रघुवरजसप्रकास [5] – किसनाजी आढ़ा
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अथ गाथा उदाहरण
गिरिस गिरा गौ गौरी, हर गिर हिम हंस हास सिस हीरा।
सुसरि सेस सुरेसं ए, स्रीरांम क्रत आरख्यं।।१३०
अथ गाथा गुण दोस कथन
छंद बेअखरी
निज आखै किव ‘किसन’ निरूपण, सुणौ गाहा गुण दोस सुलछण।
सात चतुरकळ अंत गुरु सज्ज, देह छठे थळ जगण तथा दुज।।१३१
बांधव पूरब अरध एण बिध, यम हिज जांण जगण उत्तरारध।
काय छठे थळ यक लघु कीजै, दुसट विखम थळ जगण न दीजै।।१३२
मत्त सतावन स्रब गाथा मह, कळातीस पूरबा अरध कह।
वीस सात कळ उतर अरध विच, रेणव अेम छंद गाथौं रच।।१३३
पाय प्रथम पढ़ हंस गमण पर, कह गत दुवै पाय विध केहर।
गज गत तीजै पाय गुणीजै, औण चवथ गथ सरप अखीजै।।१३४
एक जगण जिण मांहे आवै, कुळवंती सौ गाहा कहावै।
बे जगण परकीया बखांणौ, जगण घणा तिण गनका जांणौ।।१३५
जगण विनां सौ रांड गणीजै, किणी मांझ सौ गाहा न कीजै।
१३२. एण-इस। यम-ऐसे। हिज-ही। यक-एक।
१३३. मत्त-मात्रा। मह-में। रेणव-कवि। गाथौ-गाथा।
१३४. पाय-चरण। विध-विधि। औण-चरण। चवथ-चतुर्थ।
१३५. मांहे-में। गाह-गाथा, गाहा।
नोट-गाहा छंद में जगण ISI गण आना अनिवार्य माना गया है। जिस गाथा छंद में एक जगण होता है उस गाहा छंद को कुलवंती गाथा कहते हैं। जिस गाथा छंद में दो जगण हों उसको परकीया गाथा कहते हैं। जिस गाथा छंद में जगण अधिक आ जाते हैं उसे गणिका गाथा कहते हैं। जिस गाथा छंद में जगण न हो उसे विधवा गाथा कहेंगे।
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विप्री तेरह लघुव दीजै, लघु यकवीस खित्रणी लीजै।।१३६
सतावीस लघु वैसी सोई, है लघु अधिक सुद्रणी होई।
बिण अनुसार अंध का वाचत, सुज अनुसार एक कांणी सत।।१३७
ब्यंदु दोय सुनयणा बिसेखौ, बहु अनुसार मनहरा बेखौ।
विण सकार पदमणी विसेखत, एक सकार चित्रणी ओपत।।१३८
च्यार सकार हसतणी चावी, बहु सकार संखणी बतावी।
गण बोह करण जिका बाळा गण, मुगधा करतळ घणा तिका मुण।।१३९
भगण बहुत सौ प्रौढ़ा भंणजै, गण बोह विप्र वरध का गिणजै।
१३७. गाथा छंद में अनुस्वार आना जरूरी माना गया है। जिस गाथा छंद में अनुस्वार न हो उसकी संज्ञा अंध मानी गई है। जिस गाथा छंद में एक ही अनुस्वार होता है उसे एकाक्षी कहते हैं। इसी प्रकार जिस गाथा छंद में दो अनुस्वार आते हैं उसको सुनयणा कहते हैं और जिसमें अनुस्वारों की बाहुल्यता होती है उसे मनोहरा गाथा कहते हैं।
१३८. जिस प्रकार गाथा छंद में अनुस्वार लेना ठीक माना गया है ठीक उसके विपरीत सकार अक्षर का न प्रयोग करना ही सुंदर गिना जाता है। जिस गाथा छंद में सकार नहीं होता है उसकी संज्ञा पद्मिनी मानी गई है। जिसमें एक भी सकार आ जाय उसे चित्रणी, जिसमें चार सकार आ जाय उसे हस्तिनी तथा सकार-बाहुल्या गाथा को शंखणी कहते हैं।
१३९. गण-गाथा छंद में चार मात्रा के नाम को गण कहते हैं। ऐसे चतुष्कलात्मक सात गण और एक गुरु के विन्यास से गाथा छंद का पूर्वार्द्ध बनता है। वे चतुष्कलात्मक पांच गण निम्न प्रकार के होते हैं-
प्रथम गण-(SS) चार मात्रा का। इसका दूसरा नाम कर्ण भी है।
द्वितीय गण-(IIS) चार मात्रा। इसका दूसरा नाम करतळ या करताळ भी है।
तृतीय गण-(ISI) चार मात्रा। इसका दूसरा नाम पयहर, पयोहर, पयोधर भी है।
चतुर्थ गण-(SII) चार मात्रा। इसका दूसरा नाम वसु, पय भी है।
जिस गाथा में दो दीर्घ मात्रा का करण (कर्ण) गण बहुत आता हो उसे बाला गाथा कहते हैं तथा जिस गाथा में करतळ या करताळ का [IIS प्रथम दो हृस्व मात्रा तथा एक दीर्घ मात्रा कुल चार मात्रा के समूह का] प्रयोग बहुत हो उसे मुग्धा कहते हैं। जिस गाथा छंद में भगण का [प्रथम दीर्घ फिर दो हृस्व के चार मात्रा के समूह का] प्रयोग बहुत हो उसे प्रौढ़ा कहा गया है। ठीक इसी प्रकार जिस गाथा छंद में विप्र का [दुज-द्विज, चार मात्रा के ही समूह का] प्रयोग बहुत हो उसे वरधका [वृद्धा] गाथा कहा जाता है।
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कका दोय मझ गौरी कहीयै, चंपा अंगीक केहि कच हीयै।।१४०।।
भीना अंगी तीन कके भण, तव बौह ककां नांम काळी तण।
भ्रांमी वसत्र सेत तन भासत, वसन लाल खित्रणी सुवासत।।१४१
पीत दुकूळ वैसणी पहरण, गाह सुद्रणी स्यांम वसन गण।
गौरे वरण विप्रणी गाहा, चंपक वरण खित्रणी चाहा।।१४२
भीनै रंग वैसणी सुभायक, लख सुद्रणी स्यांम रंग लायक।
मुगता भूखण विप्री मोहत, सुज खित्रिणि हिम भूखण सोहत।।१४३
रूपा भरण वैसणी राजत, सुद्रणि पीतळ भूखण साजत।
ऊजळ तिलक विप्रणी ओपत, तिलक सुद्रणी लाल ओपत।।१४४
पीळौ तिलक वैसणी परगट, रूच सुद्रणी स्यांम टीलौ रट।
गाहा तणौ छंद कुळ गायौ, वेद पिता कवि जणां बतायौ।।१४५
सरस भाख माता सुरसत्ती, उप राजक भ्रहमांण उकती।
स्रवण नखित्र मझ जनम तास सुण, कहियौं सरब गाह चौकारण।
गाथा नांम छवीस गिणावै, ग्रंथ अनेक वडा कवि गावै।।१४६
१४१. सेत-स्वेत। खित्रणी-क्षत्रिया।
१४२. पीत-पीला। दुकूळ-वस्त्र। वैसणी-वैश्य (स्त्री)। सुद्रणी-शुद्रा। वसन-वस्त्र।
१४३. विप्री-विप्रा। खित्रिणि-क्षत्रिया। हिम-सोना।
१४४. वैसणी-वैश्य (स्त्री)। राजत-शोभा देती है। विप्रणी-ब्राह्मणी। ओपत-शोभा देती है।
१४५. टीलौ-तिलक।
१४६. भाख-भाषा। उकती-उक्ति। नखित्र-नक्षत्र। मझ-(मध्य) में। तास-उस।
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अथ गाथा छंद छबीस नांम कथन
कवित छप्पै
लच्छी रिद्धी बुद्धी, लज्जा विद्या खंम्या।
लहदेवी गौरी धात्री, कविस चूरणा छाया।।
कह कांती मह माया, ईस कीरती सिद्धी।
मांणणि रांमा गाहेणि, वसंत सोभा हरणी।।
सुण चक्कवी, सारसी, कुररी चवी, सिंघी हंसी साखिए।
छावीस नांम गाथा छजै, भल राघव जस भाखिए।।१४७
अथ लछी नांम गाथा लछण
सतावीस गुरु त्रय लघू, लछी आखर तीस।
यक गुरु घट बे लघु वधै, सौ सौ नांम कवीस।।१४८
लछी गाथा उदाहरण
अख्यर ३० गुरु २७ लघु ३
तौ सारीखौ तं ही, जै जै स्री रांम जीपणा जंगां।
सीता वाळा स्वांमी, भूपाळां मौड़ हूं भांमी।।१४९
गाथा नांम रिद्धी
अख्यर ३० गुरु २६ लघु ४
रै झौका स्रीरांमं, तूं सातै ताळ वेधण तीरं।
थूरै दैतां थौका, दीनांचा नाथ जगदाता।।१५०
१४८. त्रय-तीन। यक-एक।
१४९. तौ-तेरे। सारीखौ-सदृश, समान। जीपणा-जीतने वाला। जंगां-युद्धों। मौड़-अवतंश। हूं-मैं। भांमी-वलैया लेता हूँ, न्यौछावर होता हूँ।
१५०. झौका-धन्य-धन्य। ताळ-ताड़, वृक्ष। थूरै-नाश करता है। दैतां-दैत्यों। थौका-समूह।
नोट-गाथा की संख्या का छप्पय मूल प्रति के अनुसार ही है किन्तु ठीक प्रतीत नहीं होता।
गाथाओं के २६ नाम-लच्छी, रिद्धी, बुद्धी, लज्जा, विद्या, खंम्या, देवी, गौरी, धात्री, चूरणा, छाया, कांती, महामाया, कीरती, सिद्धी, मांणणि, रामा, गाहेणि, वसंत, सोभा, हरणी, चक्कवी, सारसी, कुररी, सिंही, हंसी।
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गाथा नांम बुद्धी
अख्यर ३२ गुरु २५ लघु ७
जीहा राघौ जंपै, मोटौ छै भाग जेणरौ भूमं।
तोटौ ना’वै त्यांरै, केसौ पय सेव अधिकारी।।१५१
गाथा नांम लज्जा
अख्यर ३३ गुरु २४ लघु ९
की कहणौ कौसल्या, मोटौ तैं कीध पुन्य अै भ्रममं।
जै कूं खै खळ जेता, आखै जग रांम औतारं।।१५२
गाथा नांम विद्या
अख्यर ३४ गुरु २३ लघु ११
वेदां भेदां वेखौ, पेखौ दह आठ हेर पौरांणं।
राधौ नांम सरीखं, नह कौ नर देव नागिंद्रं।।१५३
गाथा नांम खंम्या
अख्यर ३५ गुरु २२ लघु १३
है कांनै मौताहळ, कर पूंची कंठमाळ पै संकळ।
राघौ नांम विहूंग, अनखांणौ ढोर आदम्मी।।१५४
गाथा नांम देवी
अख्यर ३६ गुरु २१ लघु १५
सुंदर स्यांम सरीरं, बाधौ कट रांम पीत पीतंबर।
काळे वादळ सूं कै, वीटांणी वीज वरसाळै।।१५५
१५२. मोटौ-महान। कीध-किया। पुन्य-पुण्य। भ्रममं-ब्रह्म, परब्रह्म। जै-जिस। कूंखै-कुक्षि। खळ-असुर, राक्षस। जेता-जीतने वाला। औतारं-अवतार।
१५३. वेखौ-देखिये, देखो। पेखौ-देखो। दह-दस। हेर-देख कर। पौराणं-पुराण। सरीखं-समान, सदृश। नागिंद्रं-(नागेन्द्र) नाग।
१५४. कांनै-कानों में। मौताहळ-मोती। कर-हाथ। पूंची-हाथ की कलाई का आभूषण विशेष। विहूंण-बिना, रहित। अनखांणौ-अन्न खाने वाला। ढोर-पशु।
१५५. कट-कटि, कमर। पीत-पीला। वीटांणी-वेष्टित हुई। वीज-बिजली। वरसाळै-वर्षा ऋतु में।
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गाथा नांम गौरी
अख्यर ३७ गुरु २० लघु १७
सज्झी न राघव सेवं, सेवा सौ जाय घरोघर साझै।
निज सिर हरी न ना’यौ, उण ना’यौ सीस जग अग्गां।।१५६
गाथा नांम धात्री
अख्यर ३८ गुरु १९ लघु १९
पढ़ सीतावर प्रांणी, जगचा तज आंन आळ जंजाळं।
उंबर अंजुळि आब, नहचै आ जांण थिर नांही।।१५७
गाथा नांम चूरणा
अख्यर ३९ गुरु १८ लघु २१
रिख सिख गंगा रांम, सेवै पद कंज मंजु सीतावर।
सौ राघौ पै ‘किसना’, चींतव निस दिवस उर चंगा।।१५८
गाथा नांम छाया
अख्यर ४० गुरु १७ लघु २३
रट रट स्री रघुरांम, दस-सिर जे तार तार के दीनं।
करुण ऊदध कर कंजं, सीतावर संत साधारं।।१५९
गाथा नांम कांती
अख्यर ४१ गुरु १६ लघु २५
अजामेळ यक वारं, आखे अणजांण नारायण।
जांण आंण जम हरिजन, जुड़ियौ नह मग्गा घर जेणं।।१६०
१५७. आंन-अन्य। आळ-असत्य, झूठ। जंजाळ-प्रपंच। उंबर-उम्र, आयु। आाब-पानी। नहचै-निश्चय। थिर-स्थिर।
१५८. कंज-कमल। मंजु-सुंदर। चींतव-स्मरण कर। चंगा-श्रेष्ठ, उत्तम, स्वस्थ।
१६०. यक-एक। वारं-समय। आखे-कहा। अणजांण-अज्ञानावस्था। जुड़ियौ-प्राप्त हुआ। मग्गा-मार्ग। जेणं-जिस।
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गाथा नांम महामाया
अख्यर ४२ गुरु १५ लघु २७
आळस न कर अजांणं, निज मन कर हरख भजन रघुनाथं।
सुपन रूप संसारं, विण संतां देहनां वारं।।१६१
गाथा नांम कीरती
अख्यर ४३ गुरु १४ लघु २९
कमळनायण कमळाकर, कमळा प्रांणेस कमळकर केसौ।
तन कमळ भातेसं, जे मुख च्यार कमळभू जं पै।।१६२
गाथा नांम सिद्धो
अख्यर ४४ गुरु १३ लघु ३१
रिखय मख कर रखवाळं, तारी रिख घरण चरण रज हूंता।
राख जनक पण रघुबर, भागौ कोदंड भूतेसं।।१६३
गाथा नांम मांगणी
अख्यर ४५ गुरु १२ लघु ३३
जिण दिन रघुबर जंपै, सुकिया अरथ दिवस सोय नर संभळ।
दखै न राघव जिण दिन, जांणे सोय आळजंजाळं।।१६४
गाथा नांम रांमा
अख्यर ४६ गुरु ११ लघु ३५
निज कुळ कमळ दिनेसं, चवि सुर गण नखत जांण तिण चंदं।
मुनि बन रखण म्रगाधिपं, रघुबर अवतं (स) राजेसं।।१६५
१६२. कमळाकर-विष्णु। कमळा-लक्ष्मी। प्रांणेस-पति। कमळभू-ब्रह्मा।
१६३. रिखय-ऋषि। मख-यज्ञ। रखवाळं-रक्षा। घरण-स्त्री, पत्नी। हूंता-से। पण-प्रण। कोदंड-धनुष। भूतेसं-महादेव।
१६४. जंपै-जपता है, स्मरण करता है। सुकियाअरथ-सफल। दिवस-दिन। सोय-वह। संभळ-समझ। दखै-कहता है। आाळजंजाळ-व्यर्थ।
१६५. दिनेसं-सूर्य। चवि-कह कर। नखत-नक्षत्र। म्रगाधिपं-मृगेन्द्र, सिंह। अवतं (स)-शिरोमणि। राजेसं-सम्राट।
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गाथा नांम गाहेणी
अख्यर ४७ गुरु १० लघु ३७
असमझ समझ अखीजै, तौ पण हरि नांम अवस जन तारत।
जिम परसत अजांणं, दगधत तन समथ्थ दावानळं।।१६६
गाथा नांम वसंत
अख्यर ४८ गुरु ९ लघु ३९
रघुबर सौ प्रभु तज कर औयण जे अवर अमर अभियासत।
त्रखित सुरसुरी तीरह, खिती कूंप खणत नर मूरख।।१६७
गाथा नांम सोभा
अख्यर ४९ गुरु ८ लघु ४१
अघ हर सुख कर अमळं, रट रट जस अघट भाग धन रघुबर।
गावण जिण फळ गहरं, बगै बलमी करिख बिसुधा।।१६८
गाथा नांम हरिणी
अख्यर ५० गुरु ७ लघु ४३
नित जप जप जगनायक, वायक सत कहण सुजस कमळावर।
सुकरत करण सदीवत, सोहत अै करत सत पुरसं।।१६९
गाथा नांम चक्कवी
अख्यर ५१ गुरु ६ लघु ४५
अह मत तज भज ईसर, करणाकर सधर सु तन दसरथ कौ।
यक छिन तन ऊधारण, रत कर चित्त चरण रघुबर रे।।१७०
१६७. सौ-जैसा। प्रभु-प्रभु, ईश्वर। औयण-चरण। अभियासत-अभ्यास करते हैं, स्मरण करते हैं। त्रखित-त्रषित, प्यासा। सुरसुरी-गंगा नदी। तीरह-तट। खिती-पृथ्वी। खणत-खोदता है।
१६८. अमळं-पवित्र। गहरं-गंभीर। बलमी-बलमीकि, बांबी। करिख-कर्षण कर। बिसुधा-पृथ्वी।
१६९. कमळावर-कमलापति, विष्णु। सुकरत-श्रेष्ठ कार्य, सुकृत्य। सदीवत-सदैव, नित्य। १७० अह-अभिमान, गर्व। मत-बुद्धि। करणाकर-करुणाकर, दयालु। यक-एक। छिन-क्षण।
— 81 —
गाथा नांम सारसी
अख्यर ५२ गुरु ५ लघु ४७
जन लज रखण जरूरह,
दसरथ सुत सकळ सुजन सुखदायक।
सिरदस घायक समहर,
सत वायक रांम सरसत सुभ।।१७१
गाथा नांम कुररी
अख्यर ५३ गुरु ४ लघु ४९
भुज-बळ खळ-दळ भंजण,
निज जन सुख करण सरण राखण नित।
कहत वरण कथ जग कर,
आपण दत लंक चित अपहड़।।१७२
गाथा नांम सिंघी
अख्यर ५४ गुरु ३ लघु ५१
असन वसन जळ अहनिस,
मत कर मन फिकर समर महमाहण।
पोखण भरण दिवस प्रत,
निज जन फिकर चित्त रघुनायक।।१७३
गाथा नांम हंसी
अख्यर ५५ गुरु २ लघु ५३
जगत जनक हरि जय जय,
भय जांमण मरण हरण कर निरभय।
‘किसन’ सुकव सिर धर कर,
रखण चरण सरण रघुनायक।।। १७४
दूहौ
विध यण गाथा वरणिया, सुजस रांम कथ सार।
विध कोई चूकौ वरणतां, सत किव पढ़ौ सुधार।।१७५
१७२. आपण-देने वाला। दत-दान। लंक-लंका। अपहड़-उदार।
१७३. असन-भोजन। वसन-वस्त्र। अहनिस-रात दिन। महमाहण-विष्णु, ईश्वर। दिवस-दिन। प्रत-प्रति।
१७४. जांमण-जन्म। हरण-मिटाने वाला।
१७५ विध-विधि। यण-इस। किव-कवि।
— 82 —
अथ गाहा १ गाहू २ विगाहा ३ उगाहा ४ गाहेणी ५ सीहणो ६ खंधांणा ७। विचार लछण वरणण।
गाहा विगाहा लछण
छंद बेअख्यरी
गाहा१ मात्र सतावन गावै, गाहौ२ उलट विगाह गिणावै।
चौपन मत गाहू३ उचरीजै, उगाहौ४ मत्त साठ अखीजै।।१७६
गाहेणी५ बासठ मत गावत, कियां उलट सीहणी६ कहावत।
चौसठ मत खंधांण७ चवीजै, कळ विभाग यां पद-प्रत कीजै।।१७७
गाथा रै पद-प्रत मात्रा वरणण
आद बार मत दुवै अठारह, बार त्रतीय चव पनर विचारह।
विगाह पद-प्रत मात्रा
पद धुर बार दुवै पनरह पुण, तीयै बार अठार चवथ तिण।।१७८
गाहू पद-प्रत मात्रा
प्रथम बार मत्त पनर दुवै पद, वळ तिय बार पनर चौथै वद।
उगाहा पद-प्रत मात्रा प्रमांण
पहला बार अठार दुवै पढ़, तीजै बार अट्ठार चवथ द्रढ़।।१७९
१७७ मत-मात्रा। कहावत-कहा जाता है। चवीजै-कहिए। पदप्रत-प्रति पद, प्रति चरण।
१७८. पद-चरण। धुर-प्रथम। बार-बारह। दुवै-दूसरे। पुण-कह। तीयै-तृतीय। चवथ-चतुर्थ।
१७९. वळ-फिर। तिय-तृतीय।
— 83 —
गाहेणी पद-प्रत मात्रा
आद बार अट्ठार दुतीय अख, सुज तिय बार बीस चोथै सख।
सींहणी पद-प्रत मात्रा
बाद आद दूसरै वीस बळ, कह तिय बार अठार चवथ कळ।।१८०
खंधांणा पद-प्रत मात्रा
मात्र बतीस च्यार तुक मांही, दोय गुरु पद अंत दियांही।
निज किव किसन कियां यम निरणै, बड कवि सीय रांम जस वरणै।।१८१
अथ गाथा अथवा गाहा उदाहरण
महकुळ धिन पित मातं, सौ घर न धन्य सुरग पित्रेसुर।
सौ धन भवन सकाजं, बासै जै दास रघुबर कौ।।१८२
अथ विगाहौ उदाहरण
करणी धन कौसळ्या, उदरे जिण रांम औतारं।
भण दसरथ बडभागं, जिण घर सुत रामचंद्र जग जेता।।१८३
अथ गाहू उदाहरण
सुखदाता सरणायां, निज संतां जानुकी नायक।
दस सिर भंज दुबाहं, राहं जग क्रीत राजेस्वर।।१८४
अथ उगाहौ
तूं जौ चाहै तरबौ, जप मत मन आंन आळ जंजाळं।
नित जप राघव नांमं, तिण पाथर नाव उदध कपि तारे।।१८५
१८१. मात्र-मात्रा। मांही-में, अंदर। यम-इस प्रकार
१८२. धिन-धन्य। पित-पिता। मातं-माता। सुरग-स्वर्ग। धन-धन्य।
१८४. सरणायां-शरण में आया हुआ। दुबाहं-वीर।
१८५. तरबौ-तैरना, उद्धार करना। आंन-अन्य। आळ जंजाळं-व्यर्थ का प्रपंच। पाथर-पत्थर। उदध-उदधि, सागर। कपि-बंदर।
— 84 —
अथ गाहिणी
तन घणस्यांम तराजं, तड़िता छिब भात पीत पीतंबर।
सुकर बांण सारंगं, सीता अंग बांम रांम भज नृप सिध।।१८६
अथ सीहणी
आखर बखत उचारै, जीहवा धन रांम नांम रट झट जौ।
पोखणतौ भर पायौ, भोजन अढार भांतचौ भरणौ।।१८७
अथ खंधांणा
दीन करण प्रतपाळ दासरथ, भारत खळदळ सबळ बिभंजे।
धनख धरण तन बरण नीरधर, रघुबर जनक सुता मन रंजे।।१८८
सूंदर रूप अनूप स्यांमता, अंजण नयण मुनी रिख अंजे।
तीनकाळदरसी व्है ततपुर, गौरव कांम क्रोध अध गंजै।।१८९
अथ एकसूं लगाय छवीस तांई गाथा काढण विध
दूहौ
गाथारा लघु आखिर गिणि, जां मझ एक घटाय।
आध कियांसूं ऊबरै, सोई नांम सुभाय।।१९०
अरथ
हरेक गाथारा लघु आाखिर गिणणा ज्यांमें सूं पेली तौ एक अखिर घटाय देणौ, पछै बाकी रहै ज्यांने दोय भागमांसू एक भाग परौ काढ्यां बाकी रहै अखिर जतरमौ गाहौ छै, यूं जांणणौ।
१८७. आखर-आखिर, अंतिम। बखत-समय। जीहवा-जिव्हा, जीभ। पोखणतौ-पोषण करता हुआ।
१८८. दीन-गरीब। प्रतपाळ-पालन-पोषण। विभंजै-नाश किये। नीरधर-बादल। रंजे-प्रसन्न किया।
१८९. तीनकाळदरसी-त्रिकालदर्शी।
१९०. अखिर-अक्षर। जां-जिन। मझ-मध्य। आध-आधा। सोई-वही। ज्यां-जिन।
— 85 —
अथ गद्य छंद लछण विध
दूहौ
गद्य पद्य बे जगत में, जांण छंद की जात।
सम पद पद्य सराहजै, छूटक गद्य छ जात।।१९१
दवावैत फिर बात दख, जुगत वचनका जांण।
औछ अधक तुक असम अे, बीदग गद्य बखांण।।१९२
अथ दवावैत
माहाराजा दसरथ के घर रामचंद्र जनम लिया।
जिस दिन सै आसरू नै ऊदेग देवतूं नै हरख किया।
विसवामित्र मख-रख्या के काज अवधेस तैं जाच लिये।
माहाराजा दसरथ उसी बखत तईनाथ किये।
सात रोज निराहार एकासण सुनद्ध रहै।
रिखराजका जिगकी रछ्याकाज रजवाटका बिरद भुजदंडूं गहे।
सुबाहूकं बांण से छेद जमराज के भेट पुंहुंचाया।
मारीचके तांई वाय बांण से मार उडाया।
रज पायसे तारी गौतम की धरणी।
खंडपरसका कोदंड खंड कर जांनुकी परणी।
१९२. औछ-कम। अधक-अधिक। बीदग-विदग्ध, पंडित, कवि।
१९३. आसरू-असुर, राक्षस। ऊदेग-उद्वेग, चिंता। मख-रख्या-यज्ञकी रक्षा। जाच लिये-मांग लिये। तईनाथ-तैनात, किसी काम पर लगाया या नियुक्त किया हुआ। निराहार-बिना भोजन। एकासण-एक ही आसन या बैठक। सनद्ध-(संन्नद्ध) कटि-बद्ध। जिग-यज्ञ। रछ्या-रक्षा। रजवाट-क्षत्रियत्व, वीरता। बिरद-बिरुद। गहे-धारण किये। तांई-लिये। रज-धूलि। पाय-चरण। घरणी-स्त्री, पत्नी। खंड-परसका-खंडपरशु महादेवका। कोदंड-धनुष।
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अवधकूं आते दुजराजकूं सुद्ध भाव किया।
जननी से सलांम कर सपूती का बिरद लिया।
ऐसा स्री रामचंद्र सपूतूं का सिरमोड़।
अरोड़ का रोड़।
गौ विप्रूं का पाळ।
अरेसूं का काळ।
सरणायूं-साधार।
हाथका उदार, दिलका दरियाव।
रजवाटकी नाव।
भूपूं का भूप साजोत का रूप।
काळवाच का सबूत।
माहाराज दसरथ का सपूत।
भरथ लछमण सत्रुघण का बंधु।
करुणा का सिंधु। १९३
वचनका
हांजी ऐसा माहाराजा रांमचंद्र असरण-सरण।
अनाथ नाथ बिरदकूं धारै।
सौ ग्राहकू मार न्याय ही गजराज कूं तारे।
और भी नरसिंघ होय प्रवाड़ा जगजाहर किया।
हरणाकुस कूं मार प्रहलाद कूं उबार लिया।
प्रळै का दिन जांण संत देस उबारण कूं मच्छ देह धारी।
१९४. असरण-सरण-जिसे कोई शरण न देने वाला हो उसे भी शरण देने वाला। प्रवाड़ा-महान् कार्य, चमत्कारपूर्ण कृत्य। हरणाकुस-हिरण्यकशिपु। प्रळै-प्रलय, नाश। मच्छ-मत्स्यावतार।
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सतब्रत की भगती जगजाहर करी।
ऐसा स्रीरांमचंद्र करणानिध।
असरण-सरण न्याय ही वाजै।
जिसके तांई जेता बिरद दीजै जेता ही छाजै।।१९४
वारता
रांमचंद्र जिसा सिध रजपूत कोई वेळापुळ होवै छै।
ज्यांके प्रताप देव नर नाग खटब्रन सुख नींद सोवै छै।
राजनीत का निधांन सींह बकरी एक घाटै नीर पावै छै।
पंछी की पर बागां बाज दहसत खावै छै।
तप के प्रभाव पांणी पर सिला तरै छै।
भ्रगुपत सा त्रबंक ज्यांका बळ काढ़ सणंकसुधा करै छै।
बाळ दहकंधसा अरोड़ानूं रोड़ जमींदोज कीजै छै।
सुग्रीव भभीखण जिसा निरपखानूं केकंधा लंक दीजै छै।
जांका भाग धन्य जे रामगुण गावै छै।
जांमण मरण भय मेट अभैपद पावै छै।।१९५
दूहौ
असम चरण मात्रासु यम, कहीया छंद ‘किसन’।
राघव जस छंदां रहस, बुध सारीख. . . . . . . . . न।।१९६
इति मात्रा असम चरण छंद संपूरण।
१९५. जिसा-जैसा। सिध-सिद्ध, वीर। वेळा पुळ-समय, कभी। खटब्रन-षडवर्ण, ब्राह्मणादि छ जातिएँ विशेष। निधांन-खजाना। पर-पंख। बाज-शिकारी पक्षी विशेष। दहसत-भय, डर। सिला-पत्थर। भ्रगुपत-परशुराम। त्रबंक-विकट, बांकुरा अथवा त्र्यंबक, महादेव। बळ-गर्व। सणंकासुधा-बिलकुल सीधा। बाळ-बालि बंदर। दहकंध-दशकंधर, रावण। अरोड़ा-जबरदस्त। जमींदोज-जो गिर कर जमीन के बराबर हो गया हो, जमीन के अंदर। भभीखण-विभीषण। निरपखां-जिसका कोई पक्ष या सहायक न हो। केकंधा-(सं० किष्किंधा)-मैसूर के आसपास के देश का प्राचीन नाम। जांका-जिनके। जांमण-जन्म। अभैपद-मोक्ष।
१९६. यम-ऐसे। रहस-रहस्य, भेद।
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अथ मात्रा दंडक छंद वरणण
दूहौ
भगवत गीताऊ भणै, बीता अघ सरबेण।
सीता नायक संभरै, जन भीता नह जेण।।१९७
सोरठौ
पेट हेक कज पात, मेट सोच सांसौ म कर।
रे संभर दिन-रात, नांम विसंभर नारियण।।१९८
अथ मात्रा दंडक छंद लछण
दूहौ
बे छंदां मिळ छंद व्है, मात्रा दंडक सोय।
छप्पे कुंडळियौ कवित्त, फिर कूंडळिया होय।।१९९
अथ छप्पै लछण
दूहौ
कायब उल्लालौ मिळै, छप्पै तिण थळ होय।
ग्यार तेर मत च्यार पय, पनर तेर पय दोय।।२००
छप्पै उदाहरण
कवित छप्पै
पंखी मुनि मन पंख, तीर भव-सिंधु तरायक।
मुकत त्रिया सुख मूळ, स्रवण ताटंक सुभायक।।
१९८. पेट हेक कज-एक पेट के लिए। पात-पात्र, कवि। सोच-चिंता। सांसौ-संशय, शक। संभर-स्मरण कर। विसंभर-विश्वंभर, ईश्वर। नारियण-नारायण।
१९९. सोय-वह।
२००. कायब-काव्य, काव्यछंद। थळ-स्थान। मत-मात्रा। पय-चरण।
२०१. पंखी-पक्षी। तीर-तट, किनारा। भवसिंधु-संसार रूपी समुद्र। तरायक-तैरने वाला। मुकत-मुक्ति। स्रवण-कान। ताटंक-कर्ण-भूषण। सुभायक-सुन्दर।
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अघ कळ घोर अंधार, बिंब रवि चंद्र बिकासण।
प्रगट धरम द्रुम उभय यम स्रुति नयण सुभासण।।
बद ‘किसन’ रकार मकार बिंहु, सत रथ चक्र समाथका।
भव जन तमांम कारक अभय, नांम अंक रघुनाथका।।२०१
अजय नांम छप्पै लछण
दूहौ
बिध यकहत्तर छपय बद, सतर गुरु लघु बार।
अजय जिकौ गुरु घट बधै, बेलघु नांम निहार।।२०२
अजय छप्पै उदाहरण
छप्पय
जै जै भूपां भूप, सदा संतां साधारै।
दीनां दाता देव, मेछ आनेकां मारै।।
सीता स्वांमी सूर, बीर बागां बांणासां।
लंका जैहा ले’र, दांन देणौ तूं दासां।।
सेहाई संतां सेवगां, ताई देणा तापरां।
औनाड़ा राघौ भू अखै, पांणां धाड़ा आपरां।।२०३
अथ यकहतर छप्पै नांम कथन
छप्पै
अजय १ बिजय २ बळ ३ करण ४,
बीर ५ वैताळ ६ व्रहंजळ ७।
मरकट ८ हरि ९ हर १० ब्रहम ११,
इंद १२ चंदण १३ सुभकर १४ वळ।
२०३. साधारै-रक्षा करता है। मेछ-म्लेच्छ असुर। आनेकां-अनेक। सूर-सूरवीर। बागां-बजने पर, चलने पर। बांणासां-तलवारों। जैहा-जैसा। दासां-भक्तों। सेहाई-सहायक। ताई-आततायी, दुष्ट। ताप-कष्ट। औनाड़ा-वीर। पांणां-हाथों। धाड़ा-धन्य-धन्य।
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स्वांन १५ सिंघ १६ सादूळ १७,
कूरम १८ कोकिल १९ खर २० कुंजर २१।
मदन २२ मछ २३ तालंकर २४,
सेस २५ सारंग २६ पयोधर २७।
कह कुंद २८ कमळ २९ बारण ३० सरभ ३१,
जंगम ३२ जुतिस्ट ३३ बखांण जग।
दाता ३४ सर ३५ सुसरह ३६ समर ३७ दख,
सारस ३८ सारद ३९ कह सुभग।।२०४
फेर नांम
छप्पै
मेर ४० मकर ४१ मद ४२ सिद्ध ४३,
बुद्धि ४४ करतळ ४५ कमळाकर ४६।
धवळ ४७ सुमण ४८ फिर मेघ ४९,
कनक ५० क्रस्णह ५१ रंजन ५२ धर।
ध्रुव ५३ ग्रीखम ५४ गरुड़ह ५५,
गिणा (य) ससि ५६ सूर ५७ सल्य ५८ सख।
नवरंग ५९ मनहर ६० गगन ६१,
रतन ६२ नर ६३ हीर ६४ भ्रमर ६५ अख।
सेखर ६६ कुसम ६७ कहि दीप ६८ संख ६९,
बसु ७० सबद ७१ बाखांणीये।
कवि छपय नांम जसराम कज,
जग यकहतर जांणीये।।२०५
~~क्रमशः