प्रेमहि के नहिं जाति रु पांतिहु – चाळकदान रतनू ‘मोड़ी चारणान’
प्रेमहि के नहिं जाति रु पांतिहु, प्रेमहि के दिन राति न पेखो।
प्रेमहि के नहिं जंत्र रु मंत्रपि, प्रेमहि के नहिं तंत्र परेखो।
प्रेमहि के नहिं रंग रु रूपहि, प्रेम के रंक न भूप नरेखो।
प्रेमहि को अद्भुत्त प्रकार स लोह रु पारस सों लख लेखो।।
प्रेमहि हानि रु लाभ न पेखत, प्रेमहि के नहिं नेम प्रमांनूं।
प्रेमिनु प्रेमि सदीवहि पीवहि, प्रेमहि जीवन षेम पिछांनूं।
प्रेम सदझ्झर लग्गिय प्रेम, मदझ्झर कुंजर ज्यूं मसतानूं।
आद जुगाद अखंड अनूपम, प्रेम सरूप प्रचंड प्रधानूं।।
चुंबक पाहन जित्त चले, तित लोह किरच्च फिरे लटरे।
धूम धिके जिम अंबर धूंतिम, घ्रान दिसांन सुगंध घिरे।
पुंगिय धुन्नि फिरे जिम फेरहि, फन्निय की फन तित्त फिरे।
दौरत यूं मन प्रेमि दिसा यह, प्रेम नूं नेम इसो प्रबरे।।
~~चाळकदान रतनू ‘मोड़ी चारणान’ कृत प्रेम रत्नाकर ग्रंथ (अप्रकाशित) से
(“शक्तिसुत” द्वारा प्रेषित)