राण मिल़ै किम राजसी?

राण मिल़ै किम राजसी?‘ आ एक ऐतिहासिक छप्पय री छूटती झड़ है। इण छप्पय रै रचणहार कवि रै रूप में भूलवश किणी कम्माजी आसिया तो किणी कम्मजी दधवाड़िया तो किणी भल़ै कीं लिखियो है पण दरअसल इण छप्पय रा रचणहार कवि कम्माजी नाई हा।

कम्माजी ‘जिल्या चारणवास’ रा रैवणवाल़ा हा। ‘जिल्या चारणवास’ कुचामण रै पाखती आयो थको रतनू चारणां री जागीर रो गांम हो।

ठावकै मिनखां री बस्ती हो जिल्या चारणवास। अठै रतनुवां रो सम्मान पाखती रा राजपूत सिरदार घणो राखता। राखण रो कारण ई हो कै अठै रा मिनख अर्थ अर विद्या दोनां में मोतबर हा। अठा रा ठाकुर जवाहरदानजी नै कुचामण ठाकुर केशरीसिंहजी ऊभा हुयर हाथ मिलावता अर सोने री कल़ी वाल़ो होको पावता। केशरसिंहजी रै विषय में शंकरदानजी सामोर लिखै-

सोसा ज्यूं रणजीत सुत, सिवै बियै समराथ।
कल़ाधर केहर कमंध, नमो कुचामण नाथ।।

आं जवाहरदानजी री कुचामण में हुंडी चालती। खैर..

बात कम्माजी नाई री करतो। उण दिनां जागीर प्रथा ही सो कम्माजी रतनुवां रा घरेलू नाई हा। कवियां में उठणो-बैठणो सो कम्माजी ई नामी कवि बणग्या। उण बखत रो डिंगल़ साहित्य पढां तो चारणां रै गांमां में रैवण वाल़ा दूजी जात रै केई डिंगल कवियां रा नाम मिलै जिणां री कवितावां नामी अर ठसक वाल़ी है। इणी कवियां मांय सूं ई एक प्रमुख है कम्माजी। कम्माजी रो ओ छप्पय नीं बल्कि भल़ै ई फुटकर कवितावां मिलै। उणां समकालीन भोपाल़दानजी खिड़िया खराड़ी दिल्ली में एक मतवाल़ै हाथी रो कटार सूं मस्तक चीर दियो। उण चित्रण ई आप टकशाली आखरां में कियो है-

वरन रै छात चाडी वडम, चक्रवतिया चहु चकरां।
भूपाल़ कटारी गज कमल़, भली लगाड़ी ठकरां।।

पण आ बात उण दिनां री है जिण दिनां उदयपुर महाराणा राजसिंहजी रूपनगर रै राजा रूपसिंहजी री कंवरी चारुमति सूं ब्याव कियो। इणी कंवरी री सुंदरता री बातां सुणर ओरंगजेब ई इणनै परणीजणो चावतो पण स्वाभिमानी कंवरी महाराणा नै कागज लिखियो अर स्वाभिमान बचावण री अरज करी। इणी बात सारू महाराणा इण कंवरी नै परणी। आ बात सुण’र ओरंगजेब महाराणा माथै रूठो। घणा खेटा किया। एकै कानी विध-विध सूं तंग किया तो दूजै कानी छानै-मानै संधि रो प्रस्ताव राखियो। उथपयोड़ां महाराणा मन माडै इण बात नै मानी। चूंकि प्रताप री तीन पीढी मुगलां सूं बराबर टक्कर लेती रैयी पण महाराणा राजसिंहजी तक आवतां गाढ कीं पतल़ो पड़ग्यो हो सो महाराणा संधि री बात अंगेजर मेवाड़ सूं मालपुरा(आमेर) तक पूग गया। मालपुरा रै बंब तल़ाब माथै राणाजी रा डेरा हुया। उण दिनां मालपुरो धनिकां री बस्ती अर ठावको कस्बो। लोक में कैताणो चावो है-

बंब तल़ाव बिच में छतरी।
मालपुरो मथुरा नगरी।

इणी बखत में कम्माजी नाई ‘जिल्या चारणवास’ सूं निमूकै मीसणां रै अठै बधावणो लेयर जावै हा। बधावणो ओ हो कै किणी रतनू री बाई रै बेटो हुयो। सो वै उण बाई रै सासरै निमूकै (मीसणां रो एक गांम) मीसणां रै अठै जावै हा। बिच में मालपुरा रै बंब तल़ाब माथै डेरा देखिया तो पूछियो कै- “ऐ डेरा किणरा है? अर अठै कीकर?”

जणै किणी बतायो कै ऐ डेरा उदयपुर नाथ रा है अर आगै ओरंगजेब सूं दिल्ली मिलण री त्यारी है। आ सुणतां कम्माजी नै आपरा गाभा खावण लागा। हिंदवा सूरज ! अर पातसाह सूं सामैपगै मिलण जावै ! इणसूं अजोगती बात कांई हुवैला? आ सोच’र उणां कह्यो कै- “म्हनै दरबार सूं मिलण सूं तो बडी मेहरबानी हुसी।” एक साधारण आदमी री बात माथै किणी गिनर नीं करी। पण कम्माजी हेठी नीं न्हांखी। उणां तेवड़ली कै राणाजी नै जनभावना सूं अवस अवगत करावूंलो। आ तेवड़’र वै तल़ाई रै पायताण में मारग माथै आए एक मोटै बड़लै रै सिखरियै डाल़ै चढ’र बैठग्या। ज्यूं ई राणाजी सवारी उठीकर निकल़ी रयी ही अर त्यूं ई उणां एक उरकी(रुका) हाथी री अंबाड़ी में न्हांखी।

उरकी में लिखियो हो-

प्राची ऊगै भाण, गंग-जमन सुल़टी बहै।
उल़ट्या न धर असमाण, राण दिल्ली कीकर नमै?
अर्थात सूरज अजै ई अगूणो(पूर्व) ऊगै। गंगा अर जमना अजै ई आपरै सागी मारग बैवै तो धरती अर आसमान ई उलट्या नीं है तो पछै महाराणा आपरी अनमीपणै री मरजादा तज’र आज दिल्ली कीकर जावै?

आगै लिखियो –

अजों सूर ऊगवै,
अजों प्राजल़ै हुतासण।
अजों गंग खल़हल़ै,
अजों साबत इंद्रासण।
अजों सुमेर इडग्ग,
अजों फल़ फूल धरत्ती।
अजों नाथ गोरख,
अजों अहमात सगत्ती।
हीलोहल़ पवन्न धू इडग,
वेद धरम वाणारसी।
(तो)पतसाह हूंत चीत्तोड़पत,
राण मिल़ै किम राजसी।।

राणाजी फट उरकी लेय’र पढी। पढतां ई पगां रै घटिया बंधग्या। एक-एक आखर उणांरै काल़जै उतरतो जावै हो। उवै कणै ई उरकी नै देखै हा तो कणै ई उरकी न्हांखणियै उण निडर मिनख नै जिको राणै राजसिंह रै गुरज री गिनर नीं कर’र फखत मेवाड़ रै मरट नै रुखाल़ण रै जतनां में मोत अंगेजतो चल-विचल़ नीं हुयो। सवारी रोकाय’र कम्माजी नै आदेश दियो कै “नीचो आव रो!” आदेश सुणतां ई कम्माजी री थरणा कांपग्या। उण सुण राख्यो कै महारणा बलाय रा बटका है! रीस आयां पछै निज री ओलाद अर चारणां नै ई नीं बगसिया पछै हूं, हूं ई कांई? उणां कह्यो – “प्रिथीनाथ! गाय ही अर रतन गिटियो परो! माफी दिरावो!”

“थारो कोई गुन्हो नीं तैं म्हारी चूंध खोल दी। नीचो आव अर बता कै तूं है कुण ? कठै रो चारण है ?” महाराणा कह्यो तो कम्माजी नीचै आय मुजरो करता बोल्या- “खमा हुकम! हूं चारण नीं बल्कि चारणां रो नाई हूं। जिल्या चारणवास रा रतनू म्हारा धणी अर इण चाकर नै कम्मियो कैवै। आगै निमूकै बधावणो लेय’र जाऊं।”

“वाह! रै कम्मा वाह!!” कैय’र महाराणा आपरै सिरदारां सूं सलाहसूत करी। सिरदारां कह्यो हुकम! अजै तो आ बात फखत चारणां रै नाई ज कैयी है ! चारण तो अजै बाकी है ! कांई ठा वै इण पेटे कांई-कांई कैवैला?

जणै उणां सलाह पूछी कै- “तो आगै कांई करणो चाहीजै?” जणै सिरदारां कह्यो कै- “हुकम ! मालपुरो लूट लैणो चाहीजै। इणसूं आमेर नै ई सबक मिल जासी अर साथै री साथै आ ईज कैवांला कै म्हें तो मालपुरो लूटण ई आया हा। दूजो कोई विचार नीं हो।” आ सलाह महाराणा जची। सिरदारां नै आदेश हुयो कै मालपुरो लूट लियो जावै। आ सुण’र फौज रै मोटै सिरदारां धणियाप-धणियाप र दुकानां लूटी। इण सेना में खेमकरणजी दधवाड़िया ई भेल़ा हा। इण लूट पछै उणां किणी मोतीसर कवि नै भेंट सरूप घणी दातारगी करी। जणै उण कवि कह्यो-

सोवन पाथ सतोल, धन खीमा दधवाड़िया।
मालपुरा रो मोल, मोनूं दीधो मालउत।।

बात चालै कै जद मालपुरा री दुकानां अर घर लूटण सारू सिरदार मतोमती धणियापै हा उण बखत देवगढ रावजी आपरै डेरे में आराम करै हा। जद उणां नै इण बात री ठाह लागी तो वै ई धणियापण सारू उठिया पण जितरै सगल़ी मोतबर वाणियां री गवाड़िया़ं थूथकारीजगी। फखत एक थाकोड़ै वाणियै रो एक घर बाकी हो। रावजी उणनै पूछियो कै- “सेठां थे नचींता बैठा हो लूटणियां धणियापिया नीं कांई?” जणै उण कह्यो “हुकम! म्हारै कनै है कांई? जिको कोई धणियापै!” आ सुण’र रावजी सोचियो कै चलो जावतै चोर रा झींटा ई ठीक है ! आपां लूटसां इणनै। वाणियै रै घर रो अर धरती रै पेटे रो कोइ थाग नीं है। आ तेवड़’र वै उण रै घर में बड़िया। एक छोटी ओरड़ी रै कंवाड़ रै भचीड़ देय मांयां बड़िया तो देखता रैयग्या। ई ओरड़ी में इतरी माया!उणांरी आंख्यां फाटगी! वै देखण लागा अर आपरै मिनखां नै ऊठां माथै धन लदावण लागा। कह्यो जावै कै छवूं ऊंठ़ां माथै वो धन हालियो। धन घलावती बखत रावजी नै उण ओरड़ी में एक रुको निगै आयो जिणमें लिखियो हो कै- “इण आसामी नै पांचसौ रुपिया दे दिया जावै। दसकत-देवगढ रावजी।” ओ रुको देख’र रावजी उण वाणिये नै पूछियो कै- “ओ रुको अठै कीकर? अर ओ आदमी कुण है बता? जिणनै म्हैं रुपिया देवण रो कह्यो!

जद वाणिये कह्यो- “बापजी ! म्हनै कीं ठाह नीं है कै ओ रुको किणरो है।” जणै पाखती ऊभी उणरी जोड़ायत बोली- “हुकम !आ बात म्हैं आपनै अरज करू़ं। बात आ है कै म्हारी एक नणद केकड़ी रै पाखती गांम सुंवारिये परणायोड़ी ही। उणरै दो बेटा हुया। उणरै घणी नादारगी ही सो जोग सूं दोनां रो ब्याव नीं हुयो। सेवट एक रै सारू किणी गिनायत हंकारो दियो अर रीत रा रुपिया पांचसौ मांगिया। पण उणांरै कनै तो पांच रुपिया हा नीं, जणै उवो अठै आपरै मामा कनै आयो। पण मामो तो ऐड़ो कै चमड़ी जाय पण दमड़ी नीं जावै। जणै म्हैं उणनै धीजो दियो कै थारो मामो इण ओरड़ी री कूंची आपरी बगतरी रै बांध्योड़ी राखै। जद ओ प्रभात रो दिशा जावैला उण बखत म्हैं तनै छानै रुपिया दे दूंला। पण जद म्हैं इयां करियो अर ओरड़ी में बड़ी तो एक नाग फूंफाड़ो करियो जको म्हारै सूं पार नीं पड़ी। नाणदो दुखियारो आपरै गांम गयो परो। पण म्हनै एक रात सुपनो आयो। सुपनै में आवाज आई कै ऐ रुपिया देवगढ रावजी रा है सो कोई उणां सूं लिखा लावै तो भलांई दे सकै। ई सुपनै री बात रा समाचार म्हैं नाणदै नै कैवाया अर लिखाय’र लावण रो कह्यो। उण म्हैं कह्यो ज्यूं ईज करियो अर पूछत़ो-पूछतो देवगढ पूगो। आपरै हाजर हुय’र कह्यो कै- म्हनै पांच सौ रुपिया दिरावो! पण इया़ं आप कांई? कोई नीं दे। आप इणनै फटकार्यो अर कह्यो कै- गैलसफा इया़ं रुपिया कुण देवै? सेवट वो आपरै पगा़ं पड़ग्यो लटापोरै करी अर कह्यो कै रुपिया नीं दो तो कोई बात नीं पण आप इयां लिखर दे दो कै इण आदमी नै पांच सौ रुपिया दे दिया जावै। एक’र तो आप ई हंसिया पण पछै आप कह्यो कै लिखदो रे!, इयां लिखणै सूं कुण भूत रुपिया देवै?” जद वो उवो रुको लेय’र अठै आयो तो म्हैं म्हारै धणी सूं छानै वो रुको इण ओरड़ी में म्हैं न्हांखियो अर डरती-डरती बड़ी तो उण नाग कोई फुंफाड़ो नीं करियो अर नीं म्हनै दीसियो।”

आ बात सुणतां ई रावजी कह्यो- “ओ हो ! तो उवो गैलो नीं हो ! ठीक-ठीक उवो रुको इण खातर लिखाय’र लायो। इणी खातर कह्यो गयो है कै माया सिरोल़ी हुवै। कुण कमावै अर कुण खावै? कोई ठाह नीं है।

रावजी ऊंठां लदाय धन लेयग्या।

खैर..

कम्मजी रा अंजसजोग आखर आज ई अमर है।

~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी

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