रघुवरजसप्रकास [6] – किसनाजी आढ़ा

— 105 —

अथ चौटीबंध छप्पै लछण
दूहौ
आद कहै सौ अंत में, नांम गणत नरबाह।
सिरै कवित बंधै सिखा, चौटीबंध सराह।।२४६

अथ चौटीबंध छप्पै उदाहरण
सूरजपणौ सतेज, स्रवण अम्रत हिमकर सम।
उर दाहक सम आग, तौर सुर-राज राज तिम।।
सत हरचंद समांन, प्रगट दरियाव अथघपण।
सुर तर आस सपूर, जांण पारस सेवक जण।।
रवि अमी आग इंद चंद हरि, दूध सुरतरमण आद ले।
परभाव आठ निज कांम पर, एक रांम तन ऊझळै।।२४७

अथ हीराबेधी छप्पै लछण
दूहौ
एकण हीरौ विहरियां, दूजौ हीरौ थाय।
हीराबेधी कवित जिम, दोय अरथ दरसाय।।२४८

अथ हीराबेधी छप्पै उदाहरण
नारंगी संसार नीम, ऊंबर कर अंबह।
करणा सुभ करतूत, झाल हर कदमां झंबह।।
बोर छोड़ बावळा, खैर करमद बकायण।
बीजा धव बट बैत, ईख सुरतर नारायण।।
खरबूजा जग सह जाय रे, सौ असोक अमर सदै।
सैमळ सरीस तज आंन सुण, दाख रांमफळ सेवदे।।२४९


२४६. सिरै-श्रेष्ट। सराह-प्रशंसा कर, सराहना कर।
२४७. सूरजपणौ-सूर्यत्व, सूर्य का गुण। स्रवण-श्रवण, टपकना। हिमकर-चंद्रमा। सम-समान। दाहक-जलाने वाला। सुरराज-इन्द्र। सत-सत्य। हरचंद-हरिश्चंद्र, हरि-चंदन। अथघपण-अथाहपन, गहरापन। अमी-अमृत। सुरतर-कल्प वृक्ष। मण-मणि। आद-आदि। ऊझळै-प्रभाव दिखाता है।
२४८. विहरियां-विदीर्ण करने पर, चीरने पर।
२४९. ऊंबर-वृक्ष विशेष। अंबह-आम्र। करणा-वृक्ष विशेष व उसका फल। करतूत-कर्त्तव्य, काम। झाल-पकड़। कदमां-चरण, वृक्ष विशेष। झंबह-सहारा। बोर-बदरी नामक वृक्ष या उसका फल। बावळा-मूर्ख। खैर-वृक्ष विशेष, कुशल। करमदा-वृक्ष विशेष, तथा उसका फल। बकायण-नीम जैसा एक वृक्ष। बीजा-दूसरा, एक वृक्ष विशेष या उसका फल। धव-वृक्ष विशेष। बट-बरगद का वृक्ष। बैत-बेंत, एक लता। ईख-देख, गन्ना, इक्षु। सुरतर-कल्पवृक्ष। आंन-अन्य। दाख-द्राक्षा, कह। रामफळ-सरीफा, सीताफल।

— 106 —

अथ करपल्लव नांम छप्पै लछण
दूहौ
आंगळियां करसूं अरथ, जेण कवितरौ होय।
आछी विध अह अक्खियौ, करपल्लव कह सोय।।२५०

अथ करपल्लव छप्पै कवित उदाहरण
यूं जे तैं न कियौ, करसु यूं जण जण आगळ।
यूं न लिया हरि अगै, लेस नितप्रत गदगद गळ।।
कीध यूं नह कदे, करसु तोपण विध दुख तन।
यूं न कियौ उण हेत, देस तौ यूं जग दन दन।।
यम येम ए मन कीयौ अधम, मूरख यूं जम मारसी।
यं कियौ ज तैं अहनिस अवस, यूं रघुनाथ उधारसी।।२५१

अरथ

हे प्रांणी तैं स्री रांमचंद्र आगै हाथ नहीं जोड़्या तौ तूं जणा जणा आगळ हाथ जोड़सी। जो तैं दसी आंगळ प्रभु आगै मुख में न लिया, तौ जगत आगै गदगद कंठ होय नित हाहा खासी नै आंगळी मूंढ़ा में लेसी। जे तैं श्री रांम आगै ऊभी आंगळी न कीदी, तौ सरीर में दुख पाय जणा जणा आगै ऊभी आंगळी करसी। ऊण ईस्वर निमत यूं कैतां देवा कै वासतै हाथ पांची आंगळ्यां सूं ऊंचौ न कीधौ तौ थारै जगत माथा में यूं पांची आंगळ्यां सूं डूचका देसी। यम कैतां प्रभु नै कदी पांच ही आंगळ्यां सू चंदण पुसप चढ़ाया अरच्या नहीं, फेर एम कैतां प्रभु री आरती उतारी नहीं, फेर यम कैतां प्रभु नै नमसकार प्रणांम कीधौ नहीं तौ यूं जम मार देसी, अर कदा’क तैं यूं कैतां आंगळ्यां सूं रात दिन माळा फेरे नै भजन कीधो छै तौ यूं कहतां बांह पकड़ नै भवसागर मां सूं, यूं स्री रघुनाथ उधारसी, इति करपल्लव कवित अरथ


२५० अह-अहि, शेषनाग। अक्खियौ-कहा।
२५१. यूं-ऐसे। तैं-तूने। आगळ-अगाड़ी। अगै-अगाड़ी। लेस-किंचित। नितप्रत-नित्य-प्रति। गदगद गळ-गदगद कंठ। कीध-किया। कदे-कभी। तोपण-तो भी। हेत-स्नेह। अवस-अवश्य। आंगळ-उंगुली। आंगळी-उंगुली। कीदी-की। निमत-निमित्त, लिए। वासतै-लिए। कीधौ-किया। डूचका-मुट्ठी बंद करके मध्यमा उंगली को इस स्थिति में रखना जिससे उसका पीछे का जोड़ दूसरी उंगलियों से कुछ आगे निकला हुआ हो। इस उठे हुए भाग से किया जाने वाला प्रहार या चोट। कदी-कभी। कदाक-कभी।

— 107 —

अथ हेकल्लवयण छप्पै लछण
दूहौ
यक सौ अर बावन अखर, जठै सरब लघु जांण।
एकल बयणौ कवित यूं, वदियौ नाग वखांण।।२५२

अथ हेकल्लवयण छप्पै कवित उदाहरण
तरण सरस छब तरण, सरण असरण हरखण सक।
मरण जनम भय मटण, धरण बड बरद रहत धक।।
अजर जरण रण असह, दन जद ससर सम वड दह।
लख दन समपण लहर, कहर चत अघट अथघ कह।।
भल करम मन वतन, अत दलभ, अखत बयण अह नर अमर।
कर हरख पहर अठ कव ‘कसन’, सधर समन रघबर समर।।२५३


२५२. यक सौ-एक सौ। जठै-जहां। वदियौ-कहा। नाग-शेषनाग।
२५३. तरण-तरणि, सूर्य। सरस-समान। तरण-तरुणी। बड-बड़ा। बरद-विरुद। धक-इच्छा। रण-युद्ध। असह-असह्य। कहर-कोप। अथघ-अपार। अत दलभ-अति दुर्लभ। अखत-कहता है। अह-नाग। अमर-देवता। रघबर-रघुवर। समर-याद कर, स्मरण कर।

— 108 —

अथ हल्लव नांम कवित लछण
दूहौ
वीस वीस चौतुक अखर, बेतुक कह बावीस।
हल्ल सबद वरणै सुमझ, हल्लव नांम कहीस।।२५४

अथ हल्लव नांम कवित उदाहरण
हल हल्लिय गिर आठ, सपत हल्लिय जळ सायर।
धूजह हल्लिय धरण, गिरद हल्लिय नभ छायर।
सिर हल्लिय अध सेस, हहर चित्त कछप हल्लिय।
हल्लिय दाढ़ वराह, दुसह हल हल्ल दहल्लिय।
हल हल्लिय लंक गढ़ बंकसौ दस-धू पै हल काहल्लिय।
हल्लिय पताख गजराज पै, विजै कटक राघव हल्लिय।।२५५

अथ कवित छप्पै नांम ताळूरब्यंब लछण
दूहौ
लागै पढ़तां ताळवै, जीहा अग्र जरूर।
कहजे छप्पय ‘किसन’ कवि, तिकौ ब्यंब ताळूर।।२५६

अथ ताळूरब्यंब छप्पै उदाहरण
रट रट रे नर ईस, नाय औणे जिण सीसं।
चाळ झाल कर चहूं, देस ईछत जगदीसं।।
ईस अचळ सरणाय रीझ इज्जत द्रढ़ रक्ख्यण।
दट दट अक्रत दूठ, ईस नां छोड अधक्खण।।
तीरथां इळा अट अट सतूं, देणौ चित सतसंग दुस।
दस सिर खळ गंजण दाख रे, जांनंकीनायक सुजस।।२५७


२५४. चौतुक-चार तुक।
२५५. हल हल्लिय-चलायमान हुए। सपत-सप्त, सात। सायर-सागर, समुद्र। धूजह-ध्रुव। वराह-विष्णु का एक अवतार विशेष। दहल्लिय-भयभीत हुए, कंपायमान हुए। दस-धू-दश शिर वाला रावण।
२५६. ताळवै-तालु, तालू। जीहा-जिह्वा। तिकौ-वह। ब्यंब ताळूर-तालूर व्यंब।
२५७. नाय-नमा कर। औणे-चरणों में। सरणाय-शरण देने वाला। रक्ख्यण-रखने वाला। दट-नाश कर। अक्रत-दुष्कर्म, पाप। दूठ-दुष्ट, भयंकर। नां-नहीं। अधक्खण-अधक्षण। खळ-असुर, राक्षस। गंजण-नाश करने वाला। दाख-कह।

— 109 —

अहर अळग कवित छप्पै
दूहौ
पढ़तां होठ मिळै नहीं, ऊ प फ ब भ म न आंण।
कहियौ अह अन कवि कहै, अहर अळग सौ जांण।।२५८

अथ अहर अळग छप्पै उदाहरण
नारायण नरकार, नाथ नरहर जग-नायक।
कंज नयण कर कंज, तरण संतां खळ-तायक।।
धरणीधर गिरधार धनौ स्रीधर धू धारण।
हाथी ग्रह निज हाथ, तोय हूंता झट तारण।।
करुणा निधांन कोदंड कर, नित चालण यळ रीत नय।
रघुकुळ दिनेस जन लाज रख, जग अधार औधेस जय।।२५९

अथ विधांनीक जात छप्पै कवित लछण
दूहौ
ले खटहूंता नव लगै, वरणै मांझ विधान।
विधांनीक छप्पय वदै, वडा सुकवि बुधवांन।।२६०

अथ सप्त विधान छप्पै उदाहरण
कमळ उदध कळवरछ, भांण मघवांण, मेर ससि।
वदन, सहज, दत, तेज, राज, गरूवत दीठ लसि।।
सजळ, सलहर, सपत्र, सतप, सुरस्रंग, ससीतळ।
प्रात, पुनिम, मधु, जेठ, व्रखा, विग्रह, राका मिळ।।
प्रफुलंत, अथघ, दतवार, तप, औज, सरण, स्रावण, अम्रत।
तन एक रांम दसरथ सुतण, विहद सात गुण निरवहत।।२६१
इति पुरस प्रत विधांनिक


२५८. अह-शेषनाग। अन-अन्य। अहर-अधर, होठ। अळग-दूर, पृथक।
२५९. नरकार-निराकार। कंज-कमल। कर-हाथ। तरण संतां-संतों का उद्धार करने वाला। खळ-तायक-असुरों का संहार करने वाला। तोयहूंता-पानी से। झट-शीघ्र। तारण-उद्धार करने वाला। कोदंड-धनुष। चालण-चलने वाला। यळ-इला, पृथ्वी। नय-नीति। दिनेस-सूर्य। औधेस-अवधेश, श्रीरामचंद्र।
२६०. विधांन-किसी कार्य की विधि या व्यवस्था। बदै-कहते हैं। बुधवांन-बुद्धिमान।
२६१. उदध-उदधि, समुद्र। कळवरछ-कल्पवृक्ष। भांण-सूर्य। मघवांण-इन्द्र। मेर-सुमेरु पर्वत। ससि-चंद्र। वदन-मुख। दत-दान। गरुवत-गंभीर, भारी। दीठ-दृष्टि। प्रात-प्रातःकाल। पुनिम-पूर्णिमा। मधु-वसंत, अथवा मधु-वसंत, मधु चैत है, मधु मदिरा मकरंद। मधुपै मधुहरि मधुसुधा मधुमाधव गोविन्द।।राका-पूर्णिमा। दतवार-दान। स्रावण (श्रावण)-श्रवण करने वाला। सुतण-सुत। विहद-अपार। निरवहत-धारण करते, वहन करते।

— 110 —

अथ सत्री प्रत विधांनिक छप्पै
सेस, इंदु, म्रग, दीप, जांण, कोकिल, म्रगपति, गज।
बेण, वदन, चख, नाक, बोल, कटि, जंघ, चाल, सज।।
असित, सकळ, चळ, सुथिर, गुप्त, अंगिरात, अक्रमत।
सुरत्रि, ब्योम, बन, अयन, नूत, पब्बय, सुब्यंध, थित।।
मयण, सरद, चकित, निस, रतिपतिह, लंघणीक, मंदह चलत।
मिथलेस कुवरि सीता सुतन, कवि एती ओपम कहत।।२६२
इति विधांनिक संपूरण

अथ नाट सला छप्पै लछण
दूहौ
यक तुक तौ थापै अरथ, अन तुक दियै उडाय।
नाट सलौ तिण कवित नै, सुकवि कहै सुभाय।।२६३


२६२. प्रत-प्रति। सत्री-स्त्री, नारी। सेस-शेष, यहां कृष्ण-सर्प अर्थ है। इंदु-चंद्रमा। म्रग-हरिण। दीप-दीपक, दिया। कोकिल-कोयल। म्रगपति-सिंह। गज-हाथी। बेण-वेण, वेणी, स्त्रियों के सिर के बालों की चोटी। बदन-मुख। चख-चक्षु, नेत्र। बोल-शब्द, आवाज, बचन। कटि-कमर। जंघ-जांघ, ऊरू। चाल-गति। असित-श्याम, काला। सकळ-शुक्ल, सफ़ेद। चळ-चंचल। सुथिर-स्थिर। सुरभि-सुगंधि, खुशबू। ब्योम-आकाश। नूत-आम्र, आम। पब्बय-पर्वत। थित-स्थित। मण-मणि। निस-निशा, रात्रि। रतिपतिह-कामदेव। लंघणीक-भूखा, कृशोदर। मंदह-मंद। मिथलेस-राजा जनक। सुतन-पुत्री। एती-इतनी। ओपम-उपमा। कहत-कहता है।
२६३. यक-एक। थाये-होता है। अन-अन्य, दूसरी। उडाय-मिटा कर। सुभाय-सुरुचिकर।

— 111 —

अथ नाट सला छप्पै
उदाहरण
सूर प्रभवतौ तेज, तेज नंह इम्रत स्रायक।
यिम्रत स्रायक चंद, चंद नह स्यांम सुभायक।।
स्यांम सुभायक मेघ, मेघ नह मायावंतह।
मायावंतह साह, साह नाहीं खर अंतह।।
खर अंत ततौ चित्रक अखव, नह चित्रक नर जांणिये।
नर नहीं नरां नायक निपट, प्रभव-भांण पहचांणिये।।२६४

अथ सुद्ध कुंडळियौ लछण
कायब दूहा सूं मिळै, कुंडळियौ सुध कत्थ।
अम्रत-धुन अनुप्रास घण, स्री रघुनाथ समत्थ।।
स्री रघुनाथ समत्थ, हत्थ धारण धनु सायक।
सेवक सरण सुधार, लेख सेवै पद लायक।
सीतानाथ सुजांण, पांण खग धन ब्रद पायब।
कुंडळियौ सौ कहै, मिळै दूहा सूं कायब।।२६५


२६४. सूर-सूर्य। प्रभवतौ-उत्पन्न करता है, उत्पन्न करता हुआ। इम्रत-अमृत। स्रायक-श्रायक, श्रवने वाला, देने वाला। सुभायक-रुचिकर, मनोहर। मायावंतह-धनाढ्य। साह-सेठ। खर-खरदूषण राक्षस से तात्पर्य है। अखव-कह। चित्रक-हरिण। प्रभव-भांण-सूर्यवंशी।
नोट-नाट नामक छप्पय का उल्लेख पूर्व २२ छप्पयों में मय उदाहरण के हो चुका है—यह
नाटसला भी उसी का एक भेद प्रतीत होता है।
२६५. कायब-काव्य छंद, यह रोला छंद का ही एक भेद है जिस रोला छंद के चारों चरणों में ११वीं मात्रा ह्रस्व हो उसे काव्य-छंद कहते हैं। किसी-किसी के मत से दोहा के पश्चात् रोला छंद को जोड़ने से ही कुंडलिया छंद की रचना मानी गई है। कत्थ-कह। अम्रत-धुन-अमृत-ध्वनि, यह भी छः चरण का एक मात्रिक छंद है जो दोहा और दोहा के पश्चात् २४ मात्रा अथवा रोला छंद के जोड़ने से ही बनता है परन्तु अमृत-ध्वनि में यमकालंकार को तीन बार झमकाव के आठ-आठ मात्रा सहित रखा जाता है। घण-बहुत। समत्थ-समर्थ। हत्थ-हस्त हाथ। धनु-धनुष। सायक-बाण, तीर। सरण-सधार-शरणागत रक्षक। लेख-देव, देवता। खग-तीर, बाण। ब्रद-विरुद, यश। पायब-प्राप्त करने वाला।

— 112 —

अथ कुंडळियौ झड़ उलट लछण
दूहौ
दूहौ धुर धुर पच्छ तुक, आद अंत उलटंत।
वीस मत्त चो तुक वळै, सौ झड़ उलट समंत।।२६६

कुंडळिया झड़ उलट उदाहरण
भुज दंड लीजै भांमणा, अध्रियांवणा अभीत।
विध-विध दास वचावणा, जुध पावणा सजीत।।
जीत जुध पावणा, आद असुरां जरे।
सीस दस कुंभ घण, नाद सा स्यंघरे।।
सधर कर भभीखण, रिव जस रसांमणा।
भुजां रघुबर अडर, लीजिये भांमणा।।२६७

अथ कुंडळियौ जात दोहाळ लछण
दूहौ
सुध कुंडळिया अंत सुज, एक दूहौ फिर आख।
कुंडळियौ दोहाळ कह, भल राघव जस भाख।।२६८

अथ कुंडळियौ दोहाळ
उदाहरण
केकंधा लंका कहे, जस रघुनाथ सुजांण।
कहै भभीखण रविजकी, मुख हूं अवळीमांण।।
मुखहू अवळीमांण, किसूं पायक जस कत्थै।
दत देखा दत दहूं, सुजस जग कहै समथ्यै।।
कासीदी गुण करै, जिका कथ सह जग जांणै।
केतक डमरां कुसम उरड़ भमरां दळ आंणै।।
जुग जुग मुख ‘किसना’ जपै, नित नव नव एहनांण।
केकंधा लंका कहै, जस रघुनाथ सुजांण।।२६९


२६६. धुर-प्रथम। पच्छ-पश्चात्। मत्त-मात्रा। चो-चार। तुक-चरण। वळै-फिर।
२६७. भांमणा-बलैया। अध्रियांवणा-वीर, जबरदस्त, शक्तिशाली। अभीत-निडर, निर्भय। विध-विध-तरह-तरह से। दास-भक्त। वचावणा-बचाने वाला। पावणा-प्राप्त करने वाला। सजीत-विजयी। जरे-नष्ट कर, मार कर। सीस दस-रावण। कुंभ-कुंभकर्ण। घणनाद-मेघनाद, इन्द्रजीत। सा-समाना, जैसा। स्यंघरे-संहार किये। सधर-द्रढ़,
मजबूत, निर्भय, निशंक, राज्य या धरा सहित। भभीखण-विभीषण। रिव-रवि, सूर्य। रसांमण-रश्मि, किरण।
२६८. आख-कह। भल-श्रेष्ठ, उत्तम। भाख-कह।
२६९. केकंधा-किष्किंधा। रविज की-सूर्यवंशी की, श्रीरामचंद्रजी की। हूं-हूं से। अवळीमांण-अपने ऐश्वर्य का उपभोग करने वाला वीर। अवळीमांण-अपने ऐश्वर्य का उपयोग करने वाला, वीर। किसूं-कैसे। पायक-सेवक। कत्थै-कहे। दत-दान। समथ्थै-समर्थ। कासीदी-कासिद का कार्य, हरकारा का कार्य। गुण-लाभ। कथ-कथा। सह-सब। केतक-केतकी, केवड़ा। डमरां-सुगंधि, महक। कुसुम-पुष्प, फूल।

— 113/114 —

अथ कुंडळणी लछण
दूहौ
उगाहौ कर आद यक, तुक पलटै धुर भंत।
कायबरी तुक च्यारि कह, कुंडळणी स कहंत।।२७०

अथ कुंडल़णी उदाहरण
यिक रघुनाथ उजाळौ सारौ, रघुवंस जेण दुति सरसत।
विध जूं है कळ वाळौ, मझ सह नभं तेज करत तेजोमय।।
तेजोमय नभ होत, चंदहूंता जग चावौ।
एक सेस अजवाळ, सरब कुळ सरप सुभावौ।।
हेक मेर-गिर हुवै, सौ भगिर वंस सिघाळौ।
विध जिण सह रघुवंस, एक रघुनाथ उजाळौ।।२७१

कवित कुंडळिया १ सुध कुंडळिया २ झड़ उलट कुंडळिया ३ दोहाळ कुंडळिया ४ कुंडळणी ५
इति पंच प्रकार कुंडळिया संपूरण।

दूहा
मात्रा दंडक वरणिया, इण विध छंद उदार।
‘किसन’ रिझावण जस कियौ, रामचंद्र रिझवार।।२७२
किव राजां सूं किसन किव, यम अक्खै अरदास।
माफ करौ तगसीर मौ, देख रांम पय दास।।२७३
इति मात्रा व्रत संपूरण


२७१. यिक-एक। दुति-द्युति। विध-विधु, चन्द्रमा। जूं-जैसा। कळ-कला। मझ-मध्य। सह-सब। नभं-आकाश। तेजोमय-प्रकाशमय। चंदहूंता-चन्द्रमा से। चावौ-प्रसिद्ध। मेर-गिर-सुमेरु पर्वत। सौ-वैसा। भगिर-अयोध्या नरेश दिलीप के पुत्र, भगीरथ। सिघाळौ-श्रेष्ट। उजाळौ-प्रकाश, रोशनी।
२७२. रिझावण-प्रसन्न करने के लिए। रिझवार-प्रसन्न होने वाला।
२७३. यम-ऐसे। अक्खै-कहता है। अरदास-प्रार्थना। तगसीर (तकसीर)-कमी। मौ-मेरी। पय-चरण। दास-भक्त।

— 115 —

अथ वरण व्रत (वृत) वरणण
दूहा
स्री गणनायक सारदा, दीजै उकत दराज।
वरण व्रति ‘किसनौ’ वदै, जस राघव महराज।।१
वरण व्रति सौ दोय विधि, कहै वडा कवि कत्थ।
वरणछँद उपछँद वद, स्री धर सुजस समथ्थ।।२
लेखव वरण छवीस लग, वरण छँद सौ वेस।
आखर छविसां ऊपरां, सौ उपछँद सरेस।।३

अथ एक वरण सूं लगाय छवीस वरण तांई छंदां री जात रा नांम वरणण।
कवित छप्पै
उक्ता अत्युक्ताह अखंत, मध्या, वखांणत।
वळे प्रतिस्ठा वेस, जगत सु प्रतिस्ठा जांणत।।
गायत्री ऊसणीक, अनुस्टप, व्रहती पंगत।
त्रिस्टुप जगती तवां, अती जगती सकरी मत।
अत सकरी अस्टती यिस्टि अख ध्रति।।
अति ध्रती, क्रती प्रक्रतीय।
आक्रति, विक्रति, फिर संसक्रती।।
अतक्रति, उतक्रति, हरि भजीय।।४

दूहौ
यकसूं वरण छवीस लग, बरण छंद की जात।
क्रीत रांम वरणण कियां, सुकवि सुमुख सरसात।।५


नोट-छप्पय में आए हुए छंदों के शुद्ध संस्कृत नांम-
१ उक्था, २ अत्युक्था, ३ मध्या, ४ प्रतिष्ठा, ५ सुप्रतिष्ठा, ६ गायत्री ७ उष्णिक, ८ अनुष्टुप, ९ बृहति, १० पंक्ति, ११ त्रिष्टुप, १२ जगती, १३ अति जगती, १४ शक्वीर, १५ अति शक्वरी, १६ अत्यष्ठि, १७ अष्ठि, १८ धृति, १९ अति धृति, २० कृति, २१ प्रकृति, २२ आकृति, २३ विकृति, २४ संस्कृति, २५ उत्कृति, २६ अतिकृति।

— 116 —

अथ छंद वरणण
दूहौ
एक गुरु स्री छंद कहि, दु गुरु छंद कहि कांम।
दोय लघु मधु, लघु गुरु, महि छँद रटि रांम।।६

अथ स्री छंद, जात उक्ता (ग)
गै । गै । स्री । थी । रां । कां।।७

कांम छंद (ग. ग. )
गौ दौ । कांमौ । गावौ । रांमौ।।८

दोय वरण छंद जात अत्युक्ता

मधु छंद (ल. ल. )
हरि । हरि । ररि । ररि ।।९

मही छंद (ल. ग. )
रमा उमा। प्रियं वियं। रटौ उठौ। अधं दघं।।१०

दूहौ
गुरु लघु सार वखांणजै, फेर मगण प्रस्तार।
आठ छंद तिण ऊपना, वे कवि नांम उचार।।११

ताळी १ ससी २ प्रिय ३ रमण ४
तवि मुणि पंचाळ ५ म्रगिंद्र ६ ।
किसन फेर मंदर ७ कमळ ८,
चवि जस राघवचंद्र।।१२


७. उक्ता-उक्था छंद।
९. प्रत्युक्ता-अत्युक्था छंद।
११. सार-छंद का नाम। फेर-फिर। तिण-उससे। ऊपना-उत्पन्न हुए।
१२. ताळी-शब्द मूल में भी है अतः हमने भी यहां ताली ही रखा है परन्तु यहां पर नारी शब्द होना चाहिए। तवि-कह कर। मुणि-कह, कह कर। चवि-कह, कह कर। राघवचंद्र-रामचंद्र।

— 117 —

सार छंद (ग. ल. )
रांम, चंद, भूप, वंद, क्रीत गाय धन्य थाय।।१३

तीन वरण छंद जात मध्या छंद ताळी (ग. ग. ग. )
जौ बंदै, गोबंदै, तौ देही, नां रेही।।१४

छंद ससी (ल. ग. ग. अथवा यगण)
रटौ रांमचंदं, कटौ पाप कंदं।
करौ सुद्ध देहं, बडौ लाभ एहं।।१५

छंद प्रिया (ग. ल. ग. अथवा रगण)
रांम सीतापती, और वी अक्रती।
सिंध साभाय जे, पंकज पाय जे।
जीभ दीधी जकौ, क्यूं न गावै तकौ।।१६

छंद रमण (ल. ल. ग. अथवा सगण)
रट दासरथी, कथ बेद कथी।
रज जे पगरी, रिख नार तरी।।
हर चाप जिया, सत खंड किया।
रट सौ रसना, किव तूं किसना।।१७

छंद पंचाल़ (ग. ग. ल. अथवा तगण)
स्री रांम राजेस, सेवो ‘किसंनेस’।
जोवौ जसं जेस, भाखै भुजंगेस।।१८


१३. वंद-नमस्कार कर। क्रीत-कीर्ति। गाय-वर्णन कर। थाय-हो, हो कर।
१४. गोबंदै-गोविन्द। तौ-तेरी। देही-(देह) शरीर। नां-नहीं। रेही-रहेगी।
१५. कंदं-मूल। एहं-यह।
१६. वी-उस, उसकी। अक्रती-आकृति, बनावट। सिंध-(सिंधु) समुद्र। साभाय-स्वभाव। जे-जो। पंकज-कमल। पाय-चरण। जकौ-जिसने। तकौ-उसको।
१७. दासरथी-श्री रामचंद्र भगवान। रज-धूलि। जे-जिसके। रिख-ऋषि। नार-नारी। चाप-धनुष। रसना-जिह्वा। किव-कवि।
१८. राजेस-राजाओं का राजा, सम्राट। जसं-(यश) कीर्ति। जेस-जिसका। भुजंगेस-शेषनाग।

— 118 —

छंद म्रिगेंद्र (ल. ग. ल. अथवा जगण)
नमौ रघुनाथ, सधीर समाथ।
गणां गजगाह, दसानन दाह।।
भभीखण आय, सु आस्रय पाय।
व्रवी जिण रंक, लछीवर लंक।।१९

छंद मंद (ग. ल. ल. अथवा भगण)
सीत-पती कह, ओघ अघं दह।
देह अभै करि, रांम रदे धरि।।
गावत पांमर, झूठ पयंपर।
ऊंबर सौ वित, कांय गमावत।।२०

छंद कमल़ (ल. ल. ल. अथवा नगण)
भगत-विछळ, नय‍ण कमळ।
जगत जनक, धरण-धनक।।
सिर नमि नमि, चरण पदम।
‘किसन’ रसण, रघुबर भण।।२१

अथ च्यार अखिर छंद जात प्रतिस्ठा
दूहौ
जीरण चरणह च्यार गुरु, धांनी रल पहिचांण।
जगण निगल्ली अंत गुरु, संमोहा गुरु बांण।।२२


१९. म्रिगेंद्र-मृगेन्द्र। सधीर-धैर्यवान। समाथ-समर्थ। गजगाह-युद्ध। दसानन-रावण। दाह-जलाने वाला, ध्वंशक। भभीखण-विभीषण। आस्रय (आश्रय)-शरण, पनाह। पाय-प्राप्त कर। व्रवी-प्रदान की, दे दी। रंक-गरीब। लछीवर-लक्ष्मीपति। लंक-लंका।
२०. सीत-पती (सीतापति)-श्रीरामचंद्र। ओघ-समूह। अघं-पाप। रदे-हृदय। पांमर-नीच, तुच्छ। ऊंबर (उम्र)-आयु। वित-धन। कांय-क्यों। गमावत-गमाता है, नाश करता है।
२१. भगत-विछळ-भक्त-वत्सल। धरण-धनक-धनुष धारण करने वाला। पदम (पद्म)-कमल। रसण-जिह्वा, जीभ। भण-कह।
२२. प्रतिष्ठा चतुक्षरावृत्तिका नाम है जिसके प्रस्तार भेद से क्रमश: १६ भेद होते हैं। सोलह भेदों के अंतर्गत जीर्णा (मतांतर से तीर्णा) धांनी और निगल्लिका आदि हैं। र ल रगण आर लघु।

— 119 —

छंद जीरणा (जीर्णा) (म. ग. )
सीता राघौ गावै सोई, जीता है जम्मारा जोई।
चेता राघौ नां चीतारै, है सोई जम्मारा हारै।।२३

छंद धांनी (र. ल. )
ईंद चंद्रमा अहेस, साधना करै महेस।
सीतनाथ रांमचंद, सीस नांम पाय वंद।।२४

छंद निगल्लिका (ज. ग)
दसाननं विनासनं, असेख पाप नासनं।
सदाजनं सिहायकं नमामि सीत-नायकं।।२५

पंचगुरु अखिर, पंचा अखिर छंद वरणण जात प्रतिस्ठा
छंद समोहा (म. ग. ग. )
सीता प्राणेसं, राजा-राजेसं।
गावौ स्री रामं, पावौ जे धांमं।।२६

दूहौ
हारी तगण सु करण यक, हंस भगण करणेण।
नगण दुलघु, मिळ जमकहि, जस भण राघव जेण।।२७


२३. जीरणा (जीर्णा)-इसका दूसरा नाम तीर्णा या कन्या भी है। सोई-वही। जम्मारा-जीवन। जोई-वही। चेता-चित्त। चीतारै-स्मरण करता है।
२४. हेस-(अहीस) शेषनाग। सीतनाथ (सीतानाथ)-श्री रामचन्द्र भगवान। नांम-नमा कर, झुका कर। पाय-चरण।
२५. दसाननं-रावण। विनासनं-नाश करने वाला। असेख (असंख्य)-अपार। नासनं-नाश करने वाला। सिहायकं-सहायक। सीत-नायकं-सीतापति।
नोट-मूल हस्तलिखित प्रति में पांच गुरु अखिर पंचाखिर छंद वरणरण जात प्रतिष्ठा है परन्तु पंचाक्षरा वृत्तिका शुद्ध नाम सुप्रतिष्ठा पंचाक्षरा वृत्ति है।
२६. प्राणेसं (प्राण + ईश)-पति। राजा-राजेसं-(राजाओं का राजा) सम्राट। जे-जिसका। धांमं-स्थान, मोक्ष।
२७. करण (कर्ण)-दो दीर्घ का नाम ऽ ऽ। करणेण-दो दीर्घ ऽ ऽ से। भण-कह। जेण-जिस, जिससे।

— 120 —

छंद हारी (त. ग. ग. )
धांनंख-धारी, पै नीत-चारी।
सौ सीळ सींधू, बाताद बंधू।।
सोहै सकाजं, जांनंक राजं।
जामात जोई, संभार सोई।।
रेवंस रूपं, भूपाळ भूपं।
सारंगपाणं, जीहा जपांणं।।
दी औध ईसं, पै बंद सीसं।
तूं धन्य तांमं, रे सेव रांमं।।२८

छंद हंस (भ. ग. ग)
रांम भजीजे, झौड़ तजीजे, लाभ सदेही, वेद वदेही।
संत सिहाई, राघवराई, वौ हरि गावौ, पै उध पावौ।।२९

छंद जमक (न. ल. ल. )
धर धनक, जग जनक।
दहण दुख, समुद सुख।।
अवधपत, सरस सत।
कमळकर, समर हर।।३०


२८. धांनंख-धारी-धनुषधारी। पै-चरण। नीत-चारी-नीति पर चलने वाला। सींधू-(सिन्धु) समुद्र। बाताद-(वात + अद = पवनाशन = सर्प = शेषनाग) लक्ष्मण। जांनंक-राजा जनक। जामात-दामाद। जोई-जो, वह। संभार-स्मरण कर। सोई-वही, उसी। रेवंस (रवि-वंश)-सूर्यवंश। सारंगपाणं (सारंगपाणि)-सारंग नाम धनुष धारण करने वाले, विष्णु, श्री रामचन्द्र। जीहा-जिव्हा। जपांणं-जप कर, भजन कर।
२९. हंस-इस छंद का दूसरा नाम पंक्ति भी है। झौड़-प्रपंच। ततीजे-तजिये। वदेही-कहते हैं। सिहाई-सहायक। राघवराई-श्री रामचन्द्र। पै-पद। उध-उद्धार।
३०. जमक-इस छंद का दूसरा नाम करता भी है। धनक-धनुष। जनक-पिता। दहण-जलाने वाला। समुद (समुद्र)-सागर। अवधपत्त (अयोध्यापति)-श्री रामचन्द्र। कमळ कर-कमल स्वरूप हाथ। समर-युद्ध।

— 121 —

अथ खड़ाखर छंद गायत्री
दूहौ
दोय मगण सेखा, तिलक सगण दु, रगण दोय।
वीजोहा दुजबर करण, सौ चऊरसा होय।।३१

छंद सेखा (म. म. )
राघौजी जौ गावौ, प्राझी लच्छी पावौ।
संतां कारी साता, देखी दीनां दाता।।३२

छंद तिलका (स. स. )
रघुनाथ रटौ, क्रत हीण कटौ।
कवसल्ल सुतं, दिननाथ दुतं।।
तन स्यांम सुभं, घण रूप लुभं।
कट पीत पटं, छज ओप छटं।।
कवि तूं ‘किसना’, रट सौ रसना।।३३

छंद विजोहा (र. र. )
नांम है रांम कौ, ओक आरांम कौ।
साच राघौ कथा, वांण दूजी ब्रथा।।३४


३१. खड़ाकर-षड़ाक्षर, छ अक्षर। गायत्री-छ वर्णों की एक वर्ण-वृत्ति जिसके कुल ६४ भेद होते हैं। उनमें से कुछ का उल्लेख ग्रन्थकर्ता ने भी किया है। दुजबर-चार लघु मात्रा। करण-दो दीर्घ मात्रा।
३२. प्राझी-बहुत, अपार। लच्छी-लक्ष्मी। कारी-करने वाला। साता-सुख।
३३. क्रत-कार्य, काम। हीण-तुच्छ, भद्दा। कटौ-काट डालो। कवसल्ल-कौसल्या। सुतं-पुत्र। दिननाथ-सूर्य। दुतं-(द्युति) कांति, दीप्ति। तन-शरीर। सुभं-शुभ। घण-(घन) बादल। लुभं-लोभाय, मान करने वाला। कट-(कटि) कमर। पीत-पीला। पटं-वस्त्र। छज-शोभा, शोभा देता है। ओप-कांति, दीप्ति। छटं-(छटा) बिजली। रसना-जिव्हा, जीभ।
३४. विजोहा-विमोहा नाम ६ वर्ण का छंद जिसके अन्य नाम जोहा, द्वियोधा, विज्जोदा भी मिलते हैं। ओक-घर। साच-सत्य। राघौ-राम। वांण-वाणी, शब्द। व्रथा-व्यर्थ।

— 122 —

छंद चऊरस (ल. ल. ल. ल. ग. ग)
रिख मख त्राता, दित कुळ घाता।
सु भुज निघायौ, किरण उडायौ।।
गवतम नारी, रज पय तारी।
भव जय भाखी, सुर मुनि साखी।।३५

दूहौ
यगण संखनारी उभय, दोय तगण मंथांण।
दुजगण प्रियगण मिळ दहू, मदनक छंद प्रमांण।।३६

छंद संखनारी तथा विराज (य. य. )
(तथा छंद रसावळा)
रिखं साथ रांमं, गये कांम धांमं।
सुरं तीन भूपं, तहां आय नूपं।।
दसग्रीव बांणं, उभै जोर बांणं।
बियं आय तत्थं, ठयं मंच जत्थं।।
भुजं-बीस भल्लं, धनू काज हल्लं।
कसै चाप केमं, जती चीत जेमं।।
हजार दसानं, नृपं भंग मांनं।
पड़े जोर पोचं, अनंगेस सोचं।।


३५. रिख-ऋषि। मख-यज्ञ। त्राता-रक्षक। दित-दैत्य, असुर। घाता-संहारक, ध्वंशक। गवतम-गौतम। रज-धूलि। पय-चरण। भव-महादेव। भाखी-कही। साखी-साक्षी।
३६. दुजगण-चार लघु मात्रा का नाम। प्रियगण-दो लघु मात्रा का नाम।
३७. संखनारी-इसका दूसरा नाम सोमराजी भी है। रिखं-ऋषि। दसग्रीव-रावण। ठयं-हुआ। मंच-ऊँचा बना हुआ मंडप जिस पर बैठ कर सर्वसाधारण के सामने किसी प्रकार का कार्य किया जाय। जत्थं-यूथ, झुण्ड। भुजं बीस-रावण। भल्लं-ठीक, श्रेष्ठ। धनू-धनुष। काज-लिये। हल्लं-चला। चाप-धनुष। केमं-कैसे। जती-(यती) जितेन्द्रिय। चीत-चित, मन। जेमं-जसे। दसानं-रावण। मांनं-प्रतिष्ठा। पोचं-कम। अनंगेस-महादेव। सोचं-भय।

— 123 —

नरव्वीर रेणं, भई भांत केणं।
सुणे सेख तत्थं, कहे तांम कथ्यं।।
मिथल्लेस राजं, कहौ केण काजं।
नरब्बीर बांणी, महाहीण मांणी।।
हुवै रांम जत्थं, अखौ नां अकथ्थं।
उठे रांम तांमं, जगै कोप जांमं।।
कटं पीतपट्टं, सुबंधे सुघट्टं।
गतं पंचमुखं, चले चाप रूखं।।
करं बांम चापं, उठायौ अमापं।
नमायौ निखंगं, गुणं वाळ अंगं।।
रमानाथ रीसं, करंते कसीसं।
कुडंडं अचूकं, कियो टूक टूकं।।
सिया मात सुक्खं, विदेहं हरक्खं।
नृपं जीत जांमं, वरी सीत वांमं।।
जसं औधरायं, ‘किसनेस’ गायं।।३७


३७. नरव्वीर-नरवीर। रेणं-भूमि। भांत-प्रकार। केणं-किस, कैसे। सेख-(शेष) लक्ष्मण। तत्थं-वहाँ। तांम-उनको। कथ्थं-शब्द, वचन। मिथल्लेस-राजा जनक। केण-किस। काजं-लिए। बांणी-शब्द, वचन। महाहीण-महा तुच्छ, अति तुच्छ। अखौ-कहो। नां-नहीं। अकथ्थं-अकथनीय, बुरी बात। तांमं-तब। जांमं-परशुराम। कटं-(कटि) कमर। पीतपट्टं-पीताम्बर। सुघट्टं-सुन्दर, दृढ़। गतं-प्रकार, तरह। पंचमुखं-सिंह। रूखं-ओर, तरफ। करं-हाथ। बांम-(वांम) बाया। चापं-घनुष। निखंगं-(निषंग) तर्कश, तूणीर, गुण धनुष को डोरी, प्रत्यंचा। रमानाथ-लक्ष्मीपति, श्री रामचन्द्र। रीसं-रिस, कोप। करते-हाथ से। कसीसं-धनुष को मोड़ कर प्रत्यंचा चढ़ाई, धनुष चढ़ाया। कुडंडं-(कोदंड) धनुष। अचूकं-अव्यर्थ। टूक टूकं-खंड खंड। सिया-सीता। मात-माता। विदेहं-राजा जनक। हरक्खं-हर्ष, प्रसन्नता। जीत-जीत कर। जामं-परशुराम। वरी-वरण की। सीत-सीता। वामं-(वाम) स्त्री। जसं-यश। औधरायं-श्री रामचन्द्र।

— 124 —

छंद मंथांरगी (त. त. )
सीता रमा सोय, कीजै समं कोय।
भाखौ परीभ्रंम्म, राघौ महारंभ।।३८

छंद मदनक (ल. ६)
सहदत सत, दसरथ सुत।
रिवकुळमण, रघुबर भण।।३९

दूहौ
दोय जगण यक चरण में, सौ मालती सुभाय।
कीरत जिण में ‘किसन’ किव, रट रट स्री रघुराय।।४०

छंद मालती (ज. ज. )
वडौ धन वेस, म खोय मुढेस।
चवां चित चेत, पुणौ मत प्रेत।।
भरणां धन भाग, रघुब्बर राग।।४१

अथ सप्त वरण छंद जात उस्णिक
दूहौ
रगण जगण पय अंत गुरु, समांनिका कह सोय।
दुजबर भगण पयेण जिण, छंद सबासन होय।।४२

छंद समांनिका (र. ज. ग. )
रांम नांम गाव रे, पाय कंज धाव रे।
जांनकीस जांण रे, वेस तूं जवांण रे।।४३


३८. रमा-लक्ष्मी। सोय-वह। समं-समान। कोय-किस। परीभ्रंम्म-(परब्रह्म) परमात्मा। महारंभ-(महारम्भ) जिसके आरम्भ करने में महान यत्न करना पड़े, महान, बड़ा।
३६. रिवकुळमण-रविकुलमणि। भण-कह।
४१. वडौ-महान, बड़ा। वेस-आयु, उम्र। -मत। खोय-गमा, नष्ट कर। मुढेस-मूर्ख। चवां-कहता हूँ। चेत-सतर्क हो। पुणौ-कहो। भणां-कहता हूँ। राग-प्रेम अनुराग।
४२. पय-चरण। सोय-वह। दुजवर-चार लघु मात्रा। पयेण-चरण।
४३. पाय-चरण। कंज-कमल। धाव-ध्यान कर। जांनकीस-श्री रामचन्द्र भगवान। जांण-समझ। वेस-आयु, उम्र। जवांण-जवान, युवा।

— 125 —

छंद सबासन
(४ ल. भ. अथवा न. ज. ल. )
खर खळ खंडण, महपत मंडण।
रसण वडापण, रघुवर जंपण।।४४

दूहौ
दुजबर जगण पयेण जिण, सौ करहची सुणंत।
सात गुरू पय जास मध, सीखा छंद सुमंत।।४५

छंद करहची
(४ ल. ज. अथवा न. स. ल. )
लसत चख लाज, सुकर धनु साज।
सझण सगरांम, रसण भज रांम।।४६

छंद सिखा
(७ ग. अथवा म. म. ग. )
जांणै सौ राघौ जांणै, ठांणै सौ राघौ ठांणै।
जीवाड़ै राघौ जैनूं, तौ मारै केहौ तेनूं।।।।४७

अथ अस्टाखिर छंद वरणण, जात अनुस्टप
दूहौ
आठ गुरू पद छंद जिण, विद्युन्माळा अक्ख।
गुरु लघु क्रम अठ वरण पद, सौ मल्लिक विसक्ख।।४८


४४. छंद सबासन का ठीक लक्षण नगण जगण और एक लघु से बैठता है परन्तु कवि ने अपनी दक्षता से चार लघु और एक भगण कर दिया। खर-एक राक्षस का नाम। खळ-असुर। खंडण-नाश करने वाला। महपत-(महीपति) राजा। मंडण-आभूषण। रसण-जिव्हा, जीभ। जंपण-जपना।
४५. दुजबर-चार लघु मात्रा। पयेण-चरण। पय-चरण। करहची-इसका दूसरा नाम करहंस है। जास-जिसके। मध-मध्य। सुभंत-शोभा देता है।
४६. लसत-शोभा देता है, शोभा देती है। चख-(चक्षु) नेत्र, नयन। सुकर-श्रेष्ट हाथ। धनु-धनुष। सझण-सुसज्जित होने के लिए। सगरांम-युद्ध। रसण-जीभ।
४७. जांणै-जानता है। ठांणै-विचारता है। जावाड़ै-जीवित रखता है। जैनूं-जिसको। केहौ-कौन। तैनूं-उसको।
४८. अस्टाखिर-अष्टाक्षर। अक्ख-कह। अठ-आठ। विसक्ख-विशेष।

— 126 —

छंद विद्युन्माल़ा
(८ ग. अथवा म. म. ग. ग)
राघौ राजा सीता रांणी, वेदां में धाता वाखांणी।
सौ गावै जोई है साचौ, कीटांनूं गावै सौ काचौ।।४९

छंद मल्लिका (र. ज. ग. ल. )
आच आब जेम आय, जोव तांस छीज जाय।
कोय अंत नाय कांम, रे अबूझ गाय रांम।।५०

छंद प्रमांणी तथा अरध नाराज तथा तुंग
(ज. र. ल. ग. )
दूहौ
लघु गुरु क्रम वरण अठ, छंद प्रमांणी कथ्थ।
दोय नगण फिर करण दे, सौ कह तुंग समथ्य।।५१

छंद प्रमांणी
नमौ नरेस राघवं, दराज पाय दाघवं।
उपंत स्यांम अंगयं, सनीर अव्र ढंगयं।।
दकूळ पीत लोभयं, सुरूप बीज सोभयं।
निखंग पीठ रज्जयं, सुचाप पांणि सज्जयं।।
मुखारविंद मोहनं, सुमंद हास सोहनं।
जु बांम अंग जांनकी, सु सोभना समांन की।।
वसंत ध्यांन मंजयं, ह्रदे महेस कंजयं।
तवै ज क्रीत तासयं, जनंम धन्य जासयं।।५२


४९. धाता-ब्रह्मा। वाखांणी-वर्णन की, यश गायन किया। सौ-उस, वह। जोई-वही। साचौ-सच्चा। कीटां नूं-कीटों को, तुच्छ देवों को। काचौ-कच्चा।
५०. मल्लिका प्रथम गुरु फिर लघु इस क्रम से रखे हुए आठ वर्ण का छंद। आच-हाथ। आब-पानी। जेम-जैसे। आय-आयु, उम्र। छीज जाय-नाश हो रही है, नाश होती है। कोय-कुछ। अबूझ-मूर्ख।
५१. प्रमांणी-प्रमाणिका छंद। कथ्थ-कह। करण-दो दीर्घ मात्रा का नाम। समथ्थ-समर्थ।
५२. दराज-लंबा, विशाल। उपंत-शोभा देता है। स्यांम-श्याम। अंगयं-शरीर। सनीर-कांतिवान। दकूळ-वस्त्र। पीत-पीला। लोभयं-लोभायमान करने वाला। बीज-बिजली। सोभयं-शोभायमान। निखंग (निषङ्ग)-तर्कश। रज्जयं-शोभायमान। सुचाप-सुंदर धनुष। पांणी-हाथ। सज्जयं-धारण किए हुए है। मुखारविंद-कमल स्वरूपी मुख। मोहनं-मोहित करने वाला। सुमंद-सुंदर और मंद। हास-हँसी। सोहनं-शोभायमान होती है। बांम-बायां। मंजयं-मध्य में। हृदे-हृदय। महेस-महादेव। कंजयं-कमल। तबै-कहता है, स्तवन करता है। क्रीत-कीर्ति, यश। तासयं-उसका। जासयं-जिसका।

— 127 —

छंद त्वंग तथा तुंग (न. न. ग. ग. )
दस सिर खळ दाहं, सुचित सुजन चाहं।
जप जप रघुराजं, सु भुज समर लाजं।।५३

दूहौ
दुजबर जगण सु अंत गुरु, कमळ छंदस कहांण।
भगण करण फिर सगण भिळ, मांन क्रीड़सु वखांण।।५४

छंद कमल (४ ल ज ग. )
रिव सुनिभ राजही, सुकर धनु साजही।
सुकव धर सीस जौ, अवधपुर ईस जौ।।५५

छंद मांनक्रीड़ा (भ. ग. ग. स. )
स्यांम भजै तांम सुखी, दांम भजै और दुखी।
सीतपती गाव सदा, राख जिकौ ध्यांन रिदा।।५६

दूहौ
च्यार तुकां लघु पंचमौ, खट आठम गुरु आंण।
दूजी चौथी सातमौ, लघु अनुस्टुप जांण।।५७


५४. दुजबर-चार लघु मात्रा का नाम। कहांण-कहा गया। करण-दो दीर्घ मात्रा का नाम।
५५. रिव-सूर्य। सुनिभ-समान, आभा, प्रभा। राजही-शोभा देता है। साजही-शोभा देता है। अवधपुर-अयोध्या।
५६. स्यांम-स्वामी, श्याम, श्रीराम। तांम-बहुत अधिक। सीतपती-(सीतापति) श्रीरामचंद्र भगवान। जिकौ-वह, उस। रिदा-हृदय।
नोट-जिसके चारों चरणों में पांचवा अक्षर लघु और छठा अक्षर दीर्घ हो और सम पदों में सातवां अक्षर भी लघु हो, इनके अलावा अन्य अक्षरों पर कोई खास नियम न हो उसे श्लोक तथा अनुष्टुप कहते हैं। ग्रंथकारने जो अनुस्टुप का लक्षण दिया है वह संस्कृत के ग्रंथों से मेल नहीं खाता।

— 128 —

वारता

जींके चार ही तुकां पंचमौं अखिर लघु आवै, अरु छठौ आठमौ गुरु आवै, दूजै, चौथे, सातमौ लघु आवै, च्यार ही तुकां सौ अनुस्टुप छंद छै। पैलो तीजौ अछिर कौ गुरु लघु कौ नेम ही नहीं, गुरु आवै भावै लघु, पंचमौ अखिर च्यार ही तुकां लघु, छठौ च्यार ही तुकां गुरु। दूजी चौथी तुक रा सातमौ अखिर लघु आवै सौ अनुस्टुप कै छै।

छंद अनुष्टुप
राघव जपतौ प्रांणी, मूढ आळस मां करै।
आव दरब आळपं, चेता अंध सचेत रे।।५८

अथ ब्रहती जात नव-अखिर छंद वरणण
दूहौ
महालिछमी पद मही, तीन रगण दरसंत।
दुजबर करणह सगण दखि, सारंगिका लसंत।।५९

छंद महालक्षिमी (र. र. र. )
रांम राजै रसा रूप रे, नेतबंधी वणै नूप रे।
सीत वाळौ पती साच रे, रे मना जेणहूं राच रे।।६०

छंद सारंगिका
(४ ल. ग. ग. स. अथवा न. य. स. )
रघुबर भीली कर रे, बिलकुल सीताबर रे।
रुचि करकंधू फळ रे, जमि हसि पीधौ जळ रे।।६१


५८. मूढ-मूर्ख। मां-मत। आव-आयु, उम्र। दरब-(द्रव्य) धन-दौलत। आळपं (अल्प)-अल्प, कम। चेता-चित से।
५९. ब्रहती-(बृहती)। नव-अखिर-नवाक्षर वृत्ति। महालिछमी-महालक्ष्मी। पद-चरण। मही-में। दरसंत-दिखाई देते हैं, देखे जाते हैं। दुजबर-चार लघु मात्रा का नाम। करणह-दो दीर्घ मात्रा का नाम। दखि-कह कर। लसंत-शोभा देता है, शोभा देती है।
६०. महालक्षिमी-महालक्ष्मी। राजे-शोभा देता है। रसा-पृथ्वी। नेतबंधी-अपना निज का झंडा या ध्वजा रखने वाला, वीर। सीत-सीता। वाळौ-का। मना-मन। जेणहूं-जिससे। राच-अनुरक्त या लीन रह।
६१. भीली-भिल्लनी। कर-हाथ। सीताबर-सीतापति, श्रीरामचंद्र। करकंधू (कर्कन्धु)-बेर का फल या वृक्ष, बदरीफल। जमि-खा कर। हसि-हँस कर। पीधौ-पिया।

— 129 —

दूहौ
मगण भगण फिर सगण मुणि, पायत छंद प्रकास।
गण बे दुजबर एक गुर, रति पद सौ सुख रास।।६२

छंद पायत (म. भ. स. )
तौ पै धूळी सिल तरगी, वारी सारै वारी सारै हि. . . . . .।
ऊं ही राघौ तरणि उडै, छै य्यौ साकौ स कुळ छुडै।।
धोवौ पै तौ कदम धरौ, कै कीरौ कै करौ।।६३

छंद रतिपद (८ ल. ग. अथवा न. न. स. )
धरण कर धनक है, जगत सह जनक है।
समर कळतरस है, सुज जनम सरस है।।६४

दूहौ
न स य बिंब तोमर सगण, यक बे जगण स कोय।
च्यार करण गुरु एक सौ, रूपा-माळी होय।।६५

छंद बिंब (न. स. य. )
मुण महण तार माथै, सुज गिरवरां समाथै।
खळ सबळ वंस खोयौ, जग सरब तेण जोयौ।।
जस ‘किसन’ ते जपीजै, लभ रसण देह लीजै।।६६


६२. मुणि-कह कर। पायत-एक छंद का नाम, इस छंद का दूसरा नाम पाईता भी है। बे-(द्वे) दो। दुजबर-चार लघु मात्रा का नाम।
६३. तौ-तेरे। पै-पैर। सिल-पत्थर। वारी-जल। ऊं ही-ऐसे ही। राघौ-श्रीरामचंद्र भगवान। तरणि-नौका, नाव। छुडै-छूट जाय। तौ-तब। कदम-चरण। -कहता है। कीरौ-कीर, धीवर, मल्लाह। कै-या, अथवा। करद-किराया या कर देने वाला।
६४. धरण-धारण किए हुए। कर-हाथ। धनक-धनुष। जनक-पिता। समर-स्मरण कर। कळतरस (कल्पतरु)-कल्प वृक्ष। सरस-सफल।
६५. न स य-नगण सगण यगण का संक्षिप्त रूप। बिंब-एक छंद का नाम। यक-एक। करण-दो दीर्घ मात्रा का नाम SS। रूपामाळी-एक छंद का नाम।
६६. महण-महार्णव सागर, समुद्र। माथे-ऊपर। समाथै-समर्थ, महान। खोयौ-नाश किया। जोयौ-देखा। ते-उसका। जपीज-जप, जपना चाहिए। लभ-लाभ। रसण-जिह्वा, जीभ। देह-शरीर।

— 130 —

छंद तोमर (स. ज. ज. )
कटि तूंण चाप कराग, खळ भंज रावण खाग।
पह सिद्ध बंधण पाज, मनमोट स्री महराज।।
तिय जांनुकी भरतार, कुळमौड़ भू करतार।
जप पात तूं अठजांम, रिव वंस ओपम रांम।।६७

छंद रूपमाल़ी (९. ग. अथवा म. म. म. )
आपे लंकासी मौजां यूं ही, तौ जेहौ आखां दाता तूं ही।
थूरै जंगां के दैतां थौका, झौका झौका जी राघौ झौका।।६८

अथ दस अखिर छंद वरणण जात पंक्ति
दूहौ
एक सगण बे जगण गुरु, संजुतका सौ गाय।
चंपक माळा भ म स गुरु, त्रिभग सारवति ठाय।।६९

छंद संजुतका (स. ज. ज. ग. )
जय रांम संत सिहायकं, घण दैत आहव घायकं।
मिथळेस राजकुमारयं, उरहार प्रांण अधारयं।।
तन कंद स्यांम सुभावनं पटपीत विद्युत पावनं।
‘किसनेस’ पात उधारयं, धनु बांण पांणसु धारयं।।७०


६७. कटि-कमर। तूंण (तूण)-तर्कश, भाथा। चाप-धनुष। कराग (कराग्र)-हाथ में। खळ-राक्षस। भंज-नाश कर। पह-प्रभु। सिद्ध-सफल, प्रयत्न। पाज-सेतु। मनमोट-उदार। तिय-स्त्री। जांनुकी-सीता। कुळमौड़-कुलश्रेष्ठ। भू-भूमि। पात (पात्र)-कवि। अठजांम-अष्ठ याम, आठों पहर। रिव (रवि)-सूर्य। ओपम-शोभा, कांति।
६८. आपे-दे दी, प्रदान कर दी, अर्पण कर दी। लंकासी-लंका के समान। मौजां-दान। यूंही-ऐसे ही। तौ-तेरे। जेहौ-जैसा। आखां-कहता हूँ। दाता-दातार। थूरै-नाश करता है, संहार करता है। दैतां-दैत्यों। जंगां-युद्धों में। थौका-समूह। झौका-धन्य-धन्य।
६९. संजुतका-एक छंद का नाम, इसका दूसरा नाम संयुत भी है। भ म स-भगण, मगण, सगण का संक्षिप्त रूप। त्रिभग-तीन भगण और एक गुरु का संक्षिप्त नाम। सारवति-एक छंद का नाम।
७०. सिहायकं-सहायक। घण-बहुत अधिक। दैत-दैत्य। आहव-युद्ध। घायकं-नाश करने वाला। मिथळेस-राजा जनक। राजकुमारयं-राजकुमारी। अधारयं-आधार। तन-शरीर। कंद-बादल। सुभावनं-सुन्दर। पटपीत-पीताम्बर। विद्युत-बिजली। पावनं-पवित्र। धनु-धनुष। पांणसु-हाथ में। धारयं-धारण किए हुए।

— 131 —

छंद चंपकमाळा (भ. म. स. ग)
गोह सरीखा पांमर गाऊं, ब्याध कबंधा ग्रीध बताऊं।
नै सट पापी गौतम नारी, ते रज पावां भेटत तारी।।
देव सदा दीनां दुख दाघौ, रे भज प्रांणी भूपत राघौ।।७१

छंद सारवती (भ. भ. भ. ग. )
चाप करां नृप रांम चढ़े, मांझ रजी तद भांण मढ़े।
खौहण के असुरांण खपे, पंख सिवा पळ खाय त्रपे।।
रे नित सौ जन भीड़ रहै, कूंण जनां दुख देण कहै।।७२

दूहौ
तगण यगण भगणह गुरु, सुखमा छंद सुभाय।
नगण जगण नगणह गुरु, अम्रित गत यण भाय।।७३


७१. गोह (गुह)-प्रसिद्ध राम भक्त निषादराज जो शृंगवेरपुर का स्वामी था। सरीखा-समान, सदृश। पांमर-नीच। ब्याध (विराध)-एक राक्षस का नाम जिसको दण्डकारण्य में लक्ष्मण ने मारा था। कबंधा-एक दानव जो देवी का पुत्र था, इसका मुँह इसके पेट में था। कहते हैं कि इन्द्र ने इसको एक बार वज्र से मारा इससे शिर और पैर पेट में घुस गये थे। इसे पूर्वजन्म का विश्वासु गंधर्व लिखा है। रामचंद्रजी से इसका दण्डकारण्य में युद्ध हुआ था। रामचंद्रजी ने इसका हाथ काट कर इसको जीवित भूमि में गाड़ दिया। ग्रीध-जटायु नाम का पक्षी। नै-और। सट-मूर्ख। रज-धूलि। पावां-पैरों। भेटत-स्पर्श करते ही। तारी-उद्धार कर दिया। दाघौ-जलाया, जलाने वाला। भूपत (भूपति)-राजा। राघौ-श्री रामचंद्र।
७२. चाप-धनुष। करां-हाथों। मांझ-मध्य में। रजी-धूलि। तद-तब। भांण-सूर्य। मढ़े-आच्छादित हो गया। खौहण (अक्षौहिनी)-सेना। असुरांण-असुर, राक्षस। खपे-नाश हो गये। पंख-पक्षी। सिवा (शिवा)-श्रृगाली। पळ-आमिष। त्रपे-संतुष्ठित हुए, अघाये। सौ-वह। भीड़-सहाय, मदद। कूंण-कौन। जनां-भक्तों। देण-देने को।
७३. सुभाय-अच्छा लगे। यण-इस। भाय-प्रकार।

— 132 —

छंद सुखमा (त. य. भ. ग. )
नागेस भजै राघौ नत ही, साधार धरा भासै सत ही।
जे गाव कवि तूं धन्य जथा, क्यूं और बखांणै आळ कथा।।७४

छंद अमिृत गति (न. ज. न. ग. )
दसरथ राजकँवर है, सुभ कर धांनख सर है।
रघुबर सौ किव रट रे, मळ तनचा सब मट रे।।७५

अथ एकादस अखिर छंद वरणण, जात त्रिस्टुप
दूहौ
तीन भगण दौ गुरु जठै, दोधक छंद स दाख।
दोय लघु त्रय सगण पद, सौ सुमुखी अहि साख।।७६

छंद दोधक (भ. भ. भ. ग. ग. )
राघव ठाकुर है सिर ज्यां रै, तौ किसड़ी घर ऊंणत त्यां रै।
की जिण राखस सेव करी सी, वेख भभीखण लंक वरी सी।।७७

छंद समुखी (ल. ल. स. स. स. अथवा न. ज. ज. ल. ग. )
जय जय राघव दैतजई, महपत मूरत साचमई।
हरण अनेक विघंन हरी, कमळ करं प्रतपाळ करी।।७८


७४. नागेस-शेष नाग। नत-नित्य। साधार-आधार, सहारा। धरा-पृथ्वी। भासै-मालूम होता है, शोभा देता है। सत-सत्य। जे-अगर। जथा (यथा)-कथा, वृत्तान्त। क्यूं-क्यों। बखांणै-वर्णन करता है। आळ-व्यर्थ असत्य।
७५. कर-हाथ। धांनख-धनुष। सर-बाण। सौ-वह, उस। किव-कवि। मळ-मैल। तनचा-शरीर का। मट-मिटा दे।
७६. जठै-जहाँ। -वह। दाख-कह। सौ-वह। अहि-शेषनाग। साख-साक्षी।
७७. ठाकुर-स्वामी। ज्यां रै-जिनके। तौ-तब। किसड़ी-कैसी। ऊंणत-अभाव, कमी। त्यां रै-उनके। राखस-राक्षस। वेख-देख। भभीखण-विभीषण। वरी-प्रदान की।
७८. दैतजई-दैत्यों को (असुरों को) जीतने वाला। महपत (महिपति)-राजा। मूरत-मूर्ति। साचमई-सत्यमयी। करं-हाथ। प्रतपाळ-रक्षा। करी-हाथी अथवा की।

— 133 —

दूहौ
दोय करण फिर रगण दौ, अंत एक गुरु आंण।
सुणियौ खग कहियौ सरप, छंद सालिनी जांण।।७९

छंद सालिनी
(४ ग. र. र. ग. अथवा म. त. त. ग. ग. )
गावै राघौ सौभणौ पात गाढ़ौ।
आखै वांणी यूं ‘किसन्नेस’ आढ़ौ।।
ते भूला राघौ, विगूतौ भवि त्यांरौ।
जांणैसी पीछै वडौ भाग ज्यांरौ।।८०

दूहौ
दौ दुजबर अंतह सगण, मदनक छंद मुणंत।
गुरु लघु क्रम ग्यारह वरण, सौ सेनका सुणंत।।८१

छंद मदनक (८ ल. स. अथवा न. न. न. ल. ग. )
हरण कसट जन हर है।
विमळ बदन रघुबर है।।
सरब सगुण सह सरसै।
दनुज दहण भुज दरसे।।८२


७९. करण-दो दीर्घ मात्रा का नाम ऽ ऽ। आंण-ला कर। खग-गरुड़। सरप-शेषनाग।
८०. राघौ-श्री रामचंद्र। सोभणौ-शोभा देने वाला। अथवा-सो = वह, भणौ = कहो। पात (पात्र)-कवि। गाढ़ौ-दृढ़, गंभीर। आखै-कहता है। आढ़ौ-आढ़ा गोत्र का चारण। ते-वे। विगूतौ-बरबाद हुआ, व्यर्थ गया। भवि (भव)-जन्म या संसार। त्यांरौ-उनका। जाणैसी-जानेंगे। पीछे-पश्चात्। वडौ-महान। भाग-भाग्य। ज्यांरौ-जिनका।
८१. दुजबर-चार लघु मात्रा(।।।।)। मुणंत-कहा जाता है। सुणंत-सुना जाता है।
८२. बिमळ-पवित्र। बदन-मुख या शरीर। दनुज-राक्षस। दहण-नाश करने को। दरसै-दिखाई देते हैं।

— 134 —

छंद सैनिका
(ग. ल. ग. ल. ग. ल. ग. ल. ग. ल. ग. अथवा र. ज. र. ल. ग)
माथ पंच दूण जुद्ध मारणं।
धांनुखं सरेण पांण धारणं।।
बार बार रांम क्रीत बोल रे।
ताहरौ वडौ कवेस तौल रे।।८३

दूहौ
मालतिका ग्यारह गुरु, बि तगण ज करण जांण।
छंद इंद्र वज्रा छजै, वड कवि रांम वखांण।।८४

छंद मालतिका
(११ ग. अथवा म. म. म. ग. ग. )
राघौ रूड़ो स्री सीता स्वांमी राजै।
भारांथां लाखां दैतां थौका भांजै।।
जैनूं जीहा रातौ-दीहा जी जंपौ।
कांतौ थे कीनासाहूंता ही कंपौ।।८५

छंद इंद्र वज्र (त. त. ज. ग. ग. )
गोपाळ गोव्यंद खगेस-गांमी।
नागेस सज्या क्रत सैन नांमी।।
है जंग वागां दस-माथ हंता।
माहेस बाछळ्य सुकंठ मीता।।८६


८३. माथ (मस्तक)-शीश। गुण-दुगना। मारणं-मारने वाला। धांनुखं-धनुष। सरेण-बाण, बाण से। पांण (पाणि)-हाथ। धारणं-धारण करने वाला। क्रीत (कीर्ति)-यश। ताहरौ-तेरा। कवेस (कवीश)-महाकवि। तौल-मान, प्रतिष्ठा।
८४. बि (द्वे)-दो। -जगण। करण-दो गुरु मात्रा (ऽऽ)। छजै-शोभा देता है। बखांण-वर्णन कर।
८५. रूड़ौ-बढ़िया। राजै-शोभा देता है। भाराथां-युद्धों। थौका-समूह। भांजै-नाश करता है, तोड़ता है। जैनूं-जिसको। जीहा-जीभ। रातौ-दीहा-रात दिन। जी-जीव, प्राण। जंपौ-याद करो, स्मरण करो। कांतौ-पति। कीनासहूंता-यमराज से। कंपौ-कम्पायमान है।
८६. गोव्यंद-गोविंद। खगेस-गांमी-गरुड़ पर सवारी करने वाला, गरुड़ के वाहन से गमन करने वाला। नागेस-शेषनाग। सज्या-शय्या। क्रत-करने वाला। सैन-शयन। नांमी-नाम वाला। जंगवागां-युद्ध होने पर। दसमाथ-रावण। हंता-मारने वाला। माहेस-शिव। वाछळ्य-वात्सल्य। सुकठ-सुग्रीव। मीता-मित्र।

— 135 —

दूहौ
जगण तगण जगण करण, छंदस वज्र उपेंद।
वज्र इंद ऊपयंद पद, मिळ उपजाती छंद।।८७

उपेंद्रवज्रा (ज. त. ज. ग. ग. )
अरेस जेतार जुधां अथाहं।
बिसाळ ऊरंसु अजांनबाहं।।
धनेस देवेस दुजेस ध्यावै।
गुणीस राघौ नित क्यूं न गावै।।८८

छंद उपजात
स्री जांनुकीनाथ सदा सराहौं।
चिंतस बीजौ भजवा न चाहौ।।
दीनांदयावंछित मौज दाता।
भला गुणां जोग अहेस भ्राता।।८९


८७. वज्रउपेंद-उपेन्द्रवज्रा नामक छंद। ऊपयंद-उपेन्द्रवज्रा छंद। उपजाती (उपजाति)-इन्द्र-वज्रा और उपेन्द्रवज्रा के योग से बनने वाला छंद कहलाता है। इस प्रकार के छंद संस्कृत साहित्य में १४ हैं जो इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के योग से ही बनते हैं यथा कीर्ति, वाणी माला, शाला, हंसी, माया, जाया, बाला, आर्द्रा, भद्रा, प्रेमा, रामा, और ऋद्धि और सिद्धि।
नोट-कहीं-कहीं इंद्रवंश और वंशस्थ तथा कहीं-कहीं सार्दूल विक्रीड़ित और स्रग्धरा छंद के योग से बनने वाले छंदों की संज्ञा भी उपजाति मानी गई।
८८. अरेस (अरीश)-महाशत्रु। जेतार-जीतने वाला। अथाहं-अपार। ऊरंसु-उर से, हृदय से, वक्षस्थल से। अजांनबाहं-आजानबाहु। धनेस-कुबेर। देवेस-इन्द्र। दुजेस (द्विजेश)-बड़े-बड़े ऋषि, नारद, व्यासादि। गुणीस (गुणीश)-महाकवि। राघौ-श्रीरामचंद्र। क्यूं-क्यों ? -नहीं।
८९. उपजात-उपजाति। सदा-नित्य। सराहौ-कीर्तन करो, यशगान करो। चिंतस-चित से। बीजौ-दूसरा। भजवा-भजन करने को। चाहौ-इच्छा करौ। दीनदयावंछित-दीनों पर दया करने की इच्छा वाला अथवा हे दीनों, जो तुम अपने पर दया की इच्छा करते हो। मौज-दान। दाता देने वाला। भला-श्रेष्ठ। जोग-योग्य। अहेस (अहीस)-लक्ष्मण।

— 136 —

दूहौ
रगण नगण रगणह ध्वजा, रथोद्धिता सौ होय।
रगण नगण भगणह करण, जिकौ स्वागता जोय।।९०

छंद रथोद्धिता (र. न. र. ल. ग. )
गौर स्यांम सिय रांम गाव रे, पात तूं सपद ऊंच पाव रे।
नेक पाप हर जेण नांम रे, राज राज जगमौड़ रांम रे।।९१

छंद स्वागता (र. न. भ. ग. ग. )
रांम नांम सर पाथर तारे, आप पांण कपि सेन उतारे।
जेण नांम सिव संकर जापै, मांझ कासि नर मोख समापै।।९२

अथ द्वादसाखिर छंद जात जगती
च्यार यगण पदप्रत्त चवां, छंद भुजंगप्रयात।
लिखमीधर पदप्रत सुलछ, रगण च्यार दरसात।।९३


९०. ध्वजा-एक लघु और एक दीर्घ मात्रा का नाम। जिकौ-वह।
९१. रथोद्धिता-रथोद्धता नामक छंद। सिय-सीता। पात (पात्र)-कवि। नेक-थोड़ा, किंचित। जेण-जिसका। जगमौड़-संसार-शिरोमणि।
९२. सर-सागर, समुद्र। पाथर-पत्थर। पांण-शक्ति, बल, भुजा, हाथ। सेन-सेना। जापै-जपते हैं। मांझ-मध्य में। मोख-मोक्ष। समापै-देते हैं।
९३. द्वादसाखिर छंद-द्वादशाक्षरावृत्ति। पदप्रत-प्रति पद या चरण। चवां-कहता हूं।

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