रघुवरजसप्रकास [7] – किसनाजी आढ़ा
— 137 —
छंद भुजंगप्रियात
निभौ रांम जेणं तरी भ्रम्ह नारी।
यं हीं ताड़का मार बांणां उधारी।।
सुबाहं कियौ खंड खंडं सरंखे।
निमौ च्यारसै कोस मारीच नंखे।।
करी ज्याग स्याहाय मूनेस कज्जं।
दखे जै जया बोल आंनेक दुज्जं।।
चितं चाय सीता सपीता अचूकं।
कियौ चाप भूतेसरौ टूक-टूकं।।
‘किसन्नेस’ आखै अरज्जी कविंदं।
बडौ आसरौ रांम पादारब्यंदं।।९४
छंद लक्ष्मीधर (र. र. र. र. )
रांम वांळी रजा सीस ज्यां रै रहै।
कूंण त्यांनै हुवा हीण मांणं कहै।।
वीसरै जीवहूं जेह सीतावरं।
न्यायहीण मदां होय तेता नरं।।९५
दूहौ
च्यार स तोटक च्यार तह, कह सारंग सुतत्थ।
च्यार ज मुत्तीय दांम चव, च्यार भ मोदक कत्थ।।९६
९५. लक्ष्मीधर-इस छंद के अन्य नाम कामिनीमोहन, लक्ष्मीधरा, श्रृंगारिणी तथा स्रग्विणी भी हैं। रजा-आज्ञा। ज्यांरै-जिनके। कूंण-कौन। त्यांनै-उनको। हीण-रहित। वीसरै-विस्मरण करता है। जीवहूं-जीव से। जेह-जिसको। सीतावरं-श्रीरामचंद्र। तेता-उतने।
९६. स-सगण IIS । तह-तगरण SSI । ज-जगण ISI । चव-कह। भ-भगण S।। । कत्थ-कह।
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छंद तोटक (स स. स. स. )
रघुराज सिहायक संत रहै।
कथ भेद जिकौ अज वेद कहै।।
दसमाथ बिभंज भराथ दखं।
पहनाथ समाथ अनाथ पखं।।
पत-सीत प्रवीत सनीत पढं।
दळ जीत लखां रिण जीत दढं।।
रसना ‘किसना’ जिण क्रीत रटौ।
दुख प्राचत ओघ अमोघ दटौ।।९७
छंद सारंग (त. त. त. त. )
राजेस स्रीरांम जे नैण राजीव।
पातां अभै दांन की जांनकी पीव।।
औधेस आछेह के संत आधार।
सारंग-पांणी ‘किसन्नेस’ साधार।।९८
छंद मोतीदांम (ज. ज. ज. ज. )
दिपै रघुनायक दीनदयाळ, पुणां खळ घायक सेवग-पाळ।
चढे दसमाथ विभंजण वंक, लछीवर देण भभीखण लंक।।९९
९८. राजेस (राजेस)-सम्राट। जे-जिसके। राजीव-कमल। पातां-कवियों। पीव-पति। औधेस-अयोध्या-नरेश, श्रीरामचंद्र। आछेह-अपार। सारंग-पांणी (सारंग-पाणि)-सारंग नामक धनुष को धारण करने वाला, विष्णु, श्रीरामचंद्र। साधार-रक्षक।
९९. दिपै-शोभायमान होते हैं। पुणां-कहता हूँ। खळ-असुर, राक्षस। घायक-विध्वंशक, नाश करने वाला। सेवग-पाळ-सेवक या भक्त की रक्षा करने वाला। दसमाथ-रावण। विभंजण-नाश करने को, मिटाने को। वंक-वक्रता, गर्व। लछीवर-लक्ष्मीपति, श्रीरामचंद्र। देण-देने को। भभीखण-विभीषण। लंक-लंका।
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छंद मोदक (भ. भ. भ. भ. )
नायक है जग रांम नरेसर, ते कर लायक देवतरेसर।
सीत तणौ पत संत सधारण, चाव करे भज तूं धिन चारण।।१००
दूहौ
च्यार नगण पद अेक में, तरळनयण भण तास।
नगण भगण बे सगण निज, सौ सुंदरी सुभास।।१०१
छंद तरल़नयण (न. न. न. न. )
विकट कसट हर रघुबर।
सझत सुकर निज धनु सर।।
भगत विछळ जिण ब्रद भण।
सुकवि ‘किसन’ तिण भज सुण।।१०२
छंद सुंदरी (न. भ. भ. स. )
समर में दसकंठ जिण सजे, पह वडा हर चाप दळ पजे।
मनव ते धन जांण सुध मता, रघुपति जस जेस नित रता।।१०३
चौपई
सगण जगण सगणह बे पच्छ।
सौ प्रमिताखिर छंद सुलच्छ।।१०४
१०१. भण-कह। तास-उसको। सौ-वह।
१०३. समर में-युद्ध में। दसकंठ-रावण। जिण-जिस। सजे-संहारे, मारे। पह-प्रभु, राजा। वडा-महा। हर-महादेव। चाप-धनुष। दळ-समूह। पजे-पराजित किये, सजा दी। मनव-मानव, मनुष्य। धन-धन्य। जांण-समझ। मता (मति)-बुद्धि। जेस-जो। रता-अनुरक्त, लीन।
१०४. बे (द्वे)-दो। पच्छ-पश्चात। सौ-वह। प्रमिताखिर-प्रमितासरा नामक छंद।
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छंद प्रमिताखिरा (स. ज. स. स. )
लिछमीस रांम अण-भंग लखौ।
परमेस पाळ जन दीन पखौ।।
हर पाप ताप दुख-ताप-हरी।
तिण पाय रेण रिख नार तरी।।१०५
अथ त्रयोदस अखिर छंद वरणण जात अतिजगति
दूहौ
पंच गुरू सगणह भगण, करणसु माया जांण।
तोटक में गुरु एक वध, तारक छंद वखांण।।१०६
छंद माया
(५ ग. स. भ. ग. ग. अथवा म. त. य. स. ग. )
राघौ राघौ जंपण री, ढील म राखै।
देवा दैतां मांनव नागा, सह दाखै।।
सीता रौ सांमी, जन पाळै।
सतधारी थासी आ देही धन गायां जण थारी।।१०७
छंद तारक (स. स. स. स. ग. )
घणस्यांम सरूप अनूप घणौ रे।
तड़ता पळकौ पटपीत तणौ रे।।
धनु सायक पांण सुभायक धारै।
रघुनायक लायक संतसु तारै।।१०८
१०६. त्रयोदस अखिर छंद-त्रयोदशाक्षरा वृत्ति। करणसु-दो दीर्घ मात्रा से। वखांण-वर्णन कर।
१०७. राघौ-श्री रामचंद्र। जंपण री-जपने की। ढील-विलंब, देरी। म-मत, नहीं। देवा-देवता। दैतां-दैत्यों। मांनव-मनुष्य। नागा-नाग, सर्प। सह-सब। दाखै-कहते हैं। सांमी-स्वामी। सतधारी-सत्य या शक्ति को धारण करने वाला। थासी-होगी। आ-यह। देही-शरीर। धन-धन्य धन्य। गायां-गाने पर। जण-जिसको। थारी-तेरी।
१०८. तड़ता (तड़िता)-बिजली। पळकौ-चमक। पटपीत तणौ-पीताम्बर का। धनु-धनुष। सायक-बांण। पांण (पाणि)-हाथ। सुभायक-शोभा देने वाला,सुंदर। तारै-उद्धार करते हैं।
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दूहौ
छंद भुजंगी पर लघू, अेक वधै सौ कंद।
पंकावळि यक गुरु छ लघु, बि भगण कहत फुणिंद।।१०९
छंद कंद (य. य. य. य. ल. )
नरांनाथ सीतापती रांम जै नांम।
सत्रां भंज लाखां भुजां पांण संग्रांम।।
महाबाह बांणावळी कूंण जे मीढ।
अखां रांम छै रांम राजेस ही ईढ।।११०
छंद पंकावल़ी (ग. छ. ल. भ. भ. )
धांनुख-धर कर पंकज धारत।
सेवग अगणत काज सुधारत।।
जांमण मरणतणौ भय भंजण।
राघव समर सिया मन रंजण।।१११
११०. भंज-नाश करता है, नाश करने वाला। महाबाह-महाबाहु, बड़ी-बड़ी भुजाओं वाला, समर्थ। बांणावळी-धनुर्विद्या में प्रवीण। कूंण-कौन। जे-जिसके। मीढ-समान, समानता। अखां-कहता हूँ। ईढ-प्रतिस्पर्द्धा।
१११. धांनुख-धर-धनुषधारी। कर-हाथ। पंकज-कमल। अगणत (अगणित)-अपार। काज-कार्य। सुधारत-सुधारता है। जांमण-जन्म। भंजण-मिटाने वाला। समर-युद्ध। सिया-सीता। रंजण-प्रसन्न करने वाला।
— 142 —
दूहौ
सम पद दुज सगण जगण, करण अंत निरधार।
दुज भगण रगण यगण, विसम अजास विचार।।११२
छंद अजास
(विषम-पद ४ ल. स. ज. ग. ग. , सम-पद ४ ल. भ. र. य. )
गढ कनक जिसा अगंज गाहै, सुर नर नाग महेस सा सराहै।
कुळ-तरण जनां सिहायकारी, धनुसर पांण रहै सधीरधारी।।११३
अथ चतुरदस अखिर छंद वरणण, जात सक्करी
दूहौ
कहि वसंत तिलका त, भ ज दोय करण जिण अंत।
आद अंत गुरु मध्य लघु, बारह चक्र लसंत।।११४
छंद वसंततिलका (त. भ. ज. ज. ग. ग. )
सारंगपांण जय रांम तिलोकस्वांमी।
भूपाळ-भूप भुजडंड प्रचंड भांमी।।
भूतेस चाप छिनमेक चढाय भंज्यौ।
राजाधिराज सिय मांनस कंज रंज्यौ।।११५
११३. कनक-स्वर्ण, सोना। अगंज-जिससे कोई जीत न सके, अजयी। गाहै-नष्ट कर देता है, ध्वंश कर देता है। सुर-देवता। महेस-महादेव। सराहै-प्रशंसा करते हैं, स्तुति करते हैं। कुळ-तरण (तरकुल)-सूर्यवंशी। सिहायकारी-सहायता करने वाला। सधीरधारी-धैर्यवान।
नोट-छंद अजास के जो लक्षण ग्रंथकर्त्ता ने दोहे में दिये हैं उनसे उदाहरण नहीं मिलता।
११४. चतुरदस अखिर छंद-चतुर्दशाक्षरावृत्ति। सक्करी-शक्कर या शक्वरी। चौदह अक्षरों वाले छंदों की संज्ञा के अंतर्गत निम्नलिखित वर्णवृत्त संस्कृत साहित्य में है, उनमें से ग्रंथकर्त्ता ने सिर्फ उपर्युक्त दो वर्णवृत्तों का ही उल्लेख किया है। वे वर्णवृत्त ये हैं-वसंत-तिलका, असंबाधा, अपराजिता, ग्रहणकलिका, वासंती, मंजरी, कुटिल, इन्दुबदना, चक्र, नांदीमुख, लाली तथा अनंद। उपर्युक्त वर्ण वृत्तों में वसंततिलका को कवि समाज में अधिक महत्त्व दिया गया है। वैसे प्रस्तार भेद से चौदह अक्षरों वाले छंदों की कुल संख्या १६३८४ होती है। त-तगण। भ-भगण। ज-जगण। दोय-दो। करण-दो दीर्घ मात्रा का नाम। ग्रंथकर्त्ता ने चक्रछंद का लक्षण लिखते समय अपनी प्रखर बुद्धि से सिर्फ यह लिख दिया कि जिसके आदि और अंत में दीर्घ वर्ण और मध्य में बारह लघु वरण हो सो भी अति सुंदर लक्षण है। इस छंद में सात-सात वर्ण पर यति होती है।
११५. सारंग-पांण (सारंगपाणि)-विष्णु, श्री रामचन्द्र भगवान। तिलोकस्वामी-त्रिलोकपति। भूपाळ-भूप-राजाओं का राजा, सम्राट। भांमी-बलैया, बलैया लेता हूँ। न्यौछावर होता हूँ। भूतेस-महादेव, शिव। चाप-धनुष। छिनमेक-एक क्षण। भंज्यौ-तोड़ा। सिय-सीता। मांनस (मानस)-चित्त, हृदय, मन। कंज-कमल। रंज्यौ-प्रसन्न किया।
— 143 —
छंद चक्र
(ग. , १२ ल. , ग. अथवा भ. न. न. न. ल. ग. ) ७, ७
रांम भजन विण अहळ जनम रे।
नांम समर पय सिर नित नम रे।।
मांस असत तन चरमसु मळ रे।
स्रीवर रट रट रसण सफळ रे।।११६
अथ पनरह अखर छंद वरणण, जात अतिसक्विरी
दूहौ
गुरु लघु क्रम आखिर पनर, सौ चांमर सुखकंद।
बि नगण २ करण १ बि रगण २ गुरु छजै सालिनी छंद।।११७
छंद चांमर (र. ज. र. ज. र. )
कौड़ दैत भंज संज, पांण चाप सायकं।
नागराज भ्रात बंस, मीत सीतनायकं।।
देवराट क्रीत खाट, नाट बोल ना दखं।
रे नरेस राघवेस, गावजै भजै रिखं।।११८
११७. पनरह अखर छंद-पंचदशाक्षर वृत्ति। पन्द्रह वर्णों के वृत्तों की संज्ञा अतिशक्वरी कही जाती है जिसके अंतर्गत कुल वृत्त प्रस्तार भेद से ३२७६८ तक हो सकते हैं।
११८. कौड़ (कोटि)-करोड़। दैत (दैत्य)-असुर। भंज-नाश कर, संहार कर। संज-अस्त्र, शस्त्र, उपकरण। चाप-धनुष। सायकं-बाण। नागराज-शेषनाग, लक्ष्मण। भ्रात-भाई। मीत (मित्र)-सूर्य। सीतनायकं-सीतापति, श्रीरामचंद्र। देवराट-इन्द्र। क्रीत-यश। खाट-प्राप्त कर। नाट-नहीं। बोल-वचन। ना-नहीं। दखं-कहे, कहते हैं। नरेस (नरेश)-यहां यह शब्द नर के लिये प्रयोग हुआ है, राजा। राघवेस (राघवेश)-श्रीरामचंद्र। भजै-भजते हैं। रिखं-ऋषि।
— 144 —
छंद सालिनी (न. न. ग. र. र. ग. )
महण मथण राघौ वाग संसार माळी।
तिपुर घड़ण भंजै वाजन्तां हेक ताळी।।
अहनिस भज तैनूं आव संसार ओछी।
छ-दरस यम आखै, जे बिना सब्ब छोछी।।११९
दूहौ
सगण पंच भमरावळी, स ज दौ भ रह विवेक।
सुकळ हंस चवदह लघू, रभस गुरु पद एक।।१२०
छंद भ्रमरावल़ी (स. स. स. स. स. )
कर साझत रांम सुचाप सरं कळहं।
दुगमं खळ सीस-दुपंच जिसास दहं।।
रघुनायक धारत मौज सुचित्त रूड़ी।
गढ लंक जिसा दत आपत हेक घड़ी।।१२१
१२०. स-सगण। ज-जगण। भ-भगण। रह-रगण।
१२१. कर-हाथ। साझत-धारण करते हैं। सुचाप-सुंदर धनुष। सरं-बाण। कळहं-युद्ध। दुगमं-जबरदस्त, महान। खळ-असुर। सीस-दुपंच-रावण। जिसास-जैसे। दहं-नाश, नाश करने वाला। सुचित्त-उदार चित्त। रूड़ी-बढ़िया, श्रेष्ठ। जिसा-जैसा। दत-दान। आपत-देते हैं, दे दिया। हेक-एक।
— 145 —
छंद कलहंस (स. ज. ज. भ. र. )
रघुनाथ भंज दुपंच-माथ अभंग रे।
जयवांन भूप अमांन आसुर जंग रे।।
जळधार तार गिरंद बंधण पाज रे।
लिछमीस दास अनाथ राखण लाज रे।।
मछराळ देव दयाळ ग्रीवसु म्यंत रे।
‘किसनेस’ गाव सचाव सीत-कंत रे।।१२२
छंद रभस
(१४ ल. ग. अथवा न. न. न. स. ) ६, ९
रिवकुळ मुकट अघट रघुबर है।
सुरतर सर भर जिकण सुकर है।।
हरण सकळ अघ करण अमर है।
चव जस ‘किसन’ चवत थिर चर है।।१२३
अथ सोळै अखिर छंद वरणण, जात अस्टि
दूहौ
भ ज स न र ह पनरह अखिर, निसपाळिका सु गाव।
लघु गुरु क्रम सोळह अखिर, सौ नाराज सुभाव।।१२४
छंद निसपाल़िका (भ. ज. स. न. र. )
रांम सरखा नरप कोय यळ ना रजै।
छात्रपत रांम सम रांम करगां छजै।।
कोड़ अघ ओघ जिण नांम अरधै कटै।
रे ‘किसन’ खांत कर क्यूं न तिणनै रटै।।१२५
१२४. सोळै अखिर छंद-षोड़शाक्षरावृत्ति। अस्टि (अष्टि)-सोलह वर्ण की वर्ण-वृत्ति जिसके कुल भेद ६५५३६ तक हो सकते हैं।
१२५. सरखा (सदृश)-समान। नरप (नृप)-राजा। कोय-कोई। यळ-पृथ्वी। छात्रपत (छत्रपति)-राजा। सम-समान। करगां-हाथ। छजै-शोभा देता है। अरधै-आधा। खांत-विचार। तिण-उस।
— 146 —
अथ सौल़ै अखिर छंद ब्रद्धिनाराज
(ज. र. ज र. ज. ग. )
न रूप रेख लेख भेख तेख तौ निरंजणं।
न रंग अंग लंग भंग संग ढंग संजणं।।
न मात तात भ्रात जात न्यात गात जासकं।
प्रचंड बाहु डंड रांम खंड नौ प्रकासकं।।१२६
दूहौ
पांच भगण गुरु अंत पद, सौ पद-नील सुछंद।
गुरु लघु क्रम सोळह वरण, कहि चंचळा कब्यंद।।१२७
छंद पदनील (भ. भ. भ. भ. भ. ग. )
कौड़क तीरथ राज चिहूं दिस धाय करै।
सौ लख कौड़ अखंड वडा व्रत जे सुधरे।।
ज्याग महा असमेध धरादिक दांन जते।
तौ पण रांम प्रमांण तणै तिल जोड़ न ते।।१२८
नोट-वृहदनाराच छंद का दूसरा नाम पंचचामर भी है। ग्रंथकर्त्ता ने इसके लक्षण में प्रथम लघु फिर गुरु इस क्रम से सोलह वर्ग माने हैं।
१२७. सौ-वह। पद-नील-छंद के नाम। इस छंद के अन्य नाम नील, अश्वगति, लीला और विशेषक भी मिलते हैं। चंचळा-छंद का नाम विशेष। इस छंद का दूसरा नाम चित्र भी मिलता है। ग्रंथकर्त्ता ने प्रथम गुरु फिर लघु इस क्रम से सोलह वर्ण का प्रत्येक चरण माना है। कब्यंद (कवीन्द्र)-महाकवि।
१२८. कौड़क-करोड़। चिहूं-चारों। दिस-दिशा। धाय करें-दौड़ करे, प्ररिभ्रमरण करे। जे-जो, अगर। ज्याग-यज्ञ। असमेघ-अश्वमेध यज्ञ। धरादिक-भूमि आदि। जते-जितने। तौ पण-तो भी। जोड़-बराबर, समान। ते-वे।
— 147 —
छंद चंचल़ा (र. ज. र. ज. र. ल. )
देव देव दीन नाथ राज राज स्री दयाळ।
वासुदेव विस्वदेव वंदनीक नै विसाळ।।
नारसींघ नार अैण नरांनाह नाभकंज।
रांमचंद्र राघवेस रूपरास रमा रंज।।१२९
अथ सतरै वरण छंद जात यिस्टी
दूहौ
जगण सगण जगणह सगण, यगण ध्वज जिण अंत।
सुजस रांम ‘किसनौ’ सुकव, प्रथ्वी छंद पढंत।।१३०
छंद प्रथ्वी (ज. स. ज. स. य. ल. ग. )
महा सुगण रूप है सुचित सार आचार में।
सखां कवण जोड़ जे, अघट आज संसार में।
यळा सह वदै यसौ सुजन रांम साधार है।
पुणां जस जिकै पढौ सुज कथा स आसार है।।१३१
नोट-चंचला छंद के तृतीय चरण में छंदोभंग दोष है।
१३०. सतरै वरण छंद-सप्तदशाक्षरावृत्ति। जात यिस्टी-यहां पर मूल प्रति में यिस्टी लिखा मिला परन्तु यहां पर प्रति अस्टी या प्रति यिस्टी शब्द होना चाहिए था। सत्रह वर्णों की वर्ण वृत्ति का शुद्ध नाम अत्यष्टि है जिसके अन्तर्गत शिखरणी, हरिणी, पृथ्वी, मन्दाक्रांता आदि छंद होते हैं जिनकी कुल संख्या १३१०७२ तक होती है। ध्वज-प्रथम लघु फिर गुरु मात्रा का नाम। जिण-जिस। पढंत-पढ़ता है।
१३१. सुगण-(सगुण) सत्व, रज और तम तीनों गुणों युक्त परमात्मा का एक नाम। सार-सारांश, अस्त्र-शस्त्र, तलवार। आचार-व्यवहार। सखां-कहते हैं। कवण-कौन। जोड़-समान। जे-जिस। अघट-अद्वितीय। यळा (इला)-पृथ्वी। सह-सब। वदै-कहते हैं। यसौ-ऐसा। सुजन-श्रेष्ठजन, अथवा स्वजन। साधार-रक्षक। पुणां-कहता हूँ। जिकै-जिसका। आसार-यह सार है, अथवा आश्रय है।
— 148 —
दूहौ
दुज ज भ त गुर पायप्रत, सौ माळाधर कत्थ।
ल गुरु पंच लघु पंच तस, सौ सिखरणी समथ्थ।।१३२
छंद माल़ाधर
(४ ल. ज. भ. ज त. ग. अथवा न. स. ज. स. य. ल. ग. )
नरं जनम जे दियौ समर जांनकीनाथ सौ।
अज अहप ईस रे जपत है सदा गाथ जौं।।
मत विलम तू करै भजण रांम माहीप रे।
जप ‘किसन’ नांम जे जनम औ लियौ जीप रे।।१३३
छंद सिखरणी
(१ ल. ५ ग. न. स. भ. ल ग. अथवा य. म. न. स. भ. ल. ग. )
तवौ राघौ राघौ करम अघ दाघौ तनतणा।
महाराजा सीता-वलभ कुळ-मीता विण-मणा।।
यरां जैता जंगां अडर यक-रंगां जग अखै।
सकौ गावौ जीहा अवस निस-दीहा अज सखै।।१३४
१३३. जे-जिस। समर-स्मरण कर। जांनकीनाथ-सीतापति, श्री रामचन्द्र भगवान। सौ-उस, वह। अज-ब्रह्मा। अहप-(अहिप) शेषनाग। ईस-(ईश) महादेव। सदा-नित्य। गाथ-कथा। जौ-जिस। विलम-(विलम्ब) देरी। माहीप (महिपति, महिप)-राजा। जे-जिस, अगर। औ-यह। जीप-जीत, विजय कर।
१३४. तवौ (स्तवन)-स्तवन करो, यश-गान करो। अघ-पाप। दाघौ-जला दो, भस्म करो। तन-शरीर। तणा-के। सीता–वलभ (सीता वल्लभ)-सीताप्रिय, रामचंद्र। कुळ-मीता (कुल + मित्र)-सूर्य वंश, सूर्य वंश का। विण-मणा-महान, अपार। यरां (अरियों)-शत्रुओं। जैता-जीतने वाला। अडर-निर्भय। यक-रंगा-एक ही रंग का, एक ही स्वभाव का। अखै-कहता है। सकौ-सब, उस। जीहा-जीभ। अवस-अवश्य। निस-दीहा-रात-दिन। अज-ब्रह्मा। सखे-साक्षी देता है।
— 149 —
दूहौ
मगण भगण फिर नगण मुणि, तगण दोय फिर जोय।
करण एक अहराज कहि, मंदाक्रांता होय।।१३५
छंद मंदाक्रांता (म. भ. न. त. त. ग. ग. ) ४, ६, ७
सीता सीतारमण हरही नेक संताप संतां।
मींता मींता सकुळ धर ही भेख लज्जा समंतां।।
माधौ माधौ रस जप ही भाग छै जेण मोटौ।
त्यांरा दासां सरब सुख रे आथरौ नांहि तोटौ।।१३६
दूहौ
नगण सगण मगणह रगण, सगण एक ध्वज अंत।
खगपत सुण अहपत अखै, हरिणी छंद कहंत।।१३७
छंद हरिणी (न. स. म. र. स. ल. ग. )
भजन करणौ जीहा भूपां पती रघु भूपरौ।
बिरद धरणौ बँका रे कोट भांग सरूपरौ।।
सुजन वित देणौ लेणौ क्रीत गाथ सधीर है।
हरण दुख व्है संतां मात-पिता रघुबीर है।।१३८
१३६. सीतारमण-सीता के साथ रमण करने वाला, श्री रामचंद्र भगवान। हरही-दूर करेगा, मिटायेगा। नेक-थोड़ा। संताप-पीड़ा, कष्ट। माधौ-माधव, विष्णु, श्री रामचंद्र। रसण-(रसना) जिव्हा, जीभ। भाग-भाग्य। छै-है। जेण-जिसका, जिससे। मोटौ-महान। त्यांरा-उनके। दासां-भक्तों। आथरौ (अर्थस्य)-धनका। नांहि-नहीं। तोटौ-प्रभाव, कमी।
१३७. ध्वज-प्रथम लघु फिर दीर्घ मात्रा का नाम। खगपत (खगपति)-गरुड़। अहपत (अहिपति)-शेषनाग। कहंत-कहते हैं, कहा जाता है।
१३८. जीहा-जिव्हा, जीभ। भूपां पती-(भूपपति) सम्राट। रघु-रघुवंशी। भूपरौ-राजा का। बिरद (विरुद)-यश। धरणौ-धारण करने वाला। बंका-बांकुरे, महान। कोट (कोटि)-करोड़। भांण (भानु)-सूर्य। सरूपरौ-स्वरूप का। सुजन-सजन, स्वजन। वित-द्रव्य, धन-दौलत। देणौ-देने वाला। लेणौ-लेने वाला। क्रीत-कीर्ति। गाथ-कथा। सधीर-धैर्यवान, दृढ़।
— 150 —
अथ अठारै वरण छंद, जात ध्रति
दूहौ
छ गुरु भगण मगणह सगण, मगण छंद मंजीर।
र स ज ज फिर भगणह रगण, सौ चरचरी सधीर।।१३९
छंद मंजीर
(६ ग. भ. म. स. म. अथवा म. म. भ. म. स. म. )
हाथी कीड़ी कांटे हेकण सौ तोलै, जग जांणै सारौ।
रंकां रावां जोड़े राखत, तैं कीजै निबळां निस्तारौ।।
दीनां लंका जे हाथां न कजै दीधा जग सारौ जांणै।
वेदां भेदां धाता वीठळ वारंवार रटै वाखांणै।।१४०
छंद चरचरी (र. स. ज. ज. भ. र. )
देव राघव दीन पाळ दयाळ वंछित दायकं।
नाग मांनव देव नांम रटंत सीय सुनायकं।।
माथ-पंच दुयेण भंज अगंज भूप महाबळं।
वंद तूं ‘किसनेस’ पात सुपाय जे जन वाछळं।।१४१
१४०. कांटे-तराजू में, तकड़ी में। हेकण-एक। सारौ-सब। रंकां-गरीबां। रावां-राजाओं। जोड़े-समान, बराबर। निस्तारौ-उद्धार। धाता-ब्रह्मा। वीठळ-विष्णु, ईश्वर।
१४१. वंछित-इच्छित, अभीष्ट। दायकं-देने वाला। रटंत-रटते हैं। सीय सुनायकं-सीतापति श्री रामचंद्र भगवान। माथ-पंच-रावण। दुयेण-दो, यहां दो हाथों से तात्पर्य है। भंज-नाश किया। पात-कवि। सुपाय-सुंदर, श्रेष्ट। जे-जो, जिसके। जन-भक्त। वाछळं-वात्सल्य।
— 151 —
दूहौ
पड़ै यगण खट चरण प्रत, क्रीड़ा छंद कहाय।
‘किसन’ सुकव अहपत कहै, रट कीरत रघुराय।।१४२
छंद क्रीड़ा (य. य. य. य. य. य. )
रटौ जांम आठूं सदा हो जना चूंपसूं रांम रांमं।
महाबाह सीतापती राखणौ सेवतां संत सांमं।।
कटी तूंण पांणं सरं चाप आमाप तेजं कळासै।
नरां नाथ सामाथ आंनेक ओघं अघं दैत नासै।।१४३
अथ उगणीस अख्यर छंद, जात अतिध्रति
दूहौ
मगण सगण जगणह सगण, तगण दोय गुरु एक।
सारदूळविक्रीड़तह, वरणौ छंद विसेक।।१४४
छंद सारदूल़ विक्रीड़त (म. स. ज. स. त. त. ग. )
जै जै औध नरेस संत सुखदं स्रीरांम नारायणं।
सीतानाथ सुनाथ, दास करणं संसार सारायणं।।
देवाधीस रिखीस ईस अजयं ते सेव पारायणं।
पायं कंज ‘किसन्न’ रक्खि सरणं आणंदकारायणं।।१४५
१४३. जांम आठूं-अष्टयाम, आठ पहर। जना-भक्त। चूंपसूं-दक्षता से, चतुराई से। महाबाह (महाबाहु)-विशाल भुजा वाला। सीतापती (सीतापति)-श्री रामचन्द्र। राखणौ-रखने वाला। सांमं-स्वामी। कटी (कटि)-कमर। तूंण-तर्कश, भाथा। पांणं (पाणि)-हाथ। सरं-बाण। चाप-धनुष। आमाप-अपार, असीम। सामाथ-समर्थ। आंनेक-अनेक। ओघं-समूह। अघं-पाप। दैत-असुर दैत्य। नासै-नाश करता है।
१४४. उगणीस अख्खर छंद (ऊनविंशत्याक्षरा वृत्ति)-उन्नीस अक्षरों के छंद। छंद जात अति-धृति (अतिधृति) उन्नीस वर्णों के छंदों की संज्ञा जो कुल प्रस्तार भेद से ५२४२८८ तक होते हैं। विसेक-विशेष।
१४५. जै जै-जय जय। औध-नरेस-अयोध्या नरेश, श्रीरामचंद्र भगवान। सुखदं-सुख देने वाला। सारायणं-शरण देने वाला। देवाधीस (देवाधीश)-इन्द्र। रिखीस (ऋषीश)-महर्षि। ईस-शिव, महादेव। अजयं (अज)-ब्रह्मा। सेव-सेवा। पारायणं-पूर्ण। पायं-पैर, चरण। कंज-कमल। आणंद–कारायणं-आनंद करने वाला।
— 152 —
पुन अन्य च अपभ्रंस भाखा
सारदूल़ विक्रीड़त (म. स. ज. स. त. त. ग. )
आस्चर्यं रघुनाथ भूप-महदं त्वनांमंमुच्चारणम्।
जन्मं संचिदघोरघोर कळुसं नासं तमेकं-छिनम्।।
ते अंभोरुह अंघ्रि एन सरणं प्राप्तं नांमांमीस्वरम्।
तेसां विघ्नविलीयमांन तुरितं ध्वांतमिव भास्करम्।।१४६
दूहौ
अखिर गुणीसह अवर लघु, ग्यारहमौ गुरु होइ।
छ नगण गुरु अंतह सु फिर, धवळ कहावै सोर।।१४७
छंद धवल़
(१० ल. ग. ८ ल. अथवा न. न. न. ज. न. न. ल. )
कळह मझ गहत जद रांम धनु निज सुकर।
हरत रिम कटक घण-माळ उर सझत हर।।
खुलत रिख नयण सुण पंख पळचर खरर।
डगमगत यर घुसत भाज परबत डरर।।१४८
१४७. अखिर-अक्षर। गुणीसह-उन्नीस।
१४८. कळह-युद्ध। मझ (मध्य)-में। गहत-धारण करता है, करते हैं। जद-जब। सुकर-श्रेष्ठ हाथ। हरत-मिटाते हैं, मिटाता है। रिम-शत्रु। कटक-सेना। घण-माळ (शिर, मुख + माळ = माला)-रुंडमाला। सझत-धारण करते हैं। हर-महादेव। रिख-नारद ऋषि। पंख-पर, पक्ष। पळचर-आमिषहारी। खरर-आवाज, ध्वनि विशेष। डगमगत-डाँवाडोल होते हैं, कम्पायमान होते हैं। यर (अरि)-शत्रु। घुसत-प्रवेश करते हैं। परबत-पर्वत, पहाड़। डरर-भय से।
— 153 —
पुन अन्य विधि छंद धवल़
(न. न. न. न. न. न. ग. )
जिण पय सुरसरि अघहर सरित जनम है।।
करत मजन तिण जळ जन कटत अक्रम है।।
बिबुध सकळ अहनिससु जपत सियबर है।
तव नित ‘किसन’ रसन रघुबर सुरतर है।।१४९
दहौ
सगण तगण यगणह भगण, सात गुरू पय पच्छ।
अहपत खगपतसूं अखै, संभू छंद सुलच्छ।।१५०
छंद शंभू
(स. त. य. भ ७ ग. अथवा स. त. य. म. भ. ग. )
जग माथै राजत औ जेते हरि एहौ आनूंपा जापं।
तितरै मां मांनव तूं त्रासे जमवाळी मांने धू तापं।।
‘किसनौ’ यूं आखत आचांके, बहनांमी भांमी बाबा रे।
करणारौ बारध छै केसौ, अध नांमे संतां ऊधारै।।१५१
१५०. पच्छ-पश्चात, बाद में। अहपत-शेषनाग। खगपतसूं-गरुड़ से। सुलच्छ-अच्छे लक्षण।
१५१. माथै-ऊपर, पर। राजत-शोभा देता है। एहौ-ऐसा। आनूपा (अनूप)-अनोखा। तितरै-तब तक। मां-मत। त्रासे-डरे। धू-निश्चय। तापं-भय। आखत-कहता है। बहनांमी-बहुत से नामों वाला, ईश्वर। भांमी-न्यौछावर, बलैया। बाबा-ईश्वर। करणा (करुणा)-दया। बारध (वारिधि)-सागर। अध-आधा। नांमे-नाम से। ऊधारै-उद्धार करता है।
— 154 —
अथ वीस अखिर छंद वरणण जात क्रति
दूहौ
सगण जगण बे भगण सुण, रगण सगण ध्वज थाय।
सकौ गीतिका गंडिका, वीस गुरू लघु पाय।।१५२
छंद गीतिका
(स. ज. ज. भ. र. स. ल. ग. ) १२, ८
करतार भू अधार केसव धार पाण सुधांनखं।
रघुनाथ देव समाथ राजत मां विसार स मांनुखं।।
जळ पाज बंध उतारजै कपि साज सेन सकाजयं।
रसना ‘किसन्न’ सु जांम-आठ उचार सौ रघुराजयं।।१५३
छंद गल्लिका (र ज. र. ज. र. ज. ग. ल. )
रांम नांम आठ-जांम गाव रे सुपात एह देह सार।
और धंध फंद सौ अनाख रे न आखरे गणं नकार।।
औध-ईस जेण सीस आच रे थया सकौ सुनाथ थाय।
जेण पाय कंज लीध आसरौ जके जनंम जीत जाय।।१५४
अथ अकवीस वरण छंद वरणण जात प्रक्रति
दूहौ
मगण रगण भगणह नगण, यगण तीन प्रति पाय।
वीस एक सोभित वरण, सौ स्रगधरा सुभाय।।१५५
१५३. गीतिका-इस छंद के प्रथम चरण की रचना में छंद शास्त्र के नियम का निर्वाह नहीं हुआ। सुधांनखं-श्रेष्ठ धनुष। समाथ-समर्थ। मां-मत। विसार-विस्मरण कर। स-उसको। मांनुख-मनुष्य। रसना-जीभ। जांम-आठ (अष्ट याम)-आठों पहर। सौ-उस, वह।
१५४. गंडका, गंडिका गल्लिका छंद-रल्यका आदि इस छंद के अन्य नाम हिंदी व राजस्थानी भाषा में मिलते हैं। इसे छंद शास्त्र में वृत्त भी कहा गया है। प्रथम गुरु फिर लघु इस क्रम से बीस वर्ण का यह वृत्त माना गया है। ऐसा ही लक्षण ग्रंथकर्त्ता ने दिया है। आठ-जांम (अष्टयाम)-आठों पहर। सुपात (सुपात्र)-श्रेष्ठ कवि। एह-यह। सार-सारांश, तत्त्व रूप। धंध-धंधा, कार्य, काम। फंद-बंधन, जाल। अनाख (अनाहक)-नाहक, व्यर्थ। औध-ईस-श्री रामचंद्र भगवान। जेण-जिसके। आच-हाथ। थया-हुए। सकौ-सब, वह। पाय-चरण। कंज-कमल। लीध-लिया। आसरौ-सहारा, आश्रय।
१५५. अकवीस वरण छंद-एक विंशत्याक्षरावृत्ति। इक्कीस अक्षरों के छंद की संज्ञा प्रकृति कही जाती है जिसमें प्रस्तार भेद से २०९७१५२ भेद होते हैं।
— 155 —
छंद स्रग्धरा (म. र. भ. न. य. य. य. )
जै राघौ राज राजं अमर नर अहं क्रीत जे जीह जापै।
आचारी झौक लागै छिनक मझ करां लंक सा दांन आपे।।
धींगां जाड़ा मरोड़े अडर कर उभै, बांण धांनंख धारै।
तौनूं जीहा रटतां जनम अघ हरै, दास धू जेम तारै।।१५६
दूहौ
भगण रगण दुजबर नगण, दोय भगण गुरु दोय।
अहपत खगपत सूं अखै, छंद नरिंद सकोय।।१५७
छंद नरिंद
(भ. र. ४ ल. न. भ. भ. ग. ग अथवा भ. र. न. न. ज. ज. य. ) १३, ८
धारण मांण पांण सर धनखह रांम बडा ब्रद धारै।
आपण मोख दांन जस जग जिण, आठह-जांम उचारै।।
सागर रूप सूरपण सरसत च्यार दसा मझ चावौ।
गौ दुज पाळ तार निज जन जग गैंवर-तारण गावौ।।१५८
चौपई
आठ गुरु बारह लघू होय, दीपै जिण अंतै गुरु दोय।
सौ कह हंसी छंद सकाज, जंपै नाग सुणौ खगराज साखै।।१५९
१५७. दुजबर-चार लघु मात्रा का नाम। अहपत-शेषनाग। खगपत-गरुड़। अखै-कहता है। नरिंद-नरेंद्र छंद। सकोय-वह।
१५८. पांण (पाणि)-हाथ। सर-बाण। धनखह-धनुष। आपण-देने को। मोख-मोक्ष। आठह-जांम (अष्टयाम)-आठों पहर। सूरपण-शौर्य, वीरता। सरसत-सरसाता है। मझ-मध्य। चावौ-प्रसिद्ध, विख्यात। गैंवर-तारण-गज का उद्धार करने वाला।
१५९. दीपै-शोभा देता है। जंपै-कहता है। नाग-शेषनाग। खगराज-गरुड़।
— 156 —
छंद हंसी (म. म. त. न. न. न. स. ग. ) ८, १४
सारी बातां नीकौ सोहै, रघुबर जस सह जग यम साखै।
भाळौ रूड़ौ खोजै सेणा, भव ससि निगम भ्रहम रवि भाखै।।
माधौ राघौ केसौ एहौ, समरण कर छिन-छिन सुख मूळं।
जाडा पापां दाहै जेही, तिलकरण दहण अगण-मण तूळं।।१६०
दूहौ
सात भगण मदिरा वदै, गुरु सुंदरी कहंत।
सात भगण दो गुरु मिळै, मत्त गयंद मुणंत।।१६१
छंद मदिरा (भ भ भ भ भ. भ. भ. )
रांम अभंगम सोभत जंग धनू सर हाथ सुधारण।
रांम समाथ कहै जग गाथ तकौ सर पाथर तारण।।
राम दयाळ अनास्रय पाळ अनेक अनाथ उधारण।
पारस रांम सरै सब कांम चवौ अठ-जांमसु चारण।।१६२
नोट-हंसी छंद को इक्कीस अक्षरों के वृत्तों में लिखा है परन्तु वास्तव में यह वृत्त २२ वर्ण का होता है।
१६१. वद-कहते हैं। मुणंत-कहते हैं।
१६२. अभंगम-नहीं टूटने वाला। धनू-धनुष। समाथ-समर्थ। गाथ-कथा, वृत्तांत। तकौ-वह, उस। सर-सागर, समुद्र। पाथर-पत्थर। तारण-तारने वाला, तैराने वाला। अनास्रय-जिसका कोई आश्रय न हो। पाळ-पालन करने वाला। उधारण-उद्धार करने वाला। सरै-सफल होते हैं। चवौ-कहो।
नोट-मदिरा छंद २२ अक्षर का वर्ण वृत्त होता है जिसमें ७ भगण के बाद एक दीर्घ वर्ण होना आवश्यकीय माना गया है परन्तु यहां पर केवल सात भगण ही दिये गये हैं।
— 157 —
छंद सुंदरी ब्रज भाखा
(भ. भ. भ. भ. भ. भ. भ. ग. )
आसन स्यंघ घटा तन स्यांम, पटंबर पीतसु विद्युत है।
चाप सिलीमुख पांन विमोह सु बांम विभाग सिया जुत है।।
त्यौं अरिहा सुत केकय कौ कर चौंर अनंत विनै क्रत है।
पाय पलौटत वात-तनै यह ध्यांन रघुब्बर राजत है।।१६३
छंद मत्तगयंद (भ. भ. भ. भ. भ. भ. भ. ग. ग. )
गौतम नार सु पाहन तैं रज पाय लगे रघुनायक तारी।
पांमर जात पुलिंद जु बोरसु जेवत स्रीमुख बार न धारी।।
हाथन तैं करि स्राध जटायुसु पायन की रज के सहि झारी।
सौ रघुनाथ विसार भजै, अन तौ नर मूरख वात विगारी।।१६४
छंद चकोर लछण चौपई
सात भगण गुरु लघु जिण अंत, तिणनूं चंद चकोर तवंत।।१६५
छंद चकोर (भ. भ. भ. भ. भ. भ. भ. ग. ल. )
स्रीरघुनाथ अनाथ सिहायक दायक नौ निधि वंछित दांन।
रांवण से खळ घायक संगर माधव है सब लायक मांन।।
पूरण ब्रीहम अखै अज ईस प्रथीप धरै धनु सायक पांन।
सौ सियारांम भज्यौं नहिं नेक जनंम ब्रथा जग में जिहिं जांन।।१६६
१६४. नार-नारी, स्त्री। पाहन-पत्थर। रज-धूलि। पुलिंद-एक प्राचीन असभ्य जाति। बार-देरी, विलंब। विसार-भूल कर। अन-अन्य।
१६६. सिहायक-सहायक। दायक-देने वाला। नौ-नव। वंछित-वांछित, अभीष्ट। घायक-मारने वाला। संगर-युद्ध। अज-ब्रह्मा। ईस-महादेव। प्रथीप-राजा। सायक-बाण, तीर। पांन (पाणि)-हाथ। जिहिं-जिसका।
— 158 —
अथ चौवीस अखिर छंद जात संस्क्रति
दूहौ
आठ भगण किरीट कहि, आठ स दुमिळा थात।
आठ यगण पद परत सौ, महाभुजंगप्रयात।।१६७
छंद किरीट (८ भ. )
कौटिक तीरथ धाय करौ,
अरु कौटि करौ ब्रत देह बिथा करि।
कौंटिक ज्याग करौ,
असमेध रु कौटि करौ गवदांन दुजेसर।।
कौटिक जोग-अठंग सधौ,
अरु कौटि तपौ तप नेम धराबर।
ये ‘किसना’ सुपने न कहूं,
यक स्री रघुनायक नांम बराबर।।१६८
छंद दुमिल़ा (८ स. )
जर नैन दियौ जननी,
जठरा हरि धाय कै आय सिहाय कियौ।
जनम्यौ जबते जिन पोख,
रख्यौ तन आस्रय तौखते टारि लियौ।।
तरुनाई में आपहि ईस भयौ,
जगदीस कूं मूरख भूलि गियौ।
‘किसना’ भजि रांम सियावर कौ,
जिन चांच बनाय के चूंन दियौ।।१६९
१६८. कौटिक-करोड़। कौटि-करोड़। बिथा-कष्ट। ज्याग-यज्ञ। असमेध-अश्वमेध। गवदांन-गौ दान। दुजेसर (द्विजेश्वर)-महर्षि, ब्राह्मण। जोग-अठंग (अष्टाङ्ग योग)-अष्टाङ्ग योग। सधौ-साधन करो। यक-एक।
१६९. जठरा-जठर, गर्भ। पोख-पालन-पोषण। तरुनाई-युवावस्था। ईस-समर्थ। चूंन (चूर्ण)-भोजन।
— 159 —
छंद पुनरपि दुमिल़ा (८ स. )
मुख मंगळ नांम उचार सदा तन के अघ ओघन दाघव रे।
हनमंत बिभीखन भांन तनै जिन कीन वडे जन लाघव रे।।
भुजगेस महेस दुजेस रिखी नित पै रज चाहत माधव रे।
तजि आंन उपाय सबै ‘किसना’ भज राघव राघव राघव रे।।१७०
छंद पुनरपि दुमिल़ा (८ स. )
बयकूंट बिलासन कौ तजि के बध कौन चहैं जमपासन की।
म्रगराज पळासन त्यागन के चित हूंस धरौ नहि घासन की।।
कबहू नहि मंगत और पिया तजि संगत गौर व्रखासन की।
रघुनाथ जु रावरे दासन के चित आसन आंन उपासन की।।१७१
छंद पुनरपि दुमिल़ा (८ स. )
हम कीन अनेक गुन्हैं हरिजू तुम एक न लेख उतारिएजू।
हम पापि महा जिद काहै करै, व्रिद रावर की पर पारिएजू।।
कुरुनामय राघव जांनकीवल्लभ ए विनती उर धारिएजू।
गुन छोडि हमारि ये बावरि बांन कौ रावर ओर निहारिएजू।।१७२
१७१. बिलासन-विलास करने वाला। बध-बंधन। म्रगराज (मृगराज)-सिंह। पळासन-आमिषहारी। हूंस-अभिलाषा, इच्छा।
१७२. कीन-किये। गुन्हैं-अपराध। पर-प्रतिज्ञा, मर्यादा। बांन-वाणी। ओर-तरफ। निहारिएजू-देखे।
— 160 —
छंद महाभुजंगप्रयात (८ य. )
नमौ रांम सीतावरं औधनाथं समाथं महाबीर संसार सारं।
अनद्दं अघट्टं अरोड़ं अगंजं अनंमं अछेहं उदारं।।
अनेकं असंकं अलटं अरेसं खगां पांण आजांणबाहू खपावै।
गहीरं सधीरं रघूराज बीरं गरीबं निवाजं कवी क्यौं न गावै।।१७३
अथ वरण उपछंद वरणण तत्र आद सालूर छंद तिण लछण वरणण
दूहौ
एक करण दुजबरसु खट, सगण अंत दरसाय।
पिंगळ मत अहपत पुणै, सौ सालूर कहाय।।१७४
छंद सालूर
(ग. ग. २४ ल. स. अथवा त + ८न + ल. ग. )
पापोघ हरत अत जन चितवत।
तिन हरख करत दुख हरत हरी।।
सीतावर जसधर सुमति सदन सुभ्र।
कळुख सघन वन दहन करी।।
सारंग समथ सर सझत सुकर जुध।
असुर दसह-सिर अडर जरी।।
सौ रांम ‘किसन’ किव समर समरि।
जिहिं बिजय जिगन करि सियहिं बरी।।१७५
नोट-ग्रंथकर्त्ता ने अपने ग्रंथ में माया छंद प्रकरण में छंद, उपछंद और दण्डका भेद अति संक्षेप में बतलाया है। वहां पर लिखा है कि २४ मात्रा का छंद, २४ से २६ मात्रा तक उपछंद और छंद और उपछंद के मेल से दण्डक छंद बनता है। यहां पर वर्ण छंदों में उदाहरण में जो उपछंद दिए हैं-वे वास्तव में दण्डक वृत्तों के अंतर्गत ही आते हैं। दण्डकवृत्त का लक्षण यही है कि जिस वर्ण वृत्त में प्रत्येक पद में २६ वर्ण से अधिक वर्ण हों वह वृत्त दण्डक कहा जायेगा। वे दण्डक वृत्त भी दो प्रकार के माने गये हैं-एक साधारण दण्डक जो गणबद्ध होते हैं, दूसरे मुक्त दण्डक जो गणों के बंधन से मुक्त रहते हैं।
१७४. करण-दो दीर्घ मात्रा का नाम। दुजबर-चार लघु मात्रा का नाम। खट-(षट)-छ। अहपत (अहिपति)-शेषनाग। पुणै-कहता है।
१७५. पापोघ-पापों का समूह। हरत-मिटाता है। सदन–घर। कळुख (कलुष)-पाप। सघन-घना। सारंग-धनुष। समथ-समर्थ। दसह-सिर-रावण। जिगन-यज्ञ। सिय-सीता। बरी-वरण किया, पाणिग्रहण किया।
— 161 —
दूहौ
सौळह पनरह अखिर पर, होय जठै विसरांम।
यकतीसाखिर अंत गुरु, निहचै मनहर नांम।।१७६
छंद मनहर
छंद इकतीसौ कवित्त
कपटी कळंकी कूर कातर कुचाळ कोर,
‘किसन’ कहत कैसौ कळही अकांम हूं।
बैंडौ हूं बकौरौ हूं बुरौ हूं बेसहूर बादी,
निलज निमोही नाथ निपट निमांम हूं।।
जसहीन जुलमी जनात जीव जातना कौ,
जुगति बिनां ही झखौ झूठ जांम जांम हूं।
गरुर के गांमी सुनौ रांमचंद्र सांमी,
गाढौ गरीबी गुनाही तौ हूँ रावरौ गुलांम हूं।।१७७
अन्य कवित्त
जांनु की पुकारै जातुधांन की बिनास काजैं,
आये बेग जलपै गिरंदन की पाजके।
१७७. कातर-कायर। कुचाळ-बुरी चाल चलने वाला। अकांम-बिना मतलब का, व्यर्थं का। बैंडौ-उद्दण्ड। बकौरी-बातूनी, वाचाल। बादी-जिद्दी। निपट-बहुत। निमांम-मर्यादाहीन। जातना-यातना। गरुर-गरुड़। सांमी (स्वामी)-मालिक। गाढौ-गहरा। गुनाही-गुनहगार !
१७८. जांनुकी-सीता। जातुधांन-राक्षस। गिरंदन-पर्वत। पाज-सेतु पुल।
— 162 —
टेर प्रहळाद की सुनत नरस्यंघ रूप,
प्रगटे असंभ त्यौंही खंभते गराज के।।
बाहनें तियाग के ऊबाहने पगन धाये,
बाहर कौ जाहर रटत गजराज के।
‘किसन’ कहत रघुराज ढील कौन काज,
मेरी लाज राखिबौ भुजन माहाराज के।।१७८
छंद पुनः कवित्त
माया परिहरि रे पकरि रे चरन गुरु,
जर रे कळुख पुंज अकत न कर रे।
अंतकते डर रे न धर रे सुदेह नित,
कर रे सुक्रम सतसंग में विचर रे।।
मरत अमर रे सु कौन तुव नर रे,
पै स्रीमत को रर रे सु प्रेम द्रग भर रे।
तर रे जगत सिंधु पर रे चरन कंज,
धर रे हिये में ध्यांन राघव समर रे।।१७९
छंद पुनः कवित्त
अक्रत करन कौन लावत है बार झूठी,
करत लबार बार बार आठूं-जांम में।
तन करतार कौ विचार हू न करै नेक,
बांधत कुटंब के विटंब नेह दांम में।।
स्वारथ के काज जळ घांम सीत सहै,
नित रहत बिलंबी के अनुरूप बांम में।
एरे मन मेरे तेरे हित की कहत हूं मैं,
तजि रे अन्हेरे कांम देरे द्रग रांम में।।१८०
१७६. कळुख-(कलुष) पाप। पुंज-समूह। अक्रत-दुष्कर्म, पाप। अंतक-यमराज। सुक्रम-श्रेष्ठ कार्य, पुण्य कर्म। अमर-देवता। रर रे-स्मरण कर। सिंधु-सागर, समुद्र। कंज-कमल।
१८०. बार-समय। लबार-असत्यवादी, झूठा। बिटंब-प्रपंच। नेह-स्नेह। दांम-रुपया, पैसा। घांम-गर्मी। सीत-सर्दी। बिलंबी-संलग्न, अनुरूप, अनुकूल, समान, उपयुक्त। बांम-स्त्री। अन्हेरे-अन्य अनुचित। द्रग-नेत्र, नयन।
— 163 —
छंद पुनः कवित्त
मूत याकौ मूळ च्यार भूतते सथूळ कूंत,
गूंथ दुख सहि के अभूत पूत जाये कौ।
हाडन की माळा मांस छाळा ते लपेटी भरी,
मळ के मसाला ताळा पवन लगाये कौ।।
बिटचार आखर बिराज्यौ ऐसे पिंजरा में,
अंत उडि जेहैं पंछी बेद भेद गाय कौ।
पर उपगार केबौ देबौ कछु दांन,
सीताबर भजि लेबौ फळ पैबौ देह पाय कौ।।१८१
छंद पुनः कवित्त
पाय जुवराज मंद अंध दुरजोधन सौ,
भयौ मतिमंद रिंद फंद कर केतोई।
‘किसन’ कहत सिर धूंत बिदुर संत,
मुख भयौ बंध द्रोन भीखम सहे तौई।।
पांचूं पूत पंड के पटकि बैठे हिम्मत कौ,
चूकि गौ छभा कौ भवतव्य बस चेतोई।
द्रौपदी की लाज ब्रजराज जौ न राखै तौ,
गुलांम दुसासन तौ कलांम छीन लेतोई।।१८२
१८२. द्रोन-द्रोणाचार्य। भीखम-भीष्म पितामह। पूत-पुत्र। पंड-पांडु। छभा-सभा। भवतव्य-भवितव्य। चेतोई-ज्ञान, चेतना। कलांम-वाक्य वचन।
— 164 —
छंद पुनः कवित्त
गंग के सुथांन नख करत प्रकास भांन,
रहत सदीव उर मधि पंचमाथ के।
पापहारी प्रगट अहल्या के उधारी सिर,
मंडन सिखारी बनचारिन के साथ के।।
कोमळ बिमळ कोकनद से अरुन जे,
तलासे जुत कुंकुम सुगंध रमा हाथ के।
अकरम नास मेरे हिये बसिबौ करौ,
वे धरमनिवास ऐसे पद रघुनाथ के।।१८३
दूहौ
सोळह सोळह अखिर पर, है विसरांम हमेस।
अंत लघु घण अखिरी, वरणव छंद विसेस।।१८४
छंद घणाखिरी ब्रज भाखा कवित्त
केसव कमळ नैन संत सुख देन संभू,
भूमि पार भजतै अनेक भांत टार भय।
निपट अनाथन के नाथ नरस्यंघ नांम,
नरक निवारन नरेस्वर निपुन नय।।
१८४. अखिर-अक्षर। विसरांम-विश्राम। घण अखिरी-घनाक्षरी नामक कवित्त। घणाखिरी-घनाक्षरी।
१८५. भांत-भांति, प्रकार। नरस्यंघ-नृसिंहावतार। निपुन-निपुण, चतुर, दक्ष। नय-नीति।
— 165 —
‘किसन’ कहत करुना के निध कौसलेस,
परत सुरेस भुजंगेस औ रिखेस पय।
सियानाथ बखतन काज जन लाज रख,
जग सिरताज माहाराज रघुराज जय।।१८५
चौपई
तेरै कौड़ बीयाळी लाख, सतरै सहंस सातसै साख।
वळ छावीस कहै विख्यात, जांण छवीस वरण छंद जात।।१८६
अरथ
एक वरण सूं लगाय छाईस वरण छंद री अतरी जात छै। यथा-१३००००००० तेरै कोड़ ४२००००० बीयाळीस लाख १७००० सतरै हजार ७०० सात सै २६ छाईस। तेरै करोड़ बीयाळीस लाख सतरै हजार सात सौ छाईस अतरी छवीस वरण छंद की जात छै।
दूहा
जपिया ‘किसने’ रांम जस, एम वरण उपछंद।
अघ आंमय करसी अळग, नहचै दसरथ नंद।।१८७
संमत अठारौं असीयौ, चौथ तिथ सुद माह।
बुधवार जिण दिन जनम, लियौ ग्रंथ सुभ लाह।।१८८
इति स्री रघुवरजसप्रकास पिंगळ ग्रंथ आढा किसना विरचिते वरण छंद
वरण उपछंद नांम वरण व्रत्ति संपूरण।
१८६. बीयाळी-बयालिस। छावीस-छब्बीस। छवीस-छब्बीस। छाईस-छब्बीस। बीयाळीस-बयालिस।
१८७ आंमय-रोग। नहचै-निश्चय। नंद-पुत्र।
१८८. संमत अठारौ असीयौ-सं० १८८०। चौथ-चतुर्थी। तिथ-तिथि। सुद (सुदि)-शुक्ल। माह-माघ मास। लाह-लाभ।
— 166 —
अथ गीत छंद वरणण
दूहा
हीमत कर भज भज हरी, गांडू मत गींधाय।
धींग सदा करणौ धणी, संतांतणी सिहाय।।१
सुणिया नह तजता स्रवण, भजता नै भगवांन।
मीरां स्री अंग में मिळी, मनां रळी घर मांन।।२
सोरठौ
पेट हेक कज पात, मेट सोच संसौ म कर।
रे संभर दिन रात, नांम विसंभर नारियण।।३
अथ गीत लछण
गीत ओटपा घाटरा बांका अनै त्रिबंक।
गीत अनोखा गोखरा सूधा बणै सणंक।।
भूप रचेता भींतड़ां ईसर नीमंधी आव।
गाई तिण सूं गीतड़ां, अधक आव अहराव।।४
सोरठौ
कसै पथर कमठांण, एक ठौड़ परठै इळा।
मुख मुख नीम मंडांण, तिणसूं न डगै गीतड़ा।।५
२. स्रवण (श्रवण)-कान। रळी-आनंद।
३. हेक-एक। कज-लिए। पात (पात्र)-कवि। सोच-चिंता। संसौ (संशय)-शक, सन्देह। म-मत। संभर-स्मरण कर। विसंभर-विश्वम्भर, ईश्वर। नारियण-नारायण।
४. ओटपा-अद्भुत, विचित्र। घाट-रचना। बांका-वंक। अनै-और। त्रिबंक-टेढ़ा, कठिन। रचेता-रचने वाला, बनाने वाला। भींतड़ा-भवन। ईसर-ईश्वर। नीमंधी-रची, बनाई। आव-आयु, उम्र। गाई-वर्णन की। तिणसूं-उससे। गीतड़ां-काव्यों, छंदों। अधक-अधिक। आव-आयु। अहराव-शेषनाग।
५. कसै-कसे जाते हैं। बंधन से दृढ़ करने की क्रिया। कमठाण-मकान आदि बनाने का बड़ा कार्य। परठै-रचते हैं, बनाते हैं। इळा-पृथ्वी। मंडाण-रचना।
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अथ गीत का अधिकारी कवि
गीत की भाखा वरणण
दूहौ
अधिकारी गीतां अवस, चारण सुकवि प्रचंड।
कौड़ प्रकारां गीत की, मुरधर भाखा मंड।।६
अथ अगण दधखिर दोस हरणं
दूहौ
वैणसगाई वरणियां, अगण दधखर खैर।
थई सगाई जेण थळ, वळै न रहियौ वैर।।७
अथ गीतां की नव उक्ति, ग्यारै जथा, ग्यारै दोस।
दस वैणसगाई नांम लछण उदाहरण वरणण
दूहौ
उकतसु नव ग्यारह जथा, दोख अग्यारह दाख।
वयणसगाई दसह विध, भांणव रूपग भाख।।८
७. अगण-छंद शास्त्र में चार अशुभ गण जिनके नाम क्रमश: जगण, तगण, रगण और सगण हैं। छंद के आदि में इनका रखना अमांगलिक माना गया है। दधखिर (दग्धाक्षर)-छंद रचना में प्रथम प्रयोग न किए जाने वाले वे अक्षर या वर्ण जिनका छंदों में प्रथम उपयोग अमांगलिक माना गया है। वैणसगाई-वर्ण-मैत्री। डिंगल भाषा में गीत छंदों की रचना का एक नियम विशेष जिसमें जिस वर्ण से जो पद (चरण) शुरू होता है वही वर्ण पद की समाप्ति पर समाप्ति के अन्तिम चार वर्णों में कहीं न कहीं अवश्य लाया जाता है। इस प्रकार की वर्ण-योजना से छंद शास्त्र में जो दग्धाक्षर व अशुभ गण माने गए हैं, अगर वे छंद रचना में आ जाये तो वैण-सगाई होने से उनका दोष नहीं लगता। दधखर-दग्धाक्षर। खैर-कुशल-क्षेम। थई-हुई। सगाई-संबंध, रिश्ता। जेण-जिस। थळ-स्थान। वळै-फिर। वैर-शत्रुता, दुश्मनी।
८. उकत-डिंगल छंद रचना का एक रचना नियम विशेष। जथा-डिंगल गीतों की रचना का एक नियम विशेष जिसमें कहीं तो यह अलंकार के रूप में प्रयुक्त होता है और कहीं रीति के रूप में। दोख (दोष)-काव्य के गुणों में कमी लाने वाली साहित्य संबंधी बातें। दाख-कह। भांणव-चारण कवि, कवि। रूपग-डिंगल का गीत छंद। भाख-कह।
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छंद नव उक्ति नांम
कवित्त छप्पै
सनमुख पहली सुद्ध १ दुई गरभित सनमुख दख २।
परममुख सुद्ध प्रसिद्ध ३ अनै गरभित परमुख अख ४।।
सुद्ध परामुख सरस ५ परामुख गरभित होई ६।
सुद्ध स्रीमुख सातमी ७ सुकवि स्रीमुख संजोई ८।।
उचरजै नमी मिस्रित उकति ९ पलटै पयण दवाळ प्रति।
रघुनाथ सुजस गावण रहस, अखी ‘किसन’ नव विध उकत।।९
वारता
कैहवा-वाळा प्रसंगी रै सनमुख कवि कहै सौ सुद्ध सनमुख उक्ति कहावै।
अथ सुद्ध सनमुख उक्ति उदाहरण
दूहौ
दससिर खळ मारण दुसह, हाथी तारण हाथ।
क्रपा रूप ‘किसनौ’ कहै, निमौ भूप रघुनाथ।।१०
वारता
सनमुख अन्योक्ति कर कहणौ सौ गरभित सनमुख उक्ति कहावै, और ऊपरै कहे नै आपरा मन नै समझावजै सौ गरभित सनमुख उक्ति कहावै।
अथ गरभित सनमुख उक्ति उदाहरण
दूहौ
उचरै आळ-जंजाळ अै, व्रथा करै बकवाद।
निज मन ‘किसना’ अहनिसा, अवधेसर कर याद।।११
१०. दससिर-रावण। खळ-राक्षस। दुसह-महा भयंकर। उचरै-कहता है, वर्णन करता है। आळ-जंजाळ-व्यर्थ का बवंडर। अहनिसा-रात दिन। अवधेसर-श्रीरामचंद्र भगवान।