-
“इस संग्रह की भूमिका किनसे लिखवा रहें हैं?”
उनके पूछने का कारण यह था कि इस पुस्तक से पहले प्रकाशित मेरी दो पुस्तकें- ‘मरूधर री मठोठ’ व ‘छंदां री छौल़’ की भूमिका क्रमशः सौभाग्यसिंहजी शेखावत व डॉ.शक्तिदानजी कविया ने लिखी थी तो महेंद्रसा चाहते थे कि किसी ऐसे विद्वान से ही भूमिका लिखवाई जाए जो इनकी ‘जोड़ी का धोतिया’ हो।
मैंने उन्हीं से प्रतिप्रश्न किया कि-
“आप ही बताएं?”
उन्होंने भी बिना औपचारिकता के कहा कि-
“भाटी साहब से।”
मैंने उन्हें कहा कि-
“मेरा भाटी साहब से अभी तक परिचय नहीं है अतः आप मुझे पूछकर बतादें कि भाटी साहब भूमिका लिख देंगे कि नहीं?”
जैसे ही महेंद्रसा ने मेरी बात उन्हें बताई तो उन्होंने उपालंभ देते हुए कहा कि-
“मुझसे भूमिका लिखवाने हेतु गिरधरजी को पूछने की कहां जरूरत है? माना आप मेरे मित्र हैं जबकि वे तो मेरे घरभाती जो ठहरे। लेकिन बताए देता हूं कि वे मेरे से भूमिका लिखवाकर गलती कर रहें हैं। क्योंकि मेरी भूमिका लिखी पुस्तक पूर्वाग्रहों की शिकार हो जाएगी और ये पुरस्कार से वंचित। फिर भी लिखवाना चाहे तो साधिकार भेज सकते हैं। लेकिन उन्होंने आपके माध्यम से पुछवाया है तो मेरी तरफ से इस हेतु उन्हें उलाहना भेज देना कि किसी भाटी से रतनू को कार्य संपादित करवाने हेतु पूछने की नहीं अपितु कहने की बात भर है।”
महेंद्रसा ने मुझे उक्त वाकया बताया तो मैं सुनकर अभिभूत हो गया। मेरे जहन में सुना हुआ गौरवशाली इतिहास उतर आया। आईजी के ही महाप्रतापी पूर्वज सिद्ध देवराजजी ने मेरे प्रातः स्मरणीय पूर्वज रतनाजी को अपने ऊपर किए एहसान के बदले बड़ा भाई मानकर अपनी संतति को पीढ़ी दर पीढ़ी रतनाजी की संतति को सम्मान देने व किसी भी सूरत में न बदलने की शपथ दिलाई थी-
देवराज इम दाखियो, मूझ तणै कुल़ मांय।
भाटी विरचै रतनुवां, जो कुल़ सूधा नाय..
इस संबध में मेरी कविता का भी एक अंश अवलोकनार्थ-
देवराज यूं दख्यो, सुणो मो गोती सारा।
रावल़ नै रतनेस, निमख मत जांणो न्यारा।
कहूं सुणो दे कांन, भाल़ रतनो बड भाई।
जादम बदल़ै जोय, निपट असली रो नाही।
जादमां-छात इणविध जगत, वसू सुजस वरणावियो।
मीसणां घरै धिन माडपत, पह रतनो परणावियो।।
यही नहीं बाद में भी इनके महाप्रतापी पूर्वज दुर्धर्ष वीर दुर्जनशालजी जो इतिहास में दूदा जसहड़ोत के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है, के कंधे से कंधे जोड़कर रतनू आसरावजी तिहणरावजी, चिराईजी तथा भोजराजजी रतनू जैसे मेरे पुण्यश्लोक पूर्वजों ने जैसलमेर के गौरव को अभिमंडित करने में जो रक्त-पसीना एक कर दिया था की गौरवशाली परंपरा के मर्म को गांभीर्य व संवेदना से जानने वाले आईजी ने अपने साथ मेरे घरूपे के सनातनी संबंधों को सजीव कर करके हमारे बीच के सारे औपचारिक बंधनों को एक ही झटके से तोड़ दिया। मैं समझ गया कि मित्रों ने आईजी को परखने की परखी गलत लगाई है। हां, यह बात सही निकली क्योंकि आईजी इस बात के प्रबल हिमायती जो ठहरे–
तुम आवो डग हेक तो, हम आवै डग अट्ठ।
तुम हमसे करड़ै रहो, हम भी करड़ै लट्ठ!!
जब महेंद्रसा ने मुझे आईजी का उक्त संदेश सुनाया तो मैंने भी सुनकर कहा कि- “महेंद्रसा ! अब तो भूमिका आईजी से ही लिखवाएंगे, क्योंकि बींदणी वाले गांव जाने की मुझे भी दरकार नहीं है।”
खैर..
उन्हीं दिनों आईजी बीकानेर आए और मुझे फोन किया कि- “केथ हो? हूं मधुलिकाजी रे अठै ठहरूंलो।”
मैं उनसे मिलने मधुलिकाजी के यहां गया। मैं मिला तो मुझे लगा कि हम दोनों वर्षों से प्रगाढ़ परिचित है। इनकी भाषा व भावों में कोई ‘मालीपाना’ नहीं था। जब बात दर बात निकलने लगी तो मालूम हो गया कि आईजी तो स्वयं मूलतः डिंगल के ही कवि और उस परंपरा के संवाहक भी। आईजी के अंतस में काव्य बीजों को पल्लवित करने में भी इनके गुरू दुर्गादानजी रतनू बधाऊड़ा की सद्प्रेरणा ही थी।
जहां कथनी और करनी एक हो वहां संबंधों की मधुरता बढ़ते देर नहीं लगती।
बातों का सिलसिला चला तो आईजी ने मुझे एक गूढ़ ज्ञान दिया कि- “गिरधरजी ! आज लिखने की नही साहित्यकार नुमा दिखने की आवश्यकता है। क्योंकि आज खरे और खोटे के परीक्षकों का तोटा जो ठहरा!”
यहीं आपने मुझे अपना समग्र प्रकाशित साहित्य दिया। इनको पढ़ा तो मेरे अंतस्तल पर जमी इनकी छवि के दूसरे पहलू का प्रकटीकरण हो गया। मुझे लगा कि किन्हीं को जाने बिना किन्हीं के कहने से किसी धारणा को बना लेना नितांत अज्ञानता का सूचक है और मैं इसी अज्ञानता का लंबे समय तक शिकार रहा। जब इनको पढ़ा तो लगा कि राजस्थानी जनमानस को समझने के साथ ही इनके दिल को छूने की जो कुव्वत आईजी में है वो कम ही कवियों में दृष्टिगत होती है।
आईजी को पढ़ने व सुनने वाले को इनकी कविताएं एकदम अपनी सी लगती है। भलेही कुछ लोग उन्हें किसी वाद विशेष के नजदीक या रहनुमा मानतें होंगे लेकिन मेरी निजी धारणा यह बनी कि यह पाठक या श्रोता की जरा भूल है जो इन्हें समझने में कहीं न कहीं चूक करती है।
मैं जब-जब आईजी को पढ़ता हूं तो लगता है कि आईजी किसी वाद से प्रभावित हैं तो वो केवल यह है कि कैसे धवल धोरों की संस्कृति को बचाया जाए ? या कि कैसे यहां की प्रीत से सरोबार प्रकृति को संरक्षण दिया जाए? या कि कैसे यहां के मरूस्थल के जहाज को आज के संदर्भ में प्रासंगिक किया जाए। जब भी इनके वाद को समझता हूं तो मढियों में गूंजते शंख, खेत में गाता किसान, रेत रमती चिड़कलियां, व जूनी जाल़ों में कलरव करते पक्षियों के आल्हादित करने वाले स्वर की अनुगूंज सुनाई देती है।
इनकी कविताओं में कोई छद्म संदेश नहीं है अपितु जो कुछ भी है, वो खुला है, और वो यह है कि मिनख और मिनखपणै को कैसे जिंदा रखा जाए? मिनखपणै को बचाए रखने की मुहिम चलाकर आजकी पीढ़ी में किसी ने संवेदना जगाने की खेचल की है तो उनमें आईजी का नाम राजस्थान के संदर्भ में सर्वोपरि है। आईजी की कविताओं में जनभावनाओं को जिस प्रकार अभिव्यंजित किया गया है वो वरेण्य है।
कोई भी आईजी से बतौर पाठक या श्रोता जुड़ता है तो फिर वो उनकी अनौपचारिक अदा का कायल हो जाता है। आईजी से हथाई की तो बातों की तारतम्यता बनती ही चली गई। आईजी तथाकथित आधुनिकता की अंधी दौड़ में ‘अंधल़गोटा’ नहीं खेलते और न ही कागजी प्रगतिशीलता का चश्मा धारण करते हैं। आईजी तो इस युक्ति में संलग्न है कि मानवीय संबंधों को सुदृढ़िकरण करने वाली परंपराओं को किस प्रकार जिंदा रखा जाए? इस हेतु अनुभव के आलोक को लोक के लेखे समर्पित करने में आपको आनंदानुभूति होती है। मैं आईजी में आधुनिकता व परंपरा का समावेश देखता हूं।
आप मुझे ही नहीं अपितु अन्य प्रियजनों को भी कहते रहते हैं कि जबतक रचनाओं में बोधगम्यता नहीं होगी तबतक वास्तविक रम्यता नहीं आ सकती। आईजी सर्वप्रिय ही इसलिए है कि आप आम जन के मनोभावों को मुखरता प्रदान करने का कौशल रखते हैं।
मैंने भाटीजी को पढ़ा तो पाया कि आप शुद्धरूप से राजस्थान की तासीर के हिमायती हैं तभी तो इनकी एक-एक कृति में मध्यकालीन नर-नाहरों के उदात चरित्र की चंद्रिका चर्तुदिक चमकती हुई दिखाई देती है। इसकी आभा में यहां की नारियों का सौंदर्य नहीं अपितु शौर्य दमकता है। अनाम उत्सर्ग की भावना से जो परहितार्थ मृत्यु पथ के राही बने, लोक उन्हीं को जात पांत से ऊपर उठकर अपना नायक अंगीकार करते हैं। यही बात दृढता से आपने आजकी पीढ़ी को बताने में कोई कसर नहीं रखी।
आईजी की इन कथाओं में मानवता की महक, सनातनी संबंधों की सुवास, आस्था का उजास, नीति निर्देशन, अद्भुत उदारता, स्वाभिमान, त्याग से अनुराग, व मातृभूमि के लिए मरने को उत्साहित वीरों की खनकती खागों की अनुगूंज सुनाई देती है। भावी पीढी को इस पुस्तक के माध्यम से अपने पूर्वजों की जीवटता, सहनशीलता, संवेदनशीलता, साहस दृढता व कष्ट साध्य जीवन को हंसकर कैसे जीया जाए? की बेमिसाल सीख के साथ सुभग संदेश देने का साफल्य मंडित प्रयास हुआ है।
अगर औपचारिकता से कहूं तो आजकी तारीख में आईजी मेरे अग्रज, साहित्यिक संरक्षक तथा मार्गदर्शक हैं अथवा अनौपचारिकता से कहूं तो मेरे वे सब घरेलु संबंध इनसे हैं जो आज एक अग्रज कौटुम्बिक सदस्य से होते हैं। मैं समय-समय पर इनसे साधिकार वो सब अर्जन करता रहता हूं जिसकी मुझे तात्कालिक आवश्यकता होती हैं।
मुझे इस बात पर अंजस भी है कि आईजी मुझे अनवरत निश्छल स्नेह इस तर्ज पर नहीं दे रहें हैं कि- “तुम मुझे गोडफादर कहो, मैं तुम्हें जीनियस!”(रामदेव आचार्य) बल्कि इसलिए देते हैं —
प्रीत पुराणी नह पड़ै, जे उत्तम सूं लग्ग।
सौ वरसां जल़ में रहे, तोई, पत्थरी तजै न अग्ग।।
~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी
प्राचीन राजस्थानी साहित्य संग्रह संस्थान
दासोड़ी बीकानेर।